Tuesday, 14 July 2015

धर्मराज को समेटे ‘युधिष्ठिर’


लगभग 10 जून से पहले की ये चिंगारी है, जो प्रसार भारती के एक हिस्से भारतीय फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान (एफ़टीआईआई) में सुलगी थी। मैं उक्त तिथि को प्रसार भारती के ही एक दूसरे हिस्से दूरदर्शन में बैठा साक्षात्कार दे रहा था, लिहाजा उस चिंगारी की चमक इस दूसरे भाग में देखी जा सकती थी क्योंकि मुझसे वहां साक्षात्कार में एफ़टीआईआई के ही एक सज्जन ने पूछ लिया था कि ‘एफ़टीआईआई में एक ताज़े विवाद ने जन्म लिया है। आज ही अख़बार में उसकी ख़बर भी है, क्या तुम उसके बारे में जानते हो?’ वास्तव में मैं उस दिन उत्तर प्रदेश के अपने गृह जनपद फ़तेहपुर से सीधे दूरदर्शन भवन गया था। इस कारण से मैं साक्षात्कार के दिन का अख़बार ही नहीं देख सका था। अतः कदाचित ही मुझे उनके प्रश्न का उत्तर ज्ञात था।
बाहर आकर देखा तो पता चला कि धीरे-धीरे उस चिंगारी ने तो आग का रूप अख़्तियार कर लिया है। मामला ये है कि गजेन्द्र चौहान की भारतीय फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति का वहां के छात्र विरोध कर रहे हैं। गजेन्द्र चौहान के विरोध के आरम्भ में तो यही लग रहा था कि वहां के छात्रों का उनके ग्लैमर को लेकर विरोध हो सकता है। कदाचित यही सत्य है। फ़िल्म अभिनेता ऋषि कपूर का छात्रों के पक्ष में खड़े होकर यही कहना है। बकौल अभिनेता ‘संस्थान के चेयरमैन पद के लिए गजेन्द्र चौहान का कद बहुत छोटा है।’
यद्यपि किसी भी संस्थान की गतिशीलता के लिए उसके प्रशासनिक भागों/प्रभागों अथवा किसी भी पद के लिए जिसमें संस्थान की गतिशीलता निर्भर हो, नियुक्त किये जाने वाले व्यक्ति का चुनाव उसकी योग्यता के आधार पर होता है, न कि उसकी बाहरी चमक और ग्लैमर पर। कदाचित भारतीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष के प्रति भी इस मामले में यहीं से ही बातें साफ़ कर लें। यदि कभी कोई सितारा ऐसे संस्थान के अध्यक्ष रहे भी हों, तो इसका अर्थ यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि उनकी नियुक्ति उनके ग्लैमर के कारण हुयी। और यदि पूर्व में ऐसा हुआ भी होगा तो यह नियोक्ताओं की भारी भूल के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझा जा सकता है। इसलिए श्री चौहान के विरोध का आधार ही निराधार है। तथापि संस्थान के छात्र/छात्राएं इसके अधिकारी हैं कि वह अपने संस्थान के लिए किसी चमकदार अध्यक्ष का हठ कर सकते हैं, क्योंकि वह सभी बालक (मंद बुद्धि अज्ञानी च बालकः भवेत्।) हैं और इसीलिए वो ज्ञान प्रप्ति (शिक्षा) के लिए ही इस संस्थान में आये हैं। वास्तव में ये सभी वर्तमान के छात्र/छात्राएं यहीं से फ़िल्म और टेलीविज़न की विधा के अन्तर को, उनके समंवय को और उनकी आपसी तुलना को समझेंगे। बावजूद इसके वह सभी हठ के अधिकारी हैं, न कि निर्णय के। वास्तव में प्रशासनिक पदों की नियुक्ति का विषय क्षेत्र संस्थान में इन छात्रों से बाहर है। किन्तु हां, यदि इन छात्रों को कहीं भी, किसी भी क्षेत्र में इनके सीखने में कोई बाधा आती है तो अवश्य ही प्रशासनिक प्रणाली या उसे सुशोभित कर रहे व्यक्तियों पर इन्हें प्रश्न चिह्न खड़ा करना चाहिए। इससे पूर्व इनके द्वारा किया गया किसी भी तरह का बहिष्कार आंदोलन वास्तव में न तो छात्रों के हित में होता है और न ही संस्थान के ही हित में। वास्तव में अभिनय की दुनिया के जितने भी रथी/महारथी आज इस प्रकरण में छात्रों के पक्ष में खड़े हैं, वह सभी निःसंदेह संस्थान और उसके हित के विरोध में खड़े हैं। इस संस्थान के जितने भी पुराछात्र आज श्री चौहान का विरोध कर रहे हैं उनका अपने छात्र जीवन का ब्यौरा निकाल कर देखें तो आप पायेंगे कि छात्र जीवन में शायद ही कभी संस्थान के हित में इनसे कोई कार्य या उसके प्रयास हुये होंगे, ऐसे में अब इनका संस्थान प्रेम थोथा नहीं तो और क्या कहा जाये कि आज भी ये संस्थान से संबंधित मामले में राजनीति कर रहे हैं या उसके हिस्सेदार हैं। इस तरह से यह कह देने में कोई हर्ज़ नहीं है कि आज संस्थान के विरोधी छात्रों के पक्ष में खड़े सभी लोग निःसंदेह अन्याय अथवा अधर्म के पक्षधर हैं और बी.आर. चोपड़ा का ये ‘युधिष्ठिर’ एक बार फिर न्याय और धर्म के पक्ष में खड़ा है, जो अंधे धृतराष्ट्रों के आज फिर समझ में नहीं आ रहा है।
हुआ कुछ यूं है कि अभिनेता रणवीर कपूर ने गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति के विरोध में आवाज़ उठाई, जिसका उनके पिता और कपूर खानदान के कथित दिग्गज (हालांकि मैं उनको दिग्गज नहीं मानता) अभिनेता ऋषि कपूर ने उनकी हां में न सिर्फ़ हां मिलायी है, बल्कि ये तक कहा है कि गजेन्द्र चौहान का कद (शायद रुतबा) उनके पद लायक नहीं है, जहां वो बैठे हैं। दिग्गज अभिनेता की ऐसी विवेचना की ओर से मेरा उनसे प्रश्न है कि क्या संस्थान के चेयरमैन पद के लिए यह अर्हता अनिवार्य की गयी है कि फ़िल्म जगत का सबसे वरिष्ठ कलाकार इसको सुशोभित करेगा? क्या बॉलीवुड का सबसे चमकदार अभिनेता/अभिनेत्री ही एफ़टीआईआई का अध्यक्ष होगा/होगी या फिर ये कि इस पद के लिए कथित ऊंचे कद का व्यक्ति होना अनिवार्य है, यथा कपूर खानदान या ऐसे ही किसी अन्य ऊंचे कद वाले खानदान से?
निःसंदेह ऋषि कपूर एक वरिष्ठ, चमकदार और योग्य अभिनेता हैं, किन्तु इसका मतलब यह तो नहीं कि किसी भी प्रशासनिक पद के लिए सरकार की नज़र में कोई और योग्य व्यक्ति ही नहीं। अब अगर वो उसे उसके कद और खानदान से आंकें तो भला कोई बात कहां, फिर भला लोकतंत्र ही कहां और फिर भला न्याय ही कहां। चिंन्तनीय है कि वो देश के कितने प्रशासकों का खानदान जानते हैं। वास्तव में उनकी प्रशासिनक योग्यता ही उनका कद है, न कि कुछ और। देश की मानव संसाधन मंत्री के विषय में भी लोगों को यही भ्रम खाये जा रहा था जो आज गजेन्द्र चौहान के साथ है। लोग उनके कद के बारे में ही कयास लगा रहे थे, किन्तु आज सभी का मुंह बंद है। अधिक प्रमाणिकता के लिए वो टाइम्स नॉउ के अर्नब गोस्वामी और आज तक के राहुल कंवल जी से जान सकते हैं।
इस घड़ी में एक बार फिर से विवेक का उपयोग अनिवार्य हो गया है कि जिन्हें लगता है कि धर्म या न्याय ‘युधिष्ठिर’ के पक्ष में है, वो लोग उनके पक्ष में खड़े हो जाएं। और जिन्हें ये लगता है कि धर्म और न्याय ‘युधिष्ठिर’ के विरोधियों के पक्ष में है, वो लोग इस ओर से पलायन करके उनके विरोधियों की ओर चले जाएं।
देखा जाए तो ऐसा लगता है कि यहां भी किसी दुर्योधन की महत्वाकांक्षा ने ये पूरा खेल तैयार किया है, जिसने अपने पक्ष में एक नहीं कई-कई धृतराष्ट्रों को खड़ा कर रखा है। संभव है कि उनकी ये महत्वाकांक्षा लाक्षागृह से होते हुए द्युत-क्रीड़ा तक चली जाए, फिर भी उम्मीद है कि विजय तो सत्य की ही होनी है। संभव यह भी है कि कदाचित इस बार कोई लाक्षागृह बनने से पहले ही ‘युधिष्ठिर’ उसे भस्म कर डालेंगे और द्युत-क्रीड़ा में किसी शकुनी के पांशें इस बार फरेब नहीं कर सकेंगे। वास्तव में इस बार ऐसा करना ही ‘युधिष्ठिर’ की वास्तविक चुनौती भी होगी, क्योंकि उन्हें यह भी विदित होना चाहिए कि इस कलिकाल में धर्म के वो मायने नहीं रह गए हैं जो द्वापर में हुआ करते थे। उन्हें यह भी मालूम होना चाहिए कि किस हद तक उनको धर्म का बिम्ब प्रदर्शित करना होगा। एक बात और, यहां ‘युधिष्ठिर’ ही को वासुदेव कृष्ण बनना होगा, जो सत्य के पक्ष में ही इस बार आगे की लड़ाई लड़ेंगे, और इसके लिए पैंतरे भी श्रीकृष्ण के से ही लगाने होंगे। किन्तु कदाचित ‘युधिष्ठिर’ को इन सबकी आवश्यकता ही न पड़े, फिर भी...
इसी तरह इस संस्थान के एक पुराछात्र हैं, कुंदन शाह। इनकी तो बातें ही बिना सिर-पैर की हैं। ये गजेन्द्र चौहान की ओर कहते हैं कि ‘इन्हें (गजेन्द्र चौहान) जानता ही कौन है?’ मुझे तो इनके किसी भारतीय संस्थान (आईआई टाईप) का छात्र होने में भी तनिक संदेह है। आखिरकार इनके इस तरह के बयान का आशय ही क्या है। इनके इस बयान का मुझे तो कोई मतलब समझ नहीं आ रहा है। क्या कुंदन शाह सन् 1877 ई. में बने सर विलियम हॉलैण्ड हाल यूनिवर्सिटी कॉलेज, जो आज एक छात्रावास के रूप में परिणत है, के अधीक्षक का नाम जानते हैं? क्या वो भारतीय जनसंचार संस्थान के विशेष कार्याधिकारी महोदय का नाम जानते हैं, या फिर वो ये जानते हैं कि नॉर्थ सेन्ट्रल ज़ोन कल्चरल सेण्टर के निदेशक का क्या नाम है? इत्तेफ़ाक से सभी प्रशासक हैं और बी.आर चोपड़ा के ‘युधिष्ठिर’ को  इनमें से सभी जानते हैं, न कि कुंदन शाह को जिनका परिचय यह कहकर दिया जाता है कि ये ‘जाने भी दो यारो’ फेम फ़िल्मकार कुंदन शाह हैं। उसमें भी कई यह कह देंगें कि फ़िल्म का नाम तो सुना-सुना सा लगता है लेकिन देखी नहीं है। तो फिर कुंदन शाह अभी बहुत दूर हैं। इसलिए अकारण कुंदन शाह और इन जैसों की हां में हां मिलाने वाले सुरों को अपने धर्म की पहचान करनी चाहिए। जो फ़िल्मकार हैं वो फ़िल्म बनाएं, जो अभिनेता हैं वो अभिनय करें यही उनका वास्तविक धर्म है। वो नीति नियंता बनकर अपने धर्म को न त्यागें और न ही किसी के धर्म में अकारण हस्तक्षेप करें और न ही उसकी राजनीति के मोहरा बनें। ध्यान भारतीय फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान के नियमन और गतिशीलता पर दें और जहां अन्याय लगे वहां अपनी आवाज़ बुलंद करें। अकारण मिथ्या प्रलाप किसी के हित व लाभ में नहीं है। साथ ही इस बात का भी विशेष ध्यान दें कि एफ़टीआईआई फ़िल्म के साथ-साथ टेलीविज़न का भी संस्थान है। गजेन्द्र चौहान का विरोध करके क्या फ़िल्म वाले टेलीविज़न के पर्दे का विरोध कर रहे हैं या यह उसे निम्न दृष्टिकोण से देखने का प्रयास है। यदि ऐसा है तो फिर यह लड़ाई सीधे-सीधे फ़िल्म और टेलीविज़न की है, जो एफ़टीआईआई के बिल्कुल भी हित में नहीं है।
कोई दिग्गज जो आज श्री चौहान के विरोध में खड़ा है, वो अपने जीवन में निभाये गये किसी भी किरदार की तुलना टेलीविज़न की दुनिया के ‘युधिष्ठिर’ से कर ले। यद्यपि गजेन्द्र चौहान से भी योग्य लोग फ़िल्म और टेलीविज़न दोनो जगह हैं, किन्तु प्रश्न यह है कि स्वयं गजेन्द्र चौहान की अयोग्यता क्या है, जो उनका विरोध करने का कारक हो सके? कोई मुझे ये बताये कि इस ‘हस्तिनापुर’ के शासन को यह ‘युधिष्ठिर’ क्यूं न चला सकेगा, जो आज इसका इतना विरोध हो रहा है। वास्तव में अतीत में भी युधिष्ठिर की योग्यता से सभी भली-भांति परिचित थे, फिर भी अकारण उनका विरोध करने वालों का क्या हस्र हुआ...। आख़िर कैसा डर है जो आज भी इन ‘कौरवों’ को डरा रहा है? ध्यान रहे गजेन्द्र चौहान का अकारण विरोध ठीक नहीं।
आज एफ़टीआईआई का समकालीन हित इसी में है कि अध्यक्ष श्री गजेन्द्र चौहान का विरोध न हो, बल्कि कुशासन और कुदृष्टियों का विरोध हो। अभिनय में भी उनके कद को पहचानने की भूल करने वालों को भी यह ध्यान रहे कि अपने जीवंत अभिनय में धर्मराज को समेटे हैं ‘युधिष्ठिर’।            
                 
   



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