∙ अमित राजपूत
मुग़ल
शासकों ने युद्ध में विजय के हर्ष और हत्याओं-दर-हत्याओं के उपरान्त उपजे शोक
दोनों ही स्थायी भावों में सर्जना के फूल खिलाये। ये इतिहास गवाह है कि मुग़लों के
स्थापत्य की उपादेयता रही है। इनका जन सरोकार ऐसा रहा है कि ये आज भी उपादेय हैं। हक़ीक़त
में देखें तो उनके स्थापत्य के तत्कालीन स्वरूप को यथावत बनाए रखने तक में हमारा
आज नाकाम है। वैसा प्रतिरूप या अभिनव सर्जना की तो बात ही छोड़िये। ऐसे में हम
मुग़लों के स्थापत्य पर निर्विवाद रूप से गर्व कर सकते हैं।
बहरहाल, आज हम आपको मुग़लों के एक विशिष्ट स्थापत्य शैली के बारे में न सिर्फ़ बताएँगे; बल्कि उसकी नवीनतम या आख़िरी निशानी के पास तक की यात्रा भी कराएँगें। तो चलिए, सबसे पहले जानते हैं उस शैली के बारे में जिसे मुग़लों की बारादरी-युक्त चारबाग़ निर्माण शैली कहते हैं।
खजुहा में मुग़लों की बारादरी-युक्त चारबाग़ निर्माण शैली |
जी हाँ, आपको बता दें कि मुग़ल बादशाह बाबर (1526-70) ने बारादरी युक्त बाग़ निर्माण की परंपरा आरम्भ की थी। इन्हें चारबाग़ कहा जाता है। कहीं-कहीं इन्हें बाग़ बादशाही के रूप में भी पहचाना जाता है। चारबाग़ के बारे में और अधिक जानने के लिए बेहतर होगा कि आप किसी बाग़ बादशाही में घूम कर आइए। यहाँ हम आपको मुग़ल बादशाह बाबर द्वारा आरम्भ की गई बारादरी युक्त बाग़ निर्माण की परंपरा के नवीनतम या आधुनिकतम अर्थात् अन्तिम चरण का प्रतिनिधित्व करने वाले खजुहा की बाग़ बादशाही और औरंगज़ेब की पवेलियन घुमाने ले चलते हैं। यहाँ किसी भी मौसम में जाया जा सकता है।
औरंगज़ेब द्वारा
निर्मित खजुहा की बाग़ बादशाही मुग़लिया बारादरी-युक्त चारबाग़ परंपरा की आख़िरी
निशानी है। यहाँ औरंगज़ेब की पवेलियन भी है, जो अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण
विभाग द्वारा पूरी तरह संरक्षित है। यात्रा के दृष्टिकोंण से यहाँ पहुँचना बेहद
सुगम है और सस्ता भी। इसके लिए आप नई दिल्ली से कानपुर जाने वाली किसी भी एक्प्रेस
या सुपरफ़ास्ट ट्रेन की यात्रा करके कानपुर पहुँच सकते हैं। दिल्ली से कानपुर जाने
के लिए आप अपनी निजी कार अथवा आनन्द विहार आईएसबीटी से उत्तर प्रदेश परिवहन की बस
से भी यात्रा कर सकते हैं। जीटी रोड होते हुए सुगम मार्ग से आप आसानी से कानपुर
पहुँच गये हैं।
अब कानपुर से प्रयागराज की ओर अपनी कार अथवा उत्तर प्रदेश परिवहन से यात्रा करनी होगी। यदि आप नई दिल्ली से कानपुर तक रेलयात्रा करके आये हैं, तो भी आपको अब आगे की यात्रा बस द्वारा या अपने निजी वाहन से करनी होगी। इसके लिए कानपुर के झकरकट्टी बस अड्डे से हर आधे घण्टे में बसें मिलती हैं। कानपुर से पूरब प्रयागराज की ओर आगे बढ़ने पर आपको चौडगरा आना होगा। यह कानपुर से सटा उत्तर प्रदेश का फ़तेहपुर जनपद है। कानपुर से चौडगरा की अधिकतम दूरी क़रीब 50 किलोमीटर है। अब चौडगरा से दक्षिण दिशा में क़रीब 10-12 किलोमीटर की यात्रा करके आप इस फ़तेहपुर ज़िला की तहसील- बिन्दकी पहुँचेंगे। बिन्दकी चौक से पश्चिम खजुहा रोड है। खजुहा रोड पर है- कोतवाली बिन्दकी। कोतवाली के बगल में श्रीराधे स्वीट्स एण्ड बेकर्स में रुककर आप यहाँ की बेहतरीन और यूनिक डिश- ‘बेबी कॉर्न क्रिस्पी’ का मज़ा लेकर आगे बढ़ें तो आगे की यात्रा ऊर्जा से भर जाएगी।
बेबी कॉर्न क्रिस्पी |
अब यहाँ से मात्र पाँच किलोमीटर की दूरी पर ही है क़स्बा-
खजुहा, जहाँ औरंगज़ेब की पवेलियन और बाग़ बादशाही का आपको विज़िट करना है। बिन्दकी
चौराहे से खुजहा रोड पर चलने पर क़स्बा खजुहा के एंट्रेन्स पर दाहिनी ओर है बाग़
बादशाही और औरंगज़ेब की पवेलियन।
बिन्दकी चौराहे से
खजुहा की ओर बढ़ने पर जिस रोड पर हम चलते हैं, यह ऐतिहासिक मुग़ल रोड है, जो
11-12वीं शताब्दी में कड़ा से कन्नौज के मार्ग को जोड़ने वाला मुख्य मार्ग हुआ
करता था। इस मार्ग पर अलग-अलग कालखण्डों के विभिन्न शासकों की तमाम छावनियाँ,
पवेलियन और सराय हुआ करते थे। इन्हीं में से एक यह औरंगज़ेब की पवेलियन भी है।
पुनश्च, मुग़ल शासकों
ने युद्ध में विजय के हर्ष और हत्याओं-दर-हत्याओं के उपरान्त उपजे शोक दोनों ही
स्थायी भावों में सर्जना के फूल खिलाये। तो यहाँ औरंगज़ेब के समय खजुहा में निर्मित
बाग़ बादशाही हत्या के उपरान्त की सर्जना का प्रमाण है। इस प्रकार, प्रचीन मुग़ल
मार्ग पर स्थित उत्तर प्रदेश के जनपद फ़तेहपुर का यह क़स्बा खजुहा, मुग़ल बादशाह
शाहजहाँ (1627-58) के दो पुत्रों- औरंगज़ेब और शाहशुजा के मध्य 5 जनवरी, 1659 ई.
को उत्तराधिकार के लिए हुए निर्णायक युद्ध के कारण मध्यकालीन इतिहास में विशेष
स्थान रखता है। इस निर्णायक युद्ध में शाहशुजा की हत्या के पश्चात् औरंगज़ेब की
विजय हुयी थी।
औरंगज़ेब की इस विजय
के पश्चात् वह लगभग एक सप्ताह तक खजुहा में रुका रहा। उसने अपनी विजय की स्मृति
में इस स्थान का नाम औरंगाबाद रख दिया और बारादरी युक्त चारबाग़, मस्जिद एवं
कारवाँ सराय का निर्माण करवाया। ब्रिटिश काल में भी इस स्थान का विशेष महत्व रहा,
क्योंकि ब्रिटिशकाल में खजुहा नील के संवर्धन के उपयोग में लाया गया था।
ख़ैर, यदि बात करें मुग़ल बादशाह बाबर द्वारा आरम्भ की गई बारादरी युक्त बाग़ निर्माण की परंपरा के अन्तिम चरण का प्रतिनिधित्व करने वाले खजुहा की बाग़ बादशाही की तो चहारदीवारी से युक्त यह बाग़ मुग़ल चारबाग़ शैली का एक बेहद सुन्दर नमूना है। यहाँ की चहारदीवारी के कोनों पर सुन्दर छतरियों से सुसज्जित बुर्ज हैं, जबकि पश्चिमी दीवार के मध्य स्थित चौपहल भव्य दुमंजिला दरवाज़ा खजुहा क़स्बे की ओर ख़ुलता है। इसके ऐवान में गचकारी के माध्यम से बने ज्यामितीय अलंकरणों को नीले और हरे रंगों से सजाया गया है।
खजुहा की बाग़ बादशाही में उत्तर-पूर्वी कोने पर बना सुन्दर छतरी से सुसज्जित बुर्ज। |
चारबाग़ की उत्तरी दीवार से लगी हुयी तीन बावलियाँ बनाई गई हैं, जिनका उपयोग चारबाग़ में जल आपूर्ति के लिए होता था। बाग़ के मध्य में एक बावली एवं हौज है, जिससे जल चारों ओर नहरों जैसी बड़ी-बड़ी नालियों के माध्यम से बाग़ में पहुँचाया जाता था। नहरों जैसी नालियों के अवशेष अब विद्यमान नहीं रह गये हैं।
खजुहा की बाग़ बादशाही के मध्य में बना हौज। |
बाग़ बादशाही के पूर्वी भाग में दो सोपानों में निर्मित लगभग तीन मीटर ऊँचे भव्य चबूतरे के ऊपर भी अलग से दो बारादरियाँ निर्मित की गयी हैं, जो देखने में आलीशान लगती हैं। इन दोनों बारादरियों के मध्य में एक ख़ूबसूरत हौज है। इस हौज का जल चबूतरे पर स्थित नालियों के माध्यम से अलंकृत पुश्त-ए-माही के ऊपर से होकर चारबाग़ की ओर जाता था।
खजुहा की बाग़ बादशाही के अलंकरण का एक नमूना। |
पूर्वी बारादरी तो निहायत ख़ूबसूरत और अलंकृत है। इसमें बंगला छत है। इसके मुख्य हाल से खजुहा के शाही तालाब का मनोरम दृश्य दिखाई पड़ता था। यद्यपि पूर्वी बारादरी की छत बंगला है तो वहीं, पश्चिमी बारादरी की छत एकदम सपाट है। बारादरियों में मुख्य हाल के अतिरिक्त दोनों ओर कमरों की भी व्यवस्था की गई है। इन कमरों का उपयोग बाग़ की रखवाली में लगे अधिकारियों और कभी-कभी अतिथियों के ठहरने की व्यवस्था के लिए उपयोग में लाये जाते थे।
भव्य चबूतरे के ऊपर दोनों बारादरियों के मध्य में बना ख़ूबसूरत हौज तथा बाग़ की पूर्वी बारादरी पर बना बंगला छत से युक्त भवन। |
...तो इस प्रकार, मुग़लिया बारादरी-युक्त चारबाग़ शैली हमें आकर्षित करती है। लेकिन यदि जहाँ एक तरफ़ फ़तेहपुर के खजुहा स्थित मुग़लिया बारादरी-युक्त चारबाग़ परंपरा की आख़िरी निशानी हमें लुभाती है, तो वहीं यह एक दुश्वारियों का भी मारा हुआ लगता है। जी हाँ, हम उस वक़्त चौंक उठे जब हम बाग़ बादशाही के मध्य में स्थित बावली एवं हौज को देखने पहुँचे। वहाँ पहुँचने पर एक अधेड़ उम्र की औरत और अपने कानों में इयरफोन लगाकर कहीं बातों में मशगूल एक नौजवान लड़की हमें दिखाई पड़े। बावली से सटी एक कुरिया के सामने पड़े सूखे-कटे पेड़ की धन्नी पर बैठी वो औरत ख़ुद को राजेन्द्र सिंह कछवाह की पत्नी बताती है।
बाग़ के मध्य में बनी बावली से सटी कुरिया के सामने पड़े सूखे-कटे पेड़ की धन्नी पर बैठी राजेन्द्र सिंह कछवाह की पत्नी और पुत्री। |
अपने पति राजेन्द्र
के बारे में उसने बताया कि वो बिन्दकी एसडीएम के अर्दली या पेशकार हैं। इयरफोन
लगाकर बात कर रही नौजवान लड़की उनकी बेटी है। अंत में उसने जो कहा वो यक़ीनन हैरान
करने वाला था। उसने बताया बाग़ के मध्य में स्थित हौज और बावली पर उनका मालिकाना
हक़ है। सचमुच बाग़ के मध्य में बनी बावली पर निजी नलकूप लगा है।
इतना ही नहीं, आज खजुहा की इस बाग़ बादशाही में बाग़ के नाम पर शायद ही कोई पेड़ लगा है। यहाँ तो सपाट ज़मीन है, जिस पर हमें जुते हुए खेत दिखाई दिये। राजेन्द्र कछवाह की पत्नी ने हमें बताया कि इस बाग़ के भीतर आज खेतनुमा दिख रही ज़मीन पर कुल आठ लोगों का कब्ज़ा है।
खजुहा की बाग़ बादशाही के भीतर नदारद पेड़ व बाग़ तथा ख़ाली सपाट पड़ी ज़मीन व खेत। |