प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बेहद लोकप्रिय
कार्यक्रम ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के
तहत हर घर में शौचालय बनवाने के प्रयासों में एक प्रयास अभिनेता अक्षय कुमार का है
उनकी फ़िल्म ‘टॉयलेट ..एक प्रम कथा’। इस
फ़िल्म का टाइटल ट्रैक ही इस फ़िल्म का सार है- ये कहना है इस टाइटल ट्रैक को अपने
शानदार संगीत से सजाने, संवारने और इसके संदेश को अपनी उंगलियों से अनुभव कराने
वाले युवा संगीतकार विक्की प्रसाद
का। उन्होने इस फ़िल्म के कई और बेहद चर्चित गानों में अपना संगीत दिया है। उन
तमाम गीतों और विक्की के उतार-चढ़ाव भरे स्ट्रगल के बारे में अमित राजपूत ने उनसे सीधी बातचीत की है।
प्रस्तुत हैं अंश-
∙ इतनी छोटी ही उम्र में ‘टॉयलेट ..एक प्रेम कथा’ जैसी बड़ी फ़िल्म के
संगीतकार बन गये। क्या कहेंगे ?
(हंसकर...) मेहनत रंग ले आयी। बहुत ही बढ़िया
महसूस हो रहा है। यही सोच कर आये थे मुम्बई। मुझे लगता है हर किसी म्यूजीशियन का
यही सपना होता है कि उसे एक बड़ी एण्ट्री मिल जाये तो क्या कहने। इसमें कोई संदेह
नहीं है कि मुझे नीरज पाण्डेय जी की फ़िल्म के टाइटल ट्रैक सहित कई गानों के साथ
अच्छी शुरुआत करने का मौका मिला। इसे मैं क़िस्मत ही मानता हूं क्योंकि इससे अच्छी
तो शुरूआत नहीं हो सकती थी। मुझे ऐसी शुरूआत करके ख़ुशी हो रही है।
मैने सबसे पहले तीन साल से गाना शुरू किया था।
उसे ही संगीत से मेरा जुड़ाव कहा जा सकता है। तब मेरे एक सर थे उनकी फेयरवेल
पार्टी में मैंने एक गीत गाया था- ‘चलते-चलते
मेरे ये गीत याद रखना।’ तब उन्होंने ख़ुश होकर मुझे पाँच
रुपये ईनाम में दिये थे। तब मैं इससे बहुत मोटीवेट हुआ और फ़िर उसके बाद लगा रहा
बहुत कुछ सीखने में। लेकिन सीखने से ज़्यादा मैने सुना बहुत अधिक है।
सभी के साथ मेरा अच्छा रहा फिर चाहे वो सोनू
जी हों, श्रेया मैम हो गयीं या सुनिधि जी हो या फिर चाहे सुखविन्दर जी ही हो। हाँ,
सुखविंदर जी और सोनू जी के साथ काफी अच्छा रहा मेरा। उन लोगों से बातें भी होती
हैं मेरी। सुखविन्दर जी तो मतलब बहुत मानते हैं मुझे। काफी अच्छे से बात करते हैं
वो।
∙ सॉन्ग बखेड़ा.. ये आपका गाना बहुत ज्यादा
पसन्द किया जा रहा है। हर वर्ग के लोग इसे खूब सराह रहे हैं !
बखेड़ा मेरे दिल के बहुत ही करीब है। इसके साथ
मेरे इमोशन्स भी जुड़े हुए हैं। जब मैं इसे बना रहा था तो इसका मुखड़ा बन गया था।
अन्तरें में थोड़ा दिक्कत आ रही थी। कई बार अटका ये गाना। मैं अन्तरा बार-बार करके
दे रहा था हर बार वो रिजेक्ट हो जा रहा था। ऐसी भी स्थिति आ गयी थी कि शायद गाना
रिजेक्ट भी हो जाता और इसके साथ मैं नहीं जुड़ पाता। लेकिन अन्त में थोड़ा मैं
रुका और इस पर फिर से काम किया। इसके बाद जो है वो आप सबके सामने हैं. अच्छा लग रहा
है कि लोग इसे सराह रहे हैं। लेकिन फ़िल्म डायरेक्टर के द्वारा जो मुझे पहला टास्क
दिया गया था वो टाइटल ट्रैक था। फिर भी बखेड़ा ही सबसे पहले सेलेक्ट हुआ। इसके बाद
मुझे ‘हंस मत पगली’ भी करने का मौका मिला।
∙ फ़िल्म का टाइटल ट्रैक ‘टॉयलेट’ इतनी देरी से क्यों लाया गया ?
ये तो ख़ैर मैं नहीं बता सकता हूं कि इतनी देर
से क्यों लाया गया। पर हां, हो सकता है कि फ़िल्म की अपनी प्रमोशनल स्ट्रैटजी रही
हो। प्रमोशन के प्वाइंट ऑफ़ व्यू से भी इसे फ़िल्म रिलीज़ के दस दिन पहले ही
रिलीज़ किया गया होगा क्योंकि वैसे भी ये गाना ‘टॉयलेट’
औरों से एकदम अलग है जोकि फ़िल्म का सार है। आप ये भी कह सकते हैं
कि फ़िल्म का अनुभव संसार है ‘टॉयलेट’।
इसके जितने भी पहलू हैं जैसे कि इसमें संदेश है, इसमें समस्याएं भी हैं, तमाम
मुद्दे हैं और सीख भी है। ये फ़िल्म और इसका टाइटल ट्रैक दोनो ही लोगों में
जागरुकता लाने के लिए एक कम्प्लीट मैसेज़ पैकज है। मैं तो इस ट्रैक को फ़िल्म के
मुद्दे का एंथम मानता हूं।
देखिए, पहले तो अगर मुझे एक म्यूज़िक कम्पोज़र
के तौर पर आगे काम करना है तो मैं किसी टाइप को लेकर नहीं चल सकता। मैं टाइप्ड
होकर कोई अपना जॉनर नहीं सेट करना चाहता कि मुझे यही करना है। मैं करके सीख रहा
हूं और मैं यही चाहता हूं कि मुझे सबके साथ तरह-तरह का काम करने को मिले। वैसे भी
मुझे सभी टाइप्स के गाने पसन्द हैं। अलग-अलग सिचुएशन में काम करना मुझे पसन्द है। बस
हां, मुझे किसी भी जॉनर की म्यूज़िक करना है तो मैं डिफरेण्ट करना चाहूंगा जोकि
मेरा हो, यूनिक हो। यही मेरी तमन्ना है।
∙ इससे पहले क्या किया था ?
वैसे टॉयलेट मेरी पहली ही बॉलीवुड फ़िल्म है।
इससे पहले मैने ध्रुव हर्ष की ‘ऑनरेबल मेन्शन’ की थी। ध्रुव मेरे कॉलेजमेट हैं। उनकी ये मूवी आधे घण्टे की शॉर्ट फ़िल्म
थी। उन दिनों भी मैं मुम्बई में था। वो ये फ़िल्म इलाहाबाद में कर रहे थे। ध्रुव
ने कहा कि मैने एक शॉर्ट फ़िल्म बनाई है। बहुत मेहनत हुई है इसमें। मैने कहा ठीक
है, करते हैं भेजो। फिर उसकी थीम पर काम करके ध्रुव के साथ बहुत मज़ा आया। फ़िल्म
ने अमेरिका में 2 और हैदराबाद, कोलकाता, इलाहाबाद और नई दिल्ली में 1-1 अवॉर्ड
हासिल किये हैं। आगे भी हम साथ काम करने वाले हैं।
∙ विक्की आपको कब ऐसा लगा कि अब
आपको मुम्बई निकलना चाहिए ?
ग्रेजुएशन
के बाद साल 2010 में मैं सबसे पहले दिल्ली गया था। वहां मैने साउण्ड इवेण्ट और म्यूज़िक
प्रोडक्शन का कोर्स किया। वो कोर्स एक साल का था, 2011 में खत्म हो गया। लेकिन
मैने दिल्ली नहीं छोड़ा था, वहां छोटे-मोटे इवेण्ट करता रहा। अन्त में सितम्बर
2012 में मैने मुम्बई का रुख किया और तब से लेकर बिना रुके आज तक मैने यहां जमकर
स्ट्रगल किया और काम करता रहा।
∙ रिकॉर्डिंग्स के दौरान के
अनुभव कैसे रहे ?
जैसा कि मेरी शुरुआत थी और सोनू निगम जी,
सुखविन्दर जी जैसे बड़े दिग्गज मेरा गाना कर रहे थे तो वाकई मैं बड़ा ऑनर फ़ील कर
रहा था उस वक़्त। अक्षय कुमार जी के साथ रिकॉर्ड करने में सबसे ज़्यादा मज़ा आया।
वो बड़े मस्त इन्सान हैं। हमेशा ख़ुश रहते हैं। एक पॉज़िटिव माहौल बना देते हैं।
खूब हंसी-मज़ाक करते हैं। वो बहुत ही ज़्यादा एनर्जेटिक हैं, उनको देखकर आप
ऑटोमैटिक डेडीकेटेड हो जाते हो।
∙ अपने घर-परिवार के बारे में
भी हमें कुछ बताइए !
मेरे फादर नहीं हैं। परिवार के अधिकतर लोग असम
में ही रहते हैं। फादर की डेथ के बाद मेरी नानी जी ने मेरी परवरिश की। वो आर्मी
में हैं। मेरा जन्म भी असम राइफल्स में ही हुआ है। पूरे नॉर्थ-ईस्ट में ही
घूम-घूमकर उनका ट्रान्सफर होता रहता और वैसे ही घूम-घूमकर मेरी पढ़ाई चलती रही। 2005
तक मैं वहीं था। इस तरह से मेरी पूरी परवरिश आर्मी एटमॉसफियर के बीच ही हुई।
∙ तब तो एक डिफेन्स के कथानक
वाली फ़िल्म करने में आपकी ज़्यादा दिलचस्पी देखने को मिल सकती है !
आर्मी का जो वातावरण है, बेशक वो मेरे रोम-रोम
में है। वो हर पल मेरे जहन में रहता है। सिविल से बिल्कुल डिफरेण्ट होता है वहां
का माहौल। सीरियसली मुझे 2005 के बाद ही जब मैं असम से निकला तभी मुझे सिविल लाइफ़
के बारे में पता चला। बहुत ही अन्तर है दोनो में। ऐसे में आर्मी बैकग्राउण्ड वाली
फ़िल्में करके डेफेनेटली मुझे बहुत ख़ुशी होगी। मैं शायद ऐसी फ़िल्मों में और भी
इनवॉल्व होकर काम कर पाउंगा क्योंकि बचपन से ही मैने वहां की हर छोटी-छोटी चीज़ें
तक देखी हैं।
∙ विक्की ‘टॉयलेट ..एक प्रेम कथा’ के बाद किन प्रोजेक्टस पर
काम कर रहे हैं ?
ध्रुव हर्ष की ही फ़िल्म ‘हर्षित’ करने वाला हूं। वो वर्ल्ड सिनेमा के बड़े
अच्छे फ़िल्मकार हैं। हर्षित हेमलेट पर बेस्ड फ़िल्म है। इसके अलावा मैने एक
फ़िल्म कम्प्लीट कर ली है, उसका नाम है- ‘चेन्ज ऑफ़ वर’। ये बड़ी फनी मूवी है। हालांकि इनमें फ़न के अलावा बहुत अच्छा ड्रामा है,
इमोशन है और काफ़ी ख़ूबसूरत सी फ़िल्म है। संजय मिश्रा जी इसमें लीड रोल कर रहे
हैं। इसके अलावा भी काफ़ी अच्छे-अच्छे कलाकारों से सजी मूवी है ये। ये फ़िल्म
मथुरा पर बेस्ड है। इससे भी मुझे बड़ी उम्मीदे हैं। बहुत जमकर काम हुआ है इसमें
भी। इसके अलावा 2-3 प्रोजेक्ट्स पर बात फाइनल होने वाली है मेरी।
∙ टॉयलेट कैसे मिली, इसके
स्ट्रगल के बारे में कुछ बातें साझा कीजिए ?
12वीं से ही मुझे पता था कि अल्टीमेटली एक दिन
मुझे बॉलीवुड में ही काम करना था। इसलिए यही कारण रहा कि सबसे पहले मैं नॉर्थ-ईस्ट
से निकलकर इलाहाबाद पहुँचा। वहां रहकर मैने पढ़ाई की और बहुत सारी चीज़े तभी से
सीखने लगा। फिर मुम्बई आ गया। यहां मुम्बई में मेरी कोई जान-पहचान भी नहीं थी कि
कोई मुझे कहीं काम दिलवाता। मैंने ख़ुद से कई जगह हाथ-पैर मारे पर कोई बात बनी
नहीं। अब तक मेरे सारे पैसे ख़त्म हो चुके थे। फिर मजबूरी में मुझे कोई जॉब करनी
पड़ी और मैने की थी। लेकिन चूंकि मैने तय ही कर रखा था कि मुझे जीवन में जॉब नहीं करनी।
एक पैसा भी कमाना है तो वो म्यूज़िक से कमाना है। इसलिए मैने जॉब छोड़ दी और
म्यूज़िक अरेंजमेण्ट का काम करने लगा, वहीं से अब मेरे रहने खाने का जुगाड़ चलता
रहा। वास्तव में ये सब भी मैं करना नहीं चाह रहा था लेकिन मजबूरी थी। मैं म्यूज़िक
कम्पोज करना चाहता था। साल 2013-14 का जो पीरियड था वो मेरे लिए बड़ा मुश्किल भरा
था। कुछ प्रोजेक्ट छूट गये थे, मेरे पास कोई काम भी नहीं था। रेण्ट देने के पैसे
नहीं थे, जो पैसे थे बिल्कुल ख़तम होने वाले थे। उन दिनों मैं इधर कांदीवली में
रहता था, रेण्ट डिपॉज़िट के दिए हुए पैसे से ही मैं सर्वाइव कर रहा था। कोई उधार
देने वाला भी अब न था, सबसे ले चुका था। अब मेरे पास खाने के लिए भी पैसा नहीं था।
10 रुपये रहते तो उसी से दिन में पाव खाकर रहता था। बड़ा मुश्किल हो गया था उन
दिनों। सारे रास्ते बंद थे। अन्त में अचानक से एक दिन मेरे कॉलेज फ़्रेण्ड आशुतोष त्रिपाठी
ने मुझे कॉल कर दी। उसने मेरी हालत समझी और फिर 2500 रुपये खाते में डाल दिया। उसी
पैसे से मैं वापस घर गया। मॉम से मिले भी चार साल से ज़्यादा हो गए थे।
घर जाते ही 10-15 दिन बाद मुझे एक क्लाइंट का
फोन आता है और वो मुझसे कुछ काम लेना चाहते थे। मैने उन्हें काम करने की शर्त यही
दे दी कि मेरे रहने का जुगाड़ कर पाओ तभी मैं आउंगा। वो राजी हो गये और मैं जल्दी
ही मुम्बई वापस आया। उन्हीं की बदौलत मैं वापस मुम्बई में स्टैण्ड कर गया। आज वो
मेरे बड़े अच्छे दोस्त हैं, अजय आर्य नाम है उनका। तब से लेकर 2016 तक मेरा संघर्ष
जारी था।
इसके बाद मेरे मेण्टॉर मनोजराज दत्त मेरे लिए
टर्निंग प्वाइंट बने वो टॉयलेट में एसोसिएट डायरेक्टर हैं। मनोज सर को मैं अपना
बड़ा भाई मानता हूं। उन्होने पहले भी मेरी बहुत बार मदद की थी। इस बार उनका मुझे
कॉल आता है और वे मुझसे बोले कि विक्की जिस हालत में हो वैसे ही भागकर नीरज
पाण्डेय जी के प्रोडक्शन हाउस में आ जाओ। (ज़ोर देकर) यकीन मानिए, मैने कैप्री पहन
रखी थी और ज़ोरों की बारिश हो रही थी। लेकिन मैने जैसा मनोज सर ने कहा था वैसा ही
किया। मैं भीगते ही प्रोडक्शन हाउस पहुंचा और फ़िल्म ‘टॉयलेट ..एक प्रेम कथा’ के डायरेक्टर श्रीनारायण
सिंह से मिला। उनको नए लोगों के साथ काम करने में कोई दिक्कत नहीं थी। वहां मेरी
उनसे बातचीत हुयी और उनसे टेस्ट प्रोजेक्ट मिले मुझे। अन्त में मैं पास हुआ और ये
फ़िल्म मेरे हाथ लग गयी।
∙ नये लोग जो फ़िल्मों में
म्यूज़िक करना चाहते हैं उनको क्या सलाह है आपकी ?
मैं अभी किसी को सीख देने के क़ाबिल खुद को
नहीं मानता। लेकिन मेरी जो सोच है मैं उसे साझा कर सकता हूं। आप किसी भी विधा में
काम करे हों सबसे पहले तो आपको अपनी आइडेण्टिटी बनाने की ज़रूरत होगी। उसे ही लेकर
आप चलते रहो वरना उसके बिना आप भीड़ का हिस्सा हो जाते हो और फिर आपको कोई नहीं
पूछता है। भीड़ कब हट जाती है पता भी नहीं चलता आपको, हताशा होती है। इसलिए मेहनत
के साथ सकारात्मक रहकर डटे रहना हर किसी के लिए बहुत ज़रूरी है। इसके अलावा धैर्य एक
बहुत ज़रूरी चीज़ है, उसके बिना कुछ सम्भव नहीं।