Saturday, 30 September 2017

गणेश शंकर विद्यार्थीः आधुनिक इतिहास के महान प्रेरक


∙ अमित राजपूत

आश्विन (क्वाँर) सुदी-14, वार रविवार, संवत-1947 विक्रम (26 अक्टूबर, सन् 1890) को अपने ननिहाल इलाहाबाद के अतरसुइया मोहल्ले में जन्में गणेश शंकर विद्यार्थी को आधुनिक इतिहास में एक महान प्रेरक के रूप में जाना जाता है। ये फ़तेहपुर ज़िले की सुविख्यात तहसील खागा के परगना क़स्बा हथगाम के रहने वाले थे। यहीं पर गणेशजी और उनके बड़े भाई शिव बाबा की प्रारम्भिक शिक्षा हुई। इसके बाद ग्वालियर में रहकर सन् 1905 में विद्यार्थी जी ने अंग्रेज़ी से मिडिल पास किया और सन् 1907 में वे द्वितीय श्रेणी में इण्टर पास हो गये। इसके बाद पहली बार विद्यार्थी जी ने करेंसी ऑफ़िस में 6 फरवरी, सन् 1908 को नौकरी करना प्रारंभ कर दिया था। लेकिन बाद में कई और नौकरियों में इनका मन न लगा। अन्त में अपने निश्चय के मुताबिक गणेश शंकर विद्यार्थी ने नवम्बर 1913 में ऐतिहासिक साप्ताहिक प्रताप का प्रकाशन आरम्भ कर दिया। इसे विद्यार्थी जी ने अपने मित्र शिवनारायण मिश्र और नारायण प्रसाद अरोड़ा के सहयोग से निकाला था। हालांकि कुछ दिनों बाद उनके सहयोगी नारायण प्रसाद अरोड़ा अलग हो गए, किन्तु शिव नारायण मिश्र अन्त तक सहयोग देते रहे।

प्रतापनामक इस एक मात्र शस्त्र को धारण करके विद्यार्थी जी अपने समय के शक्तिमान बन गए थे। आरम्भ से ही सामाजिक व संवेदनशील रहे दृढ़ इच्छाशक्ति वाले गणेश जी ने अपने व्यक्तित्व के प्रकाश का ऐसा पुंज तैयार किया कि उसके प्रकाश से इतिहास के कई स्तम्भ दैदीप्यमान हुए और वे उनके प्रेरणा स्रोत बनकर उभरे। यथा प्रेरणा पुंज गणेश शंकर विद्यार्थी सरदार भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त, विजय कुमार सिन्हा, पंडित चंद्रशेखर आज़ाद और लाहिड़ी जैसे क्रान्तिवीर देशभक्त युवकों को प्रताप के प्रताप के दम पर क्रान्ति के कार्यों में मदद भी देते थे। इस प्रकार ये कहने में कोई भेद नहीं है कि आज़ादी की तमाम चिंगारियों को हवा देने में गणेशजी का मार्गदर्शन प्रमुख स्थान रखता रहा है।

यद्यपि प्रताप के संपादन से पहले भी विद्यार्थी जी ने हितवार्ता, कर्मयोगी,सरस्वती आदि पत्रों के लिए लेख-टिप्पणियां आदि लिखी थी। लेकिन विद्यार्थी जी ने प्रताप के द्वारा किसानों, मजदूरों एवं पीड़ित जनता की सेवा का ही व्रत लिया। उनके सामने मनुष्यता की कसौटी ही वही थी- मनुष्य उसी समय तक मनुष्य है जब तक उसकी दृष्टि के सामने कोई ऐसा ऊंचा आदर्श है जिसके लिए वह अपने प्राण तक न्यौछावर कर सके। इसके लिए किसानों, मजदूरों और दरिद्र नारायण की सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है। गणेशजी ने सिद्ध भी यही किया। उनका प्रताप पूर्णतः किसान आन्दोलन का समर्थक था। उसने किसानों पर होने वाले हर किसी के अत्याचारों का विरोध किया, विशेषकर तालुकेदारों और जमींदारों के आत्याचारों का खुलकर विरोध किया। इन कारणों से प्रताप की ख़्याति किसानों के हमदर्द अख़बार के रुप में दूर-दूर तक फैल गयी। इसका प्रभाव ये दिखा कि किसान जनता विद्यार्थी जी को प्रताप बाबा कहकर पुकारने लगी थी।

मजदूर-किसानों के प्राण-प्रेरकः

गणेशजी की पुत्री विमला विद्यार्थी बताती हैं कि विद्यार्थी जी का मजदूर सभा में प्रायः जाना होता था। गणेश जी प्रताप के दफ़्तर पर अक्सर रात 8-9 बजे तक या 10-11 बजे तक जैसी जरूरत होती रहते थे।साल 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में बकौल पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की भी विशेष उपस्थिति रही। इस अधिवेशन में गणेशजी ने कांग्रेस का ध्यान किसानों की तरफ खीचने का प्रयास किया। उन्होने कहा कि जो संस्था किसानों और मजदूरों की सेवा से वंचित रहती है, वह अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकती है।

गणेशजी जैसे विशुद्ध क्रान्तिकारी थे वैसे ही ख़ालिस पत्रकार भी थे। तमाम अलग-अलग विचारधारा के लोगों के साथ उनका प्रायः सरोकार था।एक पत्रकार के रूप में गणेशशंकर विद्यार्थी ने किसानों की जितनी मदद की थी उतनी ही उन्होनें एक आन्दोलनकर्ता के रूप में भी भूमिका निभाकर उनकी मदद की। वास्तव में विद्यार्थी जी को किसी भी बात अथवा विचारधारा का पूर्वाग्रह कभी नहीं रहा। उन्होने हर पाले में जाकर लोगों को प्रेरित किया और उन्हें मदद पहुंचायी।

जब देश में किसान आन्दोलनों ने जोर पकड़ लिया था। तब जहां एक तरफ इन आन्दोलनों को समाप्त करने के लिए राजाओं और सूबेदारों के दबाव और धमकियों ने तमाम पत्र-पत्रिकाओं की निब को कुंटित बना डाला था वहीं गणेश शंकर विद्यार्थी का प्रतापप्रान्त में किसानों के कंधे से कंधा मिलाकर डट कर लड़ने में जुटा था।

अवध किसान आंदोलन की संजीवनी बने गणेशः

जब अकाल के कगार में पूरा अवध घाँस पड़ा था तब वहां का किसान त्राति-त्राति करने लगा। ऊपर से ताल्लुकेदारों का कहर उन पर काल सा मंडराने लगा था। ऐसे में किसानों के पास आंदोलन के सिवाय कोई और विकल्प न रह गया था। बाबा रामचंद के नेतृत्व में किसानों का हुजूम रायबरेली के मुशीगंज बाज़ार के पश्चिमी फाटक पर उमड़ पड़ा। यद्यपि विकल्प शून्य हो चुकी किसानों की भीड़ बलिदान के संकल्प से अनुप्राणित थी तथापि हिंसात्मक आचरण के लिए भी वे कटिबद्ध थे। अंततः ताल्लुकेदार वीरपाल सिंह के इशारों पर अंग्रेज़ों ने किसानों पर एकबारगी गोलियां तड़तड़ा दी और देखते ही देखते मुंशीगंज की धरती किसानों के रक्त से सराबोर हो लाल हो उठी। पूरा मैदान आड़ी-तिरछी लाशों से पट गया।

तानाशाही का आलम यह रहा कि इस घटना का ज़िक्र करने वाले समाचार पत्र-पत्रिकाओं को धमकियां मिलीं और जिसने कुछ लिखा-पढ़ा तो उसे माफ़ी मांगनी पड़ी थी। इलाहाबाद से प्रकाशित नेहरू का द इंडिपेण्डेण्ट भी माफ़ी मांगने वाले अख़बारों में शामिल रहा। लेकिन विद्यार्थी जी ने अपने प्रताप में इस घटना की तुलना जलियांवाला बाग़ से करके डायरशाही नामक शीर्षक के साथ प्रमुखता से छापा और दबाव मिलने पर उल्टे अपने एक विशेष रिपोर्टर को इसकी छानबीन के लिए नियुक्त कर दिया। इसके चलते उन पर मुक़दमें हुए। अपने पैसों से ही गणेशजी को मुक़दमा भी लड़ना पड़ा। इस मुक़दमे में वे आर्थिक रुप से टूट गए और उन्हें जेल भी जाना पड़ा। बावजूद इसके अवध के किसानों द्वारा खड़े किये गए इस आंदोलन के मूर्छित होने पर गणेशजी के अडिग नेतृत्व ने इसे संजीवनी प्रदान की और आज लोग मुंशीगंज गोलीकाण्ड की क्रूरता से परिचित हैं एवं वहां शहीद हज़ारों हुतात्माओं को याद कर उनके बलिदान को नमन करते हैं। 

किसानों के बिजोलिया आंदोलन के बीजों को दिया पल्लवनः

राजस्थान के बिजोलिया किसान सत्याग्रह के नेता विजय सिंह पथिक जब चारो तरफ दौड़-भाग करके थक-हार कर अकुला गए तो उन्हें सूझ ही नहीं रहा था कि वो करें तो क्या करें। फिर उन्हेने आंदोलन के प्रभाव को शिथिल जानकर गणेश शंकर विद्यार्थी का साहारा लेना उचित समझा। पथिक ने गणेशजीको पत्र लिखा कि आप अपने समाचार पत्र प्रताप में बिजोलिया किसान आंदोलन के लिए लिखें। पत्र के जवाब में गणेशजी ने पथिक जी को लिखा था कि बिजोलिया किसान आंदोलन के लिए प्रताप के दरवाजे हमेशा के लिए खुले हैं। विद्यार्थी जी ने किया भी यही। वे व्यक्तिगत रुप से इस आंदोलन में शामिल हुए और मेवाड़ राज्य के प्रतिबंध के बावजूद किसानों पर अत्याचारों के संदर्भ में लगातार छापते रहे।

इतना ही नहीं, गणेशजी ने किसान सभा में सक्रिय भूमिका निभाई और कांग्रेस व अन्य विभिन्न मंचों से भी बिजोलिया किसान आंदोलन को उठाया। इसके अलावा दिल्ली में पथिक जी, गणेश शंकर विद्यार्थी और हर विलास शारदा के द्वारा राजपूताना मध्य भारत सभा की स्थापना भी हुयी।

चंपारन सत्याग्रह के श्रीगणेश में गणेशः

चंपारन सत्याग्रह की जड़ माने जाने वाले राजकुमार शुक्ल को गांधी से मिलाने वाले और चंपारन में पूरे मीडिया प्रोपेगेंडा के कर्ता-धर्ता स्वयं गणेश शंकर विद्यार्थी ही थे। इसके अलावा साल 1910 में पीर मोहम्मद मुनीस इलाहाबाद शहर में सर सुंदरलाल के घर रुके थे। तभी उनकी भी मुलाकात गणेशजी से हुई और उन्होंने गणेश जी से चंपारन में नील के किसानों के ऊपर हो रहे अत्याचार के विषय में विस्तृत जानकारी दी। इसके बाद गणेश शंकर विद्यार्थी ने गांधी जी को विवश किया कि वह चंपारण जाएं और शोषक निलहों से वहां के किसानों का उद्धार करें। गीतकार व कवि गिरजेश गरारा की निम्नलिखित पंक्तियां इस सन्दर्भ में सटीक जानकारी देती हैं-
राजकुमार शुक्ल जब आये ढिग माहिं
अपनी बिडंबना का आपसे सुनाये थे।
चंपारन सत्याग्रह का श्रीगणेश करिके
तौ गणेश गांधी का बिहार पहुंचाय थे।।

इस दफ़ा किसानों, मजदूरों और देश की ग़रीब जनता के आर्तनाद ने विद्यार्थी जी को अपनी ओर चुंबक की तरह खींच लिया था। चाहे देशी रियासतों के राजाओं द्वारा जनता के प्रति अत्याचार हो अथवा किसी जमींदार के द्वारा किसी किसान को सताया जा रहा हो, विद्यार्थी जी सब का सामना करने के लिए तैयार रहते थे। हालांकि उन्हें अपने समकालीन और आगे के पत्रकारों के मूल्यों और क्रिया कलापों के बारे में बड़ी चिन्ता थी। उन दिनों वे पत्रकारिता के भविष्य से इतने व्यथित थे कि उन्होने कहा- इस देश में भी समाचार पत्रों का आधार धन हो रहा है। धन ही से वे निकलते हैं। धन ही के आधार पर चलते हैं और बड़ी वेदना के साथ कहना पड़ता है कि उनमें काम करने वाले बहुत से पत्रकार भी धन ही की अभ्यर्थना करते हैं। अभी यहां पूरा अंधकार भी नहीं हुआ है किन्तु लक्षण वैसे ही हैं। कुछ ही दिन पश्चात यहां के समाचार पत्र भी मशीन के सदृश हो जाएंगे और उन में काम करने वाले पत्रकार केवल मशीन के पुर्जे। व्यक्तित्व न रहेगा, सत्य और असत्य का अंतर न रहेगा, अन्याय के विरुद्ध डट जाने और न्याय के लिए आदतों को बुलाने की चाह न रहेगी, रह जाएगा केवल खींची हुई लकीर पर चलना। मैं तो उस अवस्था को अच्छा नहीं कह सकता।

फ़तेहपुर कांग्रेस के ब्रह्माः

कानपुर में रहकर औपचारिक राजनीति करने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने गृह जनपद फ़तेहपुर में कांग्रेस की स्थापना के लिए आगे आए। इन्होंने ही अपनी अगुवाई में यहां कांग्रेस का स्वरूप विकसित किया। गणेशशंकर विद्यार्थी जी के प्रबल प्रयासों से तिलक जी की मृत्यु 1 अगस्त, 1920 ई. को उनकी श्रृद्धांजलि सभा के अवसर पर प्रथम बार ज़िला फ़तेहपुर कांग्रेस कमेटी की स्थापना की गयी। इस प्रकार फ़तेहपुर मेंकांग्रेस का रचना का सम्पूर्ण श्रेय विद्यार्थी जी को जाता है। यहां हज़ारी लाल के फाटक में कांग्रेस का दफ्तर बनाया गया। इस ज़िला कांग्रेस फ़तेहपुर में गणेश जी के अंशपात्र श्याम लाल पार्षद को अध्यक्ष, विद्यार्थी जी के दूर के रिश्तेदार, कृपापात्र और सहयोगी एडवोकेट बाबू वंशगोपाल को मंत्री तथा अवध बिहारी को ज़िला कांग्रेस कमेटी का प्रथम कोषाध्यक्ष बनाया गया था। फ़तेहपुर कांग्रेस की स्थापना के बाद विद्यार्थी जी की राजनीतिक हलचलें कानपुर के साथ-साथ फ़तेहपुर में भी बहुत तेज़ हो गयीं। गणेश जी को तीसरी बार और सबसे चर्चित जेल की सज़ा सन् 1923 ई. में इसी फ़तेहपुर में ही एक राजनीतिक भाषण के दौरान हुयी थी।

विद्यार्थी जी की प्रेरणा का प्रतीक है झण्डा-गीतः

जब कांग्रेस ने निश्चय किया कि हम कांग्रेसियों को एक मंच व एक छांव देने के लिए उसका एक ध्वज तैयार करेंगे और इस ध्वज के तले समाज के लगभग हर वर्ग को एकत्रित कर देश की आज़ादी के लिए क़दम बढ़ाने का प्रोत्साहन देने का प्रयास करेंगे। तब कांग्रेस को अपने इस ध्वज के लिए एक गीत की कमी खल रही थी। ऐसे में कांग्रेस के तत्कालीन आला कमान ने अपने तिरंगे ध्वज के लिए गीत को लिखवाने और उसके चुनाव की ज़िम्मेदारी पत्रकार प्रवर गणेशशंकर विद्यार्थी को दे दी। अब कांग्रेस का झण्डा गीत कैसा हो, उसमें कितने पद हों और उसकी भाषा और प्रवाह आदि सब कुछ तय करने का काम विद्यार्थी जी पर ही था।

विद्यार्थी जी ऐसा झण्डा गीत लिखाना चाहते थे जो जन-जन की भाषा में हो और वीरत्वपूर्ण देशभक्ति का संचार कर सके। वे राष्ट्र के अन्तिम जन द्वारा भी गुनगुनाया जा सकने वाला हो और उसी लहजे में अपनी बात कह पाने वाला हो।

झण्डा गीत के लिए जन भाषा की चाह रखने वाले गणेशजी उस दौर के जितने भी प्रस्थापित, प्रसिद्ध और क्लिष्ट रचना करने वाले बड़े-बड़े लेखक थे उनसे दूर ही रहना चाहते थे। वे अपने लेखन से प्राप्त प्रसिद्धि और उसके वैभवानन्द में लम्बे समय तक विचरण करने वाले जटिल लेखकों से भी दूर रहना चाहते थे। इस तरह से विद्यार्थी जी की तलाश जटिल होती जा रही थी। फिर एक दिन चिराग तले अँधेरा वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी को फ़तेहपुर कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष श्याम लाल गुप्त पार्षद का नाम इसके लिए सूझा और उन्होने पार्षद जी को ही कांग्रेस का झण्डा गीत लिखने की ज़िम्मेदारी दे दी। अन्त में पार्षद जी ने विद्यार्थी जी के सामने पूरे देश को प्रिय विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा को रच कर प्रस्तुत कर दिया। पार्षद जी के द्वारा रचे मूल गीत में 7 पद (कुल 37 पंक्तियां) थे।

खादी के उत्थान के अगुवा बनें गणेशः

महात्मा गाँधी के बरक्स गणेशशंकर विद्यार्थी ने भी खादी और ग्रामोद्योग की पौध को सींचने के लिए नरवल में 29 मई सन् 1929 में खादी और स्वदेशी के लिए नरवल सेवा आश्रमनाम से एक केन्द्र खोला था। केन्द्र के खुल जाने के बाद वहां पाठशाला और पुस्तकालय अधिक खोले गए, चरखा लगने लगे तथा खद्दर भी तैयार होने लगे।

गणेशजी ने जिस सेवा आश्रम की स्थापना की थी उसे पार्षद जी ने आज़ादी के बाद गणेश सेवा आश्रम का नाम देकर उस खादी ग्राम उद्योग केन्द्र को आगे चलाया। इसके 13 अन्य केन्द्र फ़तेहपुर सहित अन्य पड़ोसी ज़िलों में खोले गये। इन सभी केन्द्रों पर अब तेल, साबुन, ऊनी, सूती, रेशमी वस्त्र, सूत, चरखे व संबंधित यंत्रों का उत्पादन, विक्रय आदि कार्य बड़े स्तर पर होने लगे। ऐसे ही प्रयत्न यह दर्शाते हैं कि गणेशजी ने खादी और स्वदेशी के उत्थान के लिए अविस्मरणीय काम किये हैं जोकि आज भी दृष्टया हैं।

सद्भावना के दधीचिः

हिन्दू-मुस्लिम एकता के ज़बरदस्त हामी होने के साथ-साथ सद्भावना के साक्षी रहे प्रेरणामूर्ति विद्यार्थी जी ने सामाजिक समरसता और सद्भावना के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। भगत सिंह की फांसी के दूसरे ही दिन मंगलवार 24 मार्च, सन् 1931 ई. (चैत्र, सुदी-5, संवत्-1988) को कानपुर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा शुरु हो गया।

24 की रात और 25 को प्रातः दंगे का रूप और भी भीषण हो गया। चारों तरफ से लोगों के मरने, घायल होने, दुकानों के जलाये जाने और लूटे जाने के समाचार मिलने लगे। यद्यपि गणेशजी की तबीयत पहले से ही ख़राब थी बावजूद इसके इन रोमांचक समाचारों को सुनकर उनका दयापूर्ण एवं परोपकारी हृदय अपने को संभाल न सका और वे 9 बजे प्रातः केवल थोड़ा सा दूध पीकर लोगों को बचाने के लिए चल दिये। लेकिन ये तो 20वीं सदी में जी रहे इस दधीचि के परीक्षा की घड़ी थी। उन्हें इस दंगे में अपने प्राणों को बलिदान करना पड़ा। उस दिन विद्यार्थी जी के इस बलिदान से भारत की धरती गौरवांवित हो उठी। गणेश जी बलिदान के बाद बाबू बनारसी दास चतुर्वेदी ने लिखा कि आज उस दीनबंधु के लिए किसान रो रहा है। अब कौन उनके उदर ज्वाला को शांत करने के लिए स्वयं आग में कूद पड़ेगा?”


वास्तव में अपने समय के लगभग सभी आयामों में प्रेरणा के स्रोत रहे गणेश शंकर विद्यार्थी के न रह जाने और उनके असमय चले जाने से इतिहास के कुछ सुनहरे और श्रेष्ठता का अनुभव कराने वाले पन्ने कोरे ही रह गये।

Thursday, 7 September 2017

गौरी लंकेश की लाश पर लबादे



∙ अमित राजपूत

किसी विशेष विचारधारा वाले राजनेता की मृत्यु के बाद भी ऐसी अस्पृश्यता नहीं देखी जाती जैसा कि कन्नड़ पत्रकार गौरी लंकेश की मृत्यु के बाद देखने को मिल रही है। लंकेश भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) से 1983-84 बैच की पासआउट निर्भीक पत्रकार हैं। 5 सितम्बर को कर्नाटक में उनके आवास पर गोली मारकर हुई उनकी हत्या के बाद पूरे राष्ट्रीय मीडिया में ख़ासकर उस तबके में जो राजनीति में दिलचस्पी रखते हैं, निखिल दधीच नाम के शख़्स के दो आपत्तिजनक ट्वीट के कारण एक शोर सा मच गया उनकी मौत का। इसमें सबसे दिलचस्प बात यह रही कि इस निखिल नाम के व्यक्ति को देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ट्वीटर पर फॉलो करते हैं। यही कारण रहा है कि भाजपा और संघ विरोधी लोगों ने गौरी की हत्या का ठीकरा कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार की बजाय केन्द्र की भाजपा सरकार पर फोड़ना शुरू कर दिया।

इसका सबसे पहले प्रकटीकरण दिल्ली के प्रेस क्लब में देखने को मिला जहां जेएनयू में देशद्रोही नारों के मामलों से चर्चा में आए कन्हैया कुमार ने पत्रकारों के बीच अपना वक्तव्य रखा। इससे तमाम पत्रकारों को नाराजगी हुई कि गौरी लंकेश की निर्मम हत्या पर एक विशेष धड़ा राजनीति पर आमदा है। वह उसको केन्द्र की भाजपा सरकार के ख़िलाफ़ भुनाने की कोशिश में लगे हैं। इस पर स्वयं आईआईएमसी में गौरी लंकेश के जूनियर रहे वरिष्ठ पत्रकार अनुरंजन झा का मानना है कि जो लोग प्रेस क्लब में थे उसमें से ज़्यादातर ने गौरी लंकेश को पढ़ने की बात तो दूर उनका नाम भी पहली बार सुना होगा। वो हत्या के विरोध में कम.. मोदी के विरोध में ज़्यादा इकट्ठा हुए थे। हमारी संवेदना गौरी लंकेश के परिजनों के लिए है, इन पक्षकारों के लिए क़तई नहीं।

वास्तव में यह बड़ा हास्यास्पद है कि निखिल दधीच नाम के उस जन की लिखी बात को कोई पूरे दक्षिण पंथ का बयान मानकर कैसे हल्ला कर सकता है। यद्यपि सरकार की ओर से सूचना और प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी और उससे पहले इसके राज्य मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर ने अपनी संवेदना अपने ट्विटर अकाउण्ट पर दे दी थी। इसके अलावा भी तमाम लोगों को गौरी की हत्या पर दुख है और उन्होने इसे जताया भी। हालांकि उन लोगों को जिन्होने पूर्वाग्रह में ही लंकेश की हत्या के गुनहगारों को चुन लिया है, उनको इस पर भी विरोधाभास दिखा। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि ये वही लोग हैं जिनको गौरी लंकेश की हत्या पर किसी की प्रतिक्रिया में विरोधाभास दिखाई दे रहा है, जो उनकी लाश को सच में अपनी-अपनी विचारधारा की चटनी लगाकर चाटना चाहते हैं.. उनकी लाश पर अपनी-अपनी विचारधाराओं और राजनीतिक हथकण्डों का लबादा ओढ़ाना चाहते हैं।

एक बात गौर करने लायक है कि गोरी की हत्या से एक दिन पूर्व ही दिल्ली के प्रेस क्लब से बाहर निकलते समय भड़ास मीडिया के पत्रकार यशवंत सिंह पर हमला हुआ और उनको ज़ोरदार ढंग से पीटा गया। उसके दूसरे दिन लंकेश की हत्या। इस घटनाक्रम में तो पत्रकारों की जमात को एक सुर में पत्रकार सुरक्षा के वास्ते कोई कारगर क़दम तत्काल उठा लिए जाने की सरकार से पुरजोर मांग करनी चाहिए। किन सब के सब एक और पत्रकार की लाश पर अपना-अपना लबादा अलंकृत कर देना चाहते हैं। सच पूछो तो प्रेस क्लब टाइप वाले इन पत्रकारों को शिवानी भटनागर से गौरी लंकेश तक, इस बीच राजदेव, दाभोलकर, पंसारे और कुलबर्गी जैसों की हत्याओं का कोई रंज नहीं। वरना ये उस दिन प्रेस क्लब में बुलाकर कन्हैया की राजनीतिक बंसी की धुन नहीं सुन रहे होते, बल्कि इतनी तीव्रता वाली चीत्कार फाड़ते कि सत्ता से कोई मज़बूत सुरक्षा का कवच बनकर इनके आवरण में ढल जाता।

हालांकि नेशनल यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स (इण्डिया) के राष्ट्रीय महासचिव रतन दीक्षित की माने तो इसकी राज्य इकाइयों ने कई स्थानों पर पत्रकारों के हित मे पत्रकार सुरक्षा कानून निर्माण की मांग को प्रमुखता से उठाते हुए गौरी लंकेश की हत्या की निंदा की और पूरे प्रकरण की जांच को सीबीआई को सौंपने की मांग भी की है। उनका मानना है कि इससे जो भी लोग इस दुखद घटना का अपने राजनीतिक हितों की स्वार्थ साधना करने के लिए कुप्रचार कर पत्रकारों की एकता को खंडित करने की कुत्सित कोशिश मे लग गए हैं, उनकी भी साजिश देश के सामने आ जाएगी।

इसके अलावा तमाम विचारधाराओं को दरकिनार करते हुए मात्र अपनी एलुमनी के नाते आईआईएमसी एलुमनी एसोसिएशन (इम्का) ने गौरी की हत्या पर हैरानी जताते हुए एसआईटी के गठन की मांग की जोकि पूरी हो गई है। इसके राष्ट्रीय महासचिव मिहिर रंजन ने इस मामले में एक पत्र भी जारी किया है। इसके अलवा इम्का की तरफ से देश के अलग-अलग हिस्सों में शोक सभाएं भी आयोजित हो रही हैं।


इसी तरह से ही देश के अन्य पत्रकारों से भी अपेक्षा की जानी चाहिए कि वे गौरी लंकेश की हत्या की कड़ी से कड़ी निंदा करें न कि किसी ख़ास विचारधारा में ख़ुद को समेटकर उनकी हत्या पर जश्न का सा माहौल बनाएं और न ही उनकी धधकती लाश पर राजनीति की राल धुरकें जिससे कि नफरत की लपटें दूर तलक जाकर हरे-भरे पत्रकारों की एकता वाले विशाल वृक्ष की ख़ूबसूरत लताओं को झुलसा दें।

Monday, 4 September 2017

गोडसे बनाम अनाम


∙ अमित राजपूत

यहां हमारे सामने दो पात्र हैं जो भारत के ऐसे दो हस्ताक्षरों से सरोकार रखते हैं जिनके न रह जाने पर उस समय भारत की दिशा और दशा बदल गयी थी। आज दुर्भाग्यवश देश इनको कुछ इस तरह से जानता है- पहला, नाथूराम गोडसे जिसे कथित प्रगतिशील  और सेकुलर जमात एक हिन्दू हत्यारा के रूप में व्याख्यायित करती है जिसने प्रार्थना करते समय असंतोषवश महात्मा गांधी की हत्या कर दी थी। यद्यपि गोडसे हत्या के समय सिर्फ गोडसे ही था, हिन्दू विशेष नहीं; और आज भी लोग उसे गोडसे के रूप में ही जानते हैं। वहीं गोडसे के बरक्स यहां पर जो दूसरा पात्र है वो अनाम है। वो महान पत्रकार और तत्कालीन संयुक्त प्रान्त की कांग्रेस के अध्यक्ष गणेश शंकर विद्यार्थी का हत्यारा है। वही प्रगतिशील लोग विद्यार्थी जी की हत्या को सांप्रदायिक दंगे का परिणाम कहते हैं। यद्यपि तब से लेकर अब तक उनके इस हत्यारे को लोग सिर्फ और सिर्फ इसी परिचय से जानते हैं कि वो एक मुसलमान था जिसने गणेशजी को अकारण ही बिना किसी वाद या विचार के ही कारसेवा सेवा करते हिये उन्हें मौत के घाट उतार दिया।

कांग्रेसी नेता गणेशजी की हत्या गांधी की तरह किसी असंतोष का कारण न थी। उनकी ये हत्या दंगे के स्वरूप में लिपटी हुयी सोची-समझी इरादतन हत्या थी जिसकी पड़ताल 25 मार्च, 1931 को उनकी हत्या से लेकर आज तक कांग्रेस करा ही न सकी या यूं भी कह लें कि कराना मुनासिब ही न समझा। गणेश शंकर विद्यार्थी हिन्दू-मुस्लिम एकता के ज़बरदस्त हामी थे। बावजूद इसके कि वो हिन्दू जमात से ताल्लुख़ रखते हैं इस इरादे से मुसलमानों द्वारा घेरकर उनकी हत्या कर दी गयी और फिर भी उनका हत्यारा सिर्फ़ हत्यारा है न कि मुस्लिम हत्यारा। वहीं गांधी की हत्या जोकि उनकी ही नीतियों से उपजे बहुसंख्यक असन्तोष का कारण थी, उनका हत्यारा गोडसे आज़ादी के 70 सालों बाद भी एक हिन्दू हत्यारा कहा जाता है जबकि गांधीजी की हत्या के विषय की परिधि में सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति श्री कपूर के नेतृत्व में एक आयोग बिठाया गया जो यह बताती है कि गांधी की हत्या उनकी नीतियों के कारण होना सम्भव था, गोडसे के ही शब्दों में देखें तो गांधी जी ने देश को छल कर देश के टुकड़े किये हैं, क्योंकि ऐसा न्यायालय या कानून नहीं था जिसके आधार पर ऐसे अपराधी को दण्ड दिया जा सकता। इसलिए मैंने गांधी जी को गोली मारी उनको दण्ड देने का केवल यही एक तरीका रह गया था। इसलिए हम कह सकते हैं कि फिर गोडसे नहीं तो कोई और...। निर्वासन का दंश झेल रहा मदन लाल पहवा इसका साफ उदाहरण है जिसने गांधी की हत्या के पूर्व ही प्रार्थना सभा में हमला किया और बम दागे लेकिन उसे फौरन गिरफ़्तार कर लिया गया।

जस्टिस कपूर के प्रतिवृत्त के खण्ड 2, पृष्ठ-177, अनुच्छेद 21/217 पर यह भी साफ है कि किसी की भी यह इच्छा नहीं थी कि कोई गांधीजी को बचावे। इसकी जानकारी भी बहुत लोगों को पहले से थी कि गांधी जी की हत्या होने वाली है। उनकी हत्या का तत्कालीन बम्बई राज्य के मुख्य सचिव जयप्रकाश और हरीश समेत तमाम नेता गणों को पूर्व ज्ञान था किन्तु वे सब बेशक उदासीन बनकर गांधी की हत्या का इंतजार करते रहे। इसका आशय यह है कि वह सभी उस समय गांधी की नीतियों के विरोध में ही रहे।

श्री पुरुषोत्तम त्रिकमदास ने गांधी की हत्या के कारणों पर कपूर आयोग के समक्ष गवाही भी दी थी कि मुसलमानों का अनुनय अथवा संतुष्टि, कोलकाता और नोआखाली में गांधी जी द्वारा किए हुए शान्ति प्रतिस्थापना के प्रयोग और पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलाने का उनका हठ जो उनके अनशन के दबाव से कार्यान्वित करना पड़ा और हिन्दू सभा की गांधीजी के प्रति धारणा; ये कारण गांधी जी की हत्या के लिए पर्याप्त थे। वास्तव में यहां सिर्फ गांधी की नीतियों का विरोध हुआ और यह विरोध हिंसक हो गया। इसका आशय यह नहीं है कि वह हिंसा करने वाला बार-बार हिन्दू के रूप में पहचाना जाये। यद्यपि ऐसा ही होता आया है और देश को अंधेरे में रखकर हिन्दू-मुस्लिम के बीज बोते रहा गया है। हालांकि गोडसे ने हिन्दू मानसिकता को व्याप्त करके गांधी की हत्या नहीं की थी, यह इसलिए भी नहीं माना जा सकता है कि ऐसी मानसिकता वाले का एक हिन्दू की ही हत्या करना कैसे उचित होगा। दूसरा प्रमाण स्वयं गोडसे द्वारा 14 नवंबर, 1949 को अपने भाई चि. दत्तात्रेय गोडसे को लिखा गया मृत्यु-पत्र है जिसमें वह लिखता है कि अपने भारत वर्ष की सीमा-रेखा सिन्धु नदी है जिसके किनारों पर वेदों की रचना है। वह सिन्धु नदी जिस शुभ दिन में फिर भारतवर्ष के ध्वज की छाया में स्वच्छंदता से बहती रहेगी उन दिनों में मेरी अस्थियों का हिस्सा उस सिन्धु नदी में बहा दिया जाए। यह मेरी इच्छा सत्य सृष्टि में आने के लिए शायद और भी एक-दो पीढ़ी का समय लग जाए तो भी चिंता नहीं, उस दिन तक वह अवश्य वैसा ही रखो और आपके जीवन में वह शुभ दिन न आए तो आप के वारिसों को यह मेरी अंतिम इच्छा बतलाते जाना। इससे साफ समझ में आता है कि गोडसे की इच्छा मात्र अखण्ड भारत की थी। वो विभाजन के ख़िलाफ़ था मुसलमानों के नहीं, क्योंकि सिन्धु के भारत में मिलने से वहां के मुसलमान भी तो भारत के ही हो जाएंगे। अतएव उसने कभी मुसलमानों को घृणा भाव से देखा हो यह स्पष्ट नहीं।

दूसरी ओर, जब दंगे में गणेशजी लोगों को बचाने निकले थे तो उनके साथ दो हिन्दू और एक मुस्लिम स्वयंसेवक थे। मुस्लिम आततायियों ने उनके ऊपर लाठी, छूरे, भाले और न जाने किन-किन अस्त्रों के पशुवत वार किए। मुसलमान स्वयंसेवक कुछ देर बाद मुसलमान समझ कर छोड़ दिया गया। दोनों हिन्दू स्वयंसेवक बुरी तरह घायल हुए। इनमें से ज्वाला दत्त नामक एक स्वयंसेवक तो ख़ून ले लथलथ होकर वही स्वर्गवासी हुये पर दूसरे की जान बच गयी। शंकर राव टाकलीकर नामक हिन्दू सज्जन जो स्वयंसेवकों में बच गए थे उनका बयान इस प्रकार है- मुसलमान स्वयंसेवक पर मुसलमान होने के कारण थोड़ी ही मार पड़ी, वह छोड़ दिया गया। विद्यार्थी जी के सिर पर लाठी पड़ी। खून निकलने लगा। मुझे चक्कर आ गया। मैं विद्यार्थी जी का नाम लेकर चिल्ला पड़ा। इस पर किसी ने पीछे से आवाज़ दी- गणेश जी जहन्नुम में गए... ।

इससे यह बड़ा साफ है कि गणेश जी के हत्यारे को इसका पूरा भान था कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान। उसने इसी बिनाह पर गणेश जी के साथ गये मुसलमान स्वयंसेवक को भाग जाने को कहा और अन्य सभी पर जान की आफत बन गए। विद्यार्थी जी की हत्या पर उनकी पुत्री विमला विद्यार्थी की तत्कालिक टिप्पणी भी इसे पूर्ण दंगा नही मानती वे इसे सुनियोजित हत्या कहती हैं। वे मानती हैं कि यह एक सुनियोजित दंगा था, ब्रिटिश सत्ता का मक़सद दो समुदायों में दंगा कराना था और उससे भी अहम चीज़ विद्यार्थी जी को, जो इस सत्ता का अमूल-चूल परिवर्तन करना चाहते थे सदैव के लिए अपने रास्ते से हटाना था।

ऐसे में देश को स्वयं तय करना चाहिए कि गांधीजी का हत्यारा हिन्दू था या सिर्फ हत्यारा। विद्यार्थीजी का हत्यारा मुसलमान था कि सिर्फ एक हत्यारा। यद्यपि गांधीजी के हत्यारे ने उच्च न्यायालय से पुनः आवेदन कर अपनी दोष सिद्धि का आह्वान नहीं किया। उसने हत्या के बाद भी अपनी बात रखी। वो कहता है कि वास्तव में मेरे जीवन का उसी दिन अंत हो गया था जब मैंने गांधी पर गोली चलाई थी। मैं मानता हूं कि गांधी जी ने देश के लिए बहुत कष्ट उठाए जिसके कारण मैं उनकी सेवा के प्रति एवं उनके प्रति नतमस्तक हूं, किन्तु देश के इस सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि के विभाजन का अधिकार नहीं है। अपने देश के प्रति भक्ति भाव रखना यदि पाप है तो मैं स्वीकार करता हूं कि वह पाप मैंने किया है, यदि वह पुण्य है तो उससे जनित पुण्य पद पर मेरा नम्र अधिकार है। मेरा विश्वास अडिग है कि मेरा कार्य नीति की दृष्टि से पूर्णतया उचित है। मुझे इस बात में लेशमात्र भी संदेह नहीं कि भविष्य में किसी समय सच्चे इतिहासकार इतिहास लिखेंगे तो वह मेरे कार्य को उचित ठहराएंगे।