-अमित राजपूत-
देश को दोबारा दलित राष्ट्रपति मिलने जा रहा है | केआर नारायणन के बाद रामनाथ कोविंद के रूप में दलित राष्ट्रपति होने के अपने अलग मायने हैं | कोविंद उत्तर प्रदेश से आते हैं और उनकी कर्मभूमि बिहार की है, जोकि राजनीतिक आकाश में उनकी चमक के पैमाने गढ़ने के लिए उत्तरदायी है | इसीलिए इनके दलित होने के मायने बढ़ जाते हैं |
उत्तर प्रदेश और बिहार दो ऐसे राज्य हैं जहां की राजनीतिक आबोहवा में जातीय समीकरण बेहद जटिल हैं | ऐसे में किसी पद विशेष के लिए उसकी जाति की पहचान सर्वोच्च रखी जाती है | लिहाजा यही कारण रहा है कि देश का आम जन रामनाथ कोविंद को जानने से पहले यह जान गया कि वह दलित समुदाय से आते हैं | वास्तव में देश आज जिन राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों से होकर गुजर रहा है उस हिसाब से यह बहुत शुभ संकेत है कि देश का आम जन देश के इतने बड़े पद के लिए नियुक्त होने जा रहे व्यक्ति की जाति को रोमांचित हो कर देख रहा है |
इस देश में अक्सर किसी प्राइम पोस्ट के लिए दलित का नाम आते ही उसकी योग्यता पर सवाल खड़े किए जाने की परंपरा अभी टूटी नहीं है | राम नाथ कोविंद जैसे अच्छे योग्य व्यक्ति को भी इससे होकर गुजरना पड़ रहा है, फिर चाहे भले ही गोविंद एक अच्छे स्कॉलर रहे हों, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में वकालत करने के साथ भारत सरकार के एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड हो चुके हैं या फिर मोरारजी देसाई जैसे चितेरे प्रधानमंत्री के 3 साल तक पीए रह चुकने के अलावा सिविल सर्विसेज में चयन लेकर छोड़ देने का उनमें माद्दा रहा हो अथवा वह भले ही बिहार के गवर्नर रहे हों लेकिन बावजूद इसके उन पर योग्यता को प्रूफ कर पाने जैसी उंगलियां टेढ़ी हुई है | वास्तव में मैं इस बात को नकार नहीं सकता कि यह सब उनके दलित मात्र होने के कारण ही हुआ है | ऐसे में भला फिर जब कोई दलित राष्ट्रपति के पद को सुशोभित करे तो उसे दलित की दृष्टि से क्यों ना देखा जाए कि वह दलित है और राष्ट्रपति है | निश्चित रूप से भाजपा ने यह काम किया है |
इसमें कोई संदेह नहीं है कि समता के लिहाज से कोरी जाति के रामनाथ कोविंद का राष्ट्रपति होना देश को एक नई दिशा में ले जाने वाला हो सकता है | यह सुखद है | हालांकि तमाम लोगों को राजनीति के हव्वे से बहुत भय हैं | उनका मानना है कि इसमें भाजपा ने जातिवादी कार्ड खेला है | बड़ा साफ़ है कि जब राजनीति के इस पार बैठे लोग यह समझ जाते हैं कि वह दलित हैं, तो भला राजनीति के उस पार बैठे लोगों की चिति इस मामले में शिथिल कैसे हो जाए ? यद्यपि ये राजनीति के भय के मारे हुए लोग यह सोचे बैठे रहते हैं, कि जाति की पहचान के मामले में उनकी चिति काम करे और राजनीतिक लोगों की इस मामले में चिति शून्य बनी रहे | यही सोच उनके दुख और भय का कारण भी है | एक बार राज्यसभा टीवी की एक डिबेट में मैं समाजशास्त्री सतीश देशपांडे के साथ था | उस दिन उन्होंने एक बड़ी दिलचस्प बात कही थी कि हमें जातिवाद समाप्त करने के लिए सबसे पहले जाति को पहचानना होगा | इसके बाद उसकी बेहतरी के लिए काम करके ही हम समता को प्राप्त कर सकेंगे और फिर जातिवाद का भय समाज से खत्म हो जाएगा | ऐसे में यह साफ पता चलता है कि भाजपा जाति को पहचानती है | संभवता राष्ट्रपति जैसे पद के लिए एक योग्य दलित व्यक्ति को ढूंढ पाना भाजपा के लिए मुश्किल काम रहा हो | अब जब रामनाथ कोविंद एनडीए के प्रस्ताव पर राष्ट्रपति होने जा रहे हैं तो इसके लिए भाजपा की पीठ थपथपाने में किसी को कोई गुरेज नहीं होना चाहिए | इसमें विपक्ष और वाम दलों के लोगों को भी भाजपा की सराहना करने से भी नहीं चूकना चाहिए |
रामनाथ कोविंद का नाम राष्ट्रपति पद के लिए डिक्लियर होते ही मैंने कुछ अजीब सी बातें भी सुनी और पढ़ी है | कुछ लोगों का यह भी कहना है कि हम तो रामनाथ कोविंद को जानते ही नहीं थे | वास्तव में यह सब देख सुनकर मैं बड़ा सोच में पड़ जाता हूं कि जब लोग बिहार जैसे राज्य के राज्यपाल के लिए यह कह देते हैं कि हम उन्हें जानते नहीं हैं तो फिर ऐसे लोगों की चेतना के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है और उनकी बातों के हल्केपन को भी समझा जा सकता है | ऐसे सभी छद्म लोग आइकॉन की पॉलिटिक्स के मारे हुए लोग होते हैं |
दूसरा, एक समुदाय ऐसे लोगों का भी है जो यह कहता है कि आज से 10 साल पहले राष्ट्रपति के रूप में एक रबर स्टाम्प बनाने का जो काम कांग्रेस ने किया था वही काम आज भाजपा कर रही है | यह सभी पूर्वाग्रह की मार झेले हुए सशंकित लोग हैं क्योंकि अब तक रामनाथ कोविंद ने कोई भी ऐसा बयान नहीं दिया है जैसा कि कांग्रेस के कई रबर स्टाम्प जैसे- सबसे पहले साल 1974 में 5वें राष्ट्रपति के रूप में फखरुद्दीन अली अहमद ने, सन् 1982 में 7वें राष्ट्रपति के रूप में जरनैल सिंह (ज्ञानी जैल सिंह) ने और बारहवीं राष्ट्रपति के रूप में सन् 2007 में प्रतिभा पाटिल ने दिए थे और इन्होने पूरे समय अपनी मोहरों की स्याही का रंग चटक बना कर रखा था | हालांकि 13वें राष्ट्रपति के रूप में प्रणब मुखर्जी उस चक्र को तोड़ पाने में सफल रहे हैं |
एक बात यह भी है कि जब ज्ञानी जैल सिंह को एक सिख राष्ट्रपति के रूप में देखा जा सकता है, प्रतिभा पाटिल को स्वयं कांग्रेस ने एक महिला के तौर पर ही प्रोजेक्ट कर सहानुभूति बटोरने का काम किया था तो रामनाथ कोविंद के बतौर दलित जाने जाने पर किसी को कैसी आपत्ति हो सकती है ? वैसे भी किसी की जाति को पहचाना जाना उस के उत्थान के लिए आवश्यक है | भाजपा ने रामनाथ कोविंद के मामले में जाति को पहचाना है, यह हितकर है | इसके अलावा भाजपा जिस परंपरा की राजनीति को धारण कर चुकी है उस मिज़ाज के लिहाज से भी यह उसके द्वारा लिया गया बिल्कुल सही दिशा का फैसला है |