∙ अमित राजपूत
आश्विन (क्वाँर) सुदी-14, वार रविवार, संवत-1947 विक्रम (26 अक्टूबर, सन् 1890) को अपने ननिहाल इलाहाबाद के
अतरसुइया मोहल्ले में जन्में गणेश शंकर विद्यार्थी को आधुनिक इतिहास में एक महान प्रेरक
के रूप में जाना जाता है। ये फ़तेहपुर ज़िले की सुविख्यात तहसील खागा के परगना
क़स्बा हथगाम के रहने वाले थे। यहीं पर गणेशजी और उनके बड़े भाई शिव बाबा की
प्रारम्भिक शिक्षा हुई। इसके बाद ग्वालियर में रहकर सन् 1905
में विद्यार्थी जी ने अंग्रेज़ी से मिडिल पास किया और सन् 1907 में वे द्वितीय श्रेणी में इण्टर पास हो गये। इसके बाद पहली बार विद्यार्थी
जी ने करेंसी ऑफ़िस में 6 फरवरी, सन् 1908 को नौकरी करना
प्रारंभ कर दिया था। लेकिन बाद में कई और नौकरियों में इनका मन न लगा। अन्त में अपने
निश्चय के मुताबिक गणेश शंकर विद्यार्थी ने नवम्बर 1913 में ऐतिहासिक साप्ताहिक ‘प्रताप’ का प्रकाशन आरम्भ कर दिया। इसे विद्यार्थी
जी ने अपने मित्र शिवनारायण मिश्र और नारायण प्रसाद अरोड़ा के सहयोग से निकाला था।
हालांकि कुछ दिनों बाद उनके सहयोगी नारायण प्रसाद अरोड़ा अलग हो गए, किन्तु शिव
नारायण मिश्र अन्त तक सहयोग देते रहे।
‘प्रताप’ नामक इस एक
मात्र शस्त्र को धारण करके विद्यार्थी जी अपने समय के शक्तिमान बन गए थे। आरम्भ से
ही सामाजिक व संवेदनशील रहे दृढ़ इच्छाशक्ति वाले गणेश जी ने अपने व्यक्तित्व के प्रकाश
का ऐसा पुंज तैयार किया कि उसके प्रकाश से इतिहास के कई स्तम्भ दैदीप्यमान हुए और
वे उनके प्रेरणा स्रोत बनकर उभरे। यथा प्रेरणा पुंज गणेश शंकर विद्यार्थी सरदार
भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त, विजय कुमार सिन्हा, पंडित चंद्रशेखर आज़ाद और लाहिड़ी जैसे
क्रान्तिवीर देशभक्त युवकों को ‘प्रताप’ के प्रताप के दम पर क्रान्ति के कार्यों में मदद भी देते थे। इस प्रकार ये
कहने में कोई भेद नहीं है कि आज़ादी की तमाम चिंगारियों को हवा देने में गणेशजी का
मार्गदर्शन प्रमुख स्थान रखता रहा है।
यद्यपि ‘प्रताप’ के संपादन से पहले भी विद्यार्थी जी ने ‘हितवार्ता’, ‘कर्मयोगी’, ‘सरस्वती’ आदि पत्रों के लिए लेख-टिप्पणियां आदि लिखी
थी। लेकिन विद्यार्थी जी ने ‘प्रताप’
के द्वारा किसानों, मजदूरों एवं पीड़ित जनता की सेवा का ही व्रत लिया। उनके सामने
मनुष्यता की कसौटी ही वही थी- “मनुष्य उसी समय तक मनुष्य है
जब तक उसकी दृष्टि के सामने कोई ऐसा ऊंचा आदर्श है जिसके लिए वह अपने प्राण तक
न्यौछावर कर सके। इसके लिए किसानों, मजदूरों और दरिद्र नारायण की सेवा ही सबसे
बड़ा धर्म है।” गणेशजी ने सिद्ध भी यही किया। उनका ‘प्रताप’ पूर्णतः किसान आन्दोलन का समर्थक था। उसने
किसानों पर होने वाले हर किसी के अत्याचारों का विरोध किया, विशेषकर तालुकेदारों
और जमींदारों के आत्याचारों का खुलकर विरोध किया। इन कारणों से ‘प्रताप’ की ख़्याति किसानों के हमदर्द अख़बार के रुप
में दूर-दूर तक फैल गयी। इसका प्रभाव ये दिखा कि किसान जनता विद्यार्थी जी को ‘प्रताप बाबा’ कहकर पुकारने लगी थी।
मजदूर-किसानों के प्राण-प्रेरकः
गणेशजी की पुत्री विमला विद्यार्थी बताती हैं
कि “विद्यार्थी जी का मजदूर सभा में प्रायः जाना होता था। गणेश जी ‘प्रताप’ के दफ़्तर पर अक्सर रात 8-9 बजे तक या 10-11 बजे तक जैसी जरूरत होती रहते थे।” साल 1916 में
कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में बकौल पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की भी विशेष
उपस्थिति रही। इस अधिवेशन में गणेशजी ने कांग्रेस का ध्यान किसानों की तरफ खीचने
का प्रयास किया। उन्होने कहा कि “जो संस्था किसानों और
मजदूरों की सेवा से वंचित रहती है, वह अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकती है।
गणेशजी जैसे विशुद्ध क्रान्तिकारी थे वैसे ही
ख़ालिस पत्रकार भी थे। तमाम अलग-अलग विचारधारा के लोगों के साथ उनका प्रायः सरोकार
था।एक पत्रकार के रूप में गणेशशंकर विद्यार्थी ने किसानों की जितनी मदद की थी उतनी
ही उन्होनें एक आन्दोलनकर्ता के रूप में भी भूमिका निभाकर उनकी मदद की। वास्तव में
विद्यार्थी जी को किसी भी बात अथवा विचारधारा का पूर्वाग्रह कभी नहीं रहा। उन्होने
हर पाले में जाकर लोगों को प्रेरित किया और उन्हें मदद पहुंचायी।
जब देश में किसान आन्दोलनों ने जोर पकड़ लिया
था। तब जहां एक तरफ इन आन्दोलनों को समाप्त करने के लिए राजाओं और सूबेदारों के
दबाव और धमकियों ने तमाम पत्र-पत्रिकाओं की निब को कुंटित बना डाला था वहीं गणेश
शंकर विद्यार्थी का ‘प्रताप’ प्रान्त
में किसानों के कंधे से कंधा मिलाकर डट कर लड़ने में जुटा था।
अवध किसान आंदोलन की संजीवनी बने गणेशः
जब अकाल के कगार में पूरा अवध घाँस पड़ा था तब
वहां का किसान त्राति-त्राति करने लगा। ऊपर से ताल्लुकेदारों का कहर उन पर काल सा
मंडराने लगा था। ऐसे में किसानों के पास आंदोलन के सिवाय कोई और विकल्प न रह गया था।
बाबा रामचंद के नेतृत्व में किसानों का हुजूम रायबरेली के मुशीगंज बाज़ार के
पश्चिमी फाटक पर उमड़ पड़ा। यद्यपि विकल्प शून्य हो चुकी किसानों की भीड़ बलिदान
के संकल्प से अनुप्राणित थी तथापि हिंसात्मक आचरण के लिए भी वे कटिबद्ध थे। अंततः ताल्लुकेदार
वीरपाल सिंह के इशारों पर अंग्रेज़ों ने किसानों पर एकबारगी गोलियां तड़तड़ा दी और
देखते ही देखते मुंशीगंज की धरती किसानों के रक्त से सराबोर हो लाल हो उठी। पूरा
मैदान आड़ी-तिरछी लाशों से पट गया।
तानाशाही का आलम यह रहा कि इस घटना का ज़िक्र
करने वाले समाचार पत्र-पत्रिकाओं को धमकियां मिलीं और जिसने कुछ लिखा-पढ़ा तो उसे
माफ़ी मांगनी पड़ी थी। इलाहाबाद से प्रकाशित नेहरू का ‘द इंडिपेण्डेण्ट’ भी माफ़ी मांगने वाले अख़बारों में
शामिल रहा। लेकिन विद्यार्थी जी ने अपने ‘प्रताप’ में इस घटना की तुलना जलियांवाला बाग़ से करके ‘डायरशाही’ नामक शीर्षक के साथ प्रमुखता से छापा और दबाव मिलने पर उल्टे अपने एक
विशेष रिपोर्टर को इसकी छानबीन के लिए नियुक्त कर दिया। इसके चलते उन पर मुक़दमें
हुए। अपने पैसों से ही गणेशजी को मुक़दमा भी लड़ना पड़ा। इस मुक़दमे में वे आर्थिक
रुप से टूट गए और उन्हें जेल भी जाना पड़ा। बावजूद इसके अवध के किसानों द्वारा
खड़े किये गए इस आंदोलन के मूर्छित होने पर गणेशजी के अडिग नेतृत्व ने इसे संजीवनी
प्रदान की और आज लोग मुंशीगंज गोलीकाण्ड की क्रूरता से परिचित हैं एवं वहां शहीद
हज़ारों हुतात्माओं को याद कर उनके बलिदान को नमन करते हैं।
किसानों के बिजोलिया आंदोलन के बीजों को दिया पल्लवनः
राजस्थान के बिजोलिया किसान सत्याग्रह के नेता
विजय सिंह पथिक जब चारो तरफ दौड़-भाग करके थक-हार कर अकुला गए तो उन्हें सूझ ही
नहीं रहा था कि वो करें तो क्या करें। फिर उन्हेने आंदोलन के प्रभाव को शिथिल जानकर
गणेश शंकर विद्यार्थी का साहारा लेना उचित समझा। पथिक ने गणेशजीको पत्र लिखा कि आप
अपने समाचार पत्र ‘प्रताप’
में बिजोलिया किसान आंदोलन के लिए लिखें। पत्र के जवाब में गणेशजी ने पथिक जी को
लिखा था कि बिजोलिया किसान आंदोलन के लिए ‘प्रताप’ के दरवाजे हमेशा के लिए खुले हैं। विद्यार्थी जी ने किया भी यही। वे व्यक्तिगत
रुप से इस आंदोलन में शामिल हुए और मेवाड़ राज्य के प्रतिबंध के बावजूद किसानों पर
अत्याचारों के संदर्भ में लगातार छापते रहे।
इतना ही नहीं, गणेशजी ने किसान सभा में सक्रिय
भूमिका निभाई और कांग्रेस व अन्य विभिन्न मंचों से भी बिजोलिया किसान आंदोलन को
उठाया। इसके अलावा दिल्ली में पथिक जी, गणेश शंकर विद्यार्थी और हर विलास शारदा के
द्वारा ‘राजपूताना मध्य भारत सभा’ की स्थापना भी हुयी।
चंपारन सत्याग्रह के श्रीगणेश में गणेशः
चंपारन सत्याग्रह की जड़ माने जाने वाले
राजकुमार शुक्ल को गांधी से मिलाने वाले और चंपारन में पूरे मीडिया प्रोपेगेंडा के
कर्ता-धर्ता स्वयं गणेश शंकर विद्यार्थी ही थे। इसके अलावा साल 1910
में पीर मोहम्मद मुनीस इलाहाबाद शहर में सर सुंदरलाल के घर रुके थे।
तभी उनकी भी मुलाकात गणेशजी से हुई और उन्होंने गणेश जी से चंपारन में नील के
किसानों के ऊपर हो रहे अत्याचार के विषय में विस्तृत जानकारी दी। इसके बाद गणेश
शंकर विद्यार्थी ने गांधी जी को विवश किया कि वह चंपारण
जाएं और शोषक निलहों से वहां के किसानों का उद्धार करें। गीतकार व कवि गिरजेश ‘गरारा’ की निम्नलिखित पंक्तियां इस सन्दर्भ में सटीक
जानकारी देती हैं-
राजकुमार
शुक्ल जब आये ढिग माहिं
अपनी बिडंबना का आपसे सुनाये थे।
चंपारन सत्याग्रह का श्रीगणेश करिके
तौ गणेश गांधी का बिहार पहुंचाय थे।।
अपनी बिडंबना का आपसे सुनाये थे।
चंपारन सत्याग्रह का श्रीगणेश करिके
तौ गणेश गांधी का बिहार पहुंचाय थे।।
इस दफ़ा किसानों, मजदूरों और देश की ग़रीब
जनता के आर्तनाद ने विद्यार्थी जी को अपनी ओर चुंबक की तरह खींच लिया था। चाहे
देशी रियासतों के राजाओं द्वारा जनता के प्रति अत्याचार हो अथवा किसी जमींदार के
द्वारा किसी किसान को सताया जा रहा हो, विद्यार्थी जी सब का सामना करने के लिए
तैयार रहते थे। हालांकि उन्हें अपने समकालीन और आगे के पत्रकारों के मूल्यों और
क्रिया कलापों के बारे में बड़ी चिन्ता थी। उन दिनों वे पत्रकारिता के भविष्य से
इतने व्यथित थे कि उन्होने कहा- “इस देश में भी समाचार
पत्रों का आधार धन हो रहा है। धन ही से वे निकलते हैं। धन ही के आधार पर चलते हैं
और बड़ी वेदना के साथ कहना पड़ता है कि उनमें काम करने वाले बहुत से पत्रकार भी धन
ही की अभ्यर्थना करते हैं। अभी यहां पूरा अंधकार भी नहीं हुआ है किन्तु लक्षण वैसे
ही हैं। कुछ ही दिन पश्चात यहां के समाचार पत्र भी मशीन के सदृश हो जाएंगे और उन
में काम करने वाले पत्रकार केवल मशीन के पुर्जे। व्यक्तित्व न रहेगा, सत्य और असत्य का अंतर न रहेगा, अन्याय के विरुद्ध
डट जाने और न्याय के लिए आदतों को बुलाने की चाह न रहेगी, रह
जाएगा केवल खींची हुई लकीर पर चलना। मैं तो उस अवस्था को अच्छा नहीं कह सकता।”
फ़तेहपुर कांग्रेस के ब्रह्माः
कानपुर में रहकर औपचारिक राजनीति करने वाले
गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने गृह जनपद फ़तेहपुर में कांग्रेस की स्थापना के लिए
आगे आए। इन्होंने ही अपनी अगुवाई में यहां कांग्रेस का स्वरूप विकसित किया। गणेशशंकर
विद्यार्थी जी के प्रबल प्रयासों से तिलक जी की मृत्यु 1 अगस्त, 1920 ई. को उनकी श्रृद्धांजलि सभा के अवसर
पर प्रथम बार ज़िला फ़तेहपुर कांग्रेस कमेटी की स्थापना की गयी। इस प्रकार फ़तेहपुर
मेंकांग्रेस का रचना का सम्पूर्ण श्रेय विद्यार्थी जी को जाता है। यहां हज़ारी लाल
के फाटक में कांग्रेस का दफ्तर बनाया गया। इस ज़िला कांग्रेस फ़तेहपुर में गणेश जी
के अंशपात्र श्याम लाल ‘पार्षद’ को
अध्यक्ष, विद्यार्थी जी के दूर के रिश्तेदार, कृपापात्र और
सहयोगी एडवोकेट बाबू वंशगोपाल को मंत्री तथा अवध बिहारी को ज़िला कांग्रेस कमेटी
का प्रथम कोषाध्यक्ष बनाया गया था। फ़तेहपुर कांग्रेस की स्थापना के बाद
विद्यार्थी जी की राजनीतिक हलचलें कानपुर के साथ-साथ फ़तेहपुर में भी बहुत तेज़ हो
गयीं। गणेश जी को तीसरी बार और सबसे चर्चित जेल की सज़ा सन् 1923 ई. में इसी
फ़तेहपुर में ही एक राजनीतिक भाषण के दौरान हुयी थी।
विद्यार्थी जी की प्रेरणा का प्रतीक है झण्डा-गीतः
जब कांग्रेस ने निश्चय किया कि हम
कांग्रेसियों को एक मंच व एक छांव देने के लिए उसका एक ध्वज तैयार करेंगे और इस
ध्वज के तले समाज के लगभग हर वर्ग को एकत्रित कर देश की आज़ादी के लिए क़दम बढ़ाने
का प्रोत्साहन देने का प्रयास करेंगे। तब कांग्रेस को अपने इस ध्वज के लिए एक गीत
की कमी खल रही थी। ऐसे में कांग्रेस के तत्कालीन आला कमान ने अपने तिरंगे ध्वज के
लिए गीत को लिखवाने और उसके चुनाव की ज़िम्मेदारी पत्रकार प्रवर गणेशशंकर
विद्यार्थी को दे दी। अब कांग्रेस का झण्डा गीत कैसा हो, उसमें कितने पद हों और
उसकी भाषा और प्रवाह आदि सब कुछ तय करने का काम विद्यार्थी जी पर ही था।
विद्यार्थी जी ऐसा झण्डा गीत लिखाना चाहते थे
जो जन-जन की भाषा में हो और वीरत्वपूर्ण देशभक्ति का संचार कर सके। वे राष्ट्र के
अन्तिम जन द्वारा भी गुनगुनाया जा सकने वाला हो और उसी लहजे में अपनी बात कह पाने
वाला हो।
झण्डा गीत के लिए जन भाषा की चाह रखने वाले
गणेशजी उस दौर के जितने भी प्रस्थापित, प्रसिद्ध और क्लिष्ट रचना करने वाले
बड़े-बड़े लेखक थे उनसे दूर ही रहना चाहते थे। वे अपने लेखन से प्राप्त प्रसिद्धि
और उसके वैभवानन्द में लम्बे समय तक विचरण करने वाले जटिल लेखकों से भी दूर रहना
चाहते थे। इस तरह से विद्यार्थी जी की तलाश जटिल होती जा रही थी। फिर एक दिन चिराग
तले अँधेरा वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी को फ़तेहपुर
कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष श्याम लाल गुप्त ‘पार्षद’ का नाम इसके लिए सूझा और उन्होने पार्षद जी को ही कांग्रेस का झण्डा गीत
लिखने की ज़िम्मेदारी दे दी। अन्त में पार्षद जी ने विद्यार्थी जी के सामने पूरे
देश को प्रिय ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे
हमारा’ को रच कर प्रस्तुत कर दिया। पार्षद जी के द्वारा रचे
मूल गीत में 7 पद (कुल 37 पंक्तियां) थे।
खादी के उत्थान के अगुवा बनें गणेशः
महात्मा गाँधी के बरक्स गणेशशंकर विद्यार्थी
ने भी खादी और ग्रामोद्योग की पौध को सींचने के लिए नरवल में 29 मई सन् 1929 में खादी और स्वदेशी के लिए ‘नरवल सेवा आश्रम’ नाम से एक केन्द्र खोला था। केन्द्र
के खुल जाने के बाद वहां पाठशाला और पुस्तकालय अधिक खोले गए, चरखा लगने लगे तथा
खद्दर भी तैयार होने लगे।
गणेशजी ने जिस सेवा आश्रम की स्थापना की थी
उसे पार्षद जी ने आज़ादी के बाद ‘गणेश सेवा आश्रम’ का नाम देकर उस खादी ग्राम उद्योग केन्द्र को आगे चलाया। इसके 13 अन्य
केन्द्र फ़तेहपुर सहित अन्य पड़ोसी ज़िलों में खोले गये। इन सभी केन्द्रों पर अब
तेल, साबुन, ऊनी, सूती, रेशमी वस्त्र, सूत, चरखे व संबंधित यंत्रों का उत्पादन,
विक्रय आदि कार्य बड़े स्तर पर होने लगे। ऐसे ही प्रयत्न यह दर्शाते हैं कि गणेशजी
ने खादी और स्वदेशी के उत्थान के लिए अविस्मरणीय काम किये हैं जोकि आज भी दृष्टया
हैं।
सद्भावना के दधीचिः
हिन्दू-मुस्लिम एकता के ज़बरदस्त हामी होने के
साथ-साथ सद्भावना के साक्षी रहे प्रेरणामूर्ति विद्यार्थी जी ने सामाजिक समरसता और
सद्भावना के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। भगत सिंह की फांसी के दूसरे ही
दिन मंगलवार 24 मार्च, सन् 1931 ई.
(चैत्र, सुदी-5, संवत्-1988) को कानपुर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा शुरु हो गया।
24 की रात और 25 को
प्रातः दंगे का रूप और भी भीषण हो गया। चारों तरफ से लोगों के मरने, घायल होने,
दुकानों के जलाये जाने और लूटे जाने के समाचार मिलने लगे। यद्यपि गणेशजी की तबीयत
पहले से ही ख़राब थी बावजूद इसके इन रोमांचक समाचारों को सुनकर उनका दयापूर्ण एवं
परोपकारी हृदय अपने को संभाल न सका और वे 9 बजे प्रातः केवल थोड़ा सा दूध पीकर
लोगों को बचाने के लिए चल दिये। लेकिन ये तो 20वीं सदी में जी रहे इस ‘दधीचि’ के परीक्षा की घड़ी थी। उन्हें इस दंगे में
अपने प्राणों को बलिदान करना पड़ा। उस दिन विद्यार्थी जी के इस बलिदान से भारत की
धरती गौरवांवित हो उठी। गणेश जी बलिदान के बाद बाबू बनारसी दास चतुर्वेदी ने लिखा
कि “आज उस दीनबंधु के लिए किसान रो रहा है। अब कौन उनके उदर
ज्वाला को शांत करने के लिए स्वयं आग में कूद पड़ेगा?”
वास्तव में अपने समय के लगभग सभी आयामों में
प्रेरणा के स्रोत रहे गणेश शंकर विद्यार्थी के न रह जाने और उनके असमय चले जाने से
इतिहास के कुछ सुनहरे और श्रेष्ठता का अनुभव कराने वाले पन्ने कोरे ही रह गये।