Sunday, 18 February 2024

दुःखों का उत्सव

 

चित्र साभार: 18-19वीं सदी के फ़्रांसीसी चित्रकार थियोडोर गेरिकॉल्ट।


हम प्राय: दुःखों को अपने जीवन का हिस्सा नहीं मानते। उन्हें जीते भी नहीं। बीत जाने देना चाहते हैं। चुपचाप।

फिर यही दुःख इकट्ठा होते हैंबाहर निकलने के लिए। जीने के लिए। और तब जाकर हम छुट्टी लेते हैंकेवल इन्हीं दुःखों का उत्सव मनाने के लिए।


Saturday, 3 February 2024

रात बाक़ी है

Paint: Hendik Azharmoko

इक घड़ी और ठहर जा

कि रात बाक़ी है!

तड़पता छोड़कर ना जा

अधूरी बात बाक़ी है!!


यूँ न समझ कि इश्क़ का मारा हूँ,

जितना हूँ, जो कुछ हूँ तुम्हारा हूँ!

तालिब-ए-इल्म हूँ, सीखा कहाँ कुछ भी

जाना है हर्फ़ पहला, पाठ बाक़ी है!!

तड़पता छोड़कर ना जा... (१)


होने से तेरे आता है सुकूँ ये कहाँ से

पहलू में तू रहे, तो नाता क्या जहाँ से!

क्या जुस्तजू है तू मेरी, मुझको नहीं पता

कहना है मगर सार, जज़्बात बाक़ी है!!

तड़पता छोड़कर ना जा... (२)


तू फ़िक्र है मेरी, मेरे अख़लाक तुझी से

मेरे गीतों के अल्फ़ाज़, हों पाक तुझी से!

मैंने पाया है आब-ए-हयात की तरह तुझको

मेरी जाँ ठहर, मुलाक़ात बाक़ी है!!

तड़पता छोड़कर ना जा... (३)

 


Monday, 1 January 2024

फ़तेहपुर आख़िर आज भी पिछड़ा क्यों है?

 

छायाः स्वयं

    जनसंख्या की दृष्टि से भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के आठ जिले विकास के नजरिए से आकांक्षी जिलों की श्रेणी में शामिल हैं। सेहत और पोषण, कृषि-जल संसाधन, कौशल विकास, शिक्षा और बुनियादी ढाँचों के निर्माण में ये सभी जनपद काफी पिछड़े माने जाते हैं। इनमें चार जिले सिद्धार्थनगर, बलरामपुर, श्रावस्ती और बहराइच तराई के इलाकों वाले जिले हैं, जो अपनी नैसर्गिक चुनौतियों के कारण पिछड़े हुए हैं। ऐसे ही तीन जिले चित्रकूट, चंदौली और सोनभद्र, जो विन्ध्य पर्वत श्रृंखला के पठारी इलाके हैं, भी अपनी नैसर्गिक चुनौतियों के कारण ही पिछड़े हुए हैं। इन सभी सातों जिलों की भौगोलिक चुनौतियाँ इन्हें मुख्य धारा से पीछे कर देती हैं।

जबकि जनपद फतेहपुर के पास ऐसे कोई भी नैसर्गिक कारण नहीं है, जो इसके पिछड़े होने की दशाएँ निर्मित करें। बल्कि इससे उलट फतेहपुर के नैसर्गिक कारक इसे बेहद सम्पन्न बनाए हुए हैं। मसलन पहली ही स्पष्टता यूँ समझिए कि निचले दो-आब में अवस्थित यह एक अन्तर्वेदी जनपद है, जो अत्यंत उपजाऊ है, क्योंकि इस इलाके का भू एवं जल संसाधन गंगा एवं यमुना अपवाह-द्रोणी में स्थित है। इसके अलावा दो अन्य नदियों ससुर खदेरी-1 और ससुर खदेरी-2 की अपवाह-द्रोणी में भी यहाँ का विपुल क्षेत्र सम्मिलित है। इस प्रकार, दो-दो अपवाह-द्रोणियों के दो-आब के बीच बसे इस जनपद की मिट्टी सोना है।

इतना ही नहीं, इस जनपद फतेहपुर में गंगा की एक अन्य सहायक नदी पाण्डु भी इसके दक्षिण-पश्चिमी इलाके को समृद्ध बनाती है। इसके अलावा यमुना की भी दो सहायक नदियाँ रिन्द और नोन भी इस जनपद की अन्य नदियाँ हैं, जो इसे उपजाऊ बनाती हैं। इस प्रकार, अकेले इस जनपद फतेहपुर में कुल सात नदियाँ बहती हैं। इससे इतर यहाँ अनेक समृद्ध झीलें और सैकड़ों तालाब भी हैं।

4,152 वर्ग-किलोमीटर क्षेत्रफल वाले इस जनपद की कुल जनसंख्या 26 लाख 32 हजार 733 है। इसके अनुपात में यहाँ विभिन्न साधनों द्वारा स्रोतानुसार वास्तविक सिंचित क्षेत्रफल 2 लाख 30 हजार 5 हेक्टेयर है। ताजा आँकड़ों के अनुसार जनपद में नहरों की कुल लम्बाई 1,450 किलोमीटर है। यहाँ 777 पक्के कुएँ, 59 भू-स्तरीय पम्पसेट तथा 511 राजकीय नलकूप हैं। इसके अलावा व्यक्तिगत नलकूप और पम्पसेटों की कुल संख्या 41,857 हैं।

इस संबंध में जनपद के आधुनिक इतिहास पर नजर दौड़ाएँ, तो भी हमें हैरान करने वाले तथ्य ही मिलते हैं। मसलन इसके दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में बसे कस्बा खजुहा को देखें, तो यहाँ मुगल स्थापत्य का आखिरी चारबाग है। बारादरी युक्त बाग निर्माण की परंपरा में कहीं-कहीं इन्हें बाग बादशाही के रूप में भी पहचाना जाता है। औरंगजेब द्वारा निर्मित खजुहा की बाग बादशाही मुगलिया बारादरी-युक्त चारबाग परंपरा की आखिरी निशानी है। यहाँ औरंगजेब की पवेलियन भी है।

वास्तव में, यहाँ चारबाग होने के मायने ये हैं कि यहाँ के लोग जल-आपूर्ति के लिए उपयोग में लाई जाने वाली बावलियों, हौज, नहर जैसी बड़ी-बड़ी नालियों, नहरों और शाही तालाबों की निर्माण-शैलियों और उनके उपयोग के तरीकों से बेहद नजदीक और बारीकी के साथ परिचित रहे होंगे। उसके बाद भी ब्रिटिशकाल में खजुहा नील के संवर्धन में एक महत्वपूर्ण नगर के रूप में जाना जाता रहा। यकीनन, यह सब तभी संभव है, जब यहाँ उसके संवंर्धन की कला और संसाधान पर्याप्त मात्रा में मौजूद रहे होंगे।

ऐसे ही, जनपद के उत्तर-पूर्वी व मध्य-उत्तरी इलाकों में झीलों की सुव्यवस्थित शैली के आधुनिक प्रमाण भी मौजूद हैं, जो बताते हैं कि यह जनपद कृषि-जल संसाधन, कौशल विकास और उसके बुनियादी ढाँचों के निर्माण में अभी हाल ही तक कितना अधिक सम्पन्न रहा है। लगभग हर तहसील में मौजूद पक्का तालाब भी यहाँ की समृद्धि और सुदृढ़ता की गवाही देने वाले हैं।

वास्तव में, यह बिना शिक्षा के संभव नहीं। जाहिर तौर पर इस जनपद की बौद्धिक परंपरा आदि से ही उन्नत रही। भृगु की ज्ञान परम्परा का यह प्रवाह संत चंद दास से होता हुआ आधुनिक-काल में पद्मभूषण अल्लामा नियाज फतेहपुरी और उनके शागिर्द फरमान फतेहपुरी तक आया। हसरत मोहानी की तालीम भी यहीं हुई। यहाँ की ज्ञान परंपरा आज भी आला उरूज पर है। प्रयाग शुक्ल, सलीम आरिफ, असगर वजाहत और दीपक साधु जैसे पंडित उसके प्रतिमान हैं। मौजूदा वक्त में यहाँ शिक्षा का बाजार और भी अधिक आकर्षक बना हुआ है। फिर शिक्षा में यह कैसे पिछड़ा (यदि पिछड़ा), इसकी तफ्सील से पड़ताल की जानी चाहिए।

67.43 प्रतिशत साक्षरता वाले इस जनपद में निवास करने वाले लोगों की फितरत को समझना होगा कि किन कारणों से यहाँ के लोग सभी महत्वपूर्ण दशाएँ मौजूद होने के बाद भी शिक्षा से कोसों दूर बने हुए हैं। आँकड़ों को देखें तो यहाँ 2147 प्राथमिक विद्यालय (शिक्षकों की संख्या- 8770), 1461 उच्च प्राथमिक विद्यालय (शिक्षकों की संख्या- 4498), 494 माध्यमिक विद्यालय (शिक्षकों की संख्या- 4596), 54 महाविद्यालय (शिक्षकों की संख्या- 1619), 22 स्नात्कोत्तर महाविद्यालय (शिक्षकों की संख्या- 310) तथा 19 औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (शिक्षकों की संख्या- 222) हैं। इसके अलावा यहाँ 2 पॉलीटेक्निक्स, 1 शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान और 1 मेडिकल कॉलेज भी है।

दिलचस्प है कि यह जनपद फतेहपुर उत्तर प्रदेश के चारों प्रमुख उपभागों- बुंदेलखण्ड, रुहेलखण्ड, अवध और पूर्वांचल का केद्र-बिन्दु भी है। हासिल यह कि वास्तव में यह अकेला जनपद फतेहपुर बुंदेलखण्ड, रुहेलखण्ड, अवध और पूर्वांचल में से पूरी तरह से किसी के भी हिस्से में नहीं आता। हालाँकि इसके पूर्वी छोर की ताल्लुका खागा कभी अवध के राजस्व का हिस्सा जरूर थी। लेकिन जनपद फतेहपुर को पूरी तरह से अवध का कह देना कहीं से भी तार्किक न होगा। इसके बरक्स यह भी है कि फतेहपुर जनपद के पूर्वी भाग में पूर्वांचली, यमुना से सटे दक्षिण में बुंदेली, पश्चिम में रूहेली और गंगा किनारे उत्तर में अवधी संस्कृति का बोध मिलता है। यह इस जिले का भौगोलिक-सांस्कृतिक वैशिष्ट्य है।

एक और बात इसके सन्दर्भ में जानने लायक यह है कि फतेहपुर के पश्चिम में भारत का मेनचेस्टर कानपुर इस जिले से सटा हुआ है और पूरब में प्रयागराज दूसरा महानगर स्थित है। ऐसे में, तमाम विविध महानगरीय सहूलियतें भी इस जनपद को आसानी से सुलभ हैं। ग्राण्ड ट्रण्क रोड हो या फिर दिल्ली-हावड़ा रेल-मार्ग दोनों ही इस जनपद से होकर गुजरते हैं। ऐसे में, दिल्ली और कोलकाता से सहज जुड़ पाना इसे आसानी से मयस्सर है। इन सबके बाद भी यह आज तक आखिर पिछड़ा क्यों बना रह गया, ये न केवल एक विचारणीय अपितु चिंताजनक पहलू है।

फिर भी जब मैं और अधिक खोजता हूँ कि फतेहपुर आखिर आज भी पिछड़ा क्यों है, जबकि यहाँ से विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री और हरिकृष्ण शास्त्री केन्द्रीय मंत्री रहे हैं; इधर बीत रहे दस सालों में साध्वी निरंजन ज्योति के रूप में इस जनपद ने एक और केन्द्रीय मंत्री दिया है, तो माथा और अधिक ठनक जाता है। सोचता हूँ कि ऐसी कौन सी अभिशापित माया है, जिसके दंश से पीड़ित यह जनपद आज भी विकास का आकांक्षी बना हुआ है, जबकि परिस्थितियाँ एकदम अनुकूल हैं कि यह मुख्यधारा में रहे। या कि यहाँ के रहवासी ही इतने दीन-हीन हैं कि वह कभी मुख्य धारा में आने के लिए जोर ही नहीं लगाते।

देखा जाए तो उपजाऊ भूमि, सिंचाई की समुचित व्यवस्था और बेहतर शिक्षा के होते हुए यहाँ सेहत और पोषण में पिछड़ापन होने की गुंजाइश भी नहीं बनती। फिर यह जनपद फतेहपुर आखिर इतने लम्बे समय से पिछड़ा क्यों बना हुआ है और इसका जिम्मेदार कौन है, इन सब तमाम बातों पर गहराई से विचार करने की जरूरत है। तभी हमें इस आकांक्षी जिले की माया का पता चल सकेगा। या फिर यह पिछड़ा बने रहने का कोई प्रायोजन है? क्योंकि नैसर्गित रूप से तो यह जिला बेहद सम्पन्न है। संभव है यहाँ के लोगों और उनके विचार व रवैये के कारण यह आज तक पिछड़ा ही बना हुआ है। बहरहाल, इतना तो तय है कि इस आकांक्षी जिले की माया यहाँ रहने वाले लोगों के मिजाज से ही बनी है, ये कहना गलत नहीं!

Monday, 25 December 2023

मासिक-धर्म की स्वच्छता को लेकर आज भी जटिलता क्यों?

PC: www.jagran.com

मेरी बचपन की दोस्त है, जिसकी शादी कुछ सालों पहले ही एक टियर-2 शहर में हुई थी। हाल ही में सालों बाद उससे मेरी लम्बी बातचीत हुई। उसने मुझे बताया कि कैसे वह अपने दकियानूस ससुराल वालों के कारण काफी बीमार हो गयी थी, जो अभी भी पूरी तरह से ठीक नहीं हो पायी है। और अपने बेहतर स्वास्थ्य की ओर बढ़ने लिए उसे न केवल अपने ससुराल वालों से झगड़ा करना पड़ा, बल्कि उसके पति के साथ भी उसकी लड़ाई हो गई और अंत में वह ससुराल छोड़कर अपने मायके चली आई।

मामला उसके बेहतर रजोनिवृत्ति से जुड़ा हुआ था। मानना मुश्किल है, लेकिन उसके पति समेत ससुराल के लोग उसके मासिक-धर्म की स्वच्छता को लेकर उसे सहयोग नहीं करते थे। वह बताती है कि महीने में एकाध सेनेटरी पैड उपलब्ध कराने को छोड़कर उसका पति कभी उसकी मदद नहीं करता था। वह औसत धनी हैं, लेकिन महावारी की स्वच्छता को लेकर सगज नहीं। मजबूरी में उसे कपड़े के इस्तेमाल के लिए मजबूर होना पड़ा। वह बताती है कि यूँ तो वह कपड़े के इस्तेमाल के दौरान स्वच्छता का ध्यान रखती थी, लेकिन उससे कब-कहाँ-कैसे चूक हुई, कि उसे लम्बे समय तक इंफेक्शन से जूझना पड़ गया।

वास्तव में, महिलाओं और लड़कियों को मासिक-धर्म होता है और इससे अगली पीढ़ी का जन्म होता है। यह एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। लेकिन आज भी न केवल हमारे देश में, बल्कि दुनिया के तमाम देशों में यह एक टैबू की तरह बना हुआ है। इसकी स्वच्छता को लेकर जागरुकता में कमी गाँव, कस्बों और शहर हर जगह बड़े पैमाने पर है। लोग भूल जाते हैं कि रजोनिवृत्ति महिलाओं के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, फिर भी मासिक-धर्म को लेकर आज भी हमारे आसपास बहुत सारे कलंक और चुप्पियाँ हैं, जो महिलाओं के स्वास्थ्य की जटिलताओं का कारण बनती हैं।

जल आपूर्ति एवं स्वच्छता सहयोग परिषद की प्रकाशित मैन्युअल-रिपोर्ट की मानें तो एक महिला को चालीस वर्ष के अपने जीवनकाल में लगभग हर महीने अधिकतम पाँच से छह दिनों तक मासिक-धर्म होता है, जो कि करीब 3000 दिनों या लगभग आठ सालों के बराबर है। यद्यपि दुनिया की आधी आबादी पर इस महत्वपूर्ण घटना का सीधा प्रभाव पड़ता है और मानव जीवन-चक्र में इसकी निर्णायक भूमिका है। इसके बावजूद मासिक-धर्म या माहवारी अब भी एक ऐसा विषय है, जिसकी अरबों लोग चर्चा तक नहीं करते हैं। ये हैरानी की बात है कि मासिक-धर्म द्वारा पैदा हुई शर्म और गोपनीयता के कारण इसके साथ जुड़ी हुई जरूरतों को कई देशों में नजरअंदाज किया जाता है। मासिक-धर्म की स्वच्छता और उसके स्वास्थ्य संबंधी संसाधनों की चर्चा तक नहीं होती।

हालाँकि इधर के कुछ सालों में इस सन्दर्भ में भारत में औसतन बेहतर प्रयास हुए हैं। पहली बार भारत सरकार ने मासिक-धर्म स्वच्छता प्रबंधन (एमएचएम) के विषय को एक महत्वपूर्ण नीतिगत मुद्दा बनाया है। इस दिशा में यह भी एक प्रतिमान बना, जब प्रधानमंत्री ने साल 2020 में लाल किला की प्राचीर से अपने स्वतंत्रता दिवस के संबोधन के दौरान विशेष रूप से मासिक-धर्म स्वच्छता प्रबंधन के बारे में बात की।

इसके अलावा भारत में स्वच्छता को संविधान में राज्य सूची के अंतर्गत सम्मिलित किया गया है। जाहिर तौर पर इसमें मासिक-धर्म से संबंधित स्वच्छता भी शामिल है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा भी पानी और स्वच्छता तक पहुँच को मानवाधिकारों के रूप में मान्यता दी गई है। इसमें भी महावारी की स्वच्छता सम्मिलित है। यह भी एक प्रभावकारी बदलाव है कि भारत में 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियम के बाद से स्वच्छता स्थानीय निकायों की जिम्मेदारी हो गई है।

ऐसे में, बेहतर होगा यदि भारत में स्थानीय निकायों द्वारा हर मोहल्ले में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की तर्ज पर उनके सभासदों या पार्षदों की देखरेख में हर जरूरतमंद महिला तक सेनेटरी नैपकिन की उपलब्धता को निःशुक्ल मुहैया कराना सुनिश्चित किया जाए। तब निश्चित रूप से भारत का यह प्रयास दुनिया को मार्ग दिखाने वाला होगा और महिलाओं की महावारी के स्वच्छता-संबधी प्रयासों में मौलिक और प्रभावकारी प्रयास सिद्ध हो सकेगा। इसे सरकार अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से थोड़ा मुश्किल से ही सही, मगर निकट भविष्य में पूरा जरूर कर सकती है।

बीते सप्ताह नई दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में हाशिये पर मौजूद, दूरदराज और कमजोर आबादी पर ध्यान केंद्रित करती हुई सुलभ स्वच्छता मिशन फाउंडेशन द्वारा भारत में मासिक-धर्म स्वच्छता-प्रबंधन पर एक व्यापक शोध-रिपोर्ट सामने आई है, जिसमें देश के दूर-दराज के इलाकों में विभिन्न समुदायों वाले 22 ब्लॉकों और 84 गाँवों की 4839 महिलाओं और लड़कियों का नमूना शामिल किया गया। इस रिपोर्ट में ये बात सामने आई है कि लड़कियाँ स्कूल के शौचालयों में पानी, साबुन, स्वच्छता की कमी और दरवाजे नहीं होने जैसे प्रमुख कारणों की वजह से मासिक-धर्म के दौरान इनका उपयोग करने से डरती हैं। स्कूल के शौचालयों से संबंधित यह डर मासिक-धर्म चक्र के दौरान लड़कियों को स्कूलों से अनुपस्थिति होने के लिए मजबूर करता है। इस कारण मासिक-धर्म चक्र से गुजरने वाली लड़कियाँ एक वर्ष में करीब 60 दिन स्कूलों से अनुपस्थित रहती हैं अथवा असुविधाओं का सामना करते हुए स्कूल जाती हैं। ऐसा ही हाल निजी-सरकारी क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं का भी है। इसलिए अति आवश्यक है कि स्कूल-कॉलेजों और सभी कार्यस्थलों पर मासिक-धर्म स्वच्छता-प्रबंधन किट का स्थान बने। सामुदायिक मान्यताओं और वर्जनाओं को दर्शाते इस अध्ययन में भारत के सात राज्यों- असम, बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, महाराष्ट्र, ओडिशा और तमिलनाडु के 14 जिलों को शामिल किया गया था, जिनमें 11 आकांक्षी-जिले भी शामिल थे।

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि मासिक-धर्म के दौरान रक्त-प्रवाह को अवशोषित करने के लिए मासिक-धर्म स्वच्छता उत्पादों तक लड़कियों की पहुँच न होना एक मौलिक समस्या है, जिसे सरकारों और समाज को आसान बनाना है। वरना लाखों लड़कियाँ मासिक-धर्म के बेहतर स्वास्थ्य से लगातार वंचित बनी रहेंगी। हालाँकि उन्हें यह सलाह दी जाती है कि जब वे कपड़े का इस्तेमाल करें, तो गर्म पानी और साबुन से कपड़े का एक टुकड़ा साफ करें। यदि कपड़ा पुराना है और लंबे समय से प्रयोग में नहीं लाया गया है, तो उसे स्वच्छ बनाने के लिए एंटीसेप्टिक घोल का उपयोग करें। लेकिन हकीकत यह भी है कि बहुत सी लड़कियाँ खासकर ग्रामीण इलाकों की औरतें एंटीसेप्टिक घोल का खर्च भी वहन नहीं कर सकती हैं। इसलिए और जरूरी हो जाता है कि सरकारें और स्वयंसेवी संस्थाएँ इस ओर अधिक गतिशीलता से ध्यान दें और हर घर स्नेटरी पैड उपलब्ध कराने की महती योजना बनाएँ।

फिलहाल इन दिनों चार सबसे अधिक इस्तेमाल किए जाने वाले मासिक-धर्म स्वच्छता उत्पाद अधिक प्रचलन में हैं। इनमें नियमित टैम्पोन, सेनिटरी पैड, पैंटी-लाइनर और सुपर-शोषक टैम्पोन शामिल हैं। कम संख्या में ही सही, लेकिन कुछ लड़कियाँ आंतरिक मासिक-धर्म कप या पीरियड अंडरवियर का भी उपयोग करती हैं। सरकारें इनमें से किसी भी उत्पाद को, जो उन्हें अधिक सहूलियत दे, उसे चुनकर सभी महिलाओं तक इसकी पहुँच को सुनिश्चित करने हेतु अभियान छेड़े। इस क्रम में सुलभ स्वच्छता मिशन फाउंडेशन ईको-फ़ेडली सेनेटरी पैड बनाने की दिशा में भी काम कर रहा है, जो बेहद रोचक है।

इसके अलावा समाज को भी इसमें भागीदार बनना पड़ेगा। इसका सबसे सरल रास्ता है कि वह अपने घर की लड़कियों और औरतों से इस बारे में खुलकर बातें करने का वातावरण निर्मित करें। सुलभ के अध्यक्ष कुमार दिलीप ने अपना किस्सा साझा करते हुए बताया कि उनकी बेटी अपनी महावारी की स्वच्छता की जरूरतों के मामले में उनसे खुलकर बातें करती है। वह उसकी माँ की अनुपस्थिति में कई बार अपनी बेटी को अस्पताल भी लेकर जा चुके हैं। यकीकन देश के तमाम पिताओं, मित्रों, प्रेमियों, भाइयों और पतियों के लिए यह प्रेरणादाई है।

वास्तव में, हमें समझना होगा कि लड़कियों और औरतों में महावारी के दौरान की स्वच्छता का यह मामला केवल स्वच्छता और सफाई तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह उनके आराम, गर्व, सम्मान, आत्मविश्वास और इससे संबधित माँग को भी पैदा करने की बात करता है, ताकि महिलाएँ और लड़कियाँ हर समय बिना किसी शर्म और डर के समाज में गौरव के साथ जी सकें।


Sunday, 19 November 2023

रंगतें...


आई हैं रंगतें, जब से तुम हो मिले!

कुछ नए गुल खिले, कुछ नए दिल मिले!!

 

वक़्त बदला नज़र, आ रहा है ख़ुला!

स्वाद ममता का है, चंद्रिका सा घुला!!

हमने देखे बहुत हैं, जी कौतुक मगर...

क्या ग़ज़ब ढा रहे हैं, नए सिलसिले...

कुछ नए गुल खिले, कुछ नए दिल मिले।

आई हैं रंगतें...(१)

 

हैं नज़ारें क़सम से, मिज़ाज-ए-सुखन!

आते प्राणों में भी प्राण, ऐसी छुअन!!

तेरी नज़रों में देखा है, मैंने जिन्हें...

हैं रक़ीबा वो कितनों के, दिल हैं जले...

कुछ नए गुल खिले, कुछ नए दिल मिले।

आई हैं रंगतें...(२)

 

मैंने पाई है भावज, मेरा भाग्य है,

वात्सल्यों की पावस का, सौभाग्य है!

है अमित प्रेम करती, वो जग से भला,

मन में करुणा है उसके, वो ऐसी कला!!

हैं वो पापी अभागे, मनुज देव सब,

जिनके मन में बसे हैं, गिले ही गिले...

कुछ नए गुल खिले, कुछ नए दिल मिले।

आई हैं रंगतें...(३)

Tuesday, 7 November 2023

मोर सखा...

अवध-भूमि के स्वच्छ-गगन में,

इक बाल हँसा, इक़बाल हँसा!

रमामाई मय एकदशी को,

जन्मलिया था मोर सखा!!

 

ले वैशेषिक की परादृष्टि,

स्नेहिल-तुषार की शुभ्र-वृष्टि!

जिसके जन्मे से धन्य सृष्टि,

मुझे अतिप्रिय है वो, लो स्पष्टि!!

 

वो सामवेद का साक्षी है,

विद्याश्री-युत् उसकी आभा!

रमापुत्र चिक्लीत वही,

वो देवसखा-सा गांभीर्य!!

 

रेशू उस देह विराजी है,

वो वाम अंग सौभाग्यी है!

दक्षिण में उसके अमित शक्ति,

हृदयस्थल पर निश्चल भक्ति!!

 

वो लगता सबका हमदम सा,

उद्देश्य में जैसे कर्दम सा!

वो तेजेश्वर है जातवेद,

औ यदा-कदा मेरे श्रीप्रदा!!

 

वो तिग्म-अंशु लावण्यपूर्ण,

सिर पर इक जटा निराली है!

काम-क्रोध-मद-लोभ विजयी,

वो शिव का जैसे आली है!!

 

वो तूबा है हर संगत की,

पारद-समान गुण रंगत की!

वो स्वर्ण-भस्म जाँचा-परखा,

जन्म लिया था मोर सखा!!

 

हाँ, अवध-भूमि के स्वच्छ-गगन में,

इक बाल हँसा, इक़बाल हँसा!

रमामाई मय एकदशी को,

जन्मलिया था मोर सखा!! 


Sunday, 10 September 2023

सिगरेट पीती लड़कियाँ

 

Paint: Miri Baruch


सिगरेट पीती लड़कियाँ

लुभाती हैं लबों को

कि खैंचकर सोख लें

होठ मेरे इक कश

कँसकर कश को खींचा है

जिन होठों ने, इसी वक़्त

ठहर सा गया है

सब कुछ...

ख़ुल गयी हैं इंद्रियों की खिड़कियाँ

क़सम से

इतना लुभाती हैं ये

सिगरेट पीती लड़कियाँ! (1)

 

वहम नहीं

ये हक़ीक़त बयाँ है

उठती है पुलक मन में

दिल मचल जाता है

टकराता है कलेजे से

जहाँ जम जाती हैं धुएँ की संततियाँ

 बदन रुकता है देखकर

इन सुन्दरियों को

जो और भी सुन्दर नज़र आती हैं

लगाते हुए आग मुहाने पर

हर बार लाइटर से उठती लौ

बढ़ा जाती है नूर इनके चेहरे का

जो गर्वित आभा में डूब जाता है

खींचते हुए पहला कश, हर बार

नज़र आता है नज़रों में इनके

किसी योद्धा सा अभिमान

मानों अम्बुश लगा गई हों शर्तिया

इतना लुभाती हैं ये

सिगरेट पीती लड़कियाँ! (2)

 

हरेक कश के बाद

पाते हैं मसृण-अधर

रसना के सरकने से वो एहसास

पाता है कोई तपता-निर्वासित

जैसे लोटकर गंगा-रेती का सुकून

वैसा ही मिलता है इधर भी

हासिल, होता है स्त्री को असीम सौन्दर्य

लजाती है खाड़ी फारस की

फूटती हैं ज्वालामुखियाँ, चारों तरफ़

आग लगती है ख़्यालों में

धूप लगती नहीं, ग़र धूप हो

प्यास बुझती नहीं, चाहे कूप हो

ठहर जाते हैं सभी

चाहे रंक हों या भूप हों

मोहती हैं इस कदर से शक्तियाँ

कमाल हैं न!

ये सिगरेट पीती लड़कियाँ! (3)