Monday, 20 July 2015

मोदी से अशुभ संकेत



इन दिनों देश की बारिश और मोदी के काशी दौरे को लेकर मैं बड़ा चिंतित हूं और व्यथित भी। दोनो अपनी अनियमितता के कारण देश की प्रजा को परेशान कर रहे हैं या यूं कहें कि इनकी अनियमितता के कारण देश का चक्र भी अनियमित हो चुका है।
बदलते मानसून और बारिश के चक्र ने देश के किसानों व उनकी फ़सल के चक्र को द्युतक्रीड़ा सा बना डाला है, कि भाग्य है बारिश हो न हो। कहीं बारिश की आस में बैठा किसान दिन काट रहा है, तो कहीं तिल-तिलहन बोने के बाद घनघोर मूसलाधार बारिश न हो जाए कि खेत के खेत सड़ ही जाएं। इस लिहाज से किसान आसमान की ओर अपने सिर को उठाये गरजते बादलों को देखता रहता है, ठीक उसी तरह जैसे आजकल बनारस की गलियों के व्यापारी अपनी दुकानों को बंद किये दिल्ली के सिंहासन की ओर देखता रह जा रहा है कि आज शायद मोदी आयेंगे, आज शायद काशी को स्मार्ट बनाने वाले वास्तुकार का जून होगा। लेकिन इस कम्बख़्त बारिश ने सिंहासन से चल पड़े उनके रथ को पथ ही न दिया। लिहाजा मोदी अपने लोगों के बीच यहां तक कि अपने दत्तक गांव के बीच भी न पहुंच सके। वास्तव में पहली बार किसी सेवक को अपने स्वामियों के बीच पहुंचने में इतनी कठिनाई देखी है। और यदि ऐसी दिक्कत प्रधान सेवक के साथ आ खड़ी हो तो निःसंदेह यह एक बड़ी समस्या है। किन्तु यह प्रधान सेवक तो घबराया ही नहीं, बल्कि इस बार बारिश से बचाव करने के लिए उसने नौलखा नहीं, बल्कि नौकरोड़ी पण्डाल की जबरदस्त व्यवस्था कर दी। इस बार वो तनिक चूकना नहीं चाह रहे थे अपने लोगों के बीच आने के लिए। इसलिए कोई दिक्कत न हो, व्यवस्था ‘टाईट’ रहे इसके लिये पूरे दो दिन पहले से ही एसपीजी ने बीएचयू ट्रामा सेण्टर और डीरेका मैदान(डीएलडब्ल्यू ग्राउण्ड) सहित हेलीपैड स्थल को अपने कब्जे में ले लिया।
यद्यपि हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री महोदय बनारस आकर 1828.43 करोड़ रुपये का तोहफ़ा देंगे। इस धनराशि से बनारस की स्वास्थ, सड़क और बिजली की व्यवस्था में बुनियादी बदलाव लाया जायेगा। वह 197 करोड़ से बने बीएचयू ट्रामा सेण्टर का उद्घाटन करेंगे। 250 करोड़ की रिंग रोड और 450 करोड़ की कचहरी-बाबतपुर फोर लेन योजना के साथ कज्जाकपुरा और चौक विद्युत सब स्टेशन का शिलान्यास करेंगे। इसके अलावा वह इंटीग्रेटेड पॉवर डेवेलपमेण्ट स्कीम(आईपीडीएस) और दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण ज्योति योजना की शुरुआत करेंगे और विकास योजनाओं की बुनियाद रखने के साथ ही डीरेका मैदान में केद्र सरकार की एक साल की उपलब्धियां बताएंगे। तथापि प्रश्न यह बन रहा है कि इस काम में दो मरतबा मिली मोदी को असफलता क्या उनको अभी भी इस काम के लिए बनारस आने को मदमुग्ध करेगी? हालांकि मात्र स्वजनों से मिलने की चेष्ठा यदि मोदी में होती तो यह इतना दूभर न था। बावजूद इसके यदि वह इस काम को इतना तवज्जो देते ही हैं तो बारिश के मौसम के बाद ही चले आते तो कदाचित वाटर-प्रूफ़ पण्डाल की कोई आवश्यकता ही न रहती और तब सीधे नौ करोड़ बच जाते जो इस पण्डाल के लिए खर्च किये गए थे। हालांकि मोदी तो रामभक्त हैं, फिर भी वह उनसे भी तो न सीखे कि चौमास में रुक जाया जाये। ऊपर से मलमास के गरू दिन भी चल रहे थे। यद्यपि स्वयं श्रीराम चन्द्र जी अपने वनवास के दौरान चौमासे में रुक कर इंतज़ार कर लिया करते थे। तब तो ज़ाहिर है कि मोदी जी किसी से कुछ नहीं सीख पाते, उनसे भी जिनको वो मानते हैं। वास्तव में उनकी यह ढिठाई उचित नहीं।    
अब अपरोक्त बातों की शल्यक्रिया करके देखें तो यह मालूम होगा कि मोदी के बनारस दौरे के अब तक दो बार हुये रद्दीकरण से लोगों में कितनी अव्यवस्था फैली और कितना आर्थिक नुकसान देश का हो गया। पहली दृष्टि अव्यवस्था की ओर ले जाएं तो उन दिनों, जिस दिन मोदी का दौरा प्रत्याशित था, वहां के स्थानीय व्यापारियों का सीधे नुकसान, लोगों को आवाजाही और यात्रा में कथित यथोचित प्रतिबंध और लोगों के बदले काम की प्रकृति प्रमुख हैं। आर्थिक दृष्टि से देखें तो उन दिनों जो लोग अव्यवस्थित थे उनके द्वारा हो सकने वाले उत्पादन का नुकसान, व्यवस्थापन में लगे वाहनों में डीजल/पेट्रोल की खपत, व्यवस्था में लगी कुल लागत, अगुवानी आदि में शामिल अति विशिष्ट की व्यस्तता से उनके द्वारा लिये गये निर्णयों आदि का सीधा नुकसान या पिछड़ना और 16 जुलाई को पण्डाल की सजावट में लगे एक ‘कौशल युक्त’ कामगार की दुर्घटना में मौत जैसे भारी आर्थिक नुकसान पर टिका है मोदी का बनारस दौरा, एक साल में कथित उपलब्धि भरा राग, ट्रामा सेण्टर का उद्घाटन और चौक विद्युत सब स्टेशन का शिलान्यास जो इतने नुकसान के बाद भी अभी ठीक से संभव न हो पाया।
मैं ऐसे उद्घाटन समारोहों के विफल होने के पश्चात हुये नुकसान और आयी दिक्कतों से भलीभांति परिचित हूं। आज से लगभग तीन बरस पहले जब इलाहाबाद के कीडगंज में बने फ्लाईओवर के उद्घाटन के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का दौरा रद्द हुआ था तो वहां उपस्थित अखिल जनता(पक्ष-विपक्ष सहित) का रोष, आमजन में फैली अव्यवस्था, विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के कीमती समय का नुकसान और टूटी यातायात व्यवस्था का मंज़र मैं भूला नहीं हूं। फिर जहां के आयोजन की अगुवानी में पूरे नौ करोड़ रूपये का पण्डाल और प्रान्त के राज्यपाल और मुख्यमंत्री स्वागत के लिए तय हो, तो समूचे देश को हुये आर्थिक नुकसान का अंदाज़ा भलीभाति लगाया जा सकता है।
आश्चर्य कहूं या ख़ेद मुझे इस बात का है कि पण्डित दीनदयाल उपाध्याय की विचारधारा को पोषित करने वाले दल और स्वयं प्रधानमंत्री से ये भूल कैसे हो सकती है। जब स्वयं दीनदयाल उपाध्याय यह मानते हैं कि बनारस में हुआ उक्त निर्माण अपने आप में कोई महान घटना नहीं है और न ही प्रधानमंत्री का उनका उद्घाटन करना ही कोई महान सत्कर्म है। फिर प्रत्येक दिन, बल्कि रोज के हर घण्टे का सदुपयोग करने वाले प्रधानमंत्री उद्घाटन का ऐसा आडम्बर कैसे कर सकते हैं! वो नेता जो अपने मंत्रियों को चैन की सांस न लेने देने की बात कहता हो और कम सोने की नसीहत देता हो, ताकि अधिकतम उपयोगिता के सिद्दान्त का पालन करते हुये अधिकाधिक पैदा किया जा सके, वह इतना भारी नुकसान कैसे कर सकता है। क्या प्रधानमंत्री मोदी यह स्वीकार करेंगे कि वह उसी विचारधारा के हत्यारे हैं, जिनके वह स्वयं, उनकी पार्टी तथा वह जिस विचारधारा से जुड़ाव रखते हों वह भी सब उस विचारधारा के पोषक हैं।
ज्ञात हो कि पण्डित दीनदयाल उपाध्याय जी की किताब ‘पोलिटिकल डायरी’ जिसका प्रकाशक ‘सुरुचि प्रकाशन’ है, के पृष्ठ सं. 41 में ‘सार्वजनिक बनाम निजी क्षेत्र’ शीर्षक से छपे लेख में 29 जून,1959 ई. को उपाध्याय जी तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू के द्वारा किये गये एक ऐसे ही उद्घाटन के संदर्भ में लिखते हैं कि “ट्रक का निर्माण अपने आप में कोई महान घटना नहीं है, किन्तु जब प्रघानमंत्री ऐसे समारोह का उद्घाटन करते हैं, तब समाचार पत्रों और जनता के लिए वह एक महत्वपूर्ण घटना बन जाती हैं। इस समारोह के वृतात को प्रथम पृष्ठ के प्रथम श्रेणी का समाचार माना गया। किन्तु जनता को ‘शक्तिमान’ की ‘शक्ति’ दिखायी नहीं पड़ती। सर्वसाधारण मनुष्य यह नहीं समझ पाता कि प्रधानमंत्री को इतने सारे कष्ट उठाकर केवल इसलिए जबलपुर क्यों जाना चाहिए कि वे बटन दबा दें, जिससे तीन टन का एक ट्रक पुर्जा-जोड़ाई स्थल(असेम्बली लाइन) से थोड़ा दूर लुढ़क जाय। और केवल प्रधानमंत्री ही नहीं बल्कि अन्य बहुत से महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने भी इस समारोह में उपस्थित रहने के लिए समय निकाल लिया। जहां सरकार के इतने बड़े-बड़े अधिकारी एक साथ उपस्थित हों, तो यह कितनी अशालीनता होती यदि अधिकारियों का समूह ‘ख़िदमत में हाज़िर’ न रहें! यह अनुसंधान करना काफी रोचक होगा कि इस समारोह में एकत्र ‘अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों और अनति महत्वपूर्ण व्यक्तियों’ द्वारा कितनी राशि यात्रा-भत्ते के रूप में वसूल की गयी। संभवता यह राशि उस भाग्यशाली ट्रक से भी बहुत अधिक ठहरेगी।”
वास्तव में जब प्रधानमंत्री समय के हर भाग के सदुपयोग की कड़ी सलाह दे रहे हों तो निश्चय ही देश को मितव्ययिता का ख़्याल रखना चाहिए और स्वयं प्रधानमंत्री को तो और भी। किन्तु बनारस में हुयें इन अपव्ययों के बारे में क्या प्रधानमंत्री मोदी कुछ कह सकेंगे? ज़ाहिर है कि उनके द्वारा अपनाये गये अब तक के उपयोगितावादी सिद्धान्त सब धराशायी हो चुके हैं और ऐसा चपल व धारदार व्यक्ति जब डूबता है तो कई कुछ साथ लेकर डूबता है। ऐसे में आज मोदी की कार्यप्रणाली से देश में संकेत कुछ शुभ नहीं जान पड़ते हैं।
मात्र पण्डाल के लिए हुए नौ करोड़ के अपव्यय को यदि मितव्ययिता की दृष्टि से देखें तो इसी धनराशि से बनारस में तीन उपकेन्द्र, 300 लोहिया आवास, 36 मिनी नलकूप बन जाएं। ज़िले के स्वास्थ केन्द्रों की हालत सुधर जाए। संस्कृत विवि के मुख्य भवन का जीर्णोद्वार हो जाए, पक्का महाल के गलियों की सूरत बदल जाए, सालिड वेस्ट मैनेजमेण्ट प्लांट बन जाए और 600 कैंसर व हृदय रोगियों का इलाज संभव हो जाए।
ऐसे में मोदी पूर्णतः आलोचना के पात्र हैं, जिसकी भरपाई वो कभी नहीं कर सकते हैं। ऐसे में मोदी को उस विचारधारा का पुनः अध्ययन करना चाहिए जिसके पथ पर वो चल रहे हैं और इससे भी आवश्यक यह कि वह उसका अनुपालन भी करें। अन्यथा जिस राह पर प्रधानमंत्री मोदी निकल पड़े हैं उससे देश यह आभास करने लगा है कि देश को मोदी से अशुभ संकेत मिलना शुरू हो चुके हैं।         
     

          

Tuesday, 14 July 2015

धर्मराज को समेटे ‘युधिष्ठिर’


लगभग 10 जून से पहले की ये चिंगारी है, जो प्रसार भारती के एक हिस्से भारतीय फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान (एफ़टीआईआई) में सुलगी थी। मैं उक्त तिथि को प्रसार भारती के ही एक दूसरे हिस्से दूरदर्शन में बैठा साक्षात्कार दे रहा था, लिहाजा उस चिंगारी की चमक इस दूसरे भाग में देखी जा सकती थी क्योंकि मुझसे वहां साक्षात्कार में एफ़टीआईआई के ही एक सज्जन ने पूछ लिया था कि ‘एफ़टीआईआई में एक ताज़े विवाद ने जन्म लिया है। आज ही अख़बार में उसकी ख़बर भी है, क्या तुम उसके बारे में जानते हो?’ वास्तव में मैं उस दिन उत्तर प्रदेश के अपने गृह जनपद फ़तेहपुर से सीधे दूरदर्शन भवन गया था। इस कारण से मैं साक्षात्कार के दिन का अख़बार ही नहीं देख सका था। अतः कदाचित ही मुझे उनके प्रश्न का उत्तर ज्ञात था।
बाहर आकर देखा तो पता चला कि धीरे-धीरे उस चिंगारी ने तो आग का रूप अख़्तियार कर लिया है। मामला ये है कि गजेन्द्र चौहान की भारतीय फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति का वहां के छात्र विरोध कर रहे हैं। गजेन्द्र चौहान के विरोध के आरम्भ में तो यही लग रहा था कि वहां के छात्रों का उनके ग्लैमर को लेकर विरोध हो सकता है। कदाचित यही सत्य है। फ़िल्म अभिनेता ऋषि कपूर का छात्रों के पक्ष में खड़े होकर यही कहना है। बकौल अभिनेता ‘संस्थान के चेयरमैन पद के लिए गजेन्द्र चौहान का कद बहुत छोटा है।’
यद्यपि किसी भी संस्थान की गतिशीलता के लिए उसके प्रशासनिक भागों/प्रभागों अथवा किसी भी पद के लिए जिसमें संस्थान की गतिशीलता निर्भर हो, नियुक्त किये जाने वाले व्यक्ति का चुनाव उसकी योग्यता के आधार पर होता है, न कि उसकी बाहरी चमक और ग्लैमर पर। कदाचित भारतीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष के प्रति भी इस मामले में यहीं से ही बातें साफ़ कर लें। यदि कभी कोई सितारा ऐसे संस्थान के अध्यक्ष रहे भी हों, तो इसका अर्थ यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि उनकी नियुक्ति उनके ग्लैमर के कारण हुयी। और यदि पूर्व में ऐसा हुआ भी होगा तो यह नियोक्ताओं की भारी भूल के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझा जा सकता है। इसलिए श्री चौहान के विरोध का आधार ही निराधार है। तथापि संस्थान के छात्र/छात्राएं इसके अधिकारी हैं कि वह अपने संस्थान के लिए किसी चमकदार अध्यक्ष का हठ कर सकते हैं, क्योंकि वह सभी बालक (मंद बुद्धि अज्ञानी च बालकः भवेत्।) हैं और इसीलिए वो ज्ञान प्रप्ति (शिक्षा) के लिए ही इस संस्थान में आये हैं। वास्तव में ये सभी वर्तमान के छात्र/छात्राएं यहीं से फ़िल्म और टेलीविज़न की विधा के अन्तर को, उनके समंवय को और उनकी आपसी तुलना को समझेंगे। बावजूद इसके वह सभी हठ के अधिकारी हैं, न कि निर्णय के। वास्तव में प्रशासनिक पदों की नियुक्ति का विषय क्षेत्र संस्थान में इन छात्रों से बाहर है। किन्तु हां, यदि इन छात्रों को कहीं भी, किसी भी क्षेत्र में इनके सीखने में कोई बाधा आती है तो अवश्य ही प्रशासनिक प्रणाली या उसे सुशोभित कर रहे व्यक्तियों पर इन्हें प्रश्न चिह्न खड़ा करना चाहिए। इससे पूर्व इनके द्वारा किया गया किसी भी तरह का बहिष्कार आंदोलन वास्तव में न तो छात्रों के हित में होता है और न ही संस्थान के ही हित में। वास्तव में अभिनय की दुनिया के जितने भी रथी/महारथी आज इस प्रकरण में छात्रों के पक्ष में खड़े हैं, वह सभी निःसंदेह संस्थान और उसके हित के विरोध में खड़े हैं। इस संस्थान के जितने भी पुराछात्र आज श्री चौहान का विरोध कर रहे हैं उनका अपने छात्र जीवन का ब्यौरा निकाल कर देखें तो आप पायेंगे कि छात्र जीवन में शायद ही कभी संस्थान के हित में इनसे कोई कार्य या उसके प्रयास हुये होंगे, ऐसे में अब इनका संस्थान प्रेम थोथा नहीं तो और क्या कहा जाये कि आज भी ये संस्थान से संबंधित मामले में राजनीति कर रहे हैं या उसके हिस्सेदार हैं। इस तरह से यह कह देने में कोई हर्ज़ नहीं है कि आज संस्थान के विरोधी छात्रों के पक्ष में खड़े सभी लोग निःसंदेह अन्याय अथवा अधर्म के पक्षधर हैं और बी.आर. चोपड़ा का ये ‘युधिष्ठिर’ एक बार फिर न्याय और धर्म के पक्ष में खड़ा है, जो अंधे धृतराष्ट्रों के आज फिर समझ में नहीं आ रहा है।
हुआ कुछ यूं है कि अभिनेता रणवीर कपूर ने गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति के विरोध में आवाज़ उठाई, जिसका उनके पिता और कपूर खानदान के कथित दिग्गज (हालांकि मैं उनको दिग्गज नहीं मानता) अभिनेता ऋषि कपूर ने उनकी हां में न सिर्फ़ हां मिलायी है, बल्कि ये तक कहा है कि गजेन्द्र चौहान का कद (शायद रुतबा) उनके पद लायक नहीं है, जहां वो बैठे हैं। दिग्गज अभिनेता की ऐसी विवेचना की ओर से मेरा उनसे प्रश्न है कि क्या संस्थान के चेयरमैन पद के लिए यह अर्हता अनिवार्य की गयी है कि फ़िल्म जगत का सबसे वरिष्ठ कलाकार इसको सुशोभित करेगा? क्या बॉलीवुड का सबसे चमकदार अभिनेता/अभिनेत्री ही एफ़टीआईआई का अध्यक्ष होगा/होगी या फिर ये कि इस पद के लिए कथित ऊंचे कद का व्यक्ति होना अनिवार्य है, यथा कपूर खानदान या ऐसे ही किसी अन्य ऊंचे कद वाले खानदान से?
निःसंदेह ऋषि कपूर एक वरिष्ठ, चमकदार और योग्य अभिनेता हैं, किन्तु इसका मतलब यह तो नहीं कि किसी भी प्रशासनिक पद के लिए सरकार की नज़र में कोई और योग्य व्यक्ति ही नहीं। अब अगर वो उसे उसके कद और खानदान से आंकें तो भला कोई बात कहां, फिर भला लोकतंत्र ही कहां और फिर भला न्याय ही कहां। चिंन्तनीय है कि वो देश के कितने प्रशासकों का खानदान जानते हैं। वास्तव में उनकी प्रशासिनक योग्यता ही उनका कद है, न कि कुछ और। देश की मानव संसाधन मंत्री के विषय में भी लोगों को यही भ्रम खाये जा रहा था जो आज गजेन्द्र चौहान के साथ है। लोग उनके कद के बारे में ही कयास लगा रहे थे, किन्तु आज सभी का मुंह बंद है। अधिक प्रमाणिकता के लिए वो टाइम्स नॉउ के अर्नब गोस्वामी और आज तक के राहुल कंवल जी से जान सकते हैं।
इस घड़ी में एक बार फिर से विवेक का उपयोग अनिवार्य हो गया है कि जिन्हें लगता है कि धर्म या न्याय ‘युधिष्ठिर’ के पक्ष में है, वो लोग उनके पक्ष में खड़े हो जाएं। और जिन्हें ये लगता है कि धर्म और न्याय ‘युधिष्ठिर’ के विरोधियों के पक्ष में है, वो लोग इस ओर से पलायन करके उनके विरोधियों की ओर चले जाएं।
देखा जाए तो ऐसा लगता है कि यहां भी किसी दुर्योधन की महत्वाकांक्षा ने ये पूरा खेल तैयार किया है, जिसने अपने पक्ष में एक नहीं कई-कई धृतराष्ट्रों को खड़ा कर रखा है। संभव है कि उनकी ये महत्वाकांक्षा लाक्षागृह से होते हुए द्युत-क्रीड़ा तक चली जाए, फिर भी उम्मीद है कि विजय तो सत्य की ही होनी है। संभव यह भी है कि कदाचित इस बार कोई लाक्षागृह बनने से पहले ही ‘युधिष्ठिर’ उसे भस्म कर डालेंगे और द्युत-क्रीड़ा में किसी शकुनी के पांशें इस बार फरेब नहीं कर सकेंगे। वास्तव में इस बार ऐसा करना ही ‘युधिष्ठिर’ की वास्तविक चुनौती भी होगी, क्योंकि उन्हें यह भी विदित होना चाहिए कि इस कलिकाल में धर्म के वो मायने नहीं रह गए हैं जो द्वापर में हुआ करते थे। उन्हें यह भी मालूम होना चाहिए कि किस हद तक उनको धर्म का बिम्ब प्रदर्शित करना होगा। एक बात और, यहां ‘युधिष्ठिर’ ही को वासुदेव कृष्ण बनना होगा, जो सत्य के पक्ष में ही इस बार आगे की लड़ाई लड़ेंगे, और इसके लिए पैंतरे भी श्रीकृष्ण के से ही लगाने होंगे। किन्तु कदाचित ‘युधिष्ठिर’ को इन सबकी आवश्यकता ही न पड़े, फिर भी...
इसी तरह इस संस्थान के एक पुराछात्र हैं, कुंदन शाह। इनकी तो बातें ही बिना सिर-पैर की हैं। ये गजेन्द्र चौहान की ओर कहते हैं कि ‘इन्हें (गजेन्द्र चौहान) जानता ही कौन है?’ मुझे तो इनके किसी भारतीय संस्थान (आईआई टाईप) का छात्र होने में भी तनिक संदेह है। आखिरकार इनके इस तरह के बयान का आशय ही क्या है। इनके इस बयान का मुझे तो कोई मतलब समझ नहीं आ रहा है। क्या कुंदन शाह सन् 1877 ई. में बने सर विलियम हॉलैण्ड हाल यूनिवर्सिटी कॉलेज, जो आज एक छात्रावास के रूप में परिणत है, के अधीक्षक का नाम जानते हैं? क्या वो भारतीय जनसंचार संस्थान के विशेष कार्याधिकारी महोदय का नाम जानते हैं, या फिर वो ये जानते हैं कि नॉर्थ सेन्ट्रल ज़ोन कल्चरल सेण्टर के निदेशक का क्या नाम है? इत्तेफ़ाक से सभी प्रशासक हैं और बी.आर चोपड़ा के ‘युधिष्ठिर’ को  इनमें से सभी जानते हैं, न कि कुंदन शाह को जिनका परिचय यह कहकर दिया जाता है कि ये ‘जाने भी दो यारो’ फेम फ़िल्मकार कुंदन शाह हैं। उसमें भी कई यह कह देंगें कि फ़िल्म का नाम तो सुना-सुना सा लगता है लेकिन देखी नहीं है। तो फिर कुंदन शाह अभी बहुत दूर हैं। इसलिए अकारण कुंदन शाह और इन जैसों की हां में हां मिलाने वाले सुरों को अपने धर्म की पहचान करनी चाहिए। जो फ़िल्मकार हैं वो फ़िल्म बनाएं, जो अभिनेता हैं वो अभिनय करें यही उनका वास्तविक धर्म है। वो नीति नियंता बनकर अपने धर्म को न त्यागें और न ही किसी के धर्म में अकारण हस्तक्षेप करें और न ही उसकी राजनीति के मोहरा बनें। ध्यान भारतीय फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान के नियमन और गतिशीलता पर दें और जहां अन्याय लगे वहां अपनी आवाज़ बुलंद करें। अकारण मिथ्या प्रलाप किसी के हित व लाभ में नहीं है। साथ ही इस बात का भी विशेष ध्यान दें कि एफ़टीआईआई फ़िल्म के साथ-साथ टेलीविज़न का भी संस्थान है। गजेन्द्र चौहान का विरोध करके क्या फ़िल्म वाले टेलीविज़न के पर्दे का विरोध कर रहे हैं या यह उसे निम्न दृष्टिकोण से देखने का प्रयास है। यदि ऐसा है तो फिर यह लड़ाई सीधे-सीधे फ़िल्म और टेलीविज़न की है, जो एफ़टीआईआई के बिल्कुल भी हित में नहीं है।
कोई दिग्गज जो आज श्री चौहान के विरोध में खड़ा है, वो अपने जीवन में निभाये गये किसी भी किरदार की तुलना टेलीविज़न की दुनिया के ‘युधिष्ठिर’ से कर ले। यद्यपि गजेन्द्र चौहान से भी योग्य लोग फ़िल्म और टेलीविज़न दोनो जगह हैं, किन्तु प्रश्न यह है कि स्वयं गजेन्द्र चौहान की अयोग्यता क्या है, जो उनका विरोध करने का कारक हो सके? कोई मुझे ये बताये कि इस ‘हस्तिनापुर’ के शासन को यह ‘युधिष्ठिर’ क्यूं न चला सकेगा, जो आज इसका इतना विरोध हो रहा है। वास्तव में अतीत में भी युधिष्ठिर की योग्यता से सभी भली-भांति परिचित थे, फिर भी अकारण उनका विरोध करने वालों का क्या हस्र हुआ...। आख़िर कैसा डर है जो आज भी इन ‘कौरवों’ को डरा रहा है? ध्यान रहे गजेन्द्र चौहान का अकारण विरोध ठीक नहीं।
आज एफ़टीआईआई का समकालीन हित इसी में है कि अध्यक्ष श्री गजेन्द्र चौहान का विरोध न हो, बल्कि कुशासन और कुदृष्टियों का विरोध हो। अभिनय में भी उनके कद को पहचानने की भूल करने वालों को भी यह ध्यान रहे कि अपने जीवंत अभिनय में धर्मराज को समेटे हैं ‘युधिष्ठिर’।