• अमित राजपूत
अबकी बार उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब,
मणिपुर और गोवा राज्यों में हो रहे विधानसभा के चुनावों में मतदान के औसत से साफ
हो जाएगा कि वोट ना करने जाने की प्रवृत्ति लोगों में मानसिक और आदतन है। लोगों की
यह मानसिक प्रवृत्ति और दामन थामकर बैठ जाने वाली आदत उनकी निष्क्रियता और असंपृक्तता
का द्योतक है। ये बातें इन चुनावों में इसलिए साफ हो जाएंगी क्योंकि कोई भी वयस्क
व्यक्ति इस बार ईवीएम मशीन में नोटा के उपयोग की सुविधा के बाद यह कहकर नहीं बच
सकता है कि मुझे इनमें से कोई भी प्रत्याशी पसन्द नहीं है। मतलब साफ है कि इस बार
आपको एक जागरुक और संपृक्त नागरिक के रूप में हर हाल में बूथ तक जाना ही होगा।
वास्तव में यह सब उन्हीं सामान्य जन के लिए ही
है जो लोकतंत्र के एक-एक तृण हैं। इससे देश का आधार ही मज़बूत होता है। फर्ज़
कीजिए एक भद्र अथवा जागरुक नागरिक जो कि कुंठावश मतदान वाले दिन मतदान केन्द्र तक
नहीं जाता है, उसका कितना बड़ा दंश राज्य पांच सालों तक झेलता रहता है। हालांकि इसमें
वह भद्र व्यक्ति भी नहीं बच पाता है जो वोट करने नहीं गया। बिल्कुल साफ है कि ऐसे लोगों के वोट ना देने जाने से एक ख़ास तरह
के लोगों के मतों की संख्या का औसत बढ़ता जाता है और इसी बढ़े हुए औसत मत के
प्रतिनिधि का साकार रूप ही जनता को मिलता है जोकि सभी के लिए प्रतिनिधित्व का
उत्तरदायी होता है। ऐसे में अच्छे प्रतिनिधि के लिए भद्र और विवेकशील लोगों का
मतदान केन्द्र तक पहुंचना बहुत ही आवश्यक हो जाता है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक अधिक
पढ़े-लिखे और बाबू जी टाईप के लोगों का मतदान औसत बेहद चौंका देने वाला है। शायद हर
साल दोषारोपण वाले भाव से जब यही भद्र लोग गिनाते हैं कि सरकार में इतने लोग
माफिया हैं और इतने लोग अपराधी है, तब ये शायद मतदान वाले दिन बूथ पर अपनी अनुपस्थिति
को ये पूरी तरह से नज़रअंदाज कर देते हैं।
रूसो की सामान्य इच्छा भी यही थी कि समाज में
वह नियम लागू हों जो किसी एक वर्ग की इच्छा ही ना रहे बल्कि इसमें राज्य के सभी
वर्गों के लोग सम्मिलित हो और फिर जो प्रतिफल मिले उसे ही नेतृत्व समझा जाए। इसके
लिए रूसो ने विधायकों को आवश्यक बताया है। उन्होने कहा है कि विधायकों की आवश्यकता
इसलिए पड़ती है कि यद्यपि जनता सर्वदा लोककल्याण चाहती है। तथापि जनता उसको समझने
में सदैव समर्थ नहीं होती है। फिर भी संभव है कि विधायक के बेहतर चुनाव में समाज
के हर वर्ग के लोग अपना मतदान करें तो औसत उपयुक्त विधायक का चुनाव हो सकता है। इसलिए
सभी का मतदान करना अति आवश्यक है।
इनमें से कुछ ऐसे चतुर चितेरे हैं जो यह सोचकर
वोट करने नहीं जाते हैं कि भला मेरे एक अकेले वोट ना देने से भला किसका क्या बिगड़
जाएगा। ऐसे लोग एक तो स्वयं की अस्मिता और उपस्थिति को ना समझने वाले लोग होते
हैं। इसके अलावा उनको मैं यह साफ किए देता हूं कि उनके एक अकेले के वोट ना करने से
किसी का क्या बिगड़ा जा रहा है। तो भइया, आपके एक अकेले के वोट ना करने से किसी का
नहीं बल्कि आपकी ही पूरी सरकार की सूरत ही बन-बिगड़ जाती है। इसके लिए आपको देश
नहीं बल्कि दुनियाभर में अनेक उदाहरण देखने को मिलेंगे।
सबसे पहले अपने ही देश में कर्नाटक राज्य का
उदाहरण लीजिए। साल 2004 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में एआर कृष्णमूर्ति
सांथेमाराहल्ली की एससी सुरक्षित सीट से आर ध्रुवनारायण के खिलाफ लड़ रहे थे।
इसमें कृष्णमूर्ति सिर्फ एक वोट के अन्तर से हार गए थे। इस तरह की घटना के लिए
कर्नाटक भारत का पहला राज्य बना।
इसके चार साल बाद ही ऐसी ही एक बड़ी घटना
राजस्थान राज्य में देखने को मिली थी। इस बार तो एक वोट के कारण मुख्यमंत्री ही तब्दील
हो गया था। बात साल 2008 की है। राजस्थान में कांग्रेस प्रमुख सीपी जोशी मुख्यमंत्री
पद के दावेदार थे। वो एसेम्बली चुनाव में कल्याण सिंह चौहान से मात्र एक वोट के
अन्तर से ही हार गए थे। इतना ही नहीं एक वोट का अन्तर कितना शक्तिशाली होता है
पूछना है तो जर्मनी के लोगों से पूछिए, क्योंकि साल 1923 में एडोल्फ हिटलर एक वोट
के अन्तर की जीत से ही नाजी दल का मुखिया बना था।
अमेरिका में भी एक वोट के हेरफेर से बड़े-बड़े
परिवर्तन देखने को मिलते हैं। साल 1776 में अमेरिका को एक वोट की बदौलत ही जर्मन
की जगह अंग्रेज़ी के रूप में उनकी मातृभाषा मिली थी। इसके अलावा सन् 1910 में
न्यूयार्क के 36वें कांग्रेसनल डिस्ट्रिक चुनाव में एक रिपब्लिक उम्मीदवार सिर्फ
एक वोट से हार गया था। इससे रिपब्लिक पार्टी में जैसे शोक की लहर सी दौड़ गई थी।
ग़ौरतलब है कि साल 1845 में टेक्सास एक वोट के
अन्तर से ही संयुक्त राष्ट्र का हिस्सा बन सका। इंग्लैण्ड के मैसाचुएट्स प्रान्त के
गवर्नर के चुनाव में सन् 1839 में मार्कस मॉर्टन भी मात्र एक वोट से जीत गए थे।
इसी तरह पांच दशक पहले सन् 1968 में दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया के एसेम्बली हाउस के
चुनाव में मार्टिन कैमरॉन सिर्फ एक वोट से हार गए थे।
फ्रांस की बात करें तो वहां पूरा का पूरा
सत्ता का स्वरूप ही एक वोट के अन्तर से बदल गया था, वरना वहां के लोगों को थोड़ी
चूक से पुरानी राजशाही को ही ढोना पड़ता। साल 1875 में एक वोट की जीत से ही फ्रांस
में राजशाही से गणतंत्र आ सका था।
इसमें कोई शक नहीं है कि भारत के चुनावों में
इतने कम वोट का फर्क बड़ी दूर की बात है। यहां तो लहर में चुनाव हो जाते हैं। साल
2014 का आम चुनाव एक बड़ा उदाहरण है। जहां हिन्दुतान में सभी वर्गों की मतदान में
हिस्सेदारी की कमी के चलते वोटों के जीत-हार के बीच लम्बी खाई है वहीं इस मामले
में कनाडा के चुनाव तो जगजाहिर हैं।
कनाडा में चार्ल्स वेस्ले कल्टर सन् 1887 के
संघीय चुनाव में हाल्डीमांड से एक वोट से हार गए थे। इसी साल संघीय चुनाव में ही
मॉण्टमोरेन्सी से पीवी वैलिन भी एक वोट से हार गए थे। इसके बाद यहां वोट को लेकर
लोग सजग रहने लगे और कुछ एक सालों के अन्तर में मतदान के ये चमत्कार दिखते रहे।
1891 में कनाडा के संघीय चुनाव में वेन्टवॉर्थ
साउथ से जेम्स रसेल भी एक वोट के अन्तर से हार गए थे। सी साल निकोलेट से ईसी
प्रिन्स मात्र एक वोट से हार गए थे। 1896 में यॉर्क ईस्ट से हेनरी फ्रैंकलैण्ड एक
वोट से हार गए। 1900 में सेलकिर्क से जॉन हर्बर मात्र एक वोट से हार गए थे। इसी
जगह से इससे पहले 1896 के चुनाव में ह्यूग आर्मस्ट्रांग भी एक वोट से हार गए थे।
इसके अलावा1900 में बर्स नॉर्थे से जेई कैम्पबेल भी एक वोट से हारे थे।
दुनिया में एक-एक वोट की ताक़त के इतने नायाब
उदाहरणों के बाद भी यदि इसी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोग एक वोट की कीमत
ना समझें और मतदान करने ना जाएं तो इस देश में निवास करने वाले जनों के भीतर बदलाव
की ठंड पड़ी आज पर भला बीरबल की खिचड़ी के सिवाय क्या पकाया जा सकता है!
भारत के निर्वाचन आयोग के कारगर उपाय नोटा के उपयोग
की सुविधा के बाद उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, मणिपुर और गोवा में हो रहे इन विधानसभा
के चुनावों में एक-एक वोट की कीमत वसूल की जाएगी, ऐसी अपेक्षा है। वह भी तब, जब इन
चुनावों में देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश भी शामिल जो देश की संसद का रंगोमिजाज
तय करता है।