● अमित राजपूत
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PC: Atul Grewal |
ये कोई पहला मौक़ा नहीं
था, जब प्रो0 राम किशोर शुक्ल हॉलैण्डियों के हत्थे चढ़े थे। मगर इस बार शुक्ल का
नसीब कुछ ज़्यादा ही ख़राब था। दरअसल, हॉलैण्ड हॉल के अंतःवासियों ने इस बार भीड़
का ऐसा व्यूह बनाया कि रामकिशोर उससे निकल ही नहीं सके और धक्का-मुक्की के बीच
उन्होंने ख़ुद को हॉलैण्ड हॉल की चहारदीवारी के बीच पाया।
ये इलाहाबाद
विश्वविद्यालय का सबसे प्रख्यात छात्रावास है- हॉलैण्ड हॉल। मठाधीशी के मामले में
इसके जज़्बात स्वयं विश्वविद्यालय से भी एक दशक पुराने हैं। हॉलैण्ड हॉल की
दीवारों की लावण्यता और परिसर की वीस्तीर्णता क्रमशः इसकी आभा और गुरूर का भान
कराते हैं। कमरों के भीतर लम्बी ऊँचाई पर छत से सटे गवाक्षों की भाँति यहाँ की
पारिस्थितिकी में पले हरेक शख़्स का मस्तिष्क ऐसा तैयार होता है कि उसके भीतर
उत्तम दृष्टिकोण की दीप्ति प्रगट हो जाती है। यही कारण है कि इसके अंतःवासियों में
उक्त सभी गुण नैसर्गिक रूप से आ जाते हैं। इसके बरक्स विश्वविद्यालय परिसर की
पगडण्डियों से लेकर यूनिवर्सिटी चौराहा होते पूरे कटरा भर में मशहूर है कि हॉलैण्ड
हॉल में शनीचर रहते हैं। ख़ुद हॉलैण्डी भी इस बात में हामी भरते हैं कि हाँ,
हॉलैण्ड हॉल में शनीचर रहते हैं। पक्के वाले न्यायाधीश। हॉलैण्डियों का मानना है
कि शनिदेव के न्यायालय में देरी हो सकती है, लेकिन हॉलैण्ड हॉल के भीतर न्याय में
देरी हो, ऐसी कतई कोई गुंजाइश नहीं रहती। यानी शनीशर से भी बड़े शनीचर रहते हैं
हॉलैण्ड हॉल में।
बहरहाल, प्रो0 राम
किशोर शुक्ल आज हॉलैण्ड हॉल की ऐसी ही एक न्यायपालिका में पेश किए गए हैं।
छात्रावास के कैम्ब्रिज़ कोर्ट में घुसते ही ठीक सामने इनडोर बैडमिंटन कोर्ट के
चबूतरे पर न्यायमूर्ति के रूप में गुड्डन मिश्र विराजमान हैं। गुड्डन को अइखट-पइखट
में लोग हॉलैण्ड हॉल के मठाधीश के रूप में जानते हैं। पहले बीए, फिर एमए और उसके
बाद तीन साल एलएलबी करने के बाद गुड्डन ने एक अन्य विषय से भी एमए किया है। इस
प्रकार, छात्रावास में रहकर कुल दस सालों तक तो उन्होंने विश्वविद्यालय में वैध
तरीक़े से पढ़ाई ही की। इसके बाद तीन सालों तक गुड्डन ने सिविल की तैयारी की, दो
मेन्स लिखे। लेकिन फिर अचानक गुड्डन को कहीं से ब्रह्मज्ञान हुआ कि इस देश में अगर
ढंग से भौकाल में जीना है तो सुप्रीम कोर्ट का वकील बनो, आईएएस-पीसीएस में कुछ
नहीं धरा। बस, तभी से गुड्डन ने सिविल की तैयारी को लात मारकर इलाहाबाद हाईकोर्ट
में प्रैक्टिस शुरू कर दी है। इन दिनों वह सुप्रीम कोर्ट जाने के लिए अँग्रेज़ी
सीख रहे हैं। तो दस साल की पढ़ाई, तीन साल की तैयारी और दो साल प्रैक्टिस करते हुए
कुल पंद्रह सालों से गुड्डन हॉलैण्ड हॉल के अंतःवासी हैं। ज़्यादातर ऐसे भाग्यहीन
हैं, जिन्होंने गुड्डन मिश्र का अब तक केवल नाम ही सुन रखा है, देखा नहीं है।
प्रो0 शुक्ल उन्हीं दुर्भाग्यशालियों में से एक हैं, जिन्होंने गुड्डन मिश्र के आज
तक दर्शन नहीं किए हैं। मगर आज जब गुड्डन मिश्र उन्हें साक्षात् दर्शन दे रहे हैं,
तो प्रो0 शुक्ल उनके तेज से काँपे जा रहे हैं। पेशाब भी अब छूटे कि तब कुछ कहा
नहीं जा सकता। क्योंकि गुड्डन सिर्फ़ पढ़े नहीं हैं, गढ़े भी क़ायदे से हैं।
हॉलैण्ड हॉल के अंतःवासियों के ऊपर आने वाली जटिल और बुरी शक्तियों का शमन उन्हीं
के कर कमलों द्वारा होता है।
“गुड्डन भइया! तुम हमको… मारोगे?” थोड़े
संदेह और भय से भरे स्वरों में प्रो0 शुक्ल ने बोला।
“गुड्डन
भइया अब ख़ुद नहीं मारते। मरवाते हैं।” गुड्डन की कुर्सी के पीछे खड़ा एक अंतःवासी झट से बोल
पड़ा।
“मन
किया तो कभी-कभी डंडा-दो डंडा मार देते हैं।”
गुड्डन के बगल में उसकी कुर्सी से सटे पड़े एक डंडे को दिखाते हुए दूसरा अंतःवासी
बोला।
तीसरे
ने कहा- “ये मत सोचो कि तुमको मारेंगे ही, प्रोफ़ेसर। गुड्डन सर
का जब मूड होता है तभी किसी-किसी को मारते हैं।”
तभी
तीसरे के समर्थन में गुड्डन की कुर्सी के पीछे वाला बोल पड़ा- “हाँ,
जैसे कोई-कोई घुघुवार की तरह एकदम घुप्प, चुप्पी मारे चुप रहा तब। कोई कुछ न बोला
तो...”
“हाँ,
तो बोलो न.. क्या बोलना है..” प्रो0 शुक्ल ने हड़बड़ाकर कहा।
गुड्डन
मिश्र की सभा में एक पल का सन्नाटा छाया। फिर गुड्डन ने अपनी दाहिनी ओर खड़े अपने
जूनियर संतोष पाल को देखा। बाँई ओर खड़े संतोष के बैटमेट विशाल ने पूछा-
“अर्रे
राम किशोरऊ! अब यहाँ तुम्हारी याददाश्त कहाँ काम करेगी। संतोष को
क्यों टॉर्चर करते हो यार, गुड्डन भइया यही पूछना चाह रहे हैं तुमसे। एचओडी हो तो क्या
पेल के रखोगे स्टूडेंट्स को। आराम से जियो और जीने दो यार..”
“अर्रे..प..प्..
प्..”
“चुप
करो तुम।” विशाल ने शुक्ल की बात काटकर अपनी बातें जारी रखीं और
अब वह गुड्डन से मुख़ातिब हो रहा था।
“सर! इनके
डिपार्टमेंट में एक लड़की है- अर्चना। एमए में है, काफी सुन्दर है। एकदम बढ़िया...
संतोष से बात करती है। मतलब दोस्त की तरह है सर.. यानी है वो संतोष से सीनियर,
लेकिन वो संतोष को जूनियर नहीं मानती सर। दोस्त जैसे मानती है। मेरा मतलब है सर कि
दोनों...”
“प्यार
करती है क्या तुमको?” गुड्डन ने विशाल की बात काटकर संतोष से पूछा।
“जी
सर..। मतलब अभी कुछ कह नहीं सकते हैं सर। मेरा मतलब है कि अभी बात हो रही है सर
अच्छे से, हो ही जाएगा सर जल्दी।” संतोष ने अपनी बुशर्ट की तीसरी बटन को निहारते हुए सिर
झुकाकर गुड्डन को जवाब दिया।
विशाल
ने कहा- “सर, प्यार बस होने ही वाला है। टाइम लगता है सर थोड़ा।
लेकिन ये बुढ़ऊ रंग में भंग डालते रहते हैं। अभी पिछले हफ़्ते बीए फ़र्स्ट इयर के
एक जूनियर को इन्होंने कायदे से बिना मतलब के कूट दिया था सर इन्होंने। उस दिन भी
कैम्पस में ये कुटते-कुटते बचे थे। माने एकदम से मरकहा बैल की तरह हैं सर ये। माने
अन्ना साड़ समझिए सर इनको..”
“क्लास
में जब देखो तब हमारी बेइज़्ज़ती करते रहते हैं सर। जलते हैं हमसे। चलिए, क्लास
में कुछ बोल देते हैं, तो कोई दिक्कत नहीं है सर। लॉबी में मिलते हैं, डिपार्टमेंट
के बाहर मिलते हैं, तब भी हमको डाँटते हैं। बत्तमीज़ी से बात करते हैं, वो भी
अर्चना मैम.. मतलब अर्चना जी, जो मेरी वो हैं सर, उनके सामने जान-बूझकर इनसल्ट
करते हैं हमारी।” संतोष ने विशाल की बात को हिचकिचाते हुए आगे बढ़ाया।
दबी
ज़बान कनखी मारते हुए विशाल फिर बोला- “हमको तो लगता है कि प्रोफ़ेसर साहब का ही अर्चना से कुछ
लफड़ा है सर। बहुत लसियाते रहते हैं उससे बात करते हुए।”
“तुम
मुर्गा बन जाओ संतोष झट से।” गुड्डन ने अपनी कुर्सी से खड़े होते हुए बोला।
गुड्डन
ने फिर विशाल की ओर देखा- “बाबू साहब! लउँडियाबाज़ी थोड़ा कम करो तुम लोग। क्या समझे?”
“लौंडियाबाज़ी
कम करनी है सर।”
“हाँ,
बेहतर। थर्ड इयर है बे तुम लोगों का। पढ़ो-लिखो, कुछ बनो। ख़ामख़ाँ प्रोफ़ेसर को
पकड़ लाए। जब लौंडिया का कंफ़र्म नहीं है कि वो संतोष से मोहब्बत करती है, तो तुम
सालों प्रोफ़ेसर का पत्ता साफ़ करने में लगे हो।”
“जी
सर।”
“क्या
जी सर.. मतलब सच में पत्ता साफ़ करने में लगे हो?”
“नहीं
सर, मतलब कि पहले कंफ़र्म करना चाहिए...”
“हाँ,
क्योंकि अपने को किसी की मॉरल पुलिसिंग नहीं करनी बे.. क्या समझे..”
“जी
सर..”
“जी सर
से काम नहीं चलेगा विशाल बाबू। तुम भी मुर्गा बनो संतोष के साथ।”
गुड्डन ने न्याय किया।
“गुड्डन
भइया हमको पता था, आप हमारा अपमान नहीं करेंगे। एक तो हम आचार्य ऊपर से ब्राह्मण..
और आप भी ब्राह्मण। ब्राह्मण कभी ब्राह्मण का अपमान कैसे करेगा भला।”
प्रो0 शुक्ल ने भयमुक्त स्वर में जल्दी-जल्दी कहा।
गुड्डन
ने प्रोफ़ेसर का हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचकर दाँत पीसते हुए बोला- “हम
सिर्फ़ न्याय करते हैं गुरुदेव! अभी हमारे बच्चों की पढ़ने की उमर है, इसलिए उन्हें
समझाने के लिए मुर्गा बनाए हैं।”
(तेज़
स्वर में) “खड़े हो जाओ रे तुम लोग। .. और निकलो सीधे अपने कमरों
में। जाकर पढ़ो-लिखो सालों...” गुड्डन ने दोनों जूनियर्स को दण्ड-मुक्त किया और फिर से
प्रो0 शुक्ल से मुख़ातिब हुआ- “अर्चना की पूजा करना बंद कर दो आचार्य। अपना आचार्यत्तव बरकरार
रखो महाराज। बहुत सुना है आपके बारे में। अच्छे विद्वान माने जाते हो आप। हम समझते
हैं कि आजकल अनाज में यूरिया अधिक छिड़का जा रहा है। और कभी-कभी शुक्र की महादशा
भी हावी होती है। लेकिन नौजवानों से संघर्ष करना तो बिल्कुल ठीक बात नहीं है न! संभल
कर रहो आचार्य! तरुणाई से उलझने से बचो। अपनी धोती की गाँठ टाइट कर लो
और हो सके तो भीतर निक्कर के नीचे लँगोट पहनना शुरू कर दो।”
मयंक!!!
(गुड्डन ने अपने एक जूनियर को आवाज़ दी।) प्रो0 शुक्ल को अपनी मोटरसाइकिल से
सम्मानसहित उनके घर छोड़ आओ।
“जी सर।” मयंक
अपनी मोटरसाइकिल मोड़ने लगा। प्रो0 शुक्ल मुड़कर जाने लगे।
“एक
बात और आचार्य..” पीछे से गुड्डन ने बोला।
“आपको
ब्राह्मण होने के कारण छोड़ा नहीं। बल्कि आपकी कोई ग़लती नहीं दिखी मुझे, इसलिए आप
पर दण्ड नहीं बनता। अगर अर्चना सचमुच संतोष से प्यार करने लगेगी और ये बात हमको
पता चली कि आप उसमें रोड़ा हो, तो हम ही रेलेंगे आपको। प्रणाम...”
प्रो0
शुक्ल अपनी धोती समेटकर झटपट मयंक की मोटरसाइकिल पर बैठ गए और मयंक उन्हें लेकर
छात्रावास के बाहर निकल पड़ा।
रास्ते
में मयंक ने अपनी मोटरसाइकिल एक फालूदा वाले ठेले पर रोकी।
“आप
घबराइए नहीं प्रोफ़ेसर साहब। हम टीचर्स की बहुत इज़्ज़त करते हैं,
लेकिन आजकल कुछ टीचर्स लिमिट क्रॉस कर देते हैं न। अब आप ही बताइए कि अगर हम लोग
अपने हित-अहित के लिए ख़ुद आवाज़ नहीं उठाएँगे, ख़ुद एक्शन नहीं लेगें तो हम पर तो
बड़ी ज़्यादतियाँ होने लगेंगी न। आप लोग मनबढ़ हो जाएँगे। पुलिस वैसे भी कुछ सुनती
नहीं है। विश्वविद्यालय में सबकुछ आप लोगों के ही हाथ में तो है। आप लोग सबकुछ कर
सकते हो, लेकिन हम लोग कुछ नहीं। तो आप फालूदा पीजिए और दिमाग़ ठंडा कीजिए। जो हुआ
उसे कृपया भूल जाइएगा, क्योंकि हमने जो किया वो सेल्फ़ डिफ़ेन्स है। अटैक नहीं।
हॉलैण्ड हॉल के भीतर से दर्शन कर पाए, सौभाग्य को दुहाई दीजिए..”
मयंक
ने अपनी मोटरसाइकिल दोबारा स्टार्ट की और प्रो0 राम किशोर शुक्ल को उनके आवास के
गेट तक छोड़ आया।
मयंक
का विश्वविद्यालय में पहला साल है। इसका बड़ा भाई अविनाश माहुर भी इसी विश्वविद्यालय
का छात्र और हॉलैण्ड हॉल छात्रावास का अंतःवासी रहा था। यही कारण है कि मयंक माहुर
में छात्रावास के आचार-विचार पहले ही साल में परिपक्क्व हैं। वह सीपीआई (एमएल) की
छात्र इकाई आइसा का सक्रिय सदस्य भी है और आइसा की नाट्य-टुकड़ी ‘दस्ता’ का प्रमुख
कलाकार है। मयंक
में विषयों के प्रति गंभीर चिंतन और वाणी में स्पष्टता है। इसके साथ-साथ मयंक का कला-पक्ष बेहद मज़बूत है। वह
अभिनय और नृत्य समेत कई विधाओं में पारंगत कलाकार है।
एक
दिन मयंक माहुर कैम्पस के भीतर कर्मचारी यूनियन गेट के भीतर वाले मैदान में अपने
एजूकेशन डिपार्टमेंट के फ़्रेशर फंक्शन की तैयारी के लिए कुछ लड़के-लड़कियों को डांस
प्रैक्टिस करा रहा था। तभी केपीयूपी छात्रावास के कुछ सीनियर आकर डांस देखने लगे।
थोड़ी देर बाद वो लड़के सामने एक चबूतरे पर बैठकर खैनी बनाते हुए प्रैक्टिस कर रही
लड़कियों को घूरते हुए ताड़ने लगे। यह सब मयंक को ठीक नहीं लगा। उसने केपीयूसी के
अंतःवासियों से अनुनय किया कि वह अब चले जाएँ, क्योंकि लड़कियाँ असहज हो रही है।
लेकिन
वह लड़के मानने वालों में नहीं थे। उन्होंने कुतर्क किया- “जब
हमारे सामने नहीं नाच पा रही हैं, तो स्टेज़ पर सबके सामने कैसे नाचेंगी?”
“स्टेज़
की बात अलग है सर। अभी वो सीख रही हैं, इसलिए असहज हो रही है। ऊपर से आप लोग इन्हें
घूर भी रहे हैं।”
“चूतिया
हो का बे” वे गुस्साए। “घूर रहे हो का क्या मतलब है? हम
भी बस देख ही रहे हैं।”
“मगर...”
(बात
काटकर) “चुप साले.. हम बेटा प्रो0 राम किशोर नहीं हैं, जो तुम
हमें ज्ञान पेलाओगे। तुम नचवाओ, हम देखेंगे। जो उखाड़ता बन रहा है उखाड़ लो। दिनेश
पटेल नाम है हमारा। संस्कृत विभाग में हूँ- एमए में। केपीयूसी में रहता हूँ। नाम
ध्यान रखना।”
केपीयूसी
के अंतःवासी की बात सुनकर मयंक दंग था। हालाँकि वह समझ चुका था कि प्रो0 राम किशोर
शुक्ल ने ही इन्हें झगड़ा करने के लिए भेजा है। ऐसे में, उस दिन मयंक अपनी
प्रैक्टिस वहीं बंद करके अपने छात्रावास चला गया। उसने झगड़ा न करना मुनासिब समझा।
वरना उस दिन केवल मयंक और दिनेश के बीच में झगड़ा नहीं होता, बल्कि हॉलैण्ड हॉल और
केपीयूसी दोनों के बीच बलभर गुम्मा चलते।
आगे
रार न बढ़े, इसे ध्यान में रखते हुए मयंक ने अपनी प्रैक्टिस वाली जगह ही बदल दी।
अब दूसरी जगह उनसे सबका अभ्यास पूरा कराया। फ़्रेशर फ़ंक्शन सकुशल बीत गया।
इन दिनों सर्दी अपनी
जवानी में है। कैम्पस बेहद हसीन हो चला है। आजकल चढ़ती दोपहर तक कोहरा छाया रहता
है। उतरती दोपहर से ही फिर कोहरा सबकुछ घेर लेता है। ऐसे मौसम में, सीनेट के संगोष्ठी
हॉल की लकड़ी की मेज़ों पर नोट्स और कुछ पर्चियाँ बिखरी पड़ी हैं। एक वाद-विवाद
प्रतियोगिता होने को है। विषय है: “समकालीन
भारतीय समाज में परंपरा और परिवर्तन”। मंच पर बैठी
प्रतियोगी छात्राओं की कतार में श्रीति शुक्ला की मुद्रा बिल्कुल अलग दिख रही है। उसकी
कमर में एक सहज-सी मर्यादा और आँखों में श्लोकों की गहरी स्मृति दिखाई दे रही है। अपनी
बारी आने पर उसने जब हाथ उठाकर बोला, तो उसकी वाणी में मानों
संस्कृत की सुरमयी नम्रता हो। अपनी बारी आने पर उसने वेदवाणियों के कुछ श्लोक
उद्धृत किए और वाद रखा कि परंपरा को समझे बिना परिवर्तन का निर्वचन अधूरा है।
अगले वक्ता थे मयंक
माहुर। हॉलैण्ड हॉल के अंतःवासी मयंक के पास बहस के बहाने खरोंचती हुई आग थी, वह कहानियों और आँकड़ों को वैसे ही जोड़ देता था, जैसे कोई किसान मिट्टी
में बीज। उसने अपने प्रतिवाद में कहा कि परंपरा अकेले आत्मिक नहीं है; यह शक्ति और पहचान के ताने-बाने में बुनी हुई व्यवस्था भी है, जो अनेक वर्गों को सीमाओं में बाँध देती है। मयंक की आवाज़ में सहजता थी,
पर उसके हर वाक्य में राह बदलने की ताक़त सबको दिखाई पड़ रही थी।
इसे श्रीति ने भी पहली नज़र में ही बहुत गहराई से भीतर तक परख लिया है।
श्रीति शुक्ल को मयंक
का प्रतिवाद उचित लगा। वाद-विवाद का दौर जारी रहा और अंततः मयंक ने प्रतियोगिता
जीत ली। श्रीति और मयंक के बीच वाद-प्रतिवाद कभी बहस और संघर्ष नहीं बना; बल्कि अंततः वह संवाद ही बन गया। दोनों के शब्द इकठ्ठा होकर एक सन्नाटे
में घुल गए और उसी सन्नाटे में दोनों के बीच कुछ नया पनप उठा। मयंक की जीत के बाद
श्रीति भी उठकर मयंक के पास आई और उसे जीत की बधाई दी।
लोग कहते हैं कि अक्सर
पहली नज़र मोहब्बत का दरवाज़ा नहीं खोलती, पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उच्च
स्थापत्योक्त सीनेट में श्रीति और मयंक की पहली बहस ने उनके बीच मोहब्बत का एक मौन
इक़बाल दे दिया, जो अगले ही पल से धीरे-धीरे समुद्र की लहरों की तरह फैलने लगा...
कैम्पस में फैले कुहासे
के भीतर मयंक और श्रीति की मोहब्बत से ऐसा ताप छूटा कि मानों अगले ही पल इस ताप से
कुहासा झर सा गया हो। इनके बारे में कोई अफ़वाह फ़ैलती कि इन दोनों ने कुछ छुपाकर
ही नहीं रखा। बल्कि दोनों ने एक-दूसरे को खुलकर स्वीकारा, चाहा और साथ में जीना
शुरू कर दिया।
श्रीति, एक धर्म परायण
सनातनी हिन्दू का जीवन जीती है। उसके गले में तुलसी की माला और माथे पर हल्दी का
तिलक उसकी पहचान बना हुआ है। वहीं, मयंक एक कम्युनिष्ट छात्र-नेता है। वह नास्तिक
है। धर्म को नहीं मानता। मयंक के कंधे पर एक डोरी वाला कपड़े का साधारण-सा लाल रंग
का झोला रहता है, जो कैम्पस में उसकी पहचान का हिस्सा है। फिर भी दोनों के बीच
रूहानी मेल है।
अक्सर तमाम विषयों को
लेकर दोनों कैन्टीन में बैठकर घंटों बातें किया करते हैं। आज भी श्रीति मयंक से
मिलने के लिए उत्साह में आकर कैंटीन की टेबल पर बैठने को हुई, तो गले से दुपट्टा
ठीक करते हुए उसका माला कड़े से जा फँसा। मयंक की तो मानों जान ही छूट गई... पलक
झपकते ही मयंक, श्रीति का हाथ पकड़कर उसके गले की माला को उसके कड़े से सुलझाने
लगा। फिर आहिस्ता-आहिस्ता श्रीति के माले को उतारकर अपनी हथेली पर लेकर उसके बगल
में बैठ गया।
“आज तो
ये माला दो-दो हत्याएँ करवा देता।” मयंक ने श्रीति के चेहरे की ओर देखकर कहा।
“वो
कैसे? कुछ होता तो मैं ही तो मरती बुद्धू।”
श्रीति बोली।
“अर्रे..
इस माले की वजह से अगर हमारी प्यारी जान ही न रहतीं, तो फिर इस पाँचफुटिया देह में
ही किसी जान को रहने का कोई हक़ कहाँ? ज़ाहिरन मैं भी मर ही जाता श्रीति।” मयंक
के मुँह से इतना निकलना भर हुआ कि श्रीति ने उसका मुँह दबा दिया।
फिर
मयंक ने धीरे से अपने मुँह से श्रीति का हाथ सरकाते हुए कहा- “तभी
कहता हूँ मैं तुमसे, इस माले को (श्रीति का माला दिखाते हुए) छोड़ो.. और हमारे
माले (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) में आ जाओ। हा..हा..हा..” मयंक
हँसकर भागने लगा और श्रीति उसका पीछा करते हुए उसे खेदकर दौड़ाने लगी।
कुछ
ही देर में दोनों थककर रुक गए और कैंटीन में बैठकर चाय-समोसा के साथ बातें करने
लगे।
“वैसे विचार
बुरा नहीं है श्रीति। दकियानूसी परंपराएँ हमे जकड़ लेती हैं। आज की समस्याओं को
समझने और हक़ीक़त के चैतन्य जीवन के प्रति ध्यान देने में ये परंपराएँ बाधा नहीं
तो और क्या हैं? इसलिए प्रगतिशील बनो और इसके लिए तुम्हारे
इस माले से बेहतर हमारा वाला माले सहायक हो सकता है। देख लो.. सोच लो..”
“अच्छा मयंक, तुम
अक्सर कहते हो कि परंपरा हमें बाँधती है। पर श्लोक तो राह दिखाते हैं।” श्रीति ने कहा।
“यक़ीनन, श्लोक
तो राह दिखाते ही हैं। इस पर किसी को संदेह भी नहीं है। लेकिन राह दिखाने वाले रास्तों
पर कुछ लोग सदा से टोल लगाकर बैठे हुए हैं। हम तो उन ठेकेदारों से.. बस उस टोल का हिसाब माँग रहे हैं।” मयंक ने मुस्कुराकर उत्तर दिया।
“अच्छा कौन टोल
लगाकर बैठा है भला? मुझे भी पहचान होनी चाहिए उन ठेकेदारों
की?” श्रीति ने जिज्ञासा भाव में पूछा।
“दूर क्यों
जाना, अपने आसपास से ही समझते हैं। जैसे तुम हो श्रीति शुक्ला।”
“हाँ.. तो” श्रीति ने अपनी कुर्ती की बाँहों को जहाँ तक
सरक सकता था, सरका लिया।
“तुमसे
भी शुक्लवर्णी लड़कियाँ हैं कैम्पस में, लेकिन वो शुक्ला नहीं हैं। तुमने जबरन
ख़ुद के नाम के आगे शुक्ला जोड़ रखा है, तो तुम्हीं क्या कम ठेकेदार हो? जो
असल में प्रतिमानित शुक्लवर्णी है, वो शुक्ला नहीं है। मसलन अब संस्कृत विभाग वाली
अर्चना को ही देखो। दिखने में छेना है पूरा छेना...”
श्रीति
हँसने लगी... “क़सम से यार, जिसको देखो वो अर्चना के ही पीछे पड़ा रहता
है। तुमको भी समझाने के लिए उदाहरण मिला भी, तो अर्चना का।”
“क्यों,
ग़लत उदाहरण दिया क्या?” मयंक ने मुस्कुराकर कहा।
“नहीं,
तुमने एकदम सही उदाहरण दिया। गोरी तो बहुत हैं वो। और सुन्दर भी काफी हैं। उनका
श्रीगढ़न भी बहुत प्यारा है। तभी तो सबके सब उनके पीछे लट्टू रहते हैं।”
श्रीति ने चहकते हुए कहा।
“हाँ,
तुम्हारा विभागाध्यक्ष राम किशोर भी।” मयंक ने बताया।
“क्या???” श्रीति ने गहरे आश्चर्य में
पूछा।
“हाँ, और नहीं
तो क्या! पर तुम्हें इसमें इतना बड़ा आश्चर्य क्यों हो रहा
है? अरमान हैं… कभी भी जाग सकते हैं।” मयंक के मुँह से इतना सुनने को ही था, कि श्रीति का हाथ मयंक के गाल पर दस्तक
दे गया।
मयंक कुछ समझने का
प्रयास करता भी कि श्रीति ने उसी अवाक् भाव में बोला- “वो
पिताजी हैं मेरे..”
अब मयंक के चेहरे का
भाव देखने लायक था। उसका मुँह ख़ुला रह गया। उसके चेहरे पर अब श्रीति के चेहरे से
कहीं अधिक आश्चर्य के भावों ने पहरा डाल दिया। प्रो0 राम किशोर शुक्ल श्रीति के पिता
हैं, इस बात पर मयंक यक़ीन नहीं कर पा रहा था। उसकी स्मृति में गुड्डन मिश्र के
नेतृत्त्व में प्रो0 शुक्ल के साथ वाला पूरा-का-पूरा हॉस्टल-कांड तैरने लगा।
अवाक् मयंक होश में तब
आया जब श्रीति ने उसका कान खींचते हुए पूछा- “क्या बोल रहे
हो तुम मेरे पिताजी के बारे में..? कहाँ से सुना? किसने कहा ये सब?”
“नहीं-नहीं, मैं
तो बस यूँ ही कल्पना कर रहा था। जैसे मर्द कल्पना करते हैं न.. कुछ भी। तो मुझे
लगा कि अर्चना जब इतनी भरी-पूरी.. मेरा मतलब इतनी बनी-सुथरी है, तो प्रोफ़ेसर का
भी दिमाग़ घूम जाता होगा।” मयंक ने हड़बड़ाते हुए बोला।
“कुछ भी सोचते
रहते हो और कुछ भी बोलते हो पागल। मैं तुम्हें अपने पिताजी से मिलवाना चाह रही थी।
तुम उनके बारे में ये सब सोचते हो, उन्हें जानकर कितना बेकार लगेगा। सोचो?”
“ख़तरनाक...” मयंक ने अपने ख़्यालों में कहा।
पर वो सचमुच तुम्हारे
पिता हैं? तुम प्रो0 राम किशोर शुक्ल की बेटी हो? मैं प्रो0
राम किशोर शुक्ल की बेटी से प्यार करता हूँ? मयंक की पतंग
आश्चर्य की खूँटी पर जा टँगी रह गई।
श्रीति ने जवाब देते
हुए अपनी बात बढ़ाई- “और नहीं तो क्या बुद्धू। मैं उन्हीं की बेटी हूँ। तुम्हें
मालूम है, प्रो0 राम किशोर शुक्ल यानी मेरे पिता जी की इज्जत किसी मंदिर के दीप से
कम नहीं है। उनकी बातें शुद्धता और मर्यादा के सिद्धांत पर टिकी रहती हैं। उन्हें
समाज का संरक्षण ब्रह्म परंपरा में निहित दिखता है। वो बहुत अच्छे हैं, तुम्हें
उनसे मिलकर बहुत अच्छा लगेगा।”
“पर
उन्हें मुझसे मिलकर बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगेगा।” मयंक
ने मन-ही-मन कहा।
“तुम कुछ कह रहे
हो मयंक?” श्रीति ने मयंक की चुप्पी तोड़नी चाही।
“नहीं-नहीं..
कुछ नहीं। क्या उन्हें सचमुच मुझसे मिलकर अच्छा लगेगा?”
“और नहीं तो
क्या.. मैंने तुम्हारे बारे में बहुत अच्छी-अच्छी बातें बताई हैं। उन्हें तुम्हारे
कम्युनिष्ट होने पर भी कोई ऐतराज नहीं है।”
“हाँ, तो मुझे
भी तुम्हारे बुतपरस्त होने पर भला कौन-सी दिक्कत है?” मयंक
ने कहा।
“अब कर
लो सारी बहस यहीं पर। कुछ बातें घर चलकर भी करें? आज
तुम हमारा घर भी देख लोगे।”
श्रीति
ने पार्किंग से अपनी स्कूटी निकाली और मयंक को उसकी हैंडिल थमाती हुई बोली- “लो..
पति बनने की आदत डाल लो। आगे-से तुम ही
चलाओगे और मैं तो रानी की तरह पीछे बैठा करूँगी बस...”
मयंक
ने आहिस्ते से स्कूटी की हैंडिल पकड़ी और श्रीति ने उससे भी आहिस्ता मयंक की कमर
पकड़कर बैठ गई। मयंक ने सीधे श्रीति के घर पर जाकर स्कूटी में ब्रेक लगाई।
“ओए...
तुम्हें मेरा घर पहले से कैसे पता है?” श्रीति ने मयंक के सामने आँखें फाड़ी।
मयंक किंकर्तव्यविमूढ़ता के साथ श्रीति को देखता ही रहा।
“मैं
कुछ पूछ रही हूँ.. तुम्हें मेरा घर पहले से कैसे मालूम हो?”
श्रीति और ज़ोर से चीखी।
“स्टॉक...
स्टॉक किया था न बेबी तुमको दो-तीन बार। मन नहीं लग रहा था, तुम्हें बाय बोलने के
बाद।” प्रो0 शुक्ल के साथ फालूदा खाने वाली स्मृति से वापस
आकर मयंक बोला।
“सो..
स्वीट। तुम कितने अच्छे हो मयंक..” कहकर श्रीति ने मयंक को गले लगा लिया।
श्रीति
मयंक को लेकर अपने घर के भीतर गई और ज़ोर से प्रो0 राम किशोर शुक्ल को पुकारने
लगी- “पिता जी.. आइए.. देखिए कौन आया है...”
प्रो0
राम किशोर शुक्ल ख़ुशी से चहकते हुए अपने घर के ड्राइंग रूम में आये- “तु..तु..तु..तुम..
तु..तुम यहाँ कैसे..?” मयंक को देखकर चौंके।
मयंक
चुप रहा। श्रीति ने एक नज़र अपने पिता को देखा और फिर नज़रे मयंक पर टिका लीं।
“तुम्हारा
नाम मयंक था? ओह्हो.. उस दिन तो मैंने तुम्हारे नाम पर ध्यान ही नहीं
दिया।” प्रो0 शुक्ल के चेहरे पर सावधानी
और भय दोनों के निशान उभर आए।
क्या नाम है तुम्हारा..?
“पिताजी
मयंक... बताया तो है मैंने आपको” श्रीति ने आहिस्ता से अपनी बात रखी।
“मेरा
मतलब है पूरा नाम क्या है तुम्हारा?” प्रोफ़ेसर के चेहरे का भय बरक़रार रहा।
“जी माहुर...
मयंक माहुर नाम है मेरा। मतलब कि मेरा पूरा नाम मयंक मा.हु.र.. है।”
“माहुर-वाहुर
छोड़ो यार... सीधे-सीधे ये बताओ कि क्या हो जनरल, ओबीसी, एससी या एसटी?
इनमें से क्या है?” प्रो0 शुक्ल ने पहले से अधिक सावधानी और भय के साथ बोला।
“ओबीसी
हूँ शुक्ल जी। लेकिन मैं ये जात-पात कुछ मानता नहीं हूँ। कॉमरेड हूँ मैं।
समतामूलतक विचार हैं मेरे...” मयंक ने स्पष्ट किया।
लेकिन
प्रो0 शुक्ल भय में आकर ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगे- “देखो
कोई बदतमीज़ी नहीं सहूँगा मैं तुम्हारी यहाँ पर। मैं पुलिस को बुलाउँगा। ये हॉस्टल
नहीं है तुम्हारा समझे। मुझसे ख़ामख़ाँ गुंडई बतियाने की कोशिश मत करना। ख़बरदार..
कोई भी नौटंकी किए तो मैं सीधे पुलिस को बुलाउँगा।”
“पिता
जी मयंक तो चुपचाप खड़ा ही है। आप ही चीख रहे हैं उस पर।”
श्रीति बोल पड़ी।
“बहुत
बदतमीज़ है बेटा ये लड़का” प्रो0 शुक्ल ने श्रीति के पास आकर कहा।
“नहीं
पापा, आपको कुछ ग़लतफ़हमी हुई है। मयंक बहुत ही ज़हीन है।”
“क्या
मैं जान सकता हूँ कि आख़िर कौन-सी बदतमीज़ी की थी मैंने उस दिन आपके साथ? आपको
मोटरसाइकिल से घर छोड़ने की बदतमीज़ी? या फिर आपके बिलबिलाए मगज को ठंडक दिलाने के लिए
रबड़ी-फालूदा का ज़ायका दिलाने की बदतमीज़ी?” मयंक ने
अपने हाथ से पानी भरा गिलास प्रो0 शुक्ल की ओर बढ़ाते हुए कहा।
“आप
लोग पहले से जानते हैं एक-दूसरे को?” श्रीति ने दो क़दम आगे आकर दोनों से पूछा।
“मैं
याद नहीं करना चाहता उस घटना को।” प्रो0 शुक्ल ने माथे पर उँगलियाँ रगड़ते हुए कहा।
“आप
श्रीति के पिता हैं। इस नाते मैं भी उसका ज़िक्र करना मुनासिब नहीं समझता। लेकिन
हाँ, मैं आपको आज ये ज़रूर बताना चाहता हूँ कि बदतमीज़ी क्या होती है, ताकि श्रीति
को मेरे बारे में कोई संशय न रहे। और मैं चाहता हूँ कि आपके बारे में भी उसका संशय
मिटे।”
मयंक
की बात सुनकर प्रो0 शुक्ल उसकी और तेज़ी से बढ़े।
“घबराइए
नहीं। संशय का पूर्ण समाधान नहीं करूँगा। घबराइए नहीं। आप श्रीति के पिता है,
इसलिए डिफ़ेंस करूँगा। अटैक नहीं। मैं चाहता हूँ कि आप समझें कि हम लोग डिफ़ेंस
करते हैं। सिर्फ़ डिफ़ेंस।” मयंक की बात सुनकर प्रो0 शुक्ल को थोड़ा चैन आया।
मयंक
ने आगे कहा- “प्रोफ़ेसर साहब आप स्पष्ट नहीं कर सके कि मैंने क्या
बदतमीज़ी की या कि मैंने गुंडई क्या दिखाई। मेरी मोहब्बत श्रीति के सामने आपने मेरा
ट्रायल कर डाला।
अर्रे
केपीयूपी के गुंडे भेजना बदतमीज़ी है प्रोफ़ेसर साहब। गुंडई को हवा देना उससे भी
बड़ी गुंडई है श्रीमान्! क्या आपने मेरे लिए केपीयूसी के गुंडे नहीं भेजे थे? क्या
आप इसे बदतमीज़ी और गुंडई की संज्ञा नहीं देते?
बोलिए...!!!” मयंक चीख पड़ा।
“तुम्हारे चीखने
से कुछ होने वाला नहीं है मयंक। बेहतर है कि तुम मेरी बेटी श्रीति को भूल जाओ।”
“मगर क्यों पिता
जी? आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?”
श्रीति ने संशय भाव से पूछा।
“ब्राह्मण
कुल की बेटी किसी ओबीसी के साथ? वो भी जिसकी ढंग से न जात का पता न पात का।
यह रिश्ता किसी प्रकार भी स्वीकार्य नहीं है। तुम्हारी ज़िम्मेदारी केवल परिवार
नहीं,
पर हमारे कुल की गरिमा भी है श्रीति।”
मयंक
ने श्रीति से कहा- “अब शायद मुझे टोल देने का समय आ गया है श्रीति। ऐसा ही
होता है.. हम जैसों से ये ठेकेदार टोल के नाम पर यही सब माँगते हैं- हमारी प्रगति,
हमारी मोहब्बत, हमारी इज़्ज़त और भी बहुत कुछ, जिससे इनकी ठेकेदारी चलती रहे। यूँ
तो मेरे विचार समतामूलक हैं श्रीति। लिहाज़ा, मैंने नहीं देखा कि तुम्हारी जाति
क्या है। पर अब मुझे लगता है कि शायद मुझे तुमसे प्यार करना ही नहीं चाहिए था।
क्योंकि बाबा साहब ठीक ही कह गए हैं कि दोज़ हू फ़ॉर्गेट हिस्ट्री आर कॉन्डेम्ड टू
रिपीट इट यानी जो लोग इतिहास भूल जाते हैं, वे उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं। आज अब मैं उस अभिशाप में जल रहा
हूँ श्रीति।”
श्रीति के भीतर आवाज़
उठी... यह वही ध्वनि थी, जो उसके भीतर वर्षों से श्लोकों के भार में दबती रही।
उसने कहा,
“पिताजी, श्लोक हमें आत्मा का पाठ पढ़ाते हैं, पर जीवन के प्रश्न
निजी होते हैं। क्या प्रेम का माप जाति से होता है?”
प्रो0 शुक्ल ने ग़ुस्से
में अपनी पीठ श्रीति की ओर कर ली और आगे बढ़ने लगे। तभी श्रीति ने आगे कहा-
“स्नेहस्य
बन्धनं नास्ति, न जातिं न वयः। यत्र भावः विशुद्धः, चत्रैत प्रेममयः।।
क्या
ये आपने नहीं सिखाया है पिता जी, कि प्रेम का कोई बंधन नहीं होता- न जाति, आयु; आपने
ही सिखाया है कि जहाँ भाव शुद्ध हो, वहाँ प्रेम ही प्रेम है। मुझे मयंक से प्रेम
ही प्रेम है पिता जी।”
श्रीति
की बातें सुनकर प्रो0 शुक्ल तेज़ी से घर के भीतर की ओर बढ़े। श्रीति उनके पीछे-पीछे
अपनी बातें रखते हुए हल्की-सी दौड़ लगाने लगी-
“मैं
आपसे कोई बहस या तर्क नहीं कर रही हूँ पिता जी। कृपया हमारे प्रेम का जाति से सौदा
न करें। ये मेरा और मयंक का सहज प्रवाह है। ये हमारी आत्माओं को जोड़ता है पिता
जी।
प्रेमं
न व्यापारः, न तर्कस्य विषयः। सहजं यः प्रवाहः, स एव आत्मसंगमः।।”
इतना
सुनते ही प्रो0 शुक्ल विवश हो उठते हैं और श्रीति की ओर थप्पड़ मारने को पटलते
हैं। तभी मयंक प्रो0 शुक्ल का हाथ थामते हुए बोल पड़ता है- अपने मन से जाति का
ज़हर निकाल फेंकिए प्रोफ़ेसर साहब। आपका मन ज़हरीला है। अपनी बेटी का मन देखिए, एकदम
पवित्र। उसके मन ने आज़ादी चुनी और बाबा साहब ने कहा है कि फ़्रीडम ऑफ़ माइंड इज़
द रियल फ़्रीडम यानी आपके मन की स्वतंत्रता ही असली
स्वतंत्रता है। श्रीति स्वतंत्र है, आपके जातिवादी ज़हर से और आपके थोथे बड़प्पन
से।
“ज़रूर श्रीति मेरा ख़ून नहीं
है। वरना वो ऐसा कभी न करती कि तुम्हारे जैसे एक ग़ैर ब्राह्मण के साथ वह इस हद तक
चली जाती।” प्रो0 शुक्ल ने मयंक से मुँह बनाते हुए कहा।
अपने पिता के ऐसे वचन
सुनकर श्रीति आगबबूला हो उठी- “ऐसा बोलकर आपने तो मेरी मरी
हुई माँ को भी नहीं छोड़ा पिताजी, और किस हद तक गिरेंगे आप प्रो0 शुक्ल? ठीक है.. अगर ऐसा ही है तो आपके बहते लहू को देखकर मेरी आत्मा कभी न काँपेगी।
मैं अब अपने किसी भी फैसले से पीछे नहीं हटूँगी, फिर चाहे आप मर ही क्यों न
जाएँ...”
ऐसा कहकर श्रीति फफककर
रोने लगी। उसने ड्राइंग रूम की दाहिनी दीवार पर टँगी अपनी दिवंगत माँ की तस्वीर को
सावधानी से उतारा और मयंक का हाथ कपड़कर अपना घर छोड़कर बाहर सड़क पर चली आई। घर
की ओर एक दफ़ा पलटकर श्रीति ने प्रणाम किया और फिर पहले से अधिक ज़ोर से रोने लगी।
श्रीति ने मयंक का हाथ
और ज़ोर से जकड़ लिया। दोनों घर के बाहर सड़क पर ऑटो की राह देखने लगे। अगले ही पल
एक ऑटो ख़ुद से आकर उनके पास रुका। ऑटो से एक सुन्दर लड़की उतरी- अर्चना। वही,
संस्कृत विभाग में एमए वाली।
प्रो0 राम किशोर शुक्ल
के घर पर अर्चना को उतरते हुए देखकर मयंक और श्रीति दोनों हतप्रभ रह गए।
“आप?” मयंक
ने पूछा।
“हाँ
जी। क्या हुआ?” अर्चना ने प्रति प्रश्न किया।
“कुछ
नहीं, आचार्य जी के यहाँ जा रही हैं क्या?”
“हाँ
क्यों? आपसे क्या मतलब?
एक्स्ट्रा क्लास के लिए आती हूँ कभी-कभी..”
“कुछ
नहीं। सॉरी” मयंक ने माफ़ी माँगकर ऑटो वाले से सिविल लाइंस चलने की
बात तय कर ली और ऑटो में बैठ गया।
“सुनो
अर्चना!” श्रीति ने अपने आँसुओं पर ज़रा-सा क़ाबू करके टोका।
अर्चना
इस बार ग़ुस्से में पलटी। अर्चना का ग़ुस्सा देखकर श्रीति प्रतिशोध में भर गई।
“तुम्हारी
जाति क्या है अर्चना?
“मतलब?”
“मतलब
कि जनरल हो, ओबीसी हो, एससी हो या फिर एसटी?”
“एससी हूँ बताओ।
कोई दिक्कत?” कहकर अर्चना प्रो0 शुक्ल के घर की ओर जाने लगी।
श्रीति ने अपने पिता के घर की ओर
अर्चना को जाते हुए देखा, फिर एक बार घर की ओर देखा।
“अर्चना..!!” श्रीति ने पुकारा और दो-तीन क़दम बढ़कर जितनी तेज़ मार सकती थी, उतनी
तेज़ खींचकर अर्चना को थप्पड़ जड़ दिया।
अर्चना अपने गाल को
सहलाती वहीं अवाक् खड़ी रही और श्रीति ऑटो में जाकर मयंक के बगल में रोती हुई बैठ
गई।
ऑटो ने ज्यों-ज्यों
अपनी रफ़्तार बढ़ाई, त्यों-त्यों श्रीति के अश्रुओं ने भी अपनी प्रवाह-गति बढ़ा
दी।
श्रीति के अश्रु थमने
का नाम नहीं ले रहे हैं। वह मयंक की गर्दन जकड़कर उससे लिपट गई।
कुछ
दूर जाने पर ऑटो-ड्राइवर ने ऑटो में बज रहे संगीत की आवाज़ तेज़ कर दी।
ऑटो
में रवि की धुनों से सजे संगीत के साथ मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में गाए हुए शकील
बदायुनी के गीत “भरी दुनिया में आख़िर दिल को समझाने कहाँ जाएँ, मोहब्बत
हो गई जिनको वो दीवाने कहाँ जाएँ..” ने बेबस होकर अपना घर त्यागने वाली श्रीति के भीतरी संवेगों
को हवा दी। उसने बिना किसी परवाह के मयंक के अधरों को अपनी रदावलियों में दबा
लिया।
ऑटो वाले ने संगीत की आवाज़ को ज़रा-सा और ऊँचा कर दिया।