•अमित राजपूत
सत्ता के मद में डूबे और भारत-विजय के
यूटोपिया को गढ़ने वाले राजनेताओं के दंभ की चोट पर, आम आदमी के वोट पर दिल्ली की
सरकार चलाने के लिए आम आदमी के साथ सदा खड़े रहने वाले, सदा ही आम आदमी की वकालत
करने वाले और नौकरशाही को छोड़कर आम जनता के सहारे बढ़ने वाले अरविन्द केजरीवाल को
दिल्ली की बुद्धिजीवी जनता ने अबकी बार डंके की चोट देकर सत्ता पर काबिज किया है। अरविन्द
केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की कुल सत्तर सीटों में से पूरे सड़सठ सीटों
पर शानदार विजय हासिल की है, जोकि अपने आप में ही एक बहुत बड़ा कीर्तिमान है। दिल्ली
विधानसभा चुनाव का ये परिणाम महज एक चुनाव परिणाम ही नहीं है, बल्कि ये स्वयं में
न केवल दिल्ली की राजनीति के लिए बल्कि पूरे देश की राजनीति के लिए एक बहुत बड़ी
राजनैतिक घटना साबित होगी।
आज जब भारतीय जनता पार्टी एक अति
महत्वाकांक्षी पार्टी के रूप में भारतीय राजनीति के अंदर व्यवहार कर रही है, तब
ऐसी स्थिति में उसे नाकों चने चबवाकर, उसका पूरा दंभ मिट्टी में मिलाकर, ताल ठोककर
महाविजय हासिल कर लेना आम आदमी पार्टी के राजनैतिक सफर केलिए एक बेहद सकारात्मक
संकेत है। सही मायनों में विश्लेषित किया जाय तो, जहां पिछले आम चुनाव में
कांग्रेस के जबरदस्त विकल्प के रुप में भारतीय जनता पार्टी का सामने आना और बीजेपी
के शानदार प्रदर्शन में बड़े-बड़े सूरमाओं को अपनी-अपनी ज़मीन ढूढ़ने नहीं मिली
थी, तब आम आदमी पार्टी ने अपने चार सांसद निष्पक्ष विजय के साथ लोकसभा में पहुंचाए
थे। इससे पार्टी की रेस की दूरी और तमाम राजनैतिक तूफानों और सुनामियों से लड़ने
के इसके बूते और धीरज से सबको परिचित कराया था और एक संकेत दिया था। और अब दिल्ली
की अपनी इस शानदार विजय से इसने सिद्ध कर दिया है कि इसका भारतीय राजनीति में एक
विशिष्ट स्थान है और ये पार्टी ही देश की आने वाली राजनीति का प्रमुख पात्र होगी।
थोड़ा इतिहास से दीदार करें तो ये पार्टी हमें जनता पार्टी के निर्माण और देश की
राजनीति में उसके विकल्प और योगदान की प्रतिछाया सी लगने लगती है। कहने का आशय ये
है कि इसमे कोई द्वंद या संदेह नहीं है कि इस जीत के बाद आम आदमी का एक बहुत लम्बा
और एक सशक्त राजनैतिक भविष्य तय हो चुका है।
दिल्ली की जनता ने ये भी देखा है कि जिस तरह
से रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अरविन्द केजरीवाल पर
व्यक्तिगत प्रहार किए हैं वो ठीक नहीं थे। मोदी का अरविंद केजरीवाल को भगोड़ा और
नक्सली आदि सम्बोधित करने से कहीं न कहीं
दिल्ली के लोग भावनात्मक तौर पर
केजरीवाल के साथ जुड़ गए, जिसका फायदा आम आदमी पार्टी को मिला। भाजपा के अरविंद
केजरीवाल पर इस तरह के शब्द-प्रयोग इस बात की ओर संकेत करते हैं कि वो पिछले
लोकसभा चुनाव की जीत को अभी तक पचा नहीं पाए हैं। इसीलिए वो ऐसी उलाहना कर जाते
हैं, जिसका विपरीत परिणाम यह रहा कि सैकड़ों सांसद, पच्चीसों मंत्री, तमाम
मुख्यमंत्री और संघ के लगभग एक लाख कार्यकर्ताओं ने भी दिल्ली में भारतीय जनता
पार्टी की फजीहत को नही रोक सके।
अण्णा आन्दोलन के भ्रष्टाचार विरोधी ऐतिहासिक
आंदोलन की नींव पर खड़ी आम आदमी पार्टी ने अपने आरम्भ में एक राजनैतिक दुंदुभी बजाई थी। इस दुंदुभी
में फूंक मारने वालों में संस्थापक अरविन्द केजरीवाल के साथ तमाम अन्य प्रमुख चेहरे थे, जिन्होंने
बीते पिछले दिल्ली विधानसभा के चुनाव में जीत हासिल की और मंत्री भी रहे। आज जब पिछले
आम चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी एक सशक्त और प्रभावी पार्टी के रूप में आम
आदमी पार्टी के सामने खड़ी है तो ज़ाहिर है कि ‘आप’ को अपनी उस दुंदुभी में मिलकर तेज़ फूंक मारने की ज़रूरत रही है, किन्तु भाजपा ने जिस तरह से दिल्ली की
राजनीति में अपने तमाम मंत्री, सांसद और मुख्यमंत्रियों को उतारा था उससे लोगों
को स्थिति ये जान पड़ रही थी कि ‘आप’ की
दुंदंभी की धुन फीकी है। आम आदमी पार्टी का बड़ा चेहरा रहीं शाज़िया इल्मी बीजेपी
का दामन थाम चुकी थीं, विनोद कुमार बिन्नी पहले ही पार्टी के बागी रहे हैं और इस
चुनाव न सिर्फ़ वो बागी रहे, अपितु भारतीय जनता पार्टी से ’आप’ के ख़िलाफ़ चुनाव
भी लड़ रहे थे। सबसे माकूल बात ये कि अण्णा के साथ केजरीवाल और किरण बेदी साथ-साथ
आन्दोलन में रहे और दोनों की छवि जनता के सामने एक जैसी रही, दिल्ली विधानसभा
चुनाव में केजरीवाल के एकदम बरक्स खड़ी थीं। ऐसी स्थिति में हम ‘आप’ की दुंदुभी की हालिया तीव्रता की स्थिति का
जायजा लगा सकते हैं। कहने का आशय ये है कि उसने आपना दम भर जान लगाकर फूंक मारी है
और उसकी आवाज़ न सिर्फ़ दिल्ली को सुनाई दी बल्कि पूरे आवाम ने आम आदमी की इस दम
का दमखम देखा।
बीते नवम्बर-दिसम्बर तक बीजेपी अपनी स्थिति को
दिल्ली में ठीक-ठाक आंक रही थी, जोकि उसका बड़ा भ्रम था। क्योंकि उसी दरमियां आम
आदमी पार्टी ने घर-घर अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी थी और उसकी स्थिति में भी इजाफा
हो रहा था। ‘आप’ की उपरोक्त
स्थिति तो हालिया चुनाव परिणाम के पहले की रही है, इससे पहले ‘आप’ पर प्रहार स्वरूप
कुछ न था बीजेपी के पास और बीजेपी आम आदमी पार्टी से कमज़ोर पार्टी थी दिल्ली में,
वो अलग बात है कि उसने मनमानी ढंग से अपनी पार्टी की सीटों का आंकड़ा 50-60 का आंक
लिया था। रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री मोदी के भाषण के बाद बीजेपी की कलई खुल
गई। वहां अपनी एक लाख की अनुमानित भीड़ की बजाय उन्हे मात्र लगभग तीस हज़ार की
भीड़ के दर्शन हो सके, इससे बीजेपी संगठन में खलभली मंच गई और पार्टी में तुरन्त
एक आन्तरिक सर्वे कराया गया। सर्वे में नतीजा ये सामने आया कि बीजेपी की स्थिति
एकदम से खस्ता है। मध्य-वर्ग का पूरा वोट आम आदमी पार्टी की तरफ जाएगा, युवाओं में
तो आज भी केजरीवाल को लेकर भरोसा बना हुआ है तथा महिलाओं की सुरक्षा के मामले में
पार्टी हमेशा अपना मत सामने रखती आयी है। ऐसी स्थिति में केजरीवाल की छवि के बरक्स
कोई व्यक्तित्व सामने लाना बीजेपी की महान मज़बूरी बन गई, अब तक वो समझ चुकी थी कि
दिल्ली में सिर्फ़ मोदी-फैक्टर नहीं चलने वाला है। ऐसी स्थिति में बीजेपी ने एक बड़ा दांव खेला,
देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी किरण बेदी को बीजेपी की तरफ़ से प्रधानमंत्री का
उम्मीदवार घोषित कर दिया।
किरण बेदी की स्थिति उनका नाम घोषित करने के
समय पर बेहद अच्छी थी और दिल्ली की जनता में उत्साह भी था कि ऐसा व्यक्तित्व हमारे
बीच विकल्प स्वरूप होगा। अपनी स्थिति स्वयं बिगाड़ी है किरण बेदी ने ही। उन्होने
अपने बातचीत करने के तरीके में बदलाव न लाकर अपने पैरों में ख़ुद कुल्हाड़ी मारी
है। चुनाव के दौरान देखने में ये भी आया कि वो अभी भी एक आईपीएस अधिकारी की तरह
व्यवहार कर रही थीं। एनडीटीवी के जाने-माने पत्रकार रवीश कुमार के साथ साक्षात्कार
के दौरान दिल्ली की जनता ने उनका व्यवहार खुल कर सामने देखा, जिसे यूं ही
नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता था। उनके ऐसे बर्ताव जिसमे वो एक उम्मीदवार के इतर
एक सख़्त शासक की तरह व्यवहार कर रही थीं, दिल्ली की जनता को रास न आया और सोशल
नेटवर्किंग साईट्स पर उनके इस व्यवहार की जमकर आलोचना हुयी। उनकी ऐसी ही तमाम
गतिविधियों का परिणाम रहा है कि बीजेपी की मजबूत सीट कृष्ण नगर से वो आम आदमी
पार्टी के एसके बग्गा से परास्त हो गईं।
किरन बेदी को भारतीय जनता पार्टी द्वारा मुख्यमंत्री
पद का उम्मीदवार बनाया जाना दरअसल इस बात की ओर इंगित कर रहा था कि भाजपा को
केजरीवाल का भूत जबर्दस्त तरीके से डरा रहा था। स्थिति ये थी कि अब चुनावी ऊंट
चाहे जिस भी करवट बैठे लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने भाजपा को उसकी अब तक की रणनीति
बदलने को मज़बूर कर दिया। दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय जनता पार्टी नें ये मान
लिया था कि केवल मोदी लहर के ही सहारे केजरीवाल का मुकाबला नहीं किया जा सकता है।
बाकायदा मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर किरन बेदी का नाम घोषित हो जाने के
बाद ये पूरी तरह से साफ हो सका, कि दिल्ली का चुनावी-दंगल अण्णा-आंदोलन के दो
पूर्व सहयोगियों के बीच होगा।
हलांकि किरन बेदी के बाद शाज़िया इल्मी और
विनोद बिन्नी जैसे घर-भेदियों के बीजेपी में शामिल होने से ‘आप’ की स्थिति पर सेंध लगना हर हाल में स्वाभाविक
था, किन्तु ऐसा कोई भी दंश आम आदमी पार्टी को नहीं झेलना पड़ा। साथ ही इसी क्रम
में कांग्रेस की पूर्व केन्द्रीय मंत्री कृष्णा तीरथ और यूपी के पूर्व डीजीपी
बृजलाल के बीजेपी में शामिल हो जाने से वो और मज़बूत हुई है, फिर से चमक बढ़ा रही
थी। बीजेपी का मज़बूत होना ‘आप’ के लिए
ही ख़तरा था, क्योंकि सीधे टक्कर इनमें ही थी। अब दिल्ली की जनता के सामने दो
ईमानदार नौकरशाह आमने-सामने खड़े थे और उन्हें दमदार निर्णय से गुजरना था। दिल्ली
की होशियार जनता को निश्चय करना था कि विधानसभा चुनाव के कुरूक्षेत्र में वो किस
पाले में खड़ी होगी, पाण्डवों की सेना में या फ़िर कौरवों की सेना के में...?
किन्तु कौन पाण्डव है और कौन कौरव है इसका निर्णय जटिल था। सांकेतिक तौर पर सेना
के रण-बिगुल या दुंदुभी की आवाज़ पहचान कर निर्णय लिया जा सकता है कि कौन क्या है,
हलांकि ‘आप’ की दुंदुभी ने अपनी
स्निग्धावस्था में भारतीय राजनीति के अन्दर हलचलें पैदा कर दी थी।
जानकारों का ये भी कहना है कि अरविंद केजरीवाल
को जिन लोगों की वजह से नेगेटिव पब्लिसिटी
का लोड उठाना पड़ता था, वो लोड शेडिंग करके बीजेपी की तरफ जाने लगा था, बाद तक उम्मीद
बनने लगी थी कि उनका आचरण वहां भी वैसा ही रहेगा इसलिए उनको जाने दिया जाए। फिलहाल
दिल्ली की राजनीति में आम आदमी पार्टी से भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों को
भयभीत होने की ज़रूरत थी ही, और दोनों पार्टियां पर्याप्त भयभीत भी थीं, क्योंकि
दिल्ली की बड़ी जनसंख्या केजरीवाल को पसन्द करती है। इनमें भी खासी संख्या
मध्यम-वर्गीय परिवारों और ऑटो वालों की
हैं। इसी भय का ही कारण रहा कि भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पार्टी संयुक्त रूप
से केजरीवाल के धरनों का एक स्वर में विरोध करते नज़र आते रहे हैं। उन्होनें
केजरीवाल पर वार करने के लिए धरनों को ही हंसी की चीज़ बना दिया था। ये सत्य है कि
धरना क्यों और कब करना है, वह राजनीतिक विवेक और राजनीतिक उद्देश्य पर निर्भर करता
है। मगर धरना देना अपने आप में मज़ाक का विषय भी नहीं हो सकता है।
भाजपा भी केजरीवाल के धरनों पर सवाल खड़े कर
रही थी और कांग्रेस भी धरनों का ही मजाक उड़ा रही थी, पर अभिव्यक्ति और विरोध कर
सकने वाले लोकतांत्रिक देश में केजरीवाल
के धरना देने पर कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। वास्तव में धरना, प्रदर्शन, जुलूस वगैरह किसी आंदोलन के तौर-तरीके हैं
और जिन्हें आंदोलन से परहेज हो, वे ही धरना-जुलूस वगैरह से
चिढ़ सकते हैं। यद्यपि केजरीवाल ने धरना देकर कभी कुछ ग़लत नहीं किया, तथापि ग़लत
यह किया है कि वो जिस राजनीति को बदलने निकले थे, उसी
राजनीति के रंग में ही रंग गये, जिसको शायद एक बौद्धिक वर्ग रेखांकित करता चल रहा
है। उनका ये रेखांकन इस चुनावी निर्णय में असर कारक भी रहा होगा, अब हम सामने आए
प्रत्यक्ष निर्णय को देखकर ये अंदाज़ा लगा सकते हैं जनता ने इस रेखांकन को किस
प्रयोगार्थ किया था। ऐसे में आम आदमी पार्टी की स्थिति इस चुनाव में करो या मरो की
दशा में पहुंच चुकी थी, जिसके पूरम केलिए हुयी मेहनत का नतीजा सबके सामने आया है।
दिसंबर 2013 में
दिल्ली विधानसभा के चुनाव में आम आदमी पार्टी को कुछ वोट कांग्रेस के मिले थे और
कुछ बसपा के भी। किन्तु इस बार कांग्रेस
के कुछ वोट उसे वापस लौटे, कुछ भाजपा के पास भी ज़रूर चले गये
और कुछ आम आदमी पार्टी के पास बचे रह गए। वहीं इस बार बसपा अपने वोटों पर दावा
करने के लिए पूरे 70 सीटों पर मैदान में उतरी थी, जिसका सीधा
नुकसान आम आदमी पार्टी को ही हुआ, अन्यथा आम आदमी पार्टी का वोट प्रतिशत और भी
बढ़ने की संभावना थी। हलांकि दलित वोट बीजेपी की झोली में भी गए। इस मामले में
बीजेपी ने दलित नेता और बीजेपी सांसद डॉ. उदित राज का खूब उपयोग किया था। किसी
कार्यक्रम में बीजेपी आध्यक्ष अमित शाह के साथ डॉ. उदित राज की मौजूदगी में ये दीख
पड़ता रहा कि दलित नेता डॉ. उदित राज के साथ बीजेपी अध्य7 अमित शाह। कांग्रेस के
कुछ वोट उसके पास वापस ज़रूर लौटे, मगर उसे दौड़ से बाहर मान
कर दिसंबर 2013 में मिले कुछ वोट कटे भी। इसलिए कांग्रेस का
वोट प्रतिशत करीब-करीब पिछली बार जितना ही रहा, फिर भी इस बार के परिणामें में कांग्रेस
चहेतों केलिए सबसे बड़ा झटका रहा शर्मिष्ठा मुखर्जी और अजय माकन की कारारी हार का।
दिल्ली विधानसभा के पिछले चुनाव में बसपा
बिल्कुल साफ थी। उसके लगभग सारे वोट (आम तौर पर लगभग 8-9%)
आम आदमी पार्टी को चले गये थे। इस बार बसपा सारी 70 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। इस बार भी उसने अपने परंपरागत 8-9% वोटों में से 6-7% भी वापस नहीं ला सके। हलांकि
भाजपा का वोट प्रतिशत पिछले चुनावों के मुकाबले सिर्फ 0.87 फीसदी ही घटा है, लेकिन
कांग्रेस के करीब 14.85 फीसदी मतदाता आम आदमी पार्टी की ओर खिसक गए। और लगभग 10
फीसदी ने मतदाता आम आदमी पार्टी से जुड़ गए, जिससे उसका प्रतिशत कुल 24.8 फीसदी
बढ़ गया।
भारतीय जनता पार्टी की बात करें तो जहां पिछले
समय में तमाम हस्तियों के पार्टी में शामिल हो जाने से बीजेपी की स्थिति में काफी
इज़ाफा हुआ था, वहीं टिकट वितरण के बाद पार्टी में आन्तरिक असन्तोष की स्थिति बनी
हुयी थी। ऐसे में जब घर के अन्दर ही मतैक्य न रहा हो तो फिर मतदाता को एक तरफ कैसे
मोड़ा जा सकता था, जैसाकि भारतीय जनता पार्टी का पुरज़ोर प्रयास था। बीजेपी के
आंतरिक ढांचे में आरोपों और आचरणों के बदलाव का दौर सा चल गया था, जिसका उसे
ज़बरदस्त ख़ामयाजा भुगतना पड़ा।। ऐसी स्थिति में अक्सर आरोपों और आचरण में बदलाव
के कारण कार्यकर्ताओं का मोहभंग होता गया और सभी साथी छिटकते गए। यही स्थिति
बीजेपी को कमज़ोर करता चली गई, जिसका सीधा-सीधा फायदा आम आदमी पार्टी को हुआ और वो
इसको भुनाने में कतई कसर नहीं छोड़ी।
पिछले कुछ समय से लव जिहाद, धर्म परिवर्तन
जैसे मुद्दों और बीजेपी के कुछ मंत्रियों और सांसदों जैसे केन्द्रीय खाद्य एवं
प्रसंस्करण राज्य मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति और डॉ. सच्चिदानंद साक्षी महाराज
आदि के बयानों को लेकर उनका जैसा रुख रहा है, उससे दिल्ली के अल्पसंख्यक भाजपा को
लेकर हमेशा की तरह ही शंकित रहे। ऐसी स्थिति में काग्रेस उनके लिए कोई विकल्प थी,
लिहाजा इसका सीधा फासला आम आदमी पार्टी को मिला और वो विजयी हुयी। हलांकि आम आदमी
पार्टी की इस जीत को सीधे तौर पर मोदी की लोकप्रियता से जोड़ना मुनासिब नहीं होगा,
मगर इतना तो तय है कि इससे भारतीय जनता पार्टी के विजय-रथ पर कुछ अंकुश तो ज़रूर
लगेगा।
वास्तव में अरविन्द केजरीवाल का व्यक्तित्व
स्वयं में ही बीजेपी से लड़ने केलिए काफी समझा जाता रहा है, और इस बात को बीजेपी
तुरन्त भांप भी गई थी, कि आरविन्द केजरीवाल की राजनैतिक छवि पर, पर या परोक्ष रूप
से कोई भी दाग़ नहीं है और ये दिल्ली की जनता के समक्ष आम आदमी पार्टी का एक
मज़बूत पक्ष है। इसी के बरक्स भारतीय जनता पार्टी ने देश की पहली महिला आईपीएस
किरण बेदी को पार्टी की सदस्यता दिला कर सीधे मुख्यमंत्री पद की दावेदारी सौंप दी
थी, जिसका अरविन्द केजरीवाल ने अपने आचरण के अनुकूल मुकाबले के लिए स्वागत भी किया
था। अब जब केजरीवाल अपनी ईमानदार छवि की बदौलत दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो चुके
हैं तो इस बात का बी द्यान रखना चाहिए कि वो ईमानदार ज़रूर हो सकते हैं, लेकिन
अच्छे शासक के रूप में भी उनकी परीक्षा होनी अभी बाकी है।
ख़ैर, अब जब दोनो पार्टियों ने निर्णय कर ही
लिया था तो फिर दिल्ली की लड़ाई अरविन्द केजरीवाल बनाम किरन बेदी की हो गयी थी। दोनों
एनजीओ से वास्ता रखने के कारण एक ही मैदान के खिलाड़ी थे। दोनो अन्ना अभियान में
साथ रहे। दोनो समराशिक भी थे, और दोनों ही ईमानदार छवि के नौकरशाह रहे हैं,
जिन्होने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ लड़ाई के आन्दोलन में अण्णा हज़ारे का साथ दिया और
उनके विश्वसनीय रहे। इस तरह दिल्ली का चुनाव अण्णा अभियान के दो झंडाबरदारों के
बीच सिमटता चला गया था, क्योंकि ये मान लेना चाहिए कि मोदी वाली बीजेपी ने तो पहले
ही केजरीवाल के सामने नतमस्तक कर दिया था, तभी तो केजरीवाल सरीखे भीष्म की पराजय
के लिए शिखण्डी को उसके सामने ला कर खड़ा कर दिया था बीजेपी के चाणक्यों ने। अब तक
युद्ध की प्रकृति किरण बनाम केजरी की हो गयी थी, जो दिल्ली रूपी कुरूक्षेत्र में
सात तारीख़ को धर्मयुद्ध की तरह लड़ा गया। इस युद्द में भीष्म की शक्ति का अंदाज़ा
सब को चल गया है, अतः वो विपक्षियों के साथ असली लड़ाई में भी जीता है।
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