• अमित राजपूत
किसी अबोध बालक के शरीर
में निकलने वाले संक्रमण के दानों को जब वह खुजलाता है, तो उसे अजीब सा मज़ा मिलता है।
उस मज़े में दानों को खुजलाने में वह इतना मशगूल रहता है कि उसे इस बात का भान
होते हुए भी (कुछ को भान ही नहीं रहता) कि उसके खुजलाने से उन दानों में संक्रमण
और ज़हरीले तत्व बढ़ रहे हैं, वह दानों को खुजलाने का अपना क्रम जारी ही रखता है।
ऐसे में बालक के अभिभावक उसे इसके लिए डाँट लगाते हैं और अबोध बालक को ऐसा करने से
एकदम रोकते हैं। वास्तव में भारत के बहुतेक टीवी धारावाहिकों का हाल उसी अबोध बालक
सा है, जो भूत-प्रेत, टोटका और नाग-नागिन के साथ दर्शकों
को मनोरंजन की ख़ुराक पेश करने में
मशगूल हैं। इसमें टीआरपी-टीआरपी खेलने में इन्हें मज़ा तो ख़ूब मिल रहा है। लेकिन इससे
भारतीय समाज में पहले से ही व्याप्त अंधविश्वास के संक्रमण को मिलने वाली हवा और
उसके ज़हर से ये अनजान बने बैठे हैं, क्योंकि इन्हें ऐसा करने से रोकने वाले इनके
कथित अभिभावक भी भावशून्य पड़े हैं।
इतना ही नहीं कुछेक टीवी धारावाहिक तो कलह
परोसते हैं, जिसकी सीधी सप्लाई भारतीय समाज के सबसे बड़े दर्शक वर्ग मध्यम परिवारों तक होती है। इस कारण समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा इसकी चपेट में है।
यही कारण है कि जहाँ विज्ञान की देन टेलीविज़न से स्वाभाविक
उम्मीद यह होनी चाहिए कि वह अंधविश्वासों से पर्दा
हटाने का काम करे, जिससे लोगों का क्रमबद्ध
सुसंगठित और
बुनियादी विचार और ज्ञान पोषित हो
सके। वहीं इसके उलट आज वह अंधविश्वास की गिरह को पहले से बहुत मजबूत बनाता चला जा रहा है।
ऐसे धारावाहिकों के निर्माताओं को इस बात का अंदाज़ा भी नहीं है कि भूत-प्रेत,
जादू-टोना, पुनर्जन्म और नाग-नागिन वाले धारावाहिकों का असर सामाजिक कुरीतियों और
उनकी जड़ताओं को बनाए रखने में सहभागी बनते हैं।
आपको यह जानकर आश्यर्च हो
सकता है कि समाज में धारावाहिक देखने वाली महिलाओं और न देखने
वाली महिलाओं की जीवटता में बड़ा अन्तर देखने को मिलता है। एक एनजीओ की ताज़ा
रिपोर्ट बताती है कि ऐसे अंधविश्वासी और
कलह दिखाने वाले धारावाहिकों से दूर जीवन बिताने वाली
महिलाएँ अधिक सुखी और सशक्त हैं। वहीं इनके
साथ लगातार जुड़ी रहने वाली महिलाएँ धीरे-धीरे असामाजिक होती जा रही हैं। इन
महिलाओं में लोगों के साथ घुल-मुलकर रहने की प्रवृत्ति भी कम होती जाती है। इसके अलावा धारावाहिकों
में दिखने वाले घर, किचन और उनके पहनावों को मध्यम परिवारों की महिलाएँ तेज़ी से
अपनाना चाहती हैं। इसके लिए वह अपने पति के साथ कब तीखे बर्ताव करने लगती हैं
उन्हें स्वयं पता नहीं चलता है। ऐसे में उनका पूरा जीवन पहलू प्रभावित होता जा रहा है और इससे सभ्यता में
संक्रमण की गुंजाइश बढ़ती जा रही है। ऐसे
धारावाहिकों के दुष्परिणाम महज इसी कोटि के नहीं हैं। कुछ दुष्परिणाम तो इससे कहीं
भयावह हैं।
जनसत्ता में छपी 14 नवम्बर, 2018 की एक रिपोर्ट ने तो मुझे बेहद डराकर रख दिया है। इस रिपोर्ट के
अनुसार राजस्थान के गंगापुर सिटी में एक परिवार अपने घर में टीवी पर अगर कुछ देखता
था तो सिर्फ़ एक देवता शिव पर केन्द्रित धारावाहिक ‘देवों के देव महादेव’। ये मार्च,
2018 की घटना है। एक दिन उस परिवार ने इसी धारावाहिक को देखा और
फिर शिव के आने का इंतज़ार करते हुये उनकी आराधाना में लग गया। शाम तक कोई नहीं
आया, तो समूचे परिवार ने ख़ुद शिव से मिलने की ठानी और
स्वर्ग जाने की बातचीत करते हुये बहुत सहज भाव से परिवार के सभी सदस्यों ने ज़हर
खा लिया। इनमें आठ में से तीन तो पड़ोसियों के ठीक समय पर आ जाने से बचाये जा गये,
लेकिन बाक़ी पाँच लोगों की मौत हो गयी। यह घटना अपने आप में यह
बताने के लिए काफ़ी है कि भारतीय समाज में पहले से पसरे अंधविश्वासों के बीच कोई
टीवी धारावाहिक किस क़दर लोगों के सोचने-समझने की क्षमता पर प्रहार कर उसे ख़त्म
कर रहा है।
ऐसी ही दूसरी
घटना का ज़िक्र उस रिपोर्ट में था। दिल्ली
में 26 साल की युवती आस्था के पति की एक हादसे में मौत हो चुकी है। एक दिन
उसकी छह साल की भतीजी निन्नी ने कहा- “बुआ आप सफेद साड़ी क्यों नहीं पहनती हैं और
आप जलेबी क्यों खाती हैं? आप तो विधवा है!” आस्था निन्नी
की बात सुनकर अवाक रह गयी। निन्नी ने आगे कलर्स टीवी पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक 'अग्नि परीक्षा जीवन कीः गंगा’ की मिसाल देते हुये समझाया कि गंगा मेरी जितनी छोटी बच्ची है और उसका पति मर गया है। इसलिए वह सफेद
साड़ी पहनती है और जलेबी भी नहीं
खाती है। अब
समझने वाली बात है कि जहाँ 26 साल की नौजवान विधवा
लड़की आस्था के मायके वाले उसे एक सामान्य ज़िन्दगी की ओर मोड़ने की कोशिश कर रहे
हैं, वहीं इसके बरक्स कुप्रथाओं को पुनः पोषित करने में
जुटे कुछ टीवी धारावाहिक निन्नी जैसी अबोध बच्चियों में उनके प्रति रोचकता पैदा
करते जा रहे हैं। इसका प्रभाव आज के सामाजिक जीवन को प्रभावित कर
आस्था जैसी लड़कियों को झकझोर कर रख देता है। चिन्ता का विषय है कि सूचना क्रान्ति
के इस दौर में यदि ज़माना कुप्रथाओं की ओर मुड़ चला, तो न जाने इसका भविष्य कितना
भयावह हो सकता है। टीवी धारावाहिकों के निर्माता भारत की बुनियादी ज़रूरतों पर
शायद ही कभी ध्यान ले जाते हैं। हालाँकि जो ले जाते हैं, ऐसा नहीं है कि वो सीरियल सफ़ल नहीं हुये। ‘अफ़सर बिटिया’ और ‘निमकी
मुखिया’ जैसे धारावाहिक इसके उदाहरण हैं, जो जनता द्वारा
ख़ूब पसंद किये गये और जमकर सराहे गये। इन दोनों ने मध्यम वर्ग की बालिकाओं को
ख़ासा उत्साहित किया।
ऐसे टीवी धारावाहिकों की
रोकथाम के लिए महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के राज्य कार्यकारी अध्यक्ष अविनाश पाटिल ने भी इस संदर्भ में
भारी चिन्ता ज़ाहिर की है। उनकी मानें तो धारावाहिकों
में डायन,
नाग-नागिन, काला जादू, प्राचीन कुरीतियों से जुड़ी घटनाओं को प्रचारित करने के ख़िलाफ़ उनकी समिति ने पूरे महाराष्ट्र में कई कैम्पेन
चलाये हैं, क्योंकि ऐसे
धारावाहिकों के धुआँधार चलन से समाज में लगातार नकारात्मक परिणाम सामने आ रहे
हैं। इसके सुधार के लिए वह प्रसारण क़ानूनों में बदलाव चाहते
हैं।
इस मसले पर उच्चतम
न्यायालय के अधिवक्ता अशोक सिंह ने भी
सवाल किया कि क्या भारत का संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत ऐसी
किसी चीज़
की अनुमति देता है, जो
लोगों के मन मस्तिष्क को आघात पहुँचाने
और समाज में वैज्ञानिक सोच के विकास को प्रभावित करे। इस बाबत संविधान में वर्णित नीति निर्देशक सिद्धान्तों में
राज्य का दायित्व बताया गया है, कि वह देश में वैज्ञानिक स्वभाव को बढ़ावा देंगे।
इस क्रम में अंधविश्वास से लड़ना या इसके निवारण के लिए कार्यवाई करना भी इसमें
शामिल हो जाता है। इसके अलावा प्रसार भारती एक्ट की धारा-12 में सीधे-सीधे
अंधविश्वास के विरोध में प्रसार भारती के दायित्वों को स्पष्ट करते हुए भी उसमें
इस तरह की चीज़ें शामिल की गयी हैं।
हालाँकि
सिनेमेटोग्राफी अधिनियम,
1952 टीवी धारावाहिकों पर लागू नहीं होता है, क्योंकि इसे
प्रवृत्त करने का अधिकार केन्द्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड के पास है और सेंसर बोर्ड
सिनेमाहॉल में प्रदर्शित होने वाली फ़िल्मों के लिए उत्तरदायी है। टीवी पर दिखाये
जाने वाले धारावाहिकों और कार्यक्रमों से सेंसर बोर्ड का कोई अख़्तियार नहीं है। बल्कि
ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज़ (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम, 1954 के अंतर्गत देखें तो कुछ हद तक ऐसे धारावाहिक इसके
दायरे में आने चाहिए, क्योंकि विज्ञापन को व्यापक अर्थ में समझने पर निष्कर्ष तो
यही निकलता है कि कहीं न कहीं इन माध्यमों से अंधविश्वास को विज्ञापित ही किया जा
रहा है। ऐसे में चैनल के मालिक तक इसके घेरे में आ सकते हैं। बावजूद इसके इस एक्ट
का दायरा बहुत सीमित है।
सच्चाई तो यह है कि टीवी
धारावाहिकों का न कोई नियमन है और न तो अभी तक इसका कोई सेंसर ही है। इनका सीधे
निर्माण होता है और सीधे प्रसारण। यद्यपि इन धारावाहिकों के प्रसारण से पहले तो
किसी तरह के नियमन की व्यवस्था नहीं है, लेकिन यदि ये केबल टेलीविज़न नेटवर्क
रूल्स, 1994 के नियम संख्या 6 में दिये गये प्रोग्राम कोड का उल्लंघन करते हैं, तो
फिर इन पर कार्यवाई हो सकती है। ग़ौरतलब है कि प्रोग्राम कोड में यह निर्देशित
किया गया है, कि किस तरह के कार्यक्रम केबल सर्विस के माध्यम से प्रसारित नहीं हो
सकते हैं। इसमें नियम संख्या 6 के उप-नियम (10) में स्पष्ट है कि ऐसा कोई भी
प्रोग्राम जो अंधविश्वास या अंधश्रद्धा को बढ़ावा दे, वो केबल सर्विस के माध्यम से
प्रसारित नहीं किया जाना चाहिए। यदि कभी ऐसा होता है तो ज़िलाधिकारी इसकी शिकायत सूचना
एवं प्रसारण मंत्रालय को कर सकता है या फिर वह स्वयं केबल ऑपरेटर पर कार्यवाई कर
सकता है। जबकि मंत्रालय इसकी सूचना प्राप्त होने पर लाइसेंस के शर्तों के आधार पर
सीधे चैनल का लाइसेंस ही रद्द कर सकता है। हालाँकि केन्द्रीय सरकार, केबल
टेलीविज़न नेटवर्क (विनियमन) अधिनियम, 1995 में इसके अन्य दण्ड विधान 21वीं सदी के
पहले दशक में इसमें किये गये तमाम संशोधनों तक बहुत जाहिर नहीं होते हैं। इसलिए बेहद
आसान होगा अंधविश्वासों वाले इन धारावाहिकों पर नियमन लगाना यदि केबल टेलीविज़न
अधिनियम में इसके संबंध में कुछ और सुधार कर लिए जाएँ या अंधविश्वास बढ़ाने वाले इन
चैनलों पर कड़ी कार्यवाई के कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जायें। इन पर क़ानून बनाये
जायें। वरना इसे हल्के में लेना एक दिन समाज के साथ-साथ सरकार में बैठे लोगों को
भी भुगतना पड़ सकता है।