∙ अमित राजपूत
किसी विशेष विचारधारा वाले राजनेता की मृत्यु
के बाद भी ऐसी अस्पृश्यता नहीं देखी जाती जैसा कि कन्नड़ पत्रकार गौरी लंकेश की
मृत्यु के बाद देखने को मिल रही है। लंकेश भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) से
1983-84 बैच की पासआउट निर्भीक पत्रकार हैं। 5 सितम्बर को कर्नाटक में उनके आवास
पर गोली मारकर हुई उनकी हत्या के बाद पूरे राष्ट्रीय मीडिया में ख़ासकर उस तबके
में जो राजनीति में दिलचस्पी रखते हैं, निखिल दधीच नाम के शख़्स के दो आपत्तिजनक
ट्वीट के कारण एक शोर सा मच गया उनकी मौत का। इसमें सबसे दिलचस्प बात यह रही कि इस
निखिल नाम के व्यक्ति को देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ट्वीटर पर फॉलो करते
हैं। यही कारण रहा है कि भाजपा और संघ विरोधी लोगों ने गौरी की हत्या का ठीकरा
कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार की बजाय केन्द्र की भाजपा सरकार पर फोड़ना शुरू कर
दिया।
इसका सबसे पहले प्रकटीकरण दिल्ली के प्रेस
क्लब में देखने को मिला जहां जेएनयू में देशद्रोही नारों के मामलों से चर्चा में
आए कन्हैया कुमार ने पत्रकारों के बीच अपना वक्तव्य रखा। इससे तमाम पत्रकारों को
नाराजगी हुई कि गौरी लंकेश की निर्मम हत्या पर एक विशेष धड़ा राजनीति पर आमदा है।
वह उसको केन्द्र की भाजपा सरकार के ख़िलाफ़ भुनाने की कोशिश में लगे हैं। इस पर
स्वयं आईआईएमसी में गौरी लंकेश के जूनियर रहे वरिष्ठ पत्रकार अनुरंजन झा का मानना
है कि जो लोग प्रेस क्लब में थे उसमें से ज़्यादातर ने गौरी लंकेश को पढ़ने की बात
तो दूर उनका नाम भी पहली बार सुना होगा। वो हत्या के विरोध में कम.. मोदी के विरोध
में ज़्यादा इकट्ठा हुए थे। हमारी संवेदना गौरी लंकेश के परिजनों के लिए है, इन ‘पक्षकारों’ के लिए क़तई नहीं।
वास्तव में यह बड़ा हास्यास्पद है कि निखिल
दधीच नाम के उस जन की लिखी बात को कोई पूरे दक्षिण पंथ का बयान मानकर कैसे हल्ला
कर सकता है। यद्यपि सरकार की ओर से सूचना और प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी और उससे
पहले इसके राज्य मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर ने अपनी संवेदना अपने ट्विटर अकाउण्ट
पर दे दी थी। इसके अलावा भी तमाम लोगों को गौरी की हत्या पर दुख है और उन्होने इसे
जताया भी। हालांकि उन लोगों को जिन्होने पूर्वाग्रह में ही लंकेश की हत्या के
गुनहगारों को चुन लिया है, उनको इस पर भी विरोधाभास दिखा। ऐसे में यह कहा जा सकता
है कि ये वही लोग हैं जिनको गौरी लंकेश की
हत्या पर किसी की प्रतिक्रिया में विरोधाभास दिखाई दे रहा है, जो उनकी लाश को सच
में अपनी-अपनी विचारधारा की चटनी लगाकर चाटना चाहते हैं.. उनकी लाश पर अपनी-अपनी
विचारधाराओं और राजनीतिक हथकण्डों का लबादा ओढ़ाना चाहते हैं।
एक बात गौर करने लायक है कि गोरी की हत्या से
एक दिन पूर्व ही दिल्ली के प्रेस क्लब से बाहर निकलते समय भड़ास मीडिया के पत्रकार
यशवंत सिंह पर हमला हुआ और उनको ज़ोरदार ढंग से पीटा गया। उसके दूसरे दिन लंकेश की
हत्या। इस घटनाक्रम में तो पत्रकारों की जमात को एक सुर में पत्रकार सुरक्षा के
वास्ते कोई कारगर क़दम तत्काल उठा लिए जाने की सरकार से पुरजोर मांग करनी चाहिए।
किन सब के सब एक और पत्रकार की लाश पर अपना-अपना लबादा अलंकृत कर देना चाहते हैं।
सच पूछो तो प्रेस क्लब टाइप वाले इन पत्रकारों को शिवानी भटनागर से गौरी लंकेश तक,
इस बीच राजदेव, दाभोलकर, पंसारे और कुलबर्गी जैसों की
हत्याओं का कोई रंज नहीं। वरना ये उस दिन प्रेस क्लब में बुलाकर कन्हैया की राजनीतिक
बंसी की धुन नहीं सुन रहे होते, बल्कि इतनी तीव्रता वाली चीत्कार फाड़ते कि सत्ता
से कोई मज़बूत सुरक्षा का कवच बनकर इनके आवरण में ढल जाता।
हालांकि नेशनल यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स
(इण्डिया) के राष्ट्रीय महासचिव रतन दीक्षित की माने तो इसकी राज्य इकाइयों ने कई
स्थानों पर पत्रकारों के हित मे पत्रकार सुरक्षा कानून निर्माण की मांग को
प्रमुखता से उठाते हुए गौरी लंकेश की हत्या की निंदा की और पूरे प्रकरण की जांच को
सीबीआई को सौंपने की मांग भी की है। उनका मानना है कि इससे जो भी लोग इस दुखद घटना
का अपने राजनीतिक हितों की स्वार्थ साधना करने के लिए कुप्रचार कर पत्रकारों की
एकता को खंडित करने की कुत्सित कोशिश मे लग गए हैं, उनकी भी साजिश देश के सामने आ
जाएगी।
इसके अलावा तमाम विचारधाराओं को दरकिनार करते
हुए मात्र अपनी एलुमनी के नाते आईआईएमसी एलुमनी एसोसिएशन (इम्का) ने गौरी की हत्या
पर हैरानी जताते हुए एसआईटी के गठन की मांग की जोकि पूरी हो गई है। इसके राष्ट्रीय
महासचिव मिहिर रंजन ने इस मामले में एक पत्र भी जारी किया है। इसके अलवा इम्का की
तरफ से देश के अलग-अलग हिस्सों में शोक सभाएं भी आयोजित हो रही हैं।
इसी तरह से ही देश के अन्य पत्रकारों से भी
अपेक्षा की जानी चाहिए कि वे गौरी लंकेश की हत्या की कड़ी से कड़ी निंदा करें न कि
किसी ख़ास विचारधारा में ख़ुद को समेटकर उनकी हत्या पर जश्न का सा माहौल बनाएं और
न ही उनकी धधकती लाश पर राजनीति की राल धुरकें जिससे कि नफरत की लपटें दूर तलक जाकर
हरे-भरे पत्रकारों की एकता वाले विशाल वृक्ष की ख़ूबसूरत लताओं को झुलसा दें।
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