‘आलसी व्यक्ति को विद्या दुर्लभ है और बिना
विद्या के धन (गुण) को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। जब व्यक्ति के पास धन
अर्थात् गुण ही न होगा तो फ़िर भला कहां उसका कोई मित्र ही हो सकता है। और बिना
मित्र के सुख की प्राप्ति नहीं की जा सकती है। कहने का आशय सुख के सर्वाधिक संनिकट
मित्रता को परिणत किया गया है।’ इस संसार में जहां कहीं भी सुख है उसके अंतर्गत
मित्रता का अवयव अवश्य ही विद्यमान रहता है।
मित्र का आशय उस अनुकूल वेदक से है जो हमारे
गुण व दोषों में परस्परानुकूलता का व्यवहार करे। यही कारण है कि हमारे समाज में सभी
रिश्ते मित्रवत् होने चाहिए। यानी चाहे गुरू हो, माता हो, पिता हो, भाई हो, बहन हो
या फ़िर प्रेमी/प्रेमिका हो सभी रिश्तों में मित्रता की कामना की जाती है और यह
सत्य भी है कि उक्त सभी रिश्ते मित्रता के गुणधर्म को धारण करने के पश्चात्
सुखदायी हो जाते हैं।
पण्डित दीनदयाल उपाध्याय जी कहते हैं कि वास्तव
में ‘मनुष्य की सभी क्रियाओं का उद्देश्य एक ही है- आनन्द अथवा सुख की प्राप्ति।
वैसे तो सम्पूर्ण सृष्टि ही आनन्दमय है। प्रत्येक प्राणी वही कार्य करता है जो
उसके लिए सुख का कारक है। प्राणी ही क्यों, जड़ पदार्थों में भी जितना कुछ होता है
वह सभी आनन्द प्राप्ति के लिए है। सम्पूर्ण चराचर सृष्टि में एक ही आनन्द का नाद
गुंजित हो रहा है। सर्वसाधारण जीवधारी अन्य प्राणी भी सुख के लिए क्रियाएं करते
हैं। कुत्ते को डंडा दिखाया जाये तो वह भागता है और रोटी दिखाई जाये तो वह समीप
आता है। एक समय भागने और दूसरे समय समीप आने की यह क्रिया उसकी सुख-कामना ही है। तब
मनुष्य तो विकसित प्राणी है। इसलिए इस सम्बंध में कोई विशेष तर्क देने की आवश्यकता
नहीं है कि मनुष्य की समस्त क्रियाओं का उद्देश्य सुख प्राप्ति ही है।’1
विचारणीय प्रश्न यह है कि सुख क्या है? जैसा
कि पहले कुत्ते का उदाहरण देकर समझाया गया है कि एक ही कुत्ता एक समय में रोटी
दिखाने पर समीप आता है और डंडा दिखाये जाने पर दूर भाग जाता है। वो अपनी इन दोनो
क्रियाओं के समय, जब वह समीप आता है तब और जब वह दूर जाता है तब दोनो ही समय में
वह अपने सुख की ओर ही जाता है। अतः अनुकूल वेदना ही सुख है।
आवश्यक नहीं कि कष्ट, दर्द या वेदना से दुःख
मात्र की प्राप्ति होती है। अधिक वेदना, कष्ट व दर्द से सुख की प्राप्ति भी होती
है। सुख की यही प्रकृति है कि वह सभी को आकर्षित करती है और हर मनुष्य किसी भी
प्रकार से सुख की ओर ही जाता है। फर्ज़ कीजिए कि कोई बालक कभी किसी चरवाहे के साथ
यूं ही जंगल की ओर निकल गया हो। अचानक से उसे ख़याल आया हो कि उसे अपने घर के
जलावन के लिए लकड़ियां ले जानी हैं। उस वक़्त उसके मन में यह भाव रहता है कि उसकी
मां जलावन के लिए उसके द्वारा लायी गयीं लकड़ियों को देखकर उस पर ममता न्यौछावर
करेगी और उस पर अभिमान भी करेगी। लेकिन यदि लकड़ियां बिनते वक़्त उस बालक के पैरों
में एक कांटा चुभ जाये तो निश्चय ही वह कांटा उस बालक को सुख प्रदान करेगा क्योंकि
कांटे की चुभन के कष्ट के बावजूद जलावन के लिए लकड़ियां घर ले जाने के बाद उसकी
मनोकामना और भी समृद्ध व विशेष बन जायेगी। इस तरह उसकी मनोकामना में अनुकूलता के
पुट आ जाते हैं। और अनुकूल वेदना ही सुख है। यही सुख का केन्द्र है। यही कारण है
कि उस कांटे का दर्द भी बालक को सुखमय प्रतीत होता है।
इसी तरह कोई प्रेमी-युगल परस्पर उन्नति की
दृष्टि से एक-दूसरे से कुछ लम्बे समय के लिए दूर रहने का निर्णय ले चुके हों, उस दौरान उनके हृदय की वेदना निश्चय ही सुख से विमुख जान पड़ती हो किन्तु
उस दौरान दोनो ही का घुट-घुट कर जीना और छिपकर आंसू बहाना उनके भविष्य के अनुकूल
है। इस तरह उनकी यह वेदना अनुकूलता के गुणधर्म में लिपटी है। अनुकूल वेदना ही सुख
है। अतः उन दोनो के आंसू आदि सभी सुख के द्योतक हैं क्योंकि दोनो को एक-दूसरे की
याद में आंसू बहाने में ही सुख प्राप्त हो रहा है।
कोई पर्वतारोही यद्यपि आरोह के समय भारी कष्ट
में रहता है। और आरोहण के तुरन्त बाद भी उसके शरीर में भारी कष्ट होता है, किन्तु
उसका ये कष्ट उसके लक्ष्य के अनुकूल था इसलिए उस आरोही को इस कष्ट में सुख प्राप्त
हो रहा है। वहीं यद्यपि प्रायः हर स्त्री प्रसव के दर्द, उसकी वेदना व कष्ट को
पाना चाहती है क्योंकि यह उसकी अनुकूल वेदना है। इस तरह से वह दर्द, कष्ट व वेदना
में भी सुख प्राप्त करती है। साथ ही प्रसव पीड़ा न प्राप्त करने वाली स्त्री ख़ुद
को सुख से वंचित भी मानती है क्योंकि सर्वसाधारण प्राणी मात्र की यही प्रकृति है-
सुख की ओर बढ़ना और दुःख से दूर हटना। लेकिन सुख की अनुभूतियों में भी बड़ा अन्तर
है। वास्तव में सुख की अनुभूतियां भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं। इसलिए पण्डित
दीनदयाल जी ने समस्त सुखों का वर्गीकरण मुख्यतः चार वर्गों में किया है- पहला,
इन्द्रियजनित सुख। दूसरा, मन का सुख। तीसरा, बुद्धि का सुख और अन्तिम व चौथा,
आत्मिक सुख।
दीनदयाल जी कहते हैं कि ‘मनुष्य को भोजन करने,
पानी पीने, ठण्ड, गर्म व वर्षा से शरीर को बचाने, सुगन्धित पुष्प की सुगन्ध लेने
और रंग-बिरंगे दृश्यों का अवलोकन करने आदि कितने ही प्रकार की अनुभूतियां होती
हैं। वह इनमें आनन्द का अनुभव करता है। ये इन्द्रियजनित सुख है। इन्द्रियों से
इनका उपभोग किया जाता है। इन सुखों के सन्दर्भ में हमारे यहां कहा गया है कि ये
मनुष्य तथा अन्य प्राणियों में समान ही होते हैं। आहार, निद्रा, भय व मैथुन आदि से
जो अनुकूल वेदना होती है उसे मनुष्य और पशु में समान पाया जाने वाला सुख कहा गया
है। मनुष्य और पशु में अन्तर केवल यही है कि मनुष्य का कुछ न कुछ जीवन-लक्ष्य होता
है। पशु का लक्ष्य नहीं होता है। लक्ष्य की बदौलत ही मनुष्य में मनुष्यत्व समझा
जाता है। लक्ष्यहीन मनुष्य तो निरा पशु ही है। इस लक्ष्य के कारण ही मनुष्य की
विशेषता है। इसलिए इन्द्रिय तथा उसके विषयों के संयोग से प्राप्त सुख को मनुष्य के
लिए राजस सुख माना गया है।’2
चूंकि यह इन्द्रियजन्य सुख क्षणिक होता है और
यह सहजता से प्राप्त किया जाने वाला सुख है। इसीलिए मनुष्य और अन्य जीव इस सुख का
बार-बार उपभोग करने में सक्षम होते हैं। सत्य यह भी है कि पशु व अन्य जीवों से
मनुष्य अधिक विकसित प्राणी है। यही कारण है कि सुख के अन्य वर्गों (मानसिक,
बौद्धिक व आत्मिक) का अनुभव मात्र मनुष्य ही कर सकता है। अब चूंकि पशुओं के पास
मात्र इन्द्रियजन्य सुख का ही भोग रह जाता है जिसे वो सदैव बारंबार भोगते रहते
हैं। वहीं मनुष्य का विकसित प्राणी होने के बावजूद बारंबार इन्द्रियजन्य सुख का
भोग करना उसे नीच व पशुवत कृत्य करने वाला बना देता है क्योंकि पशुओं और मनुष्यों
के उपभोग में लगभग तब समानता ही हो जाती है जबकि मनुष्य पशुओं से अलग विकसित प्राणी
है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है
कि जो व्यक्ति भौतिक अथवा इन्द्रियजन्य भोग-विलास आदि के सुख को त्यागकर मन,
बुद्धि और आत्मा से मेरा अनुसरण करता है उसे परम सुख की प्राप्ति होगी। आशय यह कि
सुख केवल इन्द्रियों तक ही सीमित नहीं है। इसका सम्बन्ध किसी अन्य वस्तु से भी है।
इसलिए कई बार अन्य सुखों की तलाश में
मनुष्य को यह इन्द्रियजनित सुख भी फीका लगता है। मतलब साफ़ है कि यह इन्द्रियजनित
सुख क्षणिक है।
सुख की और अधिक व स्थाई अभिलाषा में मनुष्य
अपनी आत्मा को जागृत कर उसके सुखों को खोजने लगा और फिर उस ओर वह मुड़ गया। इसके
लिए उसने अब इंद्रियों के सुखों की परवाह करना भी समाप्त कर दिया। इस संदर्भ में
दीनदयाल जी ने अपनी पुस्तक “राष्ट्र जीवन की दिशा” में उदाहरण दिया है कि ‘एक
सज्जन नासिक जाकर तर्पण कर रहे थे। उनके एक मित्र भी साथ थे जिनका तर्पण में
विश्वास नहीं था। इसलिए उन्होने मज़ाक करते हुए कहा कि क्या कर रहे हो? उक्त सज्जन
ने कहा कि पितरों को पानी दे रहा हूं। मित्र ने पूछा कि भला यहां दिया हुआ पानी
उन्हें किस प्रकार मिलेगा? तो उक्त सज्जन ने इसका बिना कुछ उत्तर दिये हुए मित्र
के पिता जी को ज़ोर-ज़ोर से गाली देना शुरू कर दिया। इस पर मित्र भी बहुत क्रोधित
हो उठा। वह बोला- यदि तुम्हें तर्क नहीं सूझता तो मेरे पिता को गाली मत दो। मेरे
पिता जी को गाली देना मैं सहन नहीं कर सकता। तब उक्त सज्जन ने शान्त भाव से कहा-
मित्र तुम्हारे पिता तो घर पर हैं उन्हें दी हुयी गालियां तो उनके पास तक नहीं
पहुंच सकती। तब व्यर्थ में क्यों उत्तेजित होकर चिंता करते हो? इस प्रकार मित्र को
प्रश्न का सही उत्तर मिल गया था कि यह सब मन को अच्छा लगने की बात है। भावना का
प्रश्न है। इसलिए केवल इन्द्रियजन्य सुख से ही काम नहीं चलता, मन का भी सुख ज़रूरी
होता है।’3
पूजा और प्रार्थना की विधियों में ही आप
देखिये सभी धर्मों की अलग-अलग पद्यति के अलावा सिर्फ़ सनातन धर्म मे ही कोई
अगरबत्ती सुलगाकर प्रार्थना करता है तो किसी को प्रतिदिन घण्टी और शंख बजाकर
प्रार्थना करना भाता है। वहीं कुछ लोग तमाम साजो-सामान के साथ भव्य वन्दना करते
हैं। वहीं कुछ लोग मात्र स्नान करते समय ही ईश्वर का स्मरण करते हैं तो कई
सालों-साल ईश्वर को भजते ही नहीं हैं। वो किसी मन्दिर या मस्ज़िद के सामने अपना
सिर झुकाकर ही निकल जाते हैं। ये सभी अपनी-अपनी
अनुकूलतावश उक्त कार्यों में से अपनी कोई प्रकृति चुन लेते हैं जो इनके मन को भाता
है। यद्यपि इन सभी लोगों की समान अरदासों को ईश्वर ने समान रूप से स्वीकार किया
होगा। बस, ये सब अपने मन को सुखी बनाने की प्रक्रिया है कि आप हाथ जोड़कर नमस्ते
करते हैं, झुककर प्रणाम करते हैं, चरण स्पर्श कर आशीष लेते हैं या फिर दण्डवत्
षाष्टांग प्रणाम करने में आपका मन सुख के सन्निकट जाता है। वास्तव में यह सब मन की
बात है।
मानसिक सुख की परासावधि से मनुष्य को जब
तृप्ति नहीं मिल पाती है तब वह चिन्तन करता है। चिन्तन का भी अपना सुख है। चूंकि मन
के साथ मनुष्य के पास बुद्धि भी है इसलिए वह इन्द्रियजन्य व मानसिक सुखों की अल्पायु
से असंतुष्ट होकर क्षणिक और शाश्वत सुख के भेद को समझना चाहता है। अब वह जानना
चाहता है कि कौन सा सुख स्थाई एवं चिरन्तन होगा जो अधिक समय तक मिलता रहेगा और कौन
सा सुख क्षणिक व नाशवान होगा? अब मनुष्य विवेक का प्रयोग करने लगता है। वह अपने
सुख की अवधि को बढ़ाने के लिए परिश्रम भी करता है। कल को सुखमय बनाने के लिए आज के
क्षणिक सुखों को त्यागता भी है। वह इन्द्रियजन्य सुखों व मानसिक सुखों के पार जाकर
विवेक का प्रयोग करता है इसलिए वह बुद्धि का भी सुख चाहता है।
मनुष्य अपने कर्मशील जीवन में कुछ लक्ष्य
निर्धारित करता है और उसका सुख प्राप्त करने के लिए वह कड़ी मेहनत करता है। वास्तव
में उस लक्ष्य प्रप्ति में उसके सुख का सार निहित होता है। यानी कि जब मनुष्य
स्वयं अपने लक्ष्य को भेद पाता है तो उसे सुख का अनुभव होता है जो कि इन्द्रिय व
मन के सुख से अधिक होता है।
दीनदयाल जी कहते है कि ‘जीवन-लक्ष्य जिसे उसने
बुद्धि द्वारा स्वयं स्वीकृत किया है उसकी सुख-दुख की वेदनाओं का निकष बनता है।
लक्ष्य की ओर बढ़ते समय मार्ग के कांटे भी उसे सुखकर लगते हैं। सत्य के लिए वह लाख
कष्ट झेलने में आनन्द का अनुभव करता है। अपनी मान्यताओं को स्थापित करने के लिए वह
चाहे जिस वस्तु का त्याग कर सकता है। केवल मन का सुख उसे संतुष्ट नही कर पाता। मन
तो चंचल है। हज़ार प्रकार की बातों में रमते रहने का काम मन का है। इस मन को वश
में कर एकाग्र करने से मनुष्य लक्ष्य की ओर बढ़ सकता है इसलिए उसे बुद्धि से सुख
की आवश्यकता का अनुभव होता है।’4
फर्ज़ कीजिए कोई निर्धन विद्यार्थी बाज़ार से
अपने लिए एक पुस्तक ख़रीदने जाता है और बाज़ार पहुंचकर उसे किताब की दुकान वाला
विक्रेता बताता है कि उसके पास किताब को ख़रीदने के लिए पर्याप्त धन नहीं है। यह
सूचना पाकर वह छात्र बाज़ार से वापस आ ही रहा था कि अचानक एक स्वादिष्ट खाद्य
पदार्थों वाला ठेला उसे दिखाई पड़ गया। ठेले पर बिक रहा सामान छात्र को अत्यधिक
पसन्द है और वह उसे ख़रीदकर खाना चाहता है जिससे उसे सुख मिल सके। किन्तु छात्र ने
अपनी इन्द्रिय को इस सुख से वंचित कर दिया। उसने विवेक का सहारा लिया कि कल फिर
किसी पुस्तक के लिए धन कम पड़ सकता है। इसलिए इन रुपयों को अभी खर्च करना उचित न
होगा। इसलिए वह घर गया। पुस्तक को ख़रीदने
के लिए उसने और रुपये इकट्ठा किये। इस बार उसके पास पुस्तक के पिछले मूल्य से कहीं
ज़्यादा रुपये एकत्रित हो चुके थे। वह
पुनः पुस्तक की दुकान पहुंचा और पुस्तक मांगी। इस बार पुस्तक के मूल्य पहले से कुछ
बढ़ चुके थे किन्तु छात्र के पास ठीक उतने ही जमा पैसे थे जितने की अब की पुस्तक
का मूल्य है। छात्र को पिछले दिनो ठेले पर न रुकना आज सुख दे रहा था। वास्तव में
आज का उसका बौद्धिक सुख उस दिन के उसके इन्द्रियजनित सुख से भी अधिक था। हिन्दी
दैनिक अख़बार “आज” के अपने एक संपादकीय में एक जगह ए. जैन लिखते हैं कि ‘आश्चर्य
की बात यह भी है कि आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त भोग-विलास का जीवन जी रहे लोगों
की तुलना में वे लोग अधिक ख़ुशहाल दिखते हैं जो अभावग्रस्त हैं।’5
टेलीविज़न पर एक छात्रा का सबसे पसंदीदा
धारावाहिक चल रहा है। लेकिन छात्रा अपने कमरे में बैठी सामान्य ज्ञान की तैयारी कर
रही है क्योंकि कल सुबह उसे एक प्रतियोगिता में हिस्सा लेना है। यानी कि छात्रा ने
अपने मन के सुख को कल के बौद्धिक सुख के लिए त्याग दिया है। वास्तव में छात्रा ने प्रतियोगिता जीत ली और वह आज शाम
अपने दोस्तों के साथ बाहर अपनी जीत का उत्सव मनाने चली गयी है। परिणाम यह कि उसका
वह पसंदीदा टीवी सीरियल आज फिर छूट रहा है लेकिन आज वह अपनी बौद्धिक अनुकूलता के
कारण बौद्धिक सुख को भोग रही है।
यद्यपि बौद्धिक सुख इंद्रियजन्य सुख व मन के
सुख से अधिक स्थाई व सारगर्भित है। तथापि बुद्धि का सुख भी अन्तिम चिरानंद सुख
नहीं है। बुद्धि से भी ऊपर आत्मा का सुख है। मां अपने बच्चे को गोद में लेकर आत्मिक
सुख का अनुभव करती है। वास्तव में ये आत्मा की विशालता का सुख है। इसके सामने सभी
सुख तुच्छ हैं। भयमुक्त और स्वार्थमुक्त होने पर सिवाय आनन्द के अन्य कुछ नहीं रह
जाता इसलिए व्यक्ति इसकी खोज में विशालता का अनुभव करता है।
मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ में हामिद को
मेला देखने के लिए जो पैसे मिले थे वह उन पैसों से कुछ भी ख़रीदकर नहीं खाता है,
वह झूला झूलने के अपने मन की प्रबल इच्छा का भी दमन कर देता है और वह एक मरतबा
अपने विवेक से यह भी सोचता है कि इस पैसे से वह अपनी पढ़ाई आदि या अन्य किसी अच्छी
जगह खर्च करेगा। किन्तु उसने उस रुपये से अपनी बूढ़ी मां के लिए चिमटा ख़रीदा।
क्योंकि उसकी बूढ़ी मां हाथों से ही रोटी को उल्टा-पल्टा करती थी। जब वह चिमटा
लेकर घर पहुंचा तो न सिर्फ़ वह स्वयं बल्कि उसकी बूढ़ी मां भी आत्मिक सुख के सागर
से सराबोर हो गयी। यह सब हामिद के इन्द्रियजन्य, मानसिक व बौद्धिक सुखों के त्याग
से ही संभव हो सका। यहां यह अवश्य ज्ञात रहे कि हामिद ने अपनी परिस्थितियों से कोई
संघर्ष नहीं किया है। वास्तव में सुख का आधार संघर्ष है ही नहीं, सुख का आधार तो
परस्परानुकूलता है। सुख के लिए परोपकार का बड़ा यश गाया गया है।
दूसरों
के जीवन में शामिल होना और दूसरों को अपने जीवन में शामिल करना संस्कार है। संस्कारसंयत
होना भी सुख का अभिप्राय है। आपस में एक-दूसरे के साथ समरस होना, एक-दूसरे के काम
आना, आत्मीय जनों को सुख पहुंचाने का यत्न करना ही संस्कारसंयत होना है और यही
परोपकार है। यही परस्परानुकूलता भी है। वास्तव में जब एक-दूसरे सभी आपस में सबकी
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सचेत होते है तो आनन्द नाच उठता है।
वास्तव में यह आनन्द सुख के चारो वर्गों में
समान रूप से कार्य करता है और सुख के चारो सोपानो में हम इसे महसूस करते हैं।
इंद्रियजन्य सुख, मानसिक सुख, बौद्धिक सुख व आत्मिक सुख चारो आपस में गुंथे हुये
हैं। इन्द्रियजनित सुख में भी हम इस आनन्द को महसूस कर सकते हैं किन्तु वह मज़ा न
हो आनन्द ही हो। अर्थात् उसकी निरन्तरता लगातार इस तरह से बनी रहे कि उसकी प्रकृति
अत्यधिक घनिष्ठ नज़र आये जिसे लम्बे समय तक महसूस किया जा सके। किसी ठेले पर चाट
खाना मज़ा है। यह आनन्द कतई नहीं है। सत्संग व परोपकार का सुख आनन्द भरा होता है। अत्यधिक
भोग सुख का साकार रुप नहीं है, यह तो संतुष्टि है। हम भारतीयों का जीवन-दर्शन रहा
है-‘सन्तोषं परम् सुखम्’। अभाव में भी ख़ुश रहने की हमारी विश्वव्यापी पहचान रही
है। दुनिया में भारत ही संभवतः एकमात्र ऐसा देश है जहां प्रत्येक दिन उत्सव मनाये
जाते हैं, जिसमे ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति भी सारे दुःख-दर्दों को अपना प्रारब्ध
मानकर ख़ुश रहने की कोशिश करता है। ए. जैन अपने उसी लेख में लिखते हैं कि ‘कई
देशों में जहां सीमित विकल्प उपलब्ध हैं और उनके बारे में भी लोगों को ठीक से
जानकारी ही नहीं है, इसलिए वे अपने दायरे में ही ख़ुश और संतुष्ट हैं।’6 वह आगे बताते हैं कि ‘दरअसल किसी देश का सुख व समृद्धि तब मायने रखती है
जब वह नागरिकों के स्तर पर हो। जबकि भारत और चीन का जोर आम लोगों की ख़ुशहाली के
बजाय राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ाने पर है। इसलिए आश्चर्य की बात नहीं कि
लम्बे समय से जीडीपी के लिहाज से दुनिया में अव्वल रहने के बावजूद चीन वैश्विक
प्रसन्नता सूचकांक में 84वें व भारत 117वें स्थान पर रखा गया है।’7
इन्दुमति काटदरे ने भी अपनी किताब ‘अर्थशास्त्र: भारतीय दृष्टि कुछ विचार’ में इस सन्दर्भ में लिखा है कि ‘आवश्यकताएं सीमित
होती हैं, इच्छाएं असीमित। आवश्यकता की पूर्ति हर व्यक्ति का (अथवा जिनको भी
प्राणरक्षा करनी है, अपना अस्तित्व बनाये रखना है उन सबका) जन्मसिद्ध अधिकार है।
आवश्यकताओं को तो हम अधिकार के रूप में ले सकते हैं परन्तु इच्छाओं को सर्वजनसुख
और सर्वजनहित रूपी धर्म के द्वारा नियंत्रित करके ही पूर्ण किया जा सकता है।’8 उससे पहले वह बताती हैं कि ‘यह लक्षणीय है कि भारत में मनुष्य को सृष्टि
की सभी इकाईयों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। परन्तु सर्वश्रेष्ठ होने के नाते
उपभोग और अन्यों के उपयोग का अधिकार नहीं दिया गया परन्तु अपने से कनिष्ठ सभी के
सुखसाधन और हितसाधन का दायित्व दिया गया है।’9 कहने का आशय
यह है कि समष्टि में व्यष्टि का सुख ही सृष्टि का सुख है।
चूंकि आत्मा से ही बुद्धि, मन और इन्द्रिय
चलायमान है। इसलिए आत्मा के सध जाने से बुद्धि, मन व इंद्रिय स्वतः सध जाते हैं।
किन्तु आत्मा को साधना भी क्रमशः इंद्रिय, मन और बुद्धि को संयत करने से ही सिद्ध
होगा। इसलिए इन चारों का आपस में समन्वय अत्यन्त आवश्यक है। कभी-कभी जब हम इंद्रिय
सुख में किसी का परोपकार करें और किसी को अपने में संनिहित कर लें तो आवश्यक है कि
वह आनन्द प्रदान करे।
समस्या और प्रश्न यह है कि क्या हमे सदैव
आत्मिक सुख के लिए इंद्रिय सुख, मानसिक सुख व बौद्धिक सुख की तिलांजलि देते रहना
चाहिए? क्या हमें इंद्रिय के वश में हो जाना चाहिए या फिर स्वयं इंद्रिय को अपने
वश में कर लेना चाहिए? वास्तव में मनुष्य तो सुख की ओर ही जाना चाहता है। उसे इस
बात की कतई परवाह भी नहीं होती है कि वह इंद्रिय को वश में कर ले या फिर वह स्वयं
इंद्रिय के वश में चला जाये। उसे हर हाल में सुख ही चाहिए। वह तर्कशील है। वह
प्रश्न करता है कि जब इंद्रियों से सुख की प्राप्ति हो रही है तो वह क्यों बुद्धि
और आत्मा के फेर में पड़े। यदि उसका सुख क्षणिक है तो फिर क्षणिक ही सही क्योकि वह
उस सुख को पुनः भोगने में, उसकी आवृत्ति में सक्षम है। वह बार-बार इसे भोगता रहेगा
जब तक जीवन है, फिर क्या बुद्धि और क्या आत्मा!
यह सत्य है कि मनुष्य को जहां तक संभव हो अपने
स्वभाववश सुख का उपभोग करते रहना चाहिए। प्रायः मनुष्य अपने स्वभाववश ऐसा करता भी
है। इसके लिए उसे परिणाम पर दृष्टिपात करना चाहिए यथा- शराब के सेवन से सुख की
अनुभूति करने वाले व्यक्ति को उसके परिणाम को ध्यान में रखकर उसका उपभोग करना
चाहिए। प्रत्येक सुख की अपनी गति होती है। इसी के आधार पर मनुष्य को सुख के वर्गों
का चुनाव करना चाहिए। यद्यपि शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा चारों प्रकार के सुख की
प्राप्ति ही जीवन-लक्ष्य है। तथापि हमे इन सभी सुखों के परिणामों को भी समझकर यह
सोचना होगा कि किस सुख का परिणाम दुःखदायी है। प्रायः सभी सुखों में कुछ न कुछ दोष
है। यथा- इंद्रिय सुख में भोग का अवगुण है जो व्यक्ति को संस्कारों से दूर कर सकता
है तथा मनुष्य को अकर्मण्य भी बना देता है। मानसिक सुख मनुष्य को निरंकुश और
स्वच्छंद बनाने में प्रबल है। बौद्धिक सुख तो विनाशकारी हो सकता है तथा आत्मिक सुख
मोक्ष की प्रवृत्ति है। वहां पर जीवन मोह और भोग से परे है। ऐसे में आत्मिक सुख
जीवन के रंगों में श्वेतांकों का भण्डार है जबकि
मर्त्यलोक रंग-बिरंगा और वस्तुओं के भोग व आनन्द की संस्कृति वाला स्थान है
जहां बिना इंद्रिय सुख, मानसिक सुख व बौद्धिक सुख को भोगे बिना जीवन सारहीन है।
उक्त सभी स्थितियां उनके सुखों के अकेले
अस्तित्व की परिणति है। वास्तव में यदि सभी सुखों को परस्परानुकूलतावश वर्गविहीन
करके विवेक द्वारा सच्ची आत्मा व मन से अपनी इंद्रियों द्वारा भोगा जाये तो जीवन
के सही, सतत व समग्र सुख के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है और वास्तव में यही
परम सुख है। इन चारों सुखों की निजी पराकाष्ठा को आप भले ही परम सुख कह लें, आप
आत्मीय सुख की प्राप्ति को भी परम सुख कह लें किन्तु यह सत्य नहीं है। वास्तव में
इस सुख की प्राप्ति कोई भी मानव स्वयं मात्र से नहीं कर सकता है। स्वयं के परिणाम
से वह पूरी तरह सुखी नहीं हो सकता इसके लिए समाज के साथ उसके सम्बन्धों का प्रश्न
भी उपस्थित होता है। पण्डित जी कहते हैं कि ‘सुख आत्मनिष्ठ है, वस्तुनिष्ठ नहीं।
आत्मनिष्ठता का आधार ही परस्परानुकूलता है।’10 इसलिए इन
चारों सुखों को अनुकूल दृष्टि से भोगते रहना ही सुख का अभिप्राय है। परमसुख के मिथ्या
लक्ष्य में किसी एक सुख का दामन थामकर आगे चले जाना क्रमशः मनुष्य को भोगी,
निरंकुश,विनाशकारी और रसहीन बना देगा।
एकात्मकता के सिद्धान्त की कसौटी पर पण्डित जी
का मत है कि ‘सृष्टि का भी सब व्यवहार इसी प्रकार आपस की पूरकता में ही प्रकट होता
है। समुद्र की भाप ऊपर उठकर बादल बनती है। बादल घुमड़-घुमड़ कर बरस जाते हैं।
नदियां उफनती हैं और फिर समुद्र में मिल जाती हैं। यही आनन्द है। व्यष्टि, समष्टि,
सृष्टि और परमेष्टी ये चार तत्व हमारे सामने उपस्थित होते हैं जो परस्पर सहकार्यों
से सुखदायी होते हैं। व्यक्ति समाज पर अवलम्बित है, समाज सृष्टि पर निर्भर है और
सृष्टि का संचालन परमेष्टि द्वारा हो रहा है। व्यक्ति उस परमेष्टि की इच्छा की
पूर्ति का साधन बनने में धन्यता का अनुभव करता है। जब तक इसमें परस्पर तालमेल बना
है सबकुछ ठीक चलता है। यही यज्ञचक्र कहा गया है।’11
दीनदयाल जी व्यक्ति-जीवन में इस सुख की
प्राप्ति के लिए चार बातों की आवश्यकता बताते हैं-शिक्षा, स्वतंत्रता, शान्ति और
पौरुष।
जिस यज्ञचक्र का उल्लेख ऊपर किया गया है उसे
व्यवस्था के साथ और निष्ठापूर्वक संचालित बनाये रखने केलिए शिक्षा की आवश्यकता है।
सब प्रकार की शिक्षा व्यक्ति को देने की व्यवस्था समाज में होनी चाहिए किन्तु यह
तभी संभव है कि जब व्यक्ति तथा समाज का जीवन स्वतंत्र हो। मानसिक स्वतंत्रता ही
नहीं आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता भी ज़रूरी है। इसके लिए राज्य का हस्तक्षेप कम
से कम हो तो बेहतर है और कहीं-कहीं राज्य का हस्तक्षेप बेहद ज़रूरी भी हो जाता है।
वहां राज्य को जमकर हस्तक्षेप करना चाहिए। यथा- व्यक्ति को न्याय दिलाने में,
स्वाभिमानी बने रहने में और न्याय दिलाने में राज्य को दमदार हस्तक्षेप करना
चाहिए।
मानसिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए
शान्ति और पौरुष की भी आवश्यकता है. शिक्षा, स्वतंत्रता, शान्ति और पौरुष इन चारों
साधन-चतुष्टय का निर्माण तथा संरक्षण करने के कार्य के लिए सक्षम सत्ताओं की आवश्यकता
होती है। स्वतंत्रता रक्षण के लिए राज्य, शिक्षण के लिए गुरुकुल, शान्ति के रक्षण
के लिए समाज और पौरुष के रक्षण के लिए प्रकृति की व्यवस्था है। ये साधन चित्त से
ही साध्य होते हैं। इसलिए राष्ट्र को चैतन्य प्रदान करना ही सब कार्यों की मूल
प्रेरणा है। राष्ट्र का चैतन्य निर्माण होने से ही ये सब कार्य सम्पन्न होते हैं।
और ये चैतन्य व्यक्ति में प्राकृतिक दशाओं से आता है जहां सब एक-दूसरे के सुखों का
खयाल करते हुए संस्कार की पूर्णता की कामना कर रहे हों। पण्डित दीनदयाल जी शान्ति
और पौरुष के रक्षण के लिए कहते हैं कि यह चातुर्वर्ण्य व्यवस्था से सिद्ध हो सकता
है क्योकि समाज और उसकी प्रकृति जब अपने ढंग से काम करेगी तो समष्टि में स्वतः ही
सुख की गंगा बहेगी अन्यथा लोग जब एक-दूसरे के कार्यों में अवरोध बनेंगे और दूसरे
के कार्य-धर्म में अतिक्रमण करेंगे तो सृष्टि में दुःख होगा। जे. भण्डारी ने भी
हिन्दी दैनिक “आज” के अपने संपादकीय में लिखा है कि “ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी में
लिखित ‘अर्थशास्त्र’ में विष्णुगुप्त (चाणक्य) ने कहा था कि यदि पेशेवर ख़ुशहाल
बनना चाहते हैं तो वे किसी भी परिस्थिति में नैतिक मूल्यों का अतिक्रमण न करें। ”12 समष्टि का सुख ही नैतिकता है।
कोई ऐसा मनुष्य जो धर्मावलंबी है, वेदों का
ज्ञाता है और ब्रह्म का ज्ञान रखने वाला है उसके पुत्र को नदी में मछली पकड़ने में
अत्यधिक रुचि है वह किसी अन्य कार्यों में रुचि भी नहीं बैठा पाता है किन्तु उसे
माया ने अपने चंगुल में जकड़ा और वह भी ब्राह्ममणत्व के कार्य में सम्मिलित होने
की इच्छा बनाने लगा। निश्चय मानिए कि इसे सुख का अनुभव नहीं हो सकता है। अब तो
इसका मन अशान्त भी रहने लगा है। पण्डित दीनदयाल जी कहते हैं कि शान्ति
चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के अनुपालन से सिद्ध होगी। इसलिए उस धर्मावलंबी मनुष्य के
पुत्र को अपने चित्त की शान्ति के लिए मछवारा बन जाना चाहिए। उसे अपना वर्ण ज्ञात
करना चाहिए। वही उसका सुख है।
ठीक इसी तरह आज के कथित दलित परिवार में
जन्में किसी युवा जिसके पिता योग्य प्रोफेसर हों और स्वयं उस युवा के कर्म तुच्छ
हों व वह निम्न कर्म वाला हो तो उसे किसी
बड़े पद यथा- प्रवक्ता, नीति निर्माता अथवा दार्शनिक बनने का प्रयास नहीं करना
चाहिए उसे अपने वर्ण के अनुसार वही कार्य करना चाहिए जिसका वो अधिकारी हो, तभी उसे
सुख की प्राप्ति हो सकती है। अतः पण्डित दीनदयाल उपाध्याय जी के विचारों में
शिक्षा, स्वतंत्रता, शान्ति और पौरुष की रक्षा करके परम सुख के मार्ग में आगे बढ़ा
जा सकता है।
सन्दर्भ सूचीः-
1 राष्ट्र जीवन की दिशाः पं. दीनदयाल
उपाध्याय-लोकहित प्रकाशन (पृष्ठः13)
2 राष्ट्र जीवन की दिशाः पं. दीनदयाल उपाध्याय-लोकहित प्रकाशन (पृष्ठः13-14)
3 राष्ट्र जीवन की दिशाः पं. दीनदयाल उपाध्याय-लोकहित प्रकाशन (पृष्ठः14)
4 राष्ट्र जीवन की दिशाः पं. दीनदयाल उपाध्याय-लोकहित प्रकाशन (पृष्ठः15)
5,6 व 7संपादकीयः ए. जैनः हिन्दी दैनिक ‘आज’ (दिनांकः24
जून, 2015)
8 व 9अर्थशास्त्र:भारतीय दृष्टि कुछ विचारः इंदुमती काटदरे-पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट
(पृष्ठः3-6)
10 राष्ट्र जीवन की दिशाः पं. दीनदयाल
उपाध्याय-लोकहित प्रकाशन (पृष्ठः16)
11 राष्ट्र जीवन की दिशाः पं. दीनदयाल
उपाध्याय-लोकहित प्रकाशन (पृष्ठः16-17)
12संपादकीयः जे.भण्डारीः हिन्दी दैनिक ‘आज’ (दिनांकः30
मई, 2015);