Sunday, 29 November 2015

सिगरेट


• अमित राजपूत


उड़ा दो धुएँ से अतीत को
टूट कर गिरी है जो भद्दी राख
आज की आबोहवा के हल्के झोंके में
ऐश-ट्रे से उड़ जाने दो उसे।

हलक तक जाए जो ये काला धुआँ
तो खींच लो शौक से
आहिस्ता-आहिस्ता...
फिर खाँसो इस क़दर
कि झोंझ भर बलगम गिरे
खींच लाया हो जो नासूर सारे,
जख़्म बनकर
कोशिकाओं को जो छलनी कर रहा है आज भी

आसमान सारा सूना पड़ा है तुम्हारे लिए
भरो रंग जो सुकूँ दे ख़ुद को
उड़ा दो...
उड़ा दो धुएँ से अतीत को
उड़ा दो।