Friday, 28 August 2015

पोटली में रुपया

आज जहां पैसों को पानी की तरह बहाया जा रहा है, उसके पर्दे की वो प्रथा समाप्त हो गयी जिसके रहते लोग पैसों से कभी साध्य की तरह व्यवहार नहीं करते थे, आज भिखारी भी एक का सिक्का स्वाभिमान में वापस कर देता है। आज के समय में जहां किसी दुकान से कुछ सामान ख़रीदने के बाद बचे एक-दो रुपयों को वापस मांगना जैसे शर्म या हैरानी न हो कभी-कभी बलात् समझा जाने लगा है, जहां एक अभिनेत्री अपने एक विशेष नृत्य के लिए करोड़ों की मांग करती है और किसी के मुक्कों दर मुक्कों व हर चौके-छक्कों पर करोड़ों न्यौछावर कर दिये जाते हैं, इसके बरक्स यह भी है कि चलती राह में लगी ठेंस से टूटी चप्पलों को एक मोची मात्र रुपया भर दाम लेकर शौक से उस चप्पल में एक कील ठोंक कर उसे दुरुस्त कर देता है, जिससे राहगीर की न सिर्फ़ आबरू दुरुस्त होती है बल्कि उसे मार्ग पर चलने में सहूलियत भी महसूस होती है। अब फर्ज़ कीजिये की उस राहगीर के लिए उस दौरान उस रुपया की क्या कीमत रही होगी और वो उसे कितनी उपयोगिता से ख़र्च कर पाया होगा। एक टॉक-शो धारावाहिक सत्यमेव-जयते में सोना महापात्रा स्वानंद किरकिरे का एक गीत गाती हैं मुझे क्या बेचेगा रुपइया....। अर्थात् अगर उस एक रुपइया यानी रुपया में ताक़त न होती तो वो उसके बेचने की बात न कहतीं। माने कि वह रुपया किसी की हैसियत तक को बेचने का माद्दा रखता है।  इससे साफ़ होता है कि रुपया में बड़ी ताक़त है, यदि उसका सही तरह से संचय, सही समय पर उपयोग और सहीं चीज़ के लिए व्यय हो तो। इस तरह से एक रुपया हमारे लिए बहुत उपयोगी होता है और हम काफी कुछ इसकी सहायता से बदल सकते हैं, अग़र हमारे जेब में एक रुपया भी हो तो...।
बेपरवाह चिलचिलाती धूप की परवाह न करते हुए हल्की उड़ती धूल के बीच श्रम-स्वेद की कुछ चमकती हुयी बूंदों को अपने माथे पर उठाकर सुकून की पालती लगाकर एक बेनाम कामगार अपने काम में तल्लीन बैठा है। ये दिल्ली के आनन्द विहार अंतर्राज्यीय बस अड्डा के 83-84 नम्बर के स्टैण्ड का माजरा है। वो चुपचाप अपने काम में लगा हुआ शायद कोई गीत सा गुनगुना रहा था। उसके पास ख़ुद की अपनी एक चलती-फिरती छोटी सी दुकान थी, घड़ी की दुकान। इसमें वो हर तरह की घड़ियों को रखता है, यानी आज के बाज़ार को देखते हुए एक ख़रीददार को पर्याप्त च्वाईश मिल जाती है इसकी इस चलती-फिरती छोटी सी दुकान में। दुकान भी मानो ऐसी कि पूरी की पूरी दुकान उसकी हथेली में ही आ जाती है। लम्बे समय से वो एक किनारे बैठा अपनी रूमाल में अपनी सारी घड़ियां डाल कर उन्हें एक-एक करके अपनी उंगलियों में कायदे से संजो रहा था। पहले कई घड़ियों की वो एक चेन बनाता फिर उसे एक उंगली में डालता और इसके बाद उसके ऊपर चेन के ऊपर चेन डालता चला जाता। यही क्रम वो अपनी सभी उंगलियों के लिए दोहराता। ऐसे करते हुए उसने सैकड़ों घड़ियां अपनी उंगलियों में ही फंसा लीं। उसे अपनी इस छोटी सी दुकान के लिए किसी ज़मीन की ज़रूरत न थी और न ही किसी स्थाई औपचारिक प्रतिष्ठान की ही। वो मात्र एक फेरी वाला है।
मैं उसे तब से ही देख रहा था, जब से वो जाकर ज़मीन के उस कोने में बैठा था। अब तक मैं कई जिज्ञासाओं से भर चुका था। आवाज़ लगा दी मैने- अरे, फेरी वाले भइया...! क्या हम आपस में कुछ देर बात कर सकते हैं क्या..?”
“का होई हो भाई अपस मा बात कइके। जेतनी देर हम तुमसे बतियाबे ओतनी देर हम कउनों ग्राहक से बात कई लेबे तो हमका रुपिया खांड़ कुछ मिल जाई, कुछ कमा लेबे हम।” उसका फौरन जवाब था।
 उसके मुंह से निकले रुपिया शब्द ने मुझे और ज़्यादा उत्सुक कर दिया कि मैं उससे बात अवश्य करूं, क्योंकि देर से बैठा मैं यही सोच रहा था कि इस भागमभाग, महत्वाकांक्षी और प्रतियोगिता भरी ज़िन्दगी में भला इतने में कमा कर कोई कैसे रह सकता है, वरन् कोई अच्छे से जीवन यापन ही भला कहां कर सकता है। सो मैंने तपाक से उससे यही पूछा- “क्या तुम मात्र रुपया ही कमाना चाहते हो..?”
“जी नहीं, रुपया बचाना चाहता हूं बाबूजी।” उतना ही फौरी उसका जवाब था।
“रुपया में तो अब ताक़त रह नहीं गयी है मियां, फिर भला तुम रुपया भर से क्या बनाओगे!” मैने उससे और अधिक जानने के लिए उसे छेड़ा।
“बनाने की तो बात ना ही कीजिएगा बाबू जी, मैने तीन-तीन घर बना दिए हैं और दो घरों की नीव रख रहा हूं।” मुझे लगा वो मेरी बातों को नाजायज समझ रहा है। सो फिर मैने उसके निजी जीवन के बारे में जाना तो पता चला कि वो पटना के आसपास के गांव का रहने वाला है और उसने मात्र सातवीं तक की ही पढ़ाई की है और उसको पास करने के तुरंत बाद ही वो दिल्ली चला आया था। नाम पूछने पर वो कहता कि घर पे लोग ‘बोलबम’ कहते हैं और दिल्ली में तो हर कोई उसे फेरी वाला या लड़कियां फेरी वाले भइया कह देती हैं।
मैने उसे अब सहज पाकर दोबारा पूछा कि वो तीन-पांच घरों वाली बात कैसी है। उसने मुझे बताया कि “बाबूजी जब से मैं घर से बाहर कमाने के लिए निकला हूं आज छब्बीस बरस की उमर तक में तीन बहनों की शादी करके उनको उनके घर-द्वार का कर दिया हूं और दो छोटे भाई हैं, जिनमे एक का अबकी बीए में और दूसरे का नौवीं में दाखिला कराया हूं। और ये सब ऐसे ही हो पाया कि मैं रुपया-रुपया जोड़ता रहा और अंत में मुझे उस रुपया कि ताक़त का अंदाज़ा हो गया है। दूसरों के लिए रुपया हाथ की मैल हो, चाहे ऐश का सामान, पर मेरे लिए तो अगर मेरी पॉकिट में रुपया है तो मैं अपने को मज़बूत समझता हूं, और उम्मीद में रहता हूं कि इससे एक घर फिर बनेगा।”
चलते-चलते मैने उससे मज़े में पूछा कि अग़र आज तुम्हारे पास मात्र एक रुपया हो और वो सबसे ख़ास हो तो तुम उसे कैसे अधिकतम उपयोग में लाओगे?
मज़ेदार ही उसका जवाब आया कि “बाबूजी अग़र वो आख़िरी रुपया ही हो तो मैं उससे एक छोटा-गोला भांग ख़रीदुंगा, क्यों कि मंहगाई चाहे जहां चली जाए भांग का दाम अभी तक औकात में है, मैं भांग खाकर आराम फरमाउंगा और उड़ती खटिया से ही अनुभव करुंगा कि मैं अपने रुपया के दम पर ही आज आकाश में तैर रहा हूं। अब जिसे भी आकाश छूना हो तो बस, पोटली में रुपया काफ़ी है।








नरौरा परमाणु संयंत्रः विकास का वाहक

दिन अपनें यौवन पर था। सूरज ठीक सिर के ऊपर, लेकिन शान्त चित्त से ही वो हमें निहार रहा था। पास में एकदम तराई सी ठण्ड। पानी का ज़ोर-ज़ोर से झरना हमें रोमांचित कर रहा था। ऊपर से मस्तानी हवा की दस्तक हमें रूहानी फितरत का अहसास करा रही थी। साथ ही कूलिंग टॉवर को उसके ठीक धरातल से ऊपर की ओर देखने पर हमें भारी रोमांच का अहसास हो रहा था। उसके अन्तिम छोर से पानी की हल्की भाप का इतराकर आकाश को आलिंगन करना हमें उत्साह से भर रहा था और हम उस क्षण आकाश की सीमा में खोये हुये प्रगति के पदचिह्न के साक्षी बने उसे महसूस कर पा रहे थे। वास्तव में इस पल हम सब भारत के सबसे पहले निर्मित पूर्ण स्वदेशी परमाणु विद्युत केन्द्र, नरौरा (एनएपीएस) के कूलिंग टॉवर के ठीक नीचे खड़े हैं।
700 एकड़ में फैले नरौरा परमाणु विद्युत स्टेशन न्यूक्लियर पॉवर कॉरपोरेशन ऑफ़ इण्डिया लिमिटेड (एनपीसीआईएल) की इकाई है। यह संयंत्र तीन दशकों से भी अधिक समय से पूरी तरह से स्वदेशी ईंधन, यंत्र और वैज्ञानिकों की सहायता से लगातार बिजली उत्पन्न कर रहा है। दिल्ली से तकरीबन 150 किलोमीटर दूर एनएपीएस उत्तर प्रदेश के ज़िला बुलंदशहर के नरौरा शहर में स्थित है। नरौरा परमाणु संयंत्र में दो इकाईयां हैं, जो कि 220 मेगावॉट बिजली प्रति इकाई उत्पादन करती है। नरौरा परमाणु विद्युत स्टेशन के परमाणु रिएक्टर उच्चस्तरीय प्रेशराइज़्ड हैवी वॉटर रिएक्टर की तकनीक पर काम करते हैं।
एक दिन पहले ही भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली का 21 सदस्यीय दल नरौरा परमाणु विद्युत स्टेशन के भ्रमण के लिए निकला था। पूरे दल ने परमाणु स्टेशन के ही गेस्ट हाउस में रात्रि-विराम किया। यहां के आवासीय परिसर ने तो सब का मन ही मोह लिया। दल के एक सदस्य ने तो यहां तक कहा कि हमारा विज़िट कुछ और दिनों तक के लिए बढ़ा दिया जाए तो बेहतर है। वहीं कुछ ने तो सदा के लिए यहीं बसे रहने की मंशा ज़ाहिर की। वास्तव में ये  एनपीसीआईएल के व्यवस्थापन और अनुशासन से उपजी मुग्धता का परिणाम था, जो एकबारगी सबका ध्यान अपनी ओर खींच रहा था, जहां चारो ओर ख़ुशहाली और शान्ति का अहसास सा हो रहा है।
आम तौर पर देखा जाए तो समाज में परमाणु शब्द को ही लोग हौव्वा की तरह समझते हैं। यद्यपि वो अनायास ही इससे भयभीत से होने लगते हैं, क्योंकि इस मामले में अक्सर उनकी निज़ी समझ से ज़्यादा कई तरह की सुनी-सुनाई बातें होती हैं, जो उनके दिमाग़ में घर कर लेती हैं। वास्तव में इस दौरान इनकी मनोवृत्ति का अध्ययन किया जाना चाहिए। तब हम पायेंगे कि उनके इस हौव्वा और अंधकार को समाज से मिटाया जाना बहुत ही ज़रूरी है, ताकि वो चीज़ों को सही तरीके से समझने की क़ाबिलियत हासिल कर सकें, न कि वो परमाणु या इससे संबंधित किसी भी जानकारी को लेकर भ्रम में जीते रहें, और यद्यपि वो स्वयं ही विकास की चाह तो रखें, किन्तु उनके कारकों और सोपानों के प्रति ग़लत धारणा के ग्राही बने रहें। इन सबके लिए उन्हें आवश्यक समझ बनानी होगी और मानसिक रूप से आधुनिक और प्रयोगधर्मी होना पड़ेगा।
केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ़) की कड़ी सुरक्षा जांच के बाद हम सब ज़्यों ही स्टेशन के भीतर प्रवेश किये सबने अपनी बांहें फैला ली। सभी एक क्षण ठहरे, मानों बहुत कुछ आज वो संजो लेने की फ़िराक़ में हों। एक चिरमयी जिज्ञासा जो हम सब के साथ थी, के साथ हम सबसे पहले परमाणु प्रशिक्षण केन्द्र के सेमीनार कक्ष की तरफ बढ़े, जहां पर वरिष्ठ साइंटिफिक ऑफ़ीसर ने हमें परमाणु द्वारा विद्युत उत्पादन से सम्बन्धित तमाम बातें बतायीं, और साथ ही नई-नई जानकारियां भी दीं। उन्होनें बताया कि परमाणु द्वारा बिजली प्राप्त करना कई मायनों में सरल, स्वच्छ, सुविधाजनक और सुरक्षित है। थर्मल पॉवर से इसकी तुलना करते हुए उन्होने कहा कि मोटे-मोटे आंकड़ों में इसे समझें तो एक ग्राम यूरेनियम और तीन टन कोयले से हमें बराबर ऊर्जा प्राप्त होती है। इस तरह से हम कम ईंधन में बहुत ज़्यादा बिजली पैदा कर सकते हैं, वो भी बिना किसी कचरे के। मालूम हो कि हर साल एक हज़ार वॉट का प्लांट चलाने के लिए हमें थर्मल पॉवर प्लांट में 4000 कोयलों से भरी ट्रेने चाहिए, जबकि, परमाणु द्वारा बिजली पैदा करने में पूरे साल भर में मात्र एक ट्रक यूरेनियम ही हमें चाहिए। अब फ़र्ज़ कीजिए कि एक साल में कोयले से फ़्लाई ऐश कितना होगा और हम उसे कहां सुरक्षित कर पायेंगे, वहीं दूसरी तरफ़ हम यूरेनियम के बचे भाग को रिप्रॉसेज़ करके प्लूटोनियम प्राप्त कर लेते हैं जो फिर से अगले पड़ाव या चरण के लिए ईंधन के रुप में प्रयोग किया जा सकेगा।
परमाणु रिएक्टर लगाने के लिए हमें अन्य माध्यमों की अपेक्षा कम स्थान की आवश्यकता होती है। ये अपेक्षाकृत कम जगह में ही सही तरह से संचालित हो सकते हैं। चूंकि भारत में जनसंख्या अधिक होने के कारण हम किसी भी चीज़ के लिए चूज़ी नहीं हो सकते हैं, यानी हमें जो भी मिले उसे सहर्ष या मज़बूरीवश स्वीकार ही करना पड़ता है, न कि हम च्वाईश मांगते हैं। तभी तो यद्यपि भारत दुनिया का पांचवा सबसे बड़ा बिजली उत्पादन करने वाला देश है, फिर भी हमारे यहां अभी भी तीस फीसदी घरों में बिजली नहीं है। बावजूद इसके हम यूरेनियम से अधिक बिजली पैदा करने की कोशिश में लगे हैं। भविष्य के लिए हमारी सरकार अपनी कूटनीति का अच्छा प्रदर्शन करके ईंधन की व्यवस्था के अच्छे प्रयास में लगी है। साथ ही हम थोरियम के उपयोग वाले रिएक्टरों की भी तकनीक विकसित कर रहे हैं, जोकि अभी शोध का विषय है। जब ये तकनीकी पूर्ण रुप से विकसित हो जाएगी, तब परिस्थियां हमारे अनुकूल होंगी और तब हम दुनिया के सबसे ताक़तवर देशों में से एक होंगे, क्योंकि पूरी दुनिया के एक तिहाई थोरियम का विशाल भण्डार हमारे पास है।
प्रोजेक्ट से पहले का पापड़ः- परमाणु विद्युत स्टेशनों का निर्माण चट मंगनी और पट ब्याह की तर्ज़ पर नहीं होता है। किसी भी प्रोजेक्ट के शुरुआत से पहले एनपीसीआईएल को कई तरह के प्रयास करने पड़ते हैं, जो उनके हिसाब से बेहद आवश्यक होते हैं। नरौरा स्थित इन्वॉयरमेंट सर्वे लैब के ऑफ़ीसर इंचार्ज़ बताते हैं कि प्लांट के शुरुआत से पहले हम तमाम चीज़ों, जैसे कि यहां के आस-पास की हवा, खाने-पीने की चीज़ें, पशु-पक्षियों, यहां की मिट्टी, पानी व खेत-खलिहानों की विश्लेषणात्मक जांच करते हैं और इस तरह की जांचें फिर से लगातार नियमित तौर पर होती रहती हैं, ताकि आरम्भिक जांच से आज की जांच के अन्तर को समझ कर रेडिएशन को मापा जा सके। इन्वॉयरमेंट सर्वे लैब भारत सरकार की एक स्वायत्त संस्था है, जो भाभा परमाणु अनुसंधान संस्थान के अंतर्गत आती है। अतः ये अपने काम को पूरी सावधानी, निष्पक्षता और विश्वसनियता के साथ पूर्ण करती है।
अब तक हम सबकी उत्सुकता इस ओर बढ़ने लगी कि जब यूरेनियम को ईंधन के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है या जलाया जाता है तो उस दौरान रेडिएशन के कितने ख़तरे रहते हैं और वहां की बनावटें कैसी होती हैं। हमारे एक साथी ने सवाल किया।
न्यूक्लियर पॉवर कॉरपोरेशन ऑफ़ इण्डिया लिमिटेड का ध्येय है सुरक्षित तरीक़े से ऊर्जा प्राप्त करना। नरौरा परमाणु विद्युत केन्द्र के केन्द्र निदेशक डी एस चौधरी का दृढ़ता से जवाब आया. उन्होने आगे कहा कि एनएपीएस की समस्त कार्य-प्रणालियां दक्ष वैज्ञानिकों एवं इंजीनियरों के द्वारा संचालित की जाती हैं।  अत्याधुनिक कंट्रोल रूम चौबीसों घण्टे हर गतिविधियों पर नज़र रखते है। अपने इन्हीं सतत प्रयासों से एनएपीएस ने अपने उत्तम सुरक्षा रिकॉर्ड को बरकरार रखा। अपने कार्यालय में एनएपीएस ने सुरक्षा प्रबन्धन और पर्यावरण संरक्षण में कोई कसर नहीं रखी है। एनएपीएस एशिया में पहला परमाणु संयंत्र है जिसे आईएसओ 14001 और आईएसओ 180001 प्रमाण-पत्र प्राप्त हुये हैं। एनएपीएस गुणवत्ता के 6 SIGMA सिद्दान्त का भी पालन करता है, जो इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर का संयंत्र बनाते हैं।
हमारे साथी के सवाल के उत्तर को और स्पष्ट करते हुये उन्होने बताया कि स्वचालित तरीके से ईंधन को फ़्यूल-चैनल में रखा जाता है। यह पूरा चैनल रिएक्टर के हृदय यानी ‘कैलेण्ड्रिया’ में सुरक्षित तरीक़े से पैक रहता है। इसके बाहर एक मीटर की विशेष कंटेन्मेण्ट वॉल होती है, जिसे हम प्रथम दीवार कहते हैं। इस दीवार के बाहर एक मीटर मोटी ऐसी ही एक दूसरी दीवार होती है, जिसे हम द्वितीय दीवार कहते हैं। इन दोनों दीवारों के बीच में वैक्यूम रखा जाता है। इस तरह इन दीवारों की ताक़त ऐसी हो जाती हैं कि इन पर तेज़ गति के विमान से प्रहार या हिट करानें पर भी ये नहीं टूटती हैं। इसके बाहर भी एक किलोमीटर से भी अधिक का एक्सक्लूज़न ज़ोन होता है, जहां तमाम पशु-पक्षी प्रकृतिक रूप से निवास करते हैं। एनएपीएस में लगभग हज़ार से भी अधिक पशु-पक्षी हैं, जिनमें मोर, कई तरह के बंदर, कुछ प्रवासी पक्षी व तमाम संवेदनशील पशु-पक्षी हैं, जो यहां स्वच्छंदता से निवास करते हैं। एक तरह से यहां का नज़ारा मिनी-सेंचुरी की तरह ही दिखाई देता है। एनएपीएस अपने क्षेत्र के पर्यावरण के संरक्षण और विकास के प्रति प्रतिबद्ध है। पशु-पक्षी एनएपीएस के आसपास जिस स्वच्छंदता से विचरण करते दिखाई देते हैं वह साफ दर्शाता है कि पर्यावरण संरक्षण के प्रयास सफल और दूसरों के लिए उत्साह वर्धक हैं।
पूरा दल कुछ क्षण बाद मेन कंट्रोल-रूम की ओर बढ़ा। यहां पहुंचने से पहले हमें कुछ सावधानियां लेनी पड़ीं। और विशेष अनुशासन का पालन करना पड़ा। यहां हमने देखा कितना चाक-चौबंध और सतर्कता से हर छोटी-बड़ी चीज़ की निगरानी की जा रही है। यह एक बेहतरीन और स्मार्ट तकनीकी से सुसज्जित कंट्रोल-रूम है। इसके अलावा यहां एक सप्लीमेण्ट्री कंट्रोल-रूम भी है। इसके साथ ही हमने ‘टरबाईन हॉल’ का भी भ्रमण किया, जो हम सब के लिए किसी कौतूहल से कम नहीं था।
आम जन की भागीदारीः- भविष्य में सुरक्षा दृष्टि से और एक अनुशासन बनाये रखने के लिए नरौरा परमाणु विद्युत स्टेशन की तरफ से एक मॉक-ड्रिल करायी जाती है। इसमें प्रायःजनता के साथ-साथ स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े अधिकारी, प्रशासनिक अधिकारी व पुलिस अधिकारी आदि सभी सम्मिलित होते हैं। इसके लिए नरौरा में कुल आठ अलग-अलग सेक्टर निर्धारित किये गये हैं। हर दो साल में एक-एक सेक्टर का बारी-बारी अभ्यास कराया जाता है। इसमें उस सेक्टर की पूरी आबादी की हिस्सेदारी होती है। हांलांकि, चूंकि ड्रिल शब्द से लोगों में कई तरह के भ्रम भी पैदा होते हैं। इसलिए अब इसे मॉक-ड्रिल से नाम बदलकर एक्सरसाईज़ कर दिया गया है।

परमाणु बिजलीघर किसी भी तरह के कोई ख़तरनाक रेडिएशन नहीं पैदा करता है, जो हानिकारक हो। इससे इतर
हमारे समाज में हर जगह प्रकृतिक रूप से मौजूद रेडिएशन हैं, लेकिन हम उनसे भयभीत नहीं होते हैं। शायद आपको जानकर ये आश्चर्य होगा कि एक पके केले में भी रेडिएशन की कुछ मात्रा होती है, लेकिन हम उसे चाव से खा लेते हैं। परमाणु बिजली घर अत्यन्त सुरक्षित तरीक़े से काम करते हैं और बहुत ही नियोजित तरीक़े से बिजली का निर्माण करते हैं। फिर बिजली घर से कैसा डरना..? हमें किसी भी तरह की अफवाहों से दूर रहना चाहिए तथा असल में अणु शक्ति की ताक़त और उपयोगिता को समझना चाहिए, ताकि मानव जाति का विकास हो सके।  हम इन सबके लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं और कोशिश कर रहे हैं कि विभिन्न प्रकार के जन जागरुकता कार्यक्रमों से लोगों के मन के डर को दूर कर सकें।
-अमृतेश श्रीवास्तव-
मैनेजर(कॉरपोरेट कम्यूनिकेशन्स)
न्यूक्लियर पॉवर कॉरपोरेशन ऑफ़ इण्डिया लिमिटेड, मुम्बई।

रेडिएशन से डर कैसाः- व्यक्ति को हमेशा कुछ न कुछ जानते रहने चाहिए। हमारी भी आंखे खुल गयीं थी रेडिएशन के इस पैमाने को देखकर। इसलिए हमें कई तरह के भ्रम और ग़लत जानकारियों के चंगुल से बचने के लिए सही ज्ञान को तुरंत ग्रहण कर लेना चाहिए। इन्वॉयरमेंट सर्वे लैब में कार्यरत अन्य साइंटिफिक ऑफीसर बताते हैं कि 2400 माइक्रो सीवर्ट का रेडिएशन हमें आमतौर पर बिना किसी प्लांट आदि के मिलता है। इसके अलावा अन्य स्रोतों से मिलने वाले रेडिएशन को हम आगे देख सकते हैं। अधोलिखित स्रोत निम्नलिखित स्तर में रेडिएशन पैदा करते हैं-
कंक्रीट का घर- 70 से 100 मिलीरैम/वर्ष
ईंट की दीवार- 50 से 100 मिलीरैम/वर्ष
सूर्य- 45 मिलीरैम/वर्ष
लकड़ी का घर- 30 से 50 मिलीरैम/वर्ष
पानी/भोजन/हवा- 25 मिलीरैम/वर्ष
एक्स-रे- 20 मिलीरैम/वर्ष
ज़मीन- 15 मिलीरैम/वर्ष
न्यूक्लियर पॉवर प्लांट- 01 मिलीरैम/वर्ष
इसमें भी न्यूक्लियर पॉवर प्लांट द्वारा उत्सर्जित रेडिएशन की लगातार जांच होती रहती है और इसे भी नियंत्रित करने के लगातार प्रयास जारी रहते हैं। अतः हम यह कह सकते हैं परमाणु रिएक्टर से न के बराबर रेडिएशन उत्सर्जित होता है।
इस प्रकार, हमने महसूस किया कि किस प्रकार अज्ञानता और रूढ़िवादिता की ज़ंजीरों में जकड़े हुये लोग विकास की सही परिभाषा को सही तरह से आत्मसात नहीं कर पाते हैं। ऐसे में आज ज़रूरत है इस ज़ंजीरों को तोड़ने की, ताकि हम लोगों को सही तरह से जानकारी देकर उनका ज्ञानवर्धन कर सकें और उनको भी देश की प्रगति में योगदान देने के लिए आमंत्रित कर सकें। तभी राष्ट्र उन्नति के पथ पर सच्चे अर्थों में अग्रसर हो सकेगा।












रेडियो पत्रकारिता में कैरियर बोलेगा



वैश्वीकरण के इस दौर में कैरियर के विकल्प के रूप में एक क्षेत्र तेजी से उभर कर आया है। यह क्षेत्र है मास-मीडिया यानी जनसंचार माध्यम का। आज प्रायः हर युवती/युवा इस कॅरियर को अपनाना चाहता है। यह फ़ील्ड आज न केवल उच्च पारिश्रमिक देने वाला बन गया हैबल्कि क्रिएटिव और जॉब सैटिस्फैक्शन प्रदान करने वाला भी माना जा रहा है। आज के समय में मीडिया प्रोफेशनल्स को न केवल आकर्षक सैलरी मिल रही है, बल्कि मेहनत  और प्रतिभा के दम पर इस कॅरियर में कम समय में ही काफी प्रसिद्धि हासिल की जा सकती है।
इस क्षेत्र को कॅरियर के रूप में अपनाने का सपना देख रहे युवाओं के पास कठिन परिश्रम और धैर्य का होना बहुत ज़रूरी है क्योंकि इस क्षेत्र में उच्च मुकाम हासिल करने में समय लगता है। साथ ही साथ बाहर से यह फ़ील्ड जितना चमकदार और सहज नज़र आता है अन्दर से उतना ही ज़्यादा चुनौतीपूर्ण और रोमांच से भरा हुआ है। इसके अलावा यह पेशा अब संकटों में घिरकर लगातार असुरक्षित हो गया है, ख़ासकर जब टेलीविज़न पत्रकारिता में श्रम की मारामारी और नवावसरों का अभाव हो भीड़ और प्रिण्ट मीडिया के संदर्भ में जब बहस इस बात पर शुरू हो चुकी हो कि ‘इज़ प्रिण्ट मीडिया डेड?’ तब ऐसे में नज़रें उस ओर टिकती हैं जहां नये-नये अवसरों की राह दिख रही हो। साथ ही हमें यह भी ध्यान में रखकर चलना होगा कि आज पत्रकारिता का ताना-बाना पूरी तरह से बदल गया है। रोज नये-नये तकनीक और पहलू पत्रकारिता को एक नयी व अलग पहचान दिलाने में लगे हैं।    
इसके बावजूद पत्रकारिता एक रुचिकर, अतुल्य और विविध क्षेत्र है जो आपको विभिन्न कॅरियर क्षेत्रों व अवसरों में ले जाता है। इससे जुड़कर आप समाज के विकास और सशक्तिकरण में अपना योगदान दे सकते हैं क्योंकि पत्रकारिता (मीडिया) का प्रभाव समाज पर लगातार बढ़ रहा है। यहां आप इसके कुछ मुख्य कार्यक्षेत्रों जैसे विश्लेषण, लेखन और संपादन जैसी ज़िम्मेदारी को संभाल सकते हैं। इन सब कार्यों में यहां पर बहुत अधिक प्रतिस्पर्धा है। इसी कारण से यह क्षेत्र आज सृजनशील युवतियों/युवाओं की पहली पसंद के रूप में उभरा है और ज़्यादातर युवतियां/युवा इस क्षेत्र में संस्थागत अनुशासन के पालन के बाद प्रवेश करना चाहता है।
अब से कुछ समय पहले तक साहित्य में डिग्री और कुशल संवाद क्षमता रखने वाले लोगों को पत्रकारिता तथा इससे जुड़े क्षेत्रों के लिए उपयुक्त माना जाता था। लेकिन मानवीय जीवन में तकनीक के बढ़ रहे हस्तक्षेप ने इस क्षेत्र में ऐसे ट्रेड-प्रोफेशनल्स की ज़रूरत पैदा कर दी है जो सभी तक तेज़ी से सूचनाएं पहुंचा सकें। यद्यपि सूचना प्रौद्योगिकी क्रान्ति ने पत्रकारिता को अधिक मज़बूत बनाने के लिए अपना योगदान दिया है, तथापि अब नए लोगों के लिए यहां चैलेंज अधिक है। जबकि स्थिति यह है कि आज भी अंतिम व्यक्ति तक कई माध्यम पहुंच नहीं बना सके हैं। साथ ही साथ इस क्षेत्र में प्रशिक्षित प्रोफेशनल पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं हैं।
उक्त बातों में क्रमशः देखें तो पहली बात यह कि ऐसा कौन सा माध्यम है जो अन्तिम दूर के व्यक्ति तक पहुंच सकता है, तो वह माध्यम रेडियो है। दूसरी, यद्यपि कुछ जगहों पर टेलीविज़न या अख़बार यदि पहुंच भी बना पाए हैं तो अड़चन यह है कि वहां कि लगभग अधिकतम जनसंख्या अनपढ़ है, जो किसी ख़बर को मात्र सरल भाषा में सुनकर ही समझ सकती है। अतः ऐसे विकल्प के रूप में मात्र रेडियो ही वह माध्यम है जो दूरस्थ पहुंच रखता है और  सूचनाओं को सरल, स्पष्ट, और सीधे ढंग से प्रस्तुत कर पाने में सक्षम है क्योंकि सूचना तकनीक के विस्तार और विकास पत्रकारिता के क्षेत्र इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को दिनो-दिन विस्तार दे रहे है। रेडियो पत्रकारिता भी इसी में एक है।
एक बात यह भी कि दूर दराजो में सभी जगह एक सी भाषा का इस्तेमाल नहीं होता है इसको ध्यान में रखकर भी रेडियो को मज़बूत बनाया गया है। यही कारण है कि आज आकाशवाणी से 23 भाषाओं और 146 प्रान्तीय भाषाओं में प्रसारण किया जाता है तब जाकर यह भारत के 91.79 प्रतिशत क्षेत्रफल तक और जनसंख्या के हिसाब से 99.14 प्रतिशत तक अपनी सीमा को पहुंचा पाया है, जो कि अन्य माध्यमों में यह इतना आसान सा काम नहीं है। ऐसी संभावना तो रेडियो मात्र में ही है।
वास्तव में तकनीक के विस्तार आदि के अलावा भी तमाम अन्य कारण यथा कइयों का पहले ज़िक्र भी किया जा चुका है हैं, जिन्होने रेडियो पत्रकारिता को स्वतंत्र रूप से एक कैरियर के रूप में स्थापित कर दिया है। हां, यह सत्य है कि रेडियो पत्रकारिता आज के दौर में प्रधान व स्वतंत्र पाठ्यक्रम के रूप में उभर रहा है। अब श्रोताओं को जोड़े रखने के लिए रेडियो और साउण्ड दोनो में तकनीक व स्वरूप में ख़ासा परिवर्तन सामने आ रहा है। ऐसे में इसकी गुणवत्ता और मांग दिन-ब-दिन बढ़ रही है। आज रेडियो का डिजिटलाईजेशन हो चुका है। अब रेडियो पॉकेट में आ चुका है। आज लगभग हर मोबाईल में रेडियो बजता है।
रेडियो पत्रकारिता, पत्रकारिता की एक विशिष्ट और चुनौतीपूर्ण विधा है। यह एक अलग तरह की पत्रकारिता है जिसमें पढ़ने के लिए काग़ज़ पर शब्द नहीं देखे जा सकते, चित्रों के माध्यम से हम किसी भी चीज़ का अहसास नहीं कर सकते हैं और न ही चलचित्रों की सहायता से किसी का दर्शन ही कर पाते हैं बल्कि इसमें शब्दों से तस्वीर गढ़ी जाती है। उन्हीं में हम चलचित्र का अहसास भी कर लेते हैं और उन्हीं शब्दों के भावों को ही हम पढ़कर व अहसास कर सूचनाओं का जीवंत मोल महसूस करते हैं।
रेडियो हमारे रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा है। यह हमारे पुराने दोस्तों और परिवार के सदस्यों की तरह है। अक्सर हम कॉफ़ी-शॉप के कॉर्नर पर बैठकर व घरों में भी बैठकर रेडियो का उपयोग करते हैं। इसलिए ये प्रसारण माध्यम का बहुत ही दमदार साधन है जबकि अख़बार पढ़ना बहुत ही एकाग्रता भरा होता है। आज की भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में अक्सर पूरे अख़बार से महत्वपूर्ण ख़बरे बहुत सम्भव है कि आप उन्हें पढ़ने से वंचित रह जाएं। टेलीविज़न के सामने भी आपके लिए पूरा-पूरा दिन बैठना सम्भव नहीं है, ऐसे में रेडियो एक सशक्त माध्यम और एक बेहतरीन उपलब्धता वाला साधन बनकर आपके विकल्प के रूप में प्रयोग हो सकता है। रेडियो को आप अपने दफ़्तर जाने वाली गाड़ी में, कैब में, सवारी गाड़ी में और स्वयं आप अपने दफ़्तर में भी सुन सकते हैं। ऐसे में संभव है कि आप दिनभर रेडियो जैसे एक शक्तिशाली संचार माध्यम से घिरे रहे जहां आपको अबाध्य सूचनाएं सरलता और सहजता के साथ उपलब्ध रहें।
रेडियो की पहुंच इंटरनेट और टेलीविज़न से कहीं व्यापक है। रेडियो घर-दफ़्तर की सीमाओं को पार करने में सक्षम है। आप दुनिया के किसी ऐसे सुदूर इलाके का छोर पकड़ लें जहां टेलीविज़न, टेलीफ़ोन या कम्प्यूटर की सुविधाएं न हों, वहां भी एक गादी भर का रेडियो आपको पूरी दुनिया से जोड़ देगा। हिमालय की चोटी हो या हिन्द का हृदय, भुज की भुजाओं से लेकर लोहित के लात तक रेडियो को आसानी से सुना जा सकता है।
रेडियो में संभावनाएं:- यह निश्चित है कि रेडियो माध्यम की संभावनाएं अपार हैं। भारत में  रेडियो का पुनर्जन्म सा हो रहा है। सेटेलाइट, केबल, टेलीविज़न और इंटरनेट जैसे माध्यमों की इस बेहद रोचक दुनिया में रेडियो के भावी स्वरूप के पहले से अधिक स्मार्ट होने की पूर्ण संभावनाएं हैं।
सन् 1990 के मध्य में सरकार ने जो कम्युनिटी रेडियो खोले हैं उनको अधिक संभावना है कि सरकार ख़बरों के प्रसारण की इजाज़त दे दे। ऐसे में देश के इन सभी कम्युनिटी रेडियो को प्रशिक्षित रेडियो पत्रकारों की भारी आवश्यकता होने वाली है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के हवाले से देश में अब तक कुल मिलाकर 436 कम्युनिटी रेडियो की स्थापना की जा चुकी है। साथ ही सरकार और भी दोनों स्तरों के कम्युनिटी रेडियो के स्थापना की मंशा में है।
इसके अलावा सरकार बहुत जल्द इस निर्णय पर भी फैसला ले सकती है जिसमें निजी रेडियो चैनलों को भी ख़बरों के प्रसारण की इजाज़त दे दी जाएगी। ऐसे में इसके बाद की स्थिति का अंदाज़ा ऐसे लगाया जा सकता है जैसे निजी टीवी चैनलों को जब ख़बरों के प्रसारण की अनुमति मिली तो टेलीविज़न पत्रकारिता में कैसा परिवर्तन आया है। दीगर है कि टेलीविज़न चैनलों से रेडियो चैनलों की संख्या बहुत ही अधिक है। अब रेडियो पत्रकारिता में भावी संभावनाओं का आप स्वयं ही मनन कर सकते हैं।
टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ़ इण्डिया(ट्राई) के जनवरी-मार्च 2012 के आंकड़ानुसार 245 निजी एफ़एम रेडियो चैनल्स कार्य कर रहे हैं। ध्यान देने योग्य यह है कि धिक संभावना है कि निजी रेडियो चैनलों को ख़बरों के प्रसारण की अनुमति के बाद इन चैनलों की संख्या में इजाफ़ा होगा।
योग्यता विकसित करें:- रेडियो के लिए कैसा लिखा जाना चाहिए व रेडियो पर अच्छी प्रस्तुति के लिए किन तरीक़ों को अपनाना चाहिए और इन सब के लिए किस तरह की तकनीक को इकट्ठा करना चाहिए? रेडियो पत्रकारिता के ऐसे ही कुछ बुनियादी पहलुओं को विस्तार से समझने के बाद आप एक रेडियो पत्रकार बन सकते हैं।
जो युवती/युवा रेडियो पत्रकारिता में अपना कॅरियर बनाकर नाम और पैसा कमाने का सपना देख रहे हैं, अग़र वे पूरी तैयारी के साथ इसमें प्रवेश करें तो उनका रास्ता आसान हो सकता है। याथ ही इसके लिए उन्हें अपने भीतर कुछ ख़ास योग्यताओं को भी विकसित करना होगा जैसे- चुनौतियों से मुक़ाबला करने का साहस, ख़बरों को पकड़ने और उन्हें अच्छी तरह से पेश करने की क्षमता, न्यूज़ सेंस, भाषा पर अच्छी पकड़ व सफ़ाई, लेखन, संपादन, खोज़, नेतृत्व व वार्तालाप में निपुणता, अधिक कार्यक्षमता व तनाव को वहन कर सकने का माद्दा, समय-सीमा के भीतर काम करने का कौशल, सृजनशीलता, विचारों में लचीलापन, टेक्नॉफ़्रेण्डली, एक्टिव लर्निंग व लिसनिंग तथा असपास से लेकर देश-विदेश में होने वाली घटनाओं के प्रति जागरुकता आदि।


“रेडियो पत्रकारिता कॅरियर के लिहाज से फ़िलहाल अभी अधिक आशान्वित क्षेत्र नहीं है क्योंकि अभी ख़बरों को आकाशवाणी ने सीमित करा हुआ है। आज आकाशवाणी में ख़बरों को आईआईएस अधिकारी और कुछ निविदा आधारित युवाओं के द्वारा ही प्रसारित करवाया जाता है। लेकिन अब आने वाले निकट भविष्य में कुछ आशा की किरण जागी है क्योंकि समाचार को अब निज़ी एफ़एम. चैनल्स और कम्युनिटी रेडियो भी प्रसारित कर सकेंगे। इस तरह से अब नयी युवा पीढ़ी केलिए यह एक लाभदायक पेशा होगा।”
                                                                                                                 -शाश्वती गोस्वामी-
कोर्स डायरेक्टर एवं एसोसिएट प्रोफ़ेसर
रेडियो और टीवी पत्रकारिता विभाग
भारतीय जन संचार संस्थाननई दिल्ली।

मौके हैं अनेक:- बतौर  एक रेडियो पत्रकार युवतियो/युवाओं के पास कई तरह के मौके हैं। वे अपनी योग्यता और रुचि के अनुसार इनमें से कोई भी ज़िम्मेदारी संभाल सकता है। इस विधा में एक रेडियो पत्रकार के प्रशिक्षु के लिए प्रमोशन्स को-ऑर्डिनेटर, रेडियो प्रज़ेण्टर, प्रोड्यूसर, पैनल ऑपरेटर, रेडियो सब-एडीटर, नैरेटर, न्यूज़ डायरेक्टर, प्रडक्शन असिस्टेण्ट, कॉरेस्पॉण्डेण्ट, रेडियो प्रोग्रामर,कॉपी राइटर व कम्युनिकेशन ऑफ़ीसर के रूप में मौके ही मौके हैं।
प्रशिक्षण के बाद करें प्रवेश:- जैसा कि हमें पहले ही विदित है कि रेडियो पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रशिक्षित प्रोफेशनल पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं हैं। वहीं आज के इस प्रतिस्पर्धी समय में हर कोई अपना सबसे बेहतरीन प्रदर्शन करना चाहता है इसलिए ज़्यादातर युवतियां/युवा इस क्षेत्र में संस्थागत अनुशासन के पालन के बाद प्रवेश करना चाहता है। अतः बिना प्रशिक्षण के इस क्षेत्र में आना किसी भी लिहाज से ठीक नहीं होगा।
रेडियो पत्रकारिता में स्नातक की डिग्री के साथ शुरुआत की जा सकती है। इसका प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए किसी भी विषय के साथ 10+2 उत्तीर्ण या स्नातक की डिग्री प्राप्त युवती/युवा मीडिया से जुड़े डिप्लोमा और डिग्री कोर्स करने के बाद इस फ़ील्ड में अपना कॅरियर बना सकते हैं।
इन पाठ्यक्रमों की अवधि एक वर्ष से लेकर तीन वर्ष तक की होती है। विभिन्न संस्थानों में इनकी फ़ीस तीस हज़ार रुपए से लेकर तीन लाख रुपए तक होती है। अधिकांश संस्थानों में प्रवेश परीक्षा के माध्यम से ही प्रवेश दिया जाता है।
आज कई स्कूलों, विश्वविद्यालयों व अन्य संस्थानों में मास-मीडिया के कई तरह के कार्यक्रम संचालित होते हैं, जिन्हें करने के बाद युवतियों/युवाओं को आसानी से मीडिया संस्थानों में काम मिल जाता है। इन कार्यक्रमों में बीजे, एमजे, पीजी डिप्लोमा इन ब्रॉडकास्ट जर्नलिज़्म,पीजी डिप्लोमा इन जर्नलिज़्म व पीजी डिप्लोमा इन मास मीडिया प्रमुख हैं। युवतियां/युवा जहां भी प्रवेश लें रहे हों, इस बात का ध्यान रखें कि उस संस्थान में सैद्धान्तिक से ज़्यादा फ़ील्ड की व्यवहारिक बारीकियों से रूबरू कराया जाता हो।
भारतीय जनसंचार संस्थान में रेडियो पत्रकारिता के प्रशिक्षण का अवसर:- भारतीय जनसंचार संस्थान को हम इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन(आईआईएमसी) के नाम से भी जानते हैं। यह भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा स्थापित एक स्वायत्तशाषी संस्था है जो नई दिल्ली में स्थित है। यहां सन् 1997 से रेडियो पत्रकारिता के प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम लागू है। सरकार का उद्देश्य यहां से अच्छे व कुशल रेडियो पत्रकार प्राप्त करना है।
किसी भी विषय में स्नातक युवती/युवा, जो उत्तीर्ण कर चुके हों वो और जो अंतिम वर्ष की परीक्षा दे रहे हों वो भी भारतीय जनसंचार संस्थान में रेडियो पत्रकारिता के प्रशिक्षण के लिए आवेदन कर सकते हैं। आवेदकों की प्रतिसत्र 31 मई को लिखित परीक्षा आयोजित की जाती है। ये परीक्षा युवती/युवा नई दिल्ली, अहमदाबाद, आईजॉल, बैंगलोर, भोपाल, भुवनेश्वर, चेन्नई, गुवाहाटी, जम्मू, हैदराबाद, कोलकाता, कोच्चि, लखनऊ, मुम्बई, नागपुर,पटना, रांची, रायपुर, और श्रीनगर में से अपने संसाधनानुसार कहीं भी सम्मिलित होकर दे सकते हैं।
लिखित परीक्षा में चयनित विद्यार्थियों को जून माह के अन्तिम सप्ताह अथवा जुलाई माह के प्रथम सप्ताह में साक्षात्कार अथवा समूह चर्चा में भाग लेना होता है। यहां भी युवतियों/युवाओं को चयन प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। साक्षात्कार/समूह चर्चा के बाद लिखित परीक्षा व साक्षात्कार/समूह के क्रमशः 85 व 15 के अनुपात में मिले अंकों के आधार पर अन्तिम सूची निर्गत होती है जिसमें मेरिट के आधार पर उत्तीर्ण कुल 46 लोगों को संस्थान में प्रवेश मिल जाता है।
आयु सीमाः- भारतीय जनसंचार संत्थान में प्रवेश के लिए आयु सीमा भी निर्धारित है। इसमें प्रवेश के इच्छुक सामान्य वर्ग के प्रशिक्षुओं के लिए आयु सीमा अधिकतम 25 वर्ष निर्धारित है। पिछड़े वर्ग के प्रशिक्षुओं के लिए आयु सीमा अधिकतम 28 वर्ष है और एससी/एसटी/विकलांग प्रशिक्षुओं के लिए अधिकतम 30 वर्ष की आयुसीमा का प्रावधान है।
नोटः- ध्यान रहे सभी वर्गों की आयु-गणना मौजूदा सत्र के अगस्त माह की पहली तारीख़  से की जायेंगी।
अवधिः- पाठ्यक्रम की अवधि एक वर्ष की है।
सीटेः- भारतीय जनसंचार संस्थान में कुल 46 सीटें हैं। इनमें 5 सीटें एनआरआई के लिए आरक्षित हैं।
शुल्कः- यहां फ़ील्ड में होने वाले प्रशिक्षण की भरपूर सुविधा मौज़ूद है। इसके अलावा संस्थान का अपना कम्युनिटी रेडियो अपना रेडियो(96.9 एफ़एम)है और साथ ही उच्च श्रेणी के लैब आदि भी हैं।
अतः कुल वार्षिक शुल्क 1,10,000 रुपये है जिसे दो भागों में देना होता है।
वेबसाईटः- www.iimc.nic.in

यह दौर रेडियो के सुरीले दिनों की शुरूआत का दौर है। टेलीविजन के उदारीकरण के बाद रेडियो के फीके पड़ जाने की बहुत-सी आशंकाएं जताई गई थीं। लेकिन यह रेडियो की क्षमता ही है जिस वजह से वह संचार के नए और बेहतर होते साधनों के बावजूद अपने दम पर कायम है और मजबूत भी। प्रधानमंत्री की ‘मन की बात’ से लेकर सामुदायिक रेडियो तक रेडियो ने बहुत से मील के पत्थर बनाए हैं। रेडियो आज भी सुकून का साधन है। रेडियो में कॅरियर को लेकर संभावनाओं की कहीं कोई कमी नहीं। निजी रेडियो से लेकर आकाशवाणी तक रेडियो खुद को नए समय के मुताबिक मांझने को तैयार दिख रहा है। ऐसे में रेडियो का भविष्य भी सुनहरा होगा और उनका भी जो इस माध्यम से जुड़ना चाहते हैं।”
                                                                                                                   -डॉ. वर्तिका नंदा-
 सुप्रसिद्ध लेखिका और पत्रकार

रेडियो पत्रकारिता का कोर्स कराने वाले कुछ अन्य अग्रणी संस्थान

आईआईएमसी के अलावा रेडियो पत्रकारिता का कोर्स कराने वाले देश के कुछ अग्रणी संस्थान निम्लिखित हैं-
1. ज़ेवियर इंस्टीट्यूट ऑफ़ कम्युनिकेशन्स, मुम्बई।
2. द एशीयन कॉलेज़ ऑफ़ जर्नलिज़्म, चेन्नई।
3. सिम्बियोसिस इंस्टीट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन, पुणे।
4. ज़ामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली।
5. मुद्रा इंस्टीट्यूट ऑफ़ कम्युनिकेशन्स, अहमदाबाद।
6. द इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ जर्नलिज़्म एण्ड न्यू मीडिया (आईआईजेएनएम), बैंगलोर।
7. मनोरमा स्कूल ऑफ़ कम्युनिकेशन, कोट्टयम।
8. एजेके मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेण्टर, नई दिल्ली।
9. द टाईम्स स्कूल ऑफ़ जर्नलिज़्म, नई दिल्ली।
10. इण्टरनेशनल मीडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ इण्डिया, नोएडा।




  


मानव के परम सुख का मार्ग


‘आलसी व्यक्ति को विद्या दुर्लभ है और बिना विद्या के धन (गुण) को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। जब व्यक्ति के पास धन अर्थात् गुण ही न होगा तो फ़िर भला कहां उसका कोई मित्र ही हो सकता है। और बिना मित्र के सुख की प्राप्ति नहीं की जा सकती है। कहने का आशय सुख के सर्वाधिक संनिकट मित्रता को परिणत किया गया है।’ इस संसार में जहां कहीं भी सुख है उसके अंतर्गत मित्रता का अवयव अवश्य ही विद्यमान रहता है।
मित्र का आशय उस अनुकूल वेदक से है जो हमारे गुण व दोषों में परस्परानुकूलता का व्यवहार करे। यही कारण है कि हमारे समाज में सभी रिश्ते मित्रवत् होने चाहिए। यानी चाहे गुरू हो, माता हो, पिता हो, भाई हो, बहन हो या फ़िर प्रेमी/प्रेमिका हो सभी रिश्तों में मित्रता की कामना की जाती है और यह सत्य भी है कि उक्त सभी रिश्ते मित्रता के गुणधर्म को धारण करने के पश्चात् सुखदायी हो जाते हैं।
पण्डित दीनदयाल उपाध्याय जी कहते हैं कि वास्तव में ‘मनुष्य की सभी क्रियाओं का उद्देश्य एक ही है- आनन्द अथवा सुख की प्राप्ति। वैसे तो सम्पूर्ण सृष्टि ही आनन्दमय है। प्रत्येक प्राणी वही कार्य करता है जो उसके लिए सुख का कारक है। प्राणी ही क्यों, जड़ पदार्थों में भी जितना कुछ होता है वह सभी आनन्द प्राप्ति के लिए है। सम्पूर्ण चराचर सृष्टि में एक ही आनन्द का नाद गुंजित हो रहा है। सर्वसाधारण जीवधारी अन्य प्राणी भी सुख के लिए क्रियाएं करते हैं। कुत्ते को डंडा दिखाया जाये तो वह भागता है और रोटी दिखाई जाये तो वह समीप आता है। एक समय भागने और दूसरे समय समीप आने की यह क्रिया उसकी सुख-कामना ही है। तब मनुष्य तो विकसित प्राणी है। इसलिए इस सम्बंध में कोई विशेष तर्क देने की आवश्यकता नहीं है कि मनुष्य की समस्त क्रियाओं का उद्देश्य सुख प्राप्ति ही है।’1
विचारणीय प्रश्न यह है कि सुख क्या है? जैसा कि पहले कुत्ते का उदाहरण देकर समझाया गया है कि एक ही कुत्ता एक समय में रोटी दिखाने पर समीप आता है और डंडा दिखाये जाने पर दूर भाग जाता है। वो अपनी इन दोनो क्रियाओं के समय, जब वह समीप आता है तब और जब वह दूर जाता है तब दोनो ही समय में वह अपने सुख की ओर ही जाता है। अतः अनुकूल वेदना ही सुख है।
आवश्यक नहीं कि कष्ट, दर्द या वेदना से दुःख मात्र की प्राप्ति होती है। अधिक वेदना, कष्ट व दर्द से सुख की प्राप्ति भी होती है। सुख की यही प्रकृति है कि वह सभी को आकर्षित करती है और हर मनुष्य किसी भी प्रकार से सुख की ओर ही जाता है। फर्ज़ कीजिए कि कोई बालक कभी किसी चरवाहे के साथ यूं ही जंगल की ओर निकल गया हो। अचानक से उसे ख़याल आया हो कि उसे अपने घर के जलावन के लिए लकड़ियां ले जानी हैं। उस वक़्त उसके मन में यह भाव रहता है कि उसकी मां जलावन के लिए उसके द्वारा लायी गयीं लकड़ियों को देखकर उस पर ममता न्यौछावर करेगी और उस पर अभिमान भी करेगी। लेकिन यदि लकड़ियां बिनते वक़्त उस बालक के पैरों में एक कांटा चुभ जाये तो निश्चय ही वह कांटा उस बालक को सुख प्रदान करेगा क्योंकि कांटे की चुभन के कष्ट के बावजूद जलावन के लिए लकड़ियां घर ले जाने के बाद उसकी मनोकामना और भी समृद्ध व विशेष बन जायेगी। इस तरह उसकी मनोकामना में अनुकूलता के पुट आ जाते हैं। और अनुकूल वेदना ही सुख है। यही सुख का केन्द्र है। यही कारण है कि उस कांटे का दर्द भी बालक को सुखमय प्रतीत होता है।
इसी तरह कोई प्रेमी-युगल परस्पर उन्नति की दृष्टि से एक-दूसरे से कुछ लम्बे समय के लिए दूर रहने का निर्णय ले चुके हों, उस दौरान उनके हृदय की वेदना निश्चय ही सुख से विमुख जान पड़ती हो किन्तु उस दौरान दोनो ही का घुट-घुट कर जीना और छिपकर आंसू बहाना उनके भविष्य के अनुकूल है। इस तरह उनकी यह वेदना अनुकूलता के गुणधर्म में लिपटी है। अनुकूल वेदना ही सुख है। अतः उन दोनो के आंसू आदि सभी सुख के द्योतक हैं क्योंकि दोनो को एक-दूसरे की याद में आंसू बहाने में ही सुख प्राप्त हो रहा है।
कोई पर्वतारोही यद्यपि आरोह के समय भारी कष्ट में रहता है। और आरोहण के तुरन्त बाद भी उसके शरीर में भारी कष्ट होता है, किन्तु उसका ये कष्ट उसके लक्ष्य के अनुकूल था इसलिए उस आरोही को इस कष्ट में सुख प्राप्त हो रहा है। वहीं यद्यपि प्रायः हर स्त्री प्रसव के दर्द, उसकी वेदना व कष्ट को पाना चाहती है क्योंकि यह उसकी अनुकूल वेदना है। इस तरह से वह दर्द, कष्ट व वेदना में भी सुख प्राप्त करती है। साथ ही प्रसव पीड़ा न प्राप्त करने वाली स्त्री ख़ुद को सुख से वंचित भी मानती है क्योंकि सर्वसाधारण प्राणी मात्र की यही प्रकृति है- सुख की ओर बढ़ना और दुःख से दूर हटना। लेकिन सुख की अनुभूतियों में भी बड़ा अन्तर है। वास्तव में सुख की अनुभूतियां भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं। इसलिए पण्डित दीनदयाल जी ने समस्त सुखों का वर्गीकरण मुख्यतः चार वर्गों में किया है- पहला, इन्द्रियजनित सुख। दूसरा, मन का सुख। तीसरा, बुद्धि का सुख और अन्तिम व चौथा, आत्मिक सुख।
दीनदयाल जी कहते हैं कि ‘मनुष्य को भोजन करने, पानी पीने, ठण्ड, गर्म व वर्षा से शरीर को बचाने, सुगन्धित पुष्प की सुगन्ध लेने और रंग-बिरंगे दृश्यों का अवलोकन करने आदि कितने ही प्रकार की अनुभूतियां होती हैं। वह इनमें आनन्द का अनुभव करता है। ये इन्द्रियजनित सुख है। इन्द्रियों से इनका उपभोग किया जाता है। इन सुखों के सन्दर्भ में हमारे यहां कहा गया है कि ये मनुष्य तथा अन्य प्राणियों में समान ही होते हैं। आहार, निद्रा, भय व मैथुन आदि से जो अनुकूल वेदना होती है उसे मनुष्य और पशु में समान पाया जाने वाला सुख कहा गया है। मनुष्य और पशु में अन्तर केवल यही है कि मनुष्य का कुछ न कुछ जीवन-लक्ष्य होता है। पशु का लक्ष्य नहीं होता है। लक्ष्य की बदौलत ही मनुष्य में मनुष्यत्व समझा जाता है। लक्ष्यहीन मनुष्य तो निरा पशु ही है। इस लक्ष्य के कारण ही मनुष्य की विशेषता है। इसलिए इन्द्रिय तथा उसके विषयों के संयोग से प्राप्त सुख को मनुष्य के लिए राजस सुख माना गया है।’2
चूंकि यह इन्द्रियजन्य सुख क्षणिक होता है और यह सहजता से प्राप्त किया जाने वाला सुख है। इसीलिए मनुष्य और अन्य जीव इस सुख का बार-बार उपभोग करने में सक्षम होते हैं। सत्य यह भी है कि पशु व अन्य जीवों से मनुष्य अधिक विकसित प्राणी है। यही कारण है कि सुख के अन्य वर्गों (मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक) का अनुभव मात्र मनुष्य ही कर सकता है। अब चूंकि पशुओं के पास मात्र इन्द्रियजन्य सुख का ही भोग रह जाता है जिसे वो सदैव बारंबार भोगते रहते हैं। वहीं मनुष्य का विकसित प्राणी होने के बावजूद बारंबार इन्द्रियजन्य सुख का भोग करना उसे नीच व पशुवत कृत्य करने वाला बना देता है क्योंकि पशुओं और मनुष्यों के उपभोग में लगभग तब समानता ही हो जाती है जबकि मनुष्य पशुओं से अलग विकसित प्राणी है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि जो व्यक्ति भौतिक अथवा इन्द्रियजन्य भोग-विलास आदि के सुख को त्यागकर मन, बुद्धि और आत्मा से मेरा अनुसरण करता है उसे परम सुख की प्राप्ति होगी। आशय यह कि सुख केवल इन्द्रियों तक ही सीमित नहीं है। इसका सम्बन्ध किसी अन्य वस्तु से भी है। इसलिए  कई बार अन्य सुखों की तलाश में मनुष्य को यह इन्द्रियजनित सुख भी फीका लगता है। मतलब साफ़ है कि यह इन्द्रियजनित सुख क्षणिक है।
सुख की और अधिक व स्थाई अभिलाषा में मनुष्य अपनी आत्मा को जागृत कर उसके सुखों को खोजने लगा और फिर उस ओर वह मुड़ गया। इसके लिए उसने अब इंद्रियों के सुखों की परवाह करना भी समाप्त कर दिया। इस संदर्भ में दीनदयाल जी ने अपनी पुस्तक “राष्ट्र जीवन की दिशा” में उदाहरण दिया है कि ‘एक सज्जन नासिक जाकर तर्पण कर रहे थे। उनके एक मित्र भी साथ थे जिनका तर्पण में विश्वास नहीं था। इसलिए उन्होने मज़ाक करते हुए कहा कि क्या कर रहे हो? उक्त सज्जन ने कहा कि पितरों को पानी दे रहा हूं। मित्र ने पूछा कि भला यहां दिया हुआ पानी उन्हें किस प्रकार मिलेगा? तो उक्त सज्जन ने इसका बिना कुछ उत्तर दिये हुए मित्र के पिता जी को ज़ोर-ज़ोर से गाली देना शुरू कर दिया। इस पर मित्र भी बहुत क्रोधित हो उठा। वह बोला- यदि तुम्हें तर्क नहीं सूझता तो मेरे पिता को गाली मत दो। मेरे पिता जी को गाली देना मैं सहन नहीं कर सकता। तब उक्त सज्जन ने शान्त भाव से कहा- मित्र तुम्हारे पिता तो घर पर हैं उन्हें दी हुयी गालियां तो उनके पास तक नहीं पहुंच सकती। तब व्यर्थ में क्यों उत्तेजित होकर चिंता करते हो? इस प्रकार मित्र को प्रश्न का सही उत्तर मिल गया था कि यह सब मन को अच्छा लगने की बात है। भावना का प्रश्न है। इसलिए केवल इन्द्रियजन्य सुख से ही काम नहीं चलता, मन का भी सुख ज़रूरी होता है।’3
पूजा और प्रार्थना की विधियों में ही आप देखिये सभी धर्मों की अलग-अलग पद्यति के अलावा सिर्फ़ सनातन धर्म मे ही कोई अगरबत्ती सुलगाकर प्रार्थना करता है तो किसी को प्रतिदिन घण्टी और शंख बजाकर प्रार्थना करना भाता है। वहीं कुछ लोग तमाम साजो-सामान के साथ भव्य वन्दना करते हैं। वहीं कुछ लोग मात्र स्नान करते समय ही ईश्वर का स्मरण करते हैं तो कई सालों-साल ईश्वर को भजते ही नहीं हैं। वो किसी मन्दिर या मस्ज़िद के सामने अपना सिर  झुकाकर ही निकल जाते हैं। ये सभी अपनी-अपनी अनुकूलतावश उक्त कार्यों में से अपनी कोई प्रकृति चुन लेते हैं जो इनके मन को भाता है। यद्यपि इन सभी लोगों की समान अरदासों को ईश्वर ने समान रूप से स्वीकार किया होगा। बस, ये सब अपने मन को सुखी बनाने की प्रक्रिया है कि आप हाथ जोड़कर नमस्ते करते हैं, झुककर प्रणाम करते हैं, चरण स्पर्श कर आशीष लेते हैं या फिर दण्डवत् षाष्टांग प्रणाम करने में आपका मन सुख के सन्निकट जाता है। वास्तव में यह सब मन की बात है।
मानसिक सुख की परासावधि से मनुष्य को जब तृप्ति नहीं मिल पाती है तब वह चिन्तन करता है। चिन्तन का भी अपना सुख है। चूंकि मन के साथ मनुष्य के पास बुद्धि भी है इसलिए वह इन्द्रियजन्य व मानसिक सुखों की अल्पायु से असंतुष्ट होकर क्षणिक और शाश्वत सुख के भेद को समझना चाहता है। अब वह जानना चाहता है कि कौन सा सुख स्थाई एवं चिरन्तन होगा जो अधिक समय तक मिलता रहेगा और कौन सा सुख क्षणिक व नाशवान होगा? अब मनुष्य विवेक का प्रयोग करने लगता है। वह अपने सुख की अवधि को बढ़ाने के लिए परिश्रम भी करता है। कल को सुखमय बनाने के लिए आज के क्षणिक सुखों को त्यागता भी है। वह इन्द्रियजन्य सुखों व मानसिक सुखों के पार जाकर विवेक का प्रयोग करता है इसलिए वह बुद्धि का भी सुख चाहता है।
मनुष्य अपने कर्मशील जीवन में कुछ लक्ष्य निर्धारित करता है और उसका सुख प्राप्त करने के लिए वह कड़ी मेहनत करता है। वास्तव में उस लक्ष्य प्रप्ति में उसके सुख का सार निहित होता है। यानी कि जब मनुष्य स्वयं अपने लक्ष्य को भेद पाता है तो उसे सुख का अनुभव होता है जो कि इन्द्रिय व मन के सुख से अधिक होता है।
दीनदयाल जी कहते है कि ‘जीवन-लक्ष्य जिसे उसने बुद्धि द्वारा स्वयं स्वीकृत किया है उसकी सुख-दुख की वेदनाओं का निकष बनता है। लक्ष्य की ओर बढ़ते समय मार्ग के कांटे भी उसे सुखकर लगते हैं। सत्य के लिए वह लाख कष्ट झेलने में आनन्द का अनुभव करता है। अपनी मान्यताओं को स्थापित करने के लिए वह चाहे जिस वस्तु का त्याग कर सकता है। केवल मन का सुख उसे संतुष्ट नही कर पाता। मन तो चंचल है। हज़ार प्रकार की बातों में रमते रहने का काम मन का है। इस मन को वश में कर एकाग्र करने से मनुष्य लक्ष्य की ओर बढ़ सकता है इसलिए उसे बुद्धि से सुख की आवश्यकता का अनुभव होता है।’4
फर्ज़ कीजिए कोई निर्धन विद्यार्थी बाज़ार से अपने लिए एक पुस्तक ख़रीदने जाता है और बाज़ार पहुंचकर उसे किताब की दुकान वाला विक्रेता बताता है कि उसके पास किताब को ख़रीदने के लिए पर्याप्त धन नहीं है। यह सूचना पाकर वह छात्र बाज़ार से वापस आ ही रहा था कि अचानक एक स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों वाला ठेला उसे दिखाई पड़ गया। ठेले पर बिक रहा सामान छात्र को अत्यधिक पसन्द है और वह उसे ख़रीदकर खाना चाहता है जिससे उसे सुख मिल सके। किन्तु छात्र ने अपनी इन्द्रिय को इस सुख से वंचित कर दिया। उसने विवेक का सहारा लिया कि कल फिर किसी पुस्तक के लिए धन कम पड़ सकता है। इसलिए इन रुपयों को अभी खर्च करना उचित न होगा। इसलिए  वह घर गया। पुस्तक को ख़रीदने के लिए उसने और रुपये इकट्ठा किये। इस बार उसके पास पुस्तक के पिछले मूल्य से कहीं ज़्यादा रुपये एकत्रित हो चुके थे।  वह पुनः पुस्तक की दुकान पहुंचा और पुस्तक मांगी। इस बार पुस्तक के मूल्य पहले से कुछ बढ़ चुके थे किन्तु छात्र के पास ठीक उतने ही जमा पैसे थे जितने की अब की पुस्तक का मूल्य है। छात्र को पिछले दिनो ठेले पर न रुकना आज सुख दे रहा था। वास्तव में आज का उसका बौद्धिक सुख उस दिन के उसके इन्द्रियजनित सुख से भी अधिक था। हिन्दी दैनिक अख़बार “आज” के अपने एक संपादकीय में एक जगह ए. जैन लिखते हैं कि ‘आश्चर्य की बात यह भी है कि आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त भोग-विलास का जीवन जी रहे लोगों की तुलना में वे लोग अधिक ख़ुशहाल दिखते हैं जो अभावग्रस्त हैं।’5
टेलीविज़न पर एक छात्रा का सबसे पसंदीदा धारावाहिक चल रहा है। लेकिन छात्रा अपने कमरे में बैठी सामान्य ज्ञान की तैयारी कर रही है क्योंकि कल सुबह उसे एक प्रतियोगिता में हिस्सा लेना है। यानी कि छात्रा ने अपने मन के सुख को कल के बौद्धिक सुख के लिए त्याग दिया है। वास्तव में  छात्रा ने प्रतियोगिता जीत ली और वह आज शाम अपने दोस्तों के साथ बाहर अपनी जीत का उत्सव मनाने चली गयी है। परिणाम यह कि उसका वह पसंदीदा टीवी सीरियल आज फिर छूट रहा है लेकिन आज वह अपनी बौद्धिक अनुकूलता के कारण बौद्धिक सुख को भोग रही है।
यद्यपि बौद्धिक सुख इंद्रियजन्य सुख व मन के सुख से अधिक स्थाई व सारगर्भित है। तथापि बुद्धि का सुख भी अन्तिम चिरानंद सुख नहीं है। बुद्धि से भी ऊपर आत्मा का सुख है। मां अपने बच्चे को गोद में लेकर आत्मिक सुख का अनुभव करती है। वास्तव में ये आत्मा की विशालता का सुख है। इसके सामने सभी सुख तुच्छ हैं। भयमुक्त और स्वार्थमुक्त होने पर सिवाय आनन्द के अन्य कुछ नहीं रह जाता इसलिए व्यक्ति इसकी खोज में विशालता का अनुभव करता है।
मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ में हामिद को मेला देखने के लिए जो पैसे मिले थे वह उन पैसों से कुछ भी ख़रीदकर नहीं खाता है, वह झूला झूलने के अपने मन की प्रबल इच्छा का भी दमन कर देता है और वह एक मरतबा अपने विवेक से यह भी सोचता है कि इस पैसे से वह अपनी पढ़ाई आदि या अन्य किसी अच्छी जगह खर्च करेगा। किन्तु उसने उस रुपये से अपनी बूढ़ी मां के लिए चिमटा ख़रीदा। क्योंकि उसकी बूढ़ी मां हाथों से ही रोटी को उल्टा-पल्टा करती थी। जब वह चिमटा लेकर घर पहुंचा तो न सिर्फ़ वह स्वयं बल्कि उसकी बूढ़ी मां भी आत्मिक सुख के सागर से सराबोर हो गयी। यह सब हामिद के इन्द्रियजन्य, मानसिक व बौद्धिक सुखों के त्याग से ही संभव हो सका। यहां यह अवश्य ज्ञात रहे कि हामिद ने अपनी परिस्थितियों से कोई संघर्ष नहीं किया है। वास्तव में सुख का आधार संघर्ष है ही नहीं, सुख का आधार तो परस्परानुकूलता है। सुख के लिए परोपकार का बड़ा यश गाया गया है।
 दूसरों के जीवन में शामिल होना और दूसरों को अपने जीवन में शामिल करना संस्कार है। संस्कारसंयत होना भी सुख का अभिप्राय है। आपस में एक-दूसरे के साथ समरस होना, एक-दूसरे के काम आना, आत्मीय जनों को सुख पहुंचाने का यत्न करना ही संस्कारसंयत होना है और यही परोपकार है। यही परस्परानुकूलता भी है। वास्तव में जब एक-दूसरे सभी आपस में सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सचेत होते है तो आनन्द नाच उठता है।
वास्तव में यह आनन्द सुख के चारो वर्गों में समान रूप से कार्य करता है और सुख के चारो सोपानो में हम इसे महसूस करते हैं। इंद्रियजन्य सुख, मानसिक सुख, बौद्धिक सुख व आत्मिक सुख चारो आपस में गुंथे हुये हैं। इन्द्रियजनित सुख में भी हम इस आनन्द को महसूस कर सकते हैं किन्तु वह मज़ा न हो आनन्द ही हो। अर्थात् उसकी निरन्तरता लगातार इस तरह से बनी रहे कि उसकी प्रकृति अत्यधिक घनिष्ठ नज़र आये जिसे लम्बे समय तक महसूस किया जा सके। किसी ठेले पर चाट खाना मज़ा है। यह आनन्द कतई नहीं है। सत्संग व परोपकार का सुख आनन्द भरा होता है। अत्यधिक भोग सुख का साकार रुप नहीं है, यह तो संतुष्टि है। हम भारतीयों का जीवन-दर्शन रहा है-‘सन्तोषं परम् सुखम्’। अभाव में भी ख़ुश रहने की हमारी विश्वव्यापी पहचान रही है। दुनिया में भारत ही संभवतः एकमात्र ऐसा देश है जहां प्रत्येक दिन उत्सव मनाये जाते हैं, जिसमे ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति भी सारे दुःख-दर्दों को अपना प्रारब्ध मानकर ख़ुश रहने की कोशिश करता है। ए. जैन अपने उसी लेख में लिखते हैं कि ‘कई देशों में जहां सीमित विकल्प उपलब्ध हैं और उनके बारे में भी लोगों को ठीक से जानकारी ही नहीं है, इसलिए वे अपने दायरे में ही ख़ुश और संतुष्ट हैं।’6 वह आगे बताते हैं कि ‘दरअसल किसी देश का सुख व समृद्धि तब मायने रखती है जब वह नागरिकों के स्तर पर हो। जबकि भारत और चीन का जोर आम लोगों की ख़ुशहाली के बजाय राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ाने पर है। इसलिए आश्चर्य की बात नहीं कि लम्बे समय से जीडीपी के लिहाज से दुनिया में अव्वल रहने के बावजूद चीन वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक में 84वें व भारत 117वें स्थान पर रखा गया है।’7
इन्दुमति काटदरे ने भी अपनी किताब ‘अर्थशास्त्र: भारतीय दृष्टि कुछ विचार’ में इस सन्दर्भ में लिखा है कि ‘आवश्यकताएं सीमित होती हैं, इच्छाएं असीमित। आवश्यकता की पूर्ति हर व्यक्ति का (अथवा जिनको भी प्राणरक्षा करनी है, अपना अस्तित्व बनाये रखना है उन सबका) जन्मसिद्ध अधिकार है। आवश्यकताओं को तो हम अधिकार के रूप में ले सकते हैं परन्तु इच्छाओं को सर्वजनसुख और सर्वजनहित रूपी धर्म के द्वारा नियंत्रित करके ही पूर्ण किया जा सकता है।’8 उससे पहले वह बताती हैं कि ‘यह लक्षणीय है कि भारत में मनुष्य को सृष्टि की सभी इकाईयों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। परन्तु सर्वश्रेष्ठ होने के नाते उपभोग और अन्यों के उपयोग का अधिकार नहीं दिया गया परन्तु अपने से कनिष्ठ सभी के सुखसाधन और हितसाधन का दायित्व दिया गया है।’9 कहने का आशय यह है कि समष्टि में व्यष्टि का सुख ही सृष्टि का सुख है।
चूंकि आत्मा से ही बुद्धि, मन और इन्द्रिय चलायमान है। इसलिए आत्मा के सध जाने से बुद्धि, मन व इंद्रिय स्वतः सध जाते हैं। किन्तु आत्मा को साधना भी क्रमशः इंद्रिय, मन और बुद्धि को संयत करने से ही सिद्ध होगा। इसलिए इन चारों का आपस में समन्वय अत्यन्त आवश्यक है। कभी-कभी जब हम इंद्रिय सुख में किसी का परोपकार करें और किसी को अपने में संनिहित कर लें तो आवश्यक है कि वह आनन्द प्रदान करे।
समस्या और प्रश्न यह है कि क्या हमे सदैव आत्मिक सुख के लिए इंद्रिय सुख, मानसिक सुख व बौद्धिक सुख की तिलांजलि देते रहना चाहिए? क्या हमें इंद्रिय के वश में हो जाना चाहिए या फिर स्वयं इंद्रिय को अपने वश में कर लेना चाहिए? वास्तव में मनुष्य तो सुख की ओर ही जाना चाहता है। उसे इस बात की कतई परवाह भी नहीं होती है कि वह इंद्रिय को वश में कर ले या फिर वह स्वयं इंद्रिय के वश में चला जाये। उसे हर हाल में सुख ही चाहिए। वह तर्कशील है। वह प्रश्न करता है कि जब इंद्रियों से सुख की प्राप्ति हो रही है तो वह क्यों बुद्धि और आत्मा के फेर में पड़े। यदि उसका सुख क्षणिक है तो फिर क्षणिक ही सही क्योकि वह उस सुख को पुनः भोगने में, उसकी आवृत्ति में सक्षम है। वह बार-बार इसे भोगता रहेगा जब तक जीवन है, फिर क्या बुद्धि और क्या आत्मा!
यह सत्य है कि मनुष्य को जहां तक संभव हो अपने स्वभाववश सुख का उपभोग करते रहना चाहिए। प्रायः मनुष्य अपने स्वभाववश ऐसा करता भी है। इसके लिए उसे परिणाम पर दृष्टिपात करना चाहिए यथा- शराब के सेवन से सुख की अनुभूति करने वाले व्यक्ति को उसके परिणाम को ध्यान में रखकर उसका उपभोग करना चाहिए। प्रत्येक सुख की अपनी गति होती है। इसी के आधार पर मनुष्य को सुख के वर्गों का चुनाव करना चाहिए। यद्यपि शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा चारों प्रकार के सुख की प्राप्ति ही जीवन-लक्ष्य है। तथापि हमे इन सभी सुखों के परिणामों को भी समझकर यह सोचना होगा कि किस सुख का परिणाम दुःखदायी है। प्रायः सभी सुखों में कुछ न कुछ दोष है। यथा- इंद्रिय सुख में भोग का अवगुण है जो व्यक्ति को संस्कारों से दूर कर सकता है तथा मनुष्य को अकर्मण्य भी बना देता है। मानसिक सुख मनुष्य को निरंकुश और स्वच्छंद बनाने में प्रबल है। बौद्धिक सुख तो विनाशकारी हो सकता है तथा आत्मिक सुख मोक्ष की प्रवृत्ति है। वहां पर जीवन मोह और भोग से परे है। ऐसे में आत्मिक सुख जीवन के रंगों में श्वेतांकों का भण्डार है जबकि  मर्त्यलोक रंग-बिरंगा और वस्तुओं के भोग व आनन्द की संस्कृति वाला स्थान है जहां बिना इंद्रिय सुख, मानसिक सुख व बौद्धिक सुख को भोगे बिना जीवन सारहीन है।
उक्त सभी स्थितियां उनके सुखों के अकेले अस्तित्व की परिणति है। वास्तव में यदि सभी सुखों को परस्परानुकूलतावश वर्गविहीन करके विवेक द्वारा सच्ची आत्मा व मन से अपनी इंद्रियों द्वारा भोगा जाये तो जीवन के सही, सतत व समग्र सुख के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है और वास्तव में यही परम सुख है। इन चारों सुखों की निजी पराकाष्ठा को आप भले ही परम सुख कह लें, आप आत्मीय सुख की प्राप्ति को भी परम सुख कह लें किन्तु यह सत्य नहीं है। वास्तव में इस सुख की प्राप्ति कोई भी मानव स्वयं मात्र से नहीं कर सकता है। स्वयं के परिणाम से वह पूरी तरह सुखी नहीं हो सकता इसके लिए समाज के साथ उसके सम्बन्धों का प्रश्न भी उपस्थित होता है। पण्डित जी कहते हैं कि ‘सुख आत्मनिष्ठ है, वस्तुनिष्ठ नहीं। आत्मनिष्ठता का आधार ही परस्परानुकूलता है।’10 इसलिए इन चारों सुखों को अनुकूल दृष्टि से भोगते रहना ही सुख का अभिप्राय है। परमसुख के मिथ्या लक्ष्य में किसी एक सुख का दामन थामकर आगे चले जाना क्रमशः मनुष्य को भोगी, निरंकुश,विनाशकारी और रसहीन बना देगा।
एकात्मकता के सिद्धान्त की कसौटी पर पण्डित जी का मत है कि ‘सृष्टि का भी सब व्यवहार इसी प्रकार आपस की पूरकता में ही प्रकट होता है। समुद्र की भाप ऊपर उठकर बादल बनती है। बादल घुमड़-घुमड़ कर बरस जाते हैं। नदियां उफनती हैं और फिर समुद्र में मिल जाती हैं। यही आनन्द है। व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि और परमेष्टी ये चार तत्व हमारे सामने उपस्थित होते हैं जो परस्पर सहकार्यों से सुखदायी होते हैं। व्यक्ति समाज पर अवलम्बित है, समाज सृष्टि पर निर्भर है और सृष्टि का संचालन परमेष्टि द्वारा हो रहा है। व्यक्ति उस परमेष्टि की इच्छा की पूर्ति का साधन बनने में धन्यता का अनुभव करता है। जब तक इसमें परस्पर तालमेल बना है सबकुछ ठीक चलता है। यही यज्ञचक्र कहा गया है।’11
दीनदयाल जी व्यक्ति-जीवन में इस सुख की प्राप्ति के लिए चार बातों की आवश्यकता बताते हैं-शिक्षा, स्वतंत्रता, शान्ति और पौरुष।
जिस यज्ञचक्र का उल्लेख ऊपर किया गया है उसे व्यवस्था के साथ और निष्ठापूर्वक संचालित बनाये रखने केलिए शिक्षा की आवश्यकता है। सब प्रकार की शिक्षा व्यक्ति को देने की व्यवस्था समाज में होनी चाहिए किन्तु यह तभी संभव है कि जब व्यक्ति तथा समाज का जीवन स्वतंत्र हो। मानसिक स्वतंत्रता ही नहीं आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता भी ज़रूरी है। इसके लिए राज्य का हस्तक्षेप कम से कम हो तो बेहतर है और कहीं-कहीं राज्य का हस्तक्षेप बेहद ज़रूरी भी हो जाता है। वहां राज्य को जमकर हस्तक्षेप करना चाहिए। यथा- व्यक्ति को न्याय दिलाने में, स्वाभिमानी बने रहने में और न्याय दिलाने में राज्य को दमदार हस्तक्षेप करना चाहिए।
मानसिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए शान्ति और पौरुष की भी आवश्यकता है. शिक्षा, स्वतंत्रता, शान्ति और पौरुष इन चारों साधन-चतुष्टय का निर्माण तथा संरक्षण करने के कार्य के लिए सक्षम सत्ताओं की आवश्यकता होती है। स्वतंत्रता रक्षण के लिए राज्य, शिक्षण के लिए गुरुकुल, शान्ति के रक्षण के लिए समाज और पौरुष के रक्षण के लिए प्रकृति की व्यवस्था है। ये साधन चित्त से ही साध्य होते हैं। इसलिए राष्ट्र को चैतन्य प्रदान करना ही सब कार्यों की मूल प्रेरणा है। राष्ट्र का चैतन्य निर्माण होने से ही ये सब कार्य सम्पन्न होते हैं। और ये चैतन्य व्यक्ति में प्राकृतिक दशाओं से आता है जहां सब एक-दूसरे के सुखों का खयाल करते हुए संस्कार की पूर्णता की कामना कर रहे हों। पण्डित दीनदयाल जी शान्ति और पौरुष के रक्षण के लिए कहते हैं कि यह चातुर्वर्ण्य व्यवस्था से सिद्ध हो सकता है क्योकि समाज और उसकी प्रकृति जब अपने ढंग से काम करेगी तो समष्टि में स्वतः ही सुख की गंगा बहेगी अन्यथा लोग जब एक-दूसरे के कार्यों में अवरोध बनेंगे और दूसरे के कार्य-धर्म में अतिक्रमण करेंगे तो सृष्टि में दुःख होगा। जे. भण्डारी ने भी हिन्दी दैनिक “आज” के अपने संपादकीय में लिखा है कि “ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी में लिखित ‘अर्थशास्त्र’ में विष्णुगुप्त (चाणक्य) ने कहा था कि यदि पेशेवर ख़ुशहाल बनना चाहते हैं तो वे किसी भी परिस्थिति में नैतिक मूल्यों का अतिक्रमण न करें। ”12 समष्टि का सुख ही नैतिकता है।
कोई ऐसा मनुष्य जो धर्मावलंबी है, वेदों का ज्ञाता है और ब्रह्म का ज्ञान रखने वाला है उसके पुत्र को नदी में मछली पकड़ने में अत्यधिक रुचि है वह किसी अन्य कार्यों में रुचि भी नहीं बैठा पाता है किन्तु उसे माया ने अपने चंगुल में जकड़ा और वह भी ब्राह्ममणत्व के कार्य में सम्मिलित होने की इच्छा बनाने लगा। निश्चय मानिए कि इसे सुख का अनुभव नहीं हो सकता है। अब तो इसका मन अशान्त भी रहने लगा है। पण्डित दीनदयाल जी कहते हैं कि शान्ति चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के अनुपालन से सिद्ध होगी। इसलिए उस धर्मावलंबी मनुष्य के पुत्र को अपने चित्त की शान्ति के लिए मछवारा बन जाना चाहिए। उसे अपना वर्ण ज्ञात करना चाहिए। वही उसका सुख है।
ठीक इसी तरह आज के कथित दलित परिवार में जन्में किसी युवा जिसके पिता योग्य प्रोफेसर हों और स्वयं उस युवा के कर्म तुच्छ हों व वह निम्न कर्म वाला हो तो उसे  किसी बड़े पद यथा- प्रवक्ता, नीति निर्माता अथवा दार्शनिक बनने का प्रयास नहीं करना चाहिए उसे अपने वर्ण के अनुसार वही कार्य करना चाहिए जिसका वो अधिकारी हो, तभी उसे सुख की प्राप्ति हो सकती है। अतः पण्डित दीनदयाल उपाध्याय जी के विचारों में शिक्षा, स्वतंत्रता, शान्ति और पौरुष की रक्षा करके परम सुख के मार्ग में आगे बढ़ा जा सकता है।



सन्दर्भ सूचीः-
1 राष्ट्र जीवन की दिशाः पं. दीनदयाल उपाध्याय-लोकहित प्रकाशन (पृष्ठः13)
2 राष्ट्र जीवन की दिशाः पं. दीनदयाल उपाध्याय-लोकहित प्रकाशन (पृष्ठः13-14)
3 राष्ट्र जीवन की दिशाः पं. दीनदयाल उपाध्याय-लोकहित प्रकाशन (पृष्ठः14)
4 राष्ट्र जीवन की दिशाः पं. दीनदयाल उपाध्याय-लोकहित प्रकाशन (पृष्ठः15)
5,6 व 7संपादकीयः ए. जैनः हिन्दी दैनिक ‘आज’ (दिनांकः24 जून, 2015)
8 व 9अर्थशास्त्र:भारतीय दृष्टि कुछ विचारः इंदुमती काटदरे-पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट (पृष्ठः3-6)
10 राष्ट्र जीवन की दिशाः पं. दीनदयाल उपाध्याय-लोकहित प्रकाशन (पृष्ठः16)
11 राष्ट्र जीवन की दिशाः पं. दीनदयाल उपाध्याय-लोकहित प्रकाशन (पृष्ठः16-17)
12संपादकीयः जे.भण्डारीः हिन्दी दैनिक ‘आज’ (दिनांकः30 मई, 2015);