हम जानते हैं कि भारत की आत्मा गांवों में
निवास करती है। ऐसा यहां के ग्रामीण समाज के कारण है, जिसका मुख्य ध्रुव कृषि है।
कृषि के साथ यहां का जन जुड़कर किसान बनता है और इनकी सुन्दरता ही ग्रामीण परिवेश
को निखारती है। किन्तु यह भी ध्यान रहे कि यदि ग्रामीण समाज में कृषि प्रमुख है तो
उस कृषि का केन्द्र पशु है। इसलिए कृषि के लिए और किसान के लिए भी पशुधन बहुत
महत्वपूर्ण है। यानी जिस तरह से शिक्षक, शिक्षार्थी और पाठ्यक्रम के आपसी समन्वय
के बिना किसी संश्लेषित ज्ञान की आकांक्षा नहीं की जा सकती है, ठीक उसी तरह से
कृषि, कृषक और पशुधन के मेल और उसकी परस्परानुकूलता के बगैर एक सहज जीवन की कल्पना
नहीं की जा सकती है और ये उम्मीद भी नहीं की जा सकती है कि इनमें से बगैर एक के भी
किसी का भी कोई विशेष अस्तित्व ही है।
कृषि या खेती के लिए किसान जितना महत्वपूर्ण
होता है उतना ही पशु भी महत्वपूर्ण होता है। एक किसान के लिए बिना पशुओं के अच्छी
खेती की उम्मीद करना व्यर्थ है। ठीक ऐसे ही एक पशु के लिए भी कृषि या उसके तमाम
आहार सम्बन्धी चीज़ों की पैदावार बिना कृषक के कहां सम्भव है। अतः कृषि, कृषक और
पशुओं का एक ज़बरदस्त सहज व स्वाभाविक चक्रण होता है। इस चक्रण के मन्द होने पर
अथवा कमज़ोर होने पर तीनों एक साथ समान ढंग से प्रभावित होते हैं। इसलिए यदि हम
सोचें कि खेती में पैदावार की झार के लिए पशुओं का सहारा न लेकर बहुत ज़्यादा
मशीनों और रसायनों पर निर्भरता बढ़ा ली जाए अथवा यदि किसान यह सोच लें कि पशुधन को
नज़रअंदाज करके निकदा खेती पर ही ध्यान केन्द्रित कर लिया जाये तो स्वभावतः यह
निश्चय मानिए कि कृषि, कृषक और पशुओं के इस चक्रण को कमज़ोर करने की दिशा में यह
एक प्रयास होगा, और इस चक्रण का कमज़ोर होना न तो कृषि के हित में होगा और ना ही
किसान के हित में। इसलिए हमें इस चक्र का संतुलन बनाकर ही चलना होगा और आज के
परिप्रेक्ष्य में ख़ास तौर पर पशुपालन की ओर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है क्योंकि
लम्बे समय से पशुओं का नाता किसान और खेती दोनों से औसत दूर होता देखा गया है।
मानव हित के लिए पशुओं को पालने का मुद्दा मनुष्यों
तथा पशुओं के बीच सम्बन्ध पर पशुओं की स्थिति तथा लोगों के दायित्व पर निर्भर करता
है। हमने देखा है कि किसानों की देखभाल में रह रहे पशुओं को अनावश्यक रूप से कष्ट
नहीं उठाना पड़ता है। हालांकि आज किसानी से पशुधन का तत्व लगभग नदारत सा हो रहा
है। लोग मशीनों और रसायनों पर अधिक निर्भर होते चले जा रहे हैं। इसके पीछे सबसे
बड़ा कारण उनके द्वारा त्वरित परिणाम की महत्वाकांक्षा होती है। लेकिन उनको नहीं
पता है कि उनकी इस महत्वाकांक्षा ने कृषि, कृषक और पशुधन के प्राकृतिक चक्रण को
नष्ट करने का प्रयास किया है, उनके द्वारा प्रकृति को चुनौती देने का प्रयत्न किया
गया है। इसका परिणाम भी हमारे सामने है कि आज जबकि जनसंख्या इतनी अधिक बढ़ गयी है,
कृषि के लिए रुचिकर लोग आपको ढूढ़ने से भी कम मिलेंगे और उसमें भी जो हैं उनमें वह
कौशल अब नहीं रहा क्योंकि उनकी प्रकृति ही अब वह नहीं रही, यंत्रीकरण के भयानक दौर
में उनमें वो क्षमताएं भी अब विलुप्त हो रही हैं। अब उनके शरीर में वह बल नहीं
बचा, मौसम के अनुकूल काम करने की उनकी क्षमताएं भी नष्ट हो रही हैं और सबसे
महत्वपूर्ण यह कि किसानी के लिए रह रहकर उनकी रुचियां भी डगमगाती नज़र आती रहती
हैं। इन सबका एकमात्र कारण कृषि, कृषक और पशुधन के चक्र का कमज़ोर होना, उसका
शिथिल होना है।
आज लोग भूलते जा रहे हैं कि पशु मनुष्य को
मनुष्य से ही नहीं बल्कि प्रकृति से भी प्रेम करना सिखाता है। प्रकृति प्रदत्त
समस्त चीज़ों से लगाव पैदा करता है पशुपालन। जैसे वनों में रहने वाले का प्रकृति
के साथ एक आत्मीय लगाव हो जाता है, ठीक
वैसे ही पशुओं के बीच रहने में भी उनसे आपका एक आत्मीय लगाव होता है। ये एक
प्राकृतिक परम्परा है। इसे पशुओं के बीच रहने वाला ही समझ सकता है। वर्तमान समय
में किसानों के पुनरोत्थान और ग्रामीण सशक्तिकरण के लिए तो पशुधन बहुत ही
महत्वर्पूण है, क्योंकि ग्रामीण जीवन
की धुरी यानी कृषि से पशुपालन या पशुओं का एक स्वाभाविक सम्बन्ध होता है।
यदि हम देखें तो कृषि उत्पादन के लिए जितनी
भूमि की आवश्यकता है, पशुओं की आवश्यकता उससे कम नहीं है। बैलों द्वारा कृषि कार्य
करना हमारी चिर पुरातन एवं दोषमुक्त परम्परा है। कृषि से उत्पादित खाद्य पदार्थों
से लोगों का पेट भरकर उनकी भूख मिटती है और वे जीवित रहते हैं, अखाद्य कृषि
पदार्थों की उपज से पशुओं का पेट भरता है, उनकी भूख मिटती है और इससे उन्हे
जीवन-प्रवाह प्राप्त होता है। वस्तुतः पशुपालन भी जनजीवन का पूरक तत्व है।
‘विराट पुरुष’
अर्थशास्त्री नाना जी देशमुख के विचारों को समझते हुए देखते चलें तो हमें वहां भी
स्पष्ट होता दिखाई पड़ता है कि पश्चिम में जन्मी औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप
गांवों की शहरीकरण की ओर उन्मुक्तता और खेती के मशीनीकरण की प्रक्रियाएं आरम्भ
हुईं। वहां यंत्रशक्ति द्वारा ज़मीन की जुताई की जाने लगी। अधिक से अधिक अन्न
उत्पादन की लालसा से कृत्रिम ख़ाद का आविष्कार हुआ। कृत्रिम ख़ाद के उपयोग से
उत्पादन में वृद्धि हुई, इसलिए उसका उपयोग बढ़ता गया। पश्चिम का जीवन शहरी प्रधान
होने के कारण नगरों की आवश्यकता पूर्ति को ही प्राथमिकता दी जाने लगी पश्चिम में
पशुओं के विकास का मात्र इतना ही अर्थ रह गया कि नगरवासियों के लिए आधिकाधिक दूध
एवं मांस कैसे उपलब्ध कराया जाए। कृषि का पूर्ण मशीनीकरण हो जाने के कारण बैलों का
उपयोग मांस देने के अलावा कुछ नहीं रह गया यह बात तब किसी ने नहीं सोची कि फसलों
के विकास की प्रक्रिया जैविक है। उन्हे यह मालूम होना चाहिए कि कृषि उत्पादन के
लिए काम आई हुई भूमि की उपजाऊ शक्ति की क्षतिपूर्ति जैविक ख़ाद द्वारा ही सम्भव
है। रासायनिक उर्वरक भूमि की उर्वरा-शक्ति नहीं बढ़ा पाते हैं, वह भूमि में
उत्तेजना मात्र का निर्माण करते हैं। इससे कृषि उत्पादन में कुछ समय के लिए
बढ़ोत्तरी अवश्य होती है, लेकिन ये प्राकृतिक उपजाऊ-शक्ति पुष्ट नहीं करते हैं।
रासायनिक ख़ाद के लगातार प्रयोग से तथाकथित उन्नत देशों में लाखों एकड़ उपजऊ भूमि
बंजर बन गयी है। इसलिए अब वही पश्चिमी देश रासायनिक ख़ाद का विकल्प खोजने में जुटे
हैं। रासायनिक ख़ाद के लगाकार प्रयोग से फसलों पर रोगों का भी प्रकोप बढ़ता है। उससे
बचने के लिए ज़हरीली दवाओं के छिड़काव की विधि अपनानी पड़ती है। लेकिन ये विषैली
दवाएं केवल फसलों पर होने वाले कीटकों को ही नहीं नष्ट करतीं, बल्कि वे उनसे उत्पादित
खाद्य पदार्थों का सेवन करने वाले लोगों को भी अपनी चपेट में ले लेती हैं।
फलस्वरूप, जिन देशों में रासायनिक ख़ादों एवं कीटनाशक दवाओं का आविष्कार हुआ है,
वहां के निवासी अब जैविक ख़ादों से उत्पादित खाद्य पदार्थों को ही खाना पसन्द करने
लगे हैं। अब आधुनिक कृषि वैज्ञानिकों को भी महसूस होने लगा है कि भारत में जैविक
ख़ाद पर आधारित परम्परागत कृषि-पद्धति ही अधिक वैज्ञानिक है और इसके लिए कृषि, कृषक
और पशुओं का सुचक्र आवश्यक है।
वास्तव में कृत्रिम ख़ाद के पक्षधर पश्चिम के
कृषि विशेषज्ञ यह देखकर हतभ्रत हैं कि कृत्रिम ख़ाद के उपयोग के कारण उनके यहां
मिट्टी की उर्वरा शक्ति का तेज़ी से ह्रास हो रहा है जबकि भारत एवं चीन जैसे
प्राचीन देशों में एक ही खेत में हज़ारों साल से खेती होने के बाद भी उर्वरा शक्ति
कम नहीं हुई है। कई देशों के कृषि विशेषज्ञों ने भारत की परम्परागत कृषि पद्धति का
सूक्ष्म अध्ययन भी किया है। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इसका श्रेय गोबर की
प्राकृतिक ख़ाद एवं जुताई के लिए पशुओं के उपयोग को जाता है। इसका अंदाजा हम इसी
से लगा सकते हैं कि देश की तकरीबन 70-80 फीसदी कृषि भूमि का विकास मात्र देशी
बैलों के अभाव में अवरुद्ध हुआ है।
पशु बनाम यंत्र-शक्तिः
किसी ने ठीक ही विचार किया है कि बैल हमारी
खेती का धुरा है। ट्रैक्टर को लाकर हमने अपना सब महल ढहा लिया है। हालांकि नान जी
का ‘अर्थशास्त्री’ भी कहता है कि कुछ लोग मशीनों में
अडिग श्रृद्धा रखते हैं जो भारत के खेतों में भी पश्चिम के तरीक़े से ट्रैक्टरों
से कृषि के पक्षधर हैं, लेकिन भारत के लिए ट्रैक्टर आदि पूरी तरह से अनुपयुक्त
हैं, क्योंकि पहले तो हमारे यहां खेत बहुत छोटे हैं और एक किसान की जोत भी इतनी कम
है कि उसमें ट्रैक्टर नहीं चलाया जा सकता। चूंकि प्रायः ट्रैक्टर के लिए खेत बड़े
किए जाते हैं और उनमें सामूहिक खेती के अवलम्बन का भी सुझाव दिया जाता है। इसलिए
ट्रैक्टर की मांग पैदा की जाती है लेकिन सामूहिक खेती भारत के जन और भूमि के
अनुपात, प्रजातंत्रीय पद्धति, बेकारी के निवारण, प्रति एकड़ अधिकतम उत्पादन, कृषि
के मानकों के निर्धारण की असम्भवनीयता, किसान का भूमि प्रेम, और हमारे जीवन मूल्य
इन सभी दृष्टियों से हमारे लिए अनुपयुक्त है। किन्तु यदि हम सामूहिक खेती को छोड़
भी दें तो भी हम भारत की जलवायु एवं भूमि में होने वाले मृदा अपरदन के कारण भी बहुत
बड़े-बड़े खेत जिनमें ट्रैक्टर चलाए जा सकें नहीं रख सकते हैं। इसलिए भारत में
कृषि के लिए पशु ही उपयुक्त हैं। हम भारत में कृषि, कृषक और पशुओं के समन्वय को
बरकरार रखकर ही सही पद्धति से भारतीय कृषि परम्परा को परिभाषित कर सकते हैं। ऐसे
में किसानों के पास पशुपालन एक सशक्त हथियार है।
वास्तव में भारतीय अर्थव्यवस्था में एक किसान
के लिए कृषि एवं पशुपालन दोनों का ही विशेष महत्व है। यही कारण हैं कि यदि कृषि
क्षेत्र में हम 1-2 प्रतिशत की वार्षिक दर प्राप्त कर रहे हैं तो वहीं पशुपालन से 4-5
प्रतिशत। इस तरह से कृषि से सम्बद्ध पशुपालन व्यवसाय में ग्रामीणों को रोजगार
प्रदान करने तथा उनके सामाजिक एवं आर्थिक स्तर को ऊंचा उठाने की अपार सम्भावनाएं
हैं। साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि, किसान और
पशुपालन का एक बेजोड़ बंधन भी है जो परस्पर एक-दूसरे पर आश्रित हैं और एक-दूसरे की
उनन्ति में सहायक हैं।
डेयरी उत्पादः
सकल घरेलू कृषि उत्पाद में पशुपालन का 28-30
प्रतिशत का योगदान सराहनीय है, जिसमें दुग्ध एक ऐसा उत्पाद है जिसका योगदान
सर्वाधिक है। भारत में विश्व की कुल संख्या का 15 प्रतिशत गायें हैं जिनसे देश के कुल दुग्ध उत्पादन का 43 प्रतिशत
भाग प्राप्त होता है। वहीं 55 प्रतिशत भैंसें हैं जिनसे 53 फीसदी तक दूध प्राप्त होता है। इस तरह
भारत लगभग 121.8 मिलियन टन दूध का उत्पादन करके विश्व में
सर्वोच्च स्थान पर है जो कि एक मिसाल है। यह उपलब्धि पशुपालन से जुड़े विभिन्न
पहलुओं जैसे मवेशियों की नस्ल, पालन-पोषण, स्वास्थ्य एवं आवास प्रबंधन इत्यादि में किए गये अनुसंधान एवं उसके
प्रचार-प्रसार का परिणाम है।
इसके लिए स्तनधारी पशुधन का प्रयोग दूध के स्रोत के रूप में होता है, जिसे आसानी से
संसाधित करके अन्य डेयरी उत्पादों में परिवर्तित किया जा सकता है, जैसे दही, पनीर, मक्खन, आइसक्रीम, केफीर अथवा क्यूमिस आदि। पशुओं से डेयरी उत्पादों को तैयार कर बेचने पर
किसाम को मौद्रिक लाभ होता है जिससे प्राप्त धन को वह खेती में निवेश करते हैं। इस
तरह से पशुओं से प्राप्त डेयरी उत्पादों का उपयोग कर किसान कृषि के लिए मौद्रिक
रूप से सशक्त होता है, लेकिन इसके लिए उसका चक्रण भी मज़बूत होना परम आवश्यक है।
गोबरः एक अमूल्य उर्वरक
पशुओं का गोबर कृषि भूमि की उर्वरा शक्ति को
सदैव बनाए रखने की क्षमता रखता है। वह फसल की जैविक प्रक्रिया को पुष्ट एवं
संवर्धित करता है। पशु दूध दें या ना दें लेकिन प्रतिदिन भारी मात्रा में वह गोबर
अवश्य देते हैं। उनके इस गोबर की कीमत निष्क्रिय पशुओं द्वारा खाए जाने वाले चारे
और पानी से कई गुना अधिक होती है। वास्तव में पशुपालन को हम किसानों के घरेलू खाद
का कारखाना भी कह सकते हैं। उसके लिए किसानों को अलग से कोई पूंजी नहीं लगानी
पड़ती है। फलस्वरुप पशु किसान की समृद्धि के स्थायी साधन हैं।
खेती की उर्वरा शक्ति बढ़ाने एवं फसल के लिए
पोषक तत्व उपलब्ध कराने में गोबर की खाद से अच्छा दूसरा कोई अन्य पदार्थ नहीं है।
खेत में गोबर की खाद का प्रयोग किया गया हो तो उसमें उगने वाली फसलों पर साधरणतः
कीटाणुओं का आक्रमण नहीं होता है। इसके बावजूद भी यदि किसी कारण से कीटाणुओं का
प्रकोप हुआ भी तो दो से तीन प्रतिशत गो-मूत्र पानी में मिलाकर फसल पर छिड़काव करने
से फसलों को केवल कीटाणुओं के आक्रमण से होने वाले रोगों से ही मुक्ति नहीं मिलती
है, बल्कि फसल पनपने में भी फसलों को सहायता मिलती है और उत्पादन भी बढ़ता है।
पशुपालन खेतों की सभी आवश्यकताएं पूरी कर किसानों को हर प्रकार से आत्म-निर्भर
बनाता है। उन्हें ट्रैक्टर या रासायनिक ख़ादों के लिए अतिरिक्त व्यय कर
उद्योगपतियों पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं रहती। खेतों को तैयार करने के
महत्वपूर्ण दिनों में डीज़ल पम्पों पर हफ़्तों तक लाईन लगाकर समय बर्बाद नहीं करना
पड़ता है। धन व्यय करने की मुसीबत से छुटकारा मिलता है। फलतः किसानों के लिए
ख़ुशहाली का मार्ग प्रशस्त होता है। साथ ही इससे बेकारी पर क़ाबू भी पाया जा सकता
है।
इसके अलावा गोबर की ख़ाद का प्रयोग उसे खेतों
में डाल कर फसल की पैदावार को बढ़ाने के लिए किया जाता है। यह एक महत्वपूर्ण कारण
है जिससे ऐतिहासिक रूप से पौधे तथा पालतू पशु एक-दूसरे से महत्वपूर्ण रूप से जुड़े हुए हैं। गोबर की ख़ाद
का प्रयोग आग जलाने के लिए ईंधन के रूप में भी किया जा सकता है तथा पशुओं के रक्त व
हड्डियों का प्रयोग भी उर्वरक के रूप में किया जाता है। इसके अतिरिक्त दीवालों तथा
फर्शों के प्लास्टर के लिए भी किसान द्वारा गोबर को प्रयोग में लिया जाता है। ग्रामीण
अंचल में अधिकांश मकान सीमेन्ट और पक्के फर्श के नहीं होते हैं। वहां फर्श और
दीवारों की लिपाई-पुताई गोबर से की जाती है। इसके कारण घरों में कीटाणुओं का
प्रकोप सम्भव नहीं होता। यदि घर में किसी प्रकार की दुर्गन्ध अनुभव हुई तो वह गोबर
की पुताई से मिट जाती है। इस तरह से निष्क्रिय पशु भी किसानों से उत्तम जीवन के
लिए उपयोगी हैं और यदि किसान का जीवन स्वस्थ और उत्तम रहेगा तो वह उत्कृष्ट कृषि
का उत्पादन भी करेगा।
भूमि प्रबंधनः
पशुओं की चराई को कभी-कभी खर-पतवार तथा झाड़-झंखाड़
के नियंत्रण के रूप में प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए उन क्षेत्रों में जहां
जंगल की आग लगती है, बकरियों तथा भेड़ों का प्रयोग
सूखी पत्तियों को खाने के लिए किया जाता है जिससे जलने योग्य सामग्री कम हो जाती
है तथा आग का ख़तरा भी कम हो जाता है। इसके अलावा यंत्रों की सहायता से कृषि कार्य
करने से भूमि का क्षरण बहुत अधिक होता है, जबकि पशुओं के द्वारा यह समस्या नगण्य
है।
खाद्य सुरक्षा में पशुपालनः
हरित क्रान्ति से पहले भारत में अनाजों का
उत्पादन इतना ज़्यादा नहीं था। तब उस समय खाद्य सुरक्षा के लिए खाद्य के पहले
विकल्प अनाज के बाद पशुओं से प्राप्त होने वाला दूध ही उपयोग में लाया जाता था,
जिसको लोग अलग-अलग तरीक़ों से प्रयोग करते थे। आज जो लोग अपनी उम्र के
छठवें-सातवें दशक में हैं वह ज़िक्र करने पर बताते हैं कि हम लोगों को तो बहुत
लम्बे समय तक केवल दूध और घी ही खाकर रहना पड़ता था। पता चला कि अन्तिम समय में
फसल ही नही हुई तो हम पूरी तरह से पशुओं के ऊपर ही आश्रित हो जाते थे। आज भी गांव
और शहर दोनो जगहों पर लोग पशुओं से प्राप्त दूध और उससे सम्बन्धित अन्य उत्पादों
को अपने एक समय के भोजन के तौर पर प्रयोग में लाते हैं। अतः आज भी किसान अपने भोजन
का एक बड़ा हिस्सा पशुओं से प्राप्त करता है और बिना उस भोजन के वह अपने को बलिष्ट
और कृषि के योग्य नहीं मानता है। इस तरह से खाद्य सुरक्षा में पशुपालन के योगदान
से खेती के लिए किसान योग्य बनता है।
किसानों की दिनचर्याः
पशुपालन भारतीय ग्रामीण समाज की दिनचर्या का
एक हिस्सा था जो किसानों को आलस्य से चंगुल से दूर रखता है। किसान सुबह उठकर पशुओं
को चारा लगाता देता है, फिर उसका दूध निकालता है। उसे दोपहर में पशुओं को पानी
दिखाना होता है तथा शाम का और अगले दिन का उनके लिए भोजन की व्यवस्था भी उन्हें करनी
होती है। यानी किसान की पूरी दिनचर्या में पशुओं का एक बड़ा हिस्सा है अर्थात्
उनकी पूरी दिनचर्या पशुओं को ही केन्द्र में रखकर बनी है। आज शहरों की बीमारियां
गांवों तक पहुंच रही हैं। इसका सबसे बड़ा कारण ही यही है कि अब गांव और शहरों की
जीवनशैली में समानता आती जा रही है। गांव के किसानों की जीवनशैली से अब पशु बाहर
होते जा रहे है।
यद्यपि पहले की अपेक्षा आज पशुपालन और खेती का
सम्बन्ध निश्चित रूप से कमज़ोर हुआ है, किन्तु इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि इस
सम्बन्ध की प्रासंगिकता ही समाप्त हो गयी है। आज का ही हम देखें तो वर्तमान समय
में जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून में काफी ज़्यादा अनियमितता आ गयी है। इस
अनियमितता के कारण पता चलता है कि कभी बहुत ज़्यादा बारिश हो गयी, कभी बारिश ही
नहीं हुई तो कभी-कभी बर्फीली बारिश भी हो जाती है। चूंकि भारत की कृषि पूरी तरह से
प्रकृति पर ही निर्भर है। सिंचित क्षेत्र मात्र एक तिहाई ही है। तक़रीबन अस्सी फीसदी
भाग सिंचाई को छूता हुआ नहीं है। ऐसे में जब किसान खेती करता है तो वह उन्नत बीजो
का उपयोग करता है, मंहगे रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल भी करता है
और वह ट्रैक्टर से जुताई भी करवाता है। यानी वो एक मंहगी लागत के साथ अपने खेतों
को तैयार करने के लिए उतरता है। अब ऐसी स्थिति में जब जलवायु परिवर्तन के कारण सही
समय पर बारिश यदि नहीं हुई, जिसकी सम्भावना अधिक रहती है तो किसान हताश होता है और
यह कोई मामूली हताशा नहीं होती है। इसमें किसान आत्महत्या तक की स्थिति में पहुंच
जाता है।
अब ऐसे में प्रश्न उठता है कि किसान की इस
हताशा को कैसे कम किया जा सकता है। तब इसका सबसे पहला हल यही है कि खेती में किसानों
की लागत को कम किया जाए। इसके लिए आवश्यक है कि उसके द्वारा मंहगे कीटनाशकों और
रासायनिक ख़ादों की जगह जैविक ख़ाद का इस्तेमाल किया जाए। ट्रैक्टर, जिनमें मंहगे
ईंधन आदि की अतिरिक्त लागत लगती है उसके स्थान पर जुताई आदि के लिए पशुओं का
इस्तेमाल किया जाना चाहिए। यानी हमें खेती में उपयोग होने वाली मौद्रिक लागत को कम
करना है। चूंकि मौद्रिक लागत ज़्यादा न लगने से लाभ यह होगा कि यदि बारिश होती है
तो किसानो के लिए अच्छा है, उनको लाभ ही होगा और यदि बारिश न भी हो तो कम से कम
किसानों के पास से घर की पूंजी तो नहीं लगेगी अर्थात् यदि घर में अनाज आएगा नहीं
तो कम से कम घर से अनाज जाएगा तो नहीं। ये पशुपालन के कारण एक बहुत बड़ा फायदा है।
इसके अलावा किसानों की फसल के नष्ट होने का एक कारण कीटों का भी है। यह शिक़ायत
अक्सर आती है कि इस दफा की पूरी फसल कीटों ने चट कर दी। ऐसे में यह ध्यान रखने
योग्य होगा कि हम जितना ज़्यादा नाइट्रोजन का प्रयोग खेतों में करेंगें फसलों में
कीट लगने की संभावनाएं उतनी ही अधिक होंगी। इसलिए जैविक या गोबर की ख़ाद ही एक
कारगर विकल्प है। इससे फसलों को कीटों से बचाया जा सकता है। ध्यान रहे कि कृषि के
लिए आवश्यक गोबर की खाद प्राप्त करने के लिए पशुओं की आवश्यकता होती है जो बिना
किसानों के सहयोग से कृषि के लिए प्राप्त नहीं होगा। अतः भारतीय कृषि परम्परा को
पुनः तेजोमय बनाने के लिए और उत्तम उत्पादन को प्राप्त करने के लिए हमें कृषि,
कृषक और पशुओं के समीकरण का सन्तुलन अवश्य ही करना होगा।