Monday, 28 December 2020

खजुहाः मुग़लिया बारादरी-युक्त चारबाग़ शैली की आख़िरी निशानी

 अमित राजपूत


मुग़ल शासकों ने युद्ध में विजय के हर्ष और हत्याओं-दर-हत्याओं के उपरान्त उपजे शोक दोनों ही स्थायी भावों में सर्जना के फूल खिलाये। ये इतिहास गवाह है कि मुग़लों के स्थापत्य की उपादेयता रही है। इनका जन सरोकार ऐसा रहा है कि ये आज भी उपादेय हैं। हक़ीक़त में देखें तो उनके स्थापत्य के तत्कालीन स्वरूप को यथावत बनाए रखने तक में हमारा आज नाकाम है। वैसा प्रतिरूप या अभिनव सर्जना की तो बात ही छोड़िये। ऐसे में हम मुग़लों के स्थापत्य पर निर्विवाद रूप से गर्व कर सकते हैं।

बहरहाल, आज हम आपको मुग़लों के एक विशिष्ट स्थापत्य शैली के बारे में न सिर्फ़ बताएँगे; बल्कि उसकी नवीनतम या आख़िरी निशानी के पास तक की यात्रा भी कराएँगें। तो चलिए, सबसे पहले जानते हैं उस शैली के बारे में जिसे मुग़लों की बारादरी-युक्त चारबाग़ निर्माण शैली कहते हैं।

खजुहा में मुग़लों की बारादरी-युक्त चारबाग़ निर्माण शैली

जी हाँ, आपको बता दें कि मुग़ल बादशाह बाबर (1526-70) ने बारादरी युक्त बाग़ निर्माण की परंपरा आरम्भ की थी। इन्हें चारबाग़ कहा जाता है। कहीं-कहीं इन्हें बाग़ बादशाही के रूप में भी पहचाना जाता है। चारबाग़ के बारे में और अधिक जानने के लिए बेहतर होगा कि आप किसी बाग़ बादशाही में घूम कर आइए। यहाँ हम आपको मुग़ल बादशाह बाबर द्वारा आरम्भ की गई बारादरी युक्त बाग़ निर्माण की परंपरा के नवीनतम या आधुनिकतम अर्थात् अन्तिम चरण का प्रतिनिधित्व करने वाले खजुहा की बाग़ बादशाही और औरंगज़ेब की पवेलियन घुमाने ले चलते हैं। यहाँ किसी भी मौसम में जाया जा सकता है।

औरंगज़ेब द्वारा निर्मित खजुहा की बाग़ बादशाही मुग़लिया बारादरी-युक्त चारबाग़ परंपरा की आख़िरी निशानी है। यहाँ औरंगज़ेब की पवेलियन भी है, जो अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा पूरी तरह संरक्षित है। यात्रा के दृष्टिकोंण से यहाँ पहुँचना बेहद सुगम है और सस्ता भी। इसके लिए आप नई दिल्ली से कानपुर जाने वाली किसी भी एक्प्रेस या सुपरफ़ास्ट ट्रेन की यात्रा करके कानपुर पहुँच सकते हैं। दिल्ली से कानपुर जाने के लिए आप अपनी निजी कार अथवा आनन्द विहार आईएसबीटी से उत्तर प्रदेश परिवहन की बस से भी यात्रा कर सकते हैं। जीटी रोड होते हुए सुगम मार्ग से आप आसानी से कानपुर पहुँच गये हैं।

अब कानपुर से प्रयागराज की ओर अपनी कार अथवा उत्तर प्रदेश परिवहन से यात्रा करनी होगी। यदि आप नई दिल्ली से कानपुर तक रेलयात्रा करके आये हैं, तो भी आपको अब आगे की यात्रा बस द्वारा या अपने निजी वाहन से करनी होगी। इसके लिए कानपुर के झकरकट्टी बस अड्डे से हर आधे घण्टे में बसें मिलती हैं। कानपुर से पूरब प्रयागराज की ओर आगे बढ़ने पर आपको चौडगरा आना होगा। यह कानपुर से सटा उत्तर प्रदेश का फ़तेहपुर जनपद है। कानपुर से चौडगरा की अधिकतम दूरी क़रीब 50 किलोमीटर है। अब चौडगरा से दक्षिण दिशा में क़रीब 10-12 किलोमीटर की यात्रा करके आप इस फ़तेहपुर ज़िला की तहसील- बिन्दकी पहुँचेंगे। बिन्दकी चौक से पश्चिम खजुहा रोड है। खजुहा रोड पर है- कोतवाली बिन्दकी। कोतवाली के बगल में श्रीराधे स्वीट्स एण्ड बेकर्स में रुककर आप यहाँ की बेहतरीन और यूनिक डिश- बेबी कॉर्न क्रिस्पी का मज़ा लेकर आगे बढ़ें तो आगे की यात्रा ऊर्जा से भर जाएगी।

बेबी कॉर्न क्रिस्पी


अब यहाँ से  मात्र पाँच किलोमीटर की दूरी पर ही है क़स्बा- खजुहा, जहाँ औरंगज़ेब की पवेलियन और बाग़ बादशाही का आपको विज़िट करना है। बिन्दकी चौराहे से खुजहा रोड पर चलने पर क़स्बा खजुहा के एंट्रेन्स पर दाहिनी ओर है बाग़ बादशाही और औरंगज़ेब की पवेलियन।

बिन्दकी चौराहे से खजुहा की ओर बढ़ने पर जिस रोड पर हम चलते हैं, यह ऐतिहासिक मुग़ल रोड है, जो 11-12वीं शताब्दी में कड़ा से कन्नौज के मार्ग को जोड़ने वाला मुख्य मार्ग हुआ करता था। इस मार्ग पर अलग-अलग कालखण्डों के विभिन्न शासकों की तमाम छावनियाँ, पवेलियन और सराय हुआ करते थे। इन्हीं में से एक यह औरंगज़ेब की पवेलियन भी है।

पुनश्च, मुग़ल शासकों ने युद्ध में विजय के हर्ष और हत्याओं-दर-हत्याओं के उपरान्त उपजे शोक दोनों ही स्थायी भावों में सर्जना के फूल खिलाये। तो यहाँ औरंगज़ेब के समय खजुहा में निर्मित बाग़ बादशाही हत्या के उपरान्त की सर्जना का प्रमाण है। इस प्रकार, प्रचीन मुग़ल मार्ग पर स्थित उत्तर प्रदेश के जनपद फ़तेहपुर का यह क़स्बा खजुहा, मुग़ल बादशाह शाहजहाँ (1627-58) के दो पुत्रों- औरंगज़ेब और शाहशुजा के मध्य 5 जनवरी, 1659 ई. को उत्तराधिकार के लिए हुए निर्णायक युद्ध के कारण मध्यकालीन इतिहास में विशेष स्थान रखता है। इस निर्णायक युद्ध में शाहशुजा की हत्या के पश्चात् औरंगज़ेब की विजय हुयी थी।

औरंगज़ेब की इस विजय के पश्चात् वह लगभग एक सप्ताह तक खजुहा में रुका रहा। उसने अपनी विजय की स्मृति में इस स्थान का नाम औरंगाबाद रख दिया और बारादरी युक्त चारबाग़, मस्जिद एवं कारवाँ सराय का निर्माण करवाया। ब्रिटिश काल में भी इस स्थान का विशेष महत्व रहा, क्योंकि ब्रिटिशकाल में खजुहा नील के संवर्धन के उपयोग में लाया गया था।

ख़ैर, यदि बात करें मुग़ल बादशाह बाबर द्वारा आरम्भ की गई बारादरी युक्त बाग़ निर्माण की परंपरा के अन्तिम चरण का प्रतिनिधित्व करने वाले खजुहा की बाग़ बादशाही की तो चहारदीवारी से युक्त यह बाग़ मुग़ल चारबाग़ शैली का एक बेहद सुन्दर नमूना है। यहाँ की चहारदीवारी के कोनों पर सुन्दर छतरियों से सुसज्जित बुर्ज हैं, जबकि पश्चिमी दीवार के मध्य स्थित चौपहल भव्य दुमंजिला दरवाज़ा खजुहा क़स्बे की ओर ख़ुलता है। इसके ऐवान में गचकारी के माध्यम से बने ज्यामितीय अलंकरणों को नीले और हरे रंगों से सजाया गया है।

खजुहा की बाग़ बादशाही में उत्तर-पूर्वी कोने पर बना सुन्दर छतरी से सुसज्जित बुर्ज।
 

चारबाग़ की उत्तरी दीवार से लगी हुयी तीन बावलियाँ बनाई गई हैं, जिनका उपयोग चारबाग़ में जल आपूर्ति के लिए होता था। बाग़ के मध्य में एक बावली एवं हौज है, जिससे जल चारों ओर नहरों जैसी बड़ी-बड़ी नालियों के माध्यम से बाग़ में पहुँचाया जाता था। नहरों जैसी नालियों के अवशेष अब विद्यमान नहीं रह गये हैं।

खजुहा की बाग़ बादशाही के मध्य में बना हौज।

बाग़ बादशाही के पूर्वी भाग में दो सोपानों में निर्मित लगभग तीन मीटर ऊँचे भव्य चबूतरे के ऊपर भी अलग से दो बारादरियाँ निर्मित की गयी हैं, जो देखने में आलीशान लगती हैं। इन दोनों बारादरियों के मध्य में एक ख़ूबसूरत हौज है। इस हौज का जल चबूतरे पर स्थित नालियों के माध्यम से अलंकृत पुश्त-ए-माही के ऊपर से होकर चारबाग़ की ओर जाता था।

खजुहा की बाग़ बादशाही के अलंकरण का एक नमूना।

पूर्वी बारादरी तो निहायत ख़ूबसूरत और अलंकृत है। इसमें बंगला छत है। इसके मुख्य हाल से खजुहा के शाही तालाब का मनोरम दृश्य दिखाई पड़ता था। यद्यपि पूर्वी बारादरी की छत बंगला है तो वहीं, पश्चिमी बारादरी की छत एकदम सपाट है। बारादरियों में मुख्य हाल के अतिरिक्त दोनों ओर कमरों की भी व्यवस्था की गई है। इन कमरों का उपयोग बाग़ की रखवाली में लगे अधिकारियों और कभी-कभी अतिथियों के ठहरने की व्यवस्था के लिए उपयोग में लाये जाते थे।

भव्य चबूतरे के ऊपर दोनों बारादरियों के मध्य में बना ख़ूबसूरत हौज तथा बाग़ की पूर्वी बारादरी पर बना बंगला छत से युक्त भवन।

...तो इस प्रकार, मुग़लिया बारादरी-युक्त चारबाग़ शैली हमें आकर्षित करती है। लेकिन यदि जहाँ एक तरफ़ फ़तेहपुर के खजुहा स्थित मुग़लिया बारादरी-युक्त चारबाग़ परंपरा की आख़िरी निशानी हमें लुभाती है, तो वहीं यह एक दुश्वारियों का भी मारा हुआ लगता है। जी हाँ, हम उस वक़्त चौंक उठे जब हम बाग़ बादशाही के मध्य में स्थित बावली एवं हौज को देखने पहुँचे। वहाँ पहुँचने पर एक अधेड़ उम्र की औरत और अपने कानों में इयरफोन लगाकर कहीं बातों में मशगूल एक नौजवान लड़की हमें दिखाई पड़े। बावली से सटी एक कुरिया के सामने पड़े सूखे-कटे पेड़ की धन्नी पर बैठी वो औरत ख़ुद को राजेन्द्र सिंह कछवाह की पत्नी बताती है।

बाग़ के मध्य में बनी बावली से सटी कुरिया के सामने पड़े सूखे-कटे पेड़ की धन्नी पर बैठी राजेन्द्र सिंह कछवाह की पत्नी और पुत्री।


अपने पति राजेन्द्र के बारे में उसने बताया कि वो बिन्दकी एसडीएम के अर्दली या पेशकार हैं। इयरफोन लगाकर बात कर रही नौजवान लड़की उनकी बेटी है। अंत में उसने जो कहा वो यक़ीनन हैरान करने वाला था। उसने बताया बाग़ के मध्य में स्थित हौज और बावली पर उनका मालिकाना हक़ है। सचमुच बाग़ के मध्य में बनी बावली पर निजी नलकूप लगा है।

इतना ही नहीं, आज खजुहा की इस बाग़ बादशाही में बाग़ के नाम पर शायद ही कोई पेड़ लगा है। यहाँ तो सपाट ज़मीन है, जिस पर हमें जुते हुए खेत दिखाई दिये। राजेन्द्र कछवाह की पत्नी ने हमें बताया कि इस बाग़ के भीतर आज खेतनुमा दिख रही ज़मीन पर कुल आठ लोगों का कब्ज़ा है।

खजुहा की बाग़ बादशाही के भीतर नदारद पेड़ व बाग़ तथा ख़ाली सपाट पड़ी ज़मीन व खेत।


Monday, 23 November 2020

शिरीष की कलीः भाग-2

 

• अमित राजपूत


 

मुझको छोड़कर चली!

मेरी शिरीष की कली!!

 

नन्हा सा था मन उसका

औ चंचल-शोख अदाएँ!

स्नेह-सिक्त मुस्कान लिए

वो सबका मन भरमाए!!

घट-घट उसको चाहने वाले...

प्राण थी लली।

मेरी शिरीष...

 

चहक-चहककर जब वो मेरे

होश उड़ाती थी!

डाँट-डपटकर अपनापन वो

झोलीभर लाती थी!!

ग़ुस्सा होकर ख़ुद ही मनाती...

इतनी थी भली।

मेरी शिरीष...

 

संग मिला जब मुझको उसका

मिली धरोहर-थाती!

जले जिगर मोरा वही दफ़ा

तब ठंड थी छाती!!

भयी विदाई हुयी पराई...

गल गयी हेमडली।

मेरी शिरीष...

 

मुझको छोड़कर चली!

मेरी शिरीष की कली!!

Tuesday, 3 November 2020

साँझ...

कार्तिक, कृष्णपक्ष/त्रतीया; खागा।


ऐसी साँझ ढले तो रब्बा ढल जाने दो!

प्राची हो तो क्या! प्रतीची में मिल जाने दो!!

संचार के नए प्रयोगों के लबरेज होगा MCU का नया कैंपसः प्रो. केजी सुरेश

प्रो. केजी सुरेश
मीडिया शिक्षक के रूप में पूरी दुनिया को भारतीय दृष्टिकोण से अवगत कराने वाले प्रो. केजी सुरेश ने पत्रकारिता एवं संचार विशेषज्ञ के रूप में अपनी ज़बरदस्त छाप छोड़ी है। भाषायी पत्रकारिता को नया आयाम देने में भी इनकी बड़ी भूमिका मानी जाती है। एक फक्कड़ी पत्रकार होने के साथ-साथ भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक रह चुके प्रो. सुरेश माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति बनाये जाने के बाद से लगातार चर्चा में हैं। प्रस्तुत हैं 01अक्टूबर, 2020 को अमित राजपूत  के साथ हुयी उनकी बाचतीच के प्रमुख अंश...

• किसी विश्वविद्यालय के कुलपति का दायित्व आपके लिए नया है। इसे आप अपने लिए कितना चुनौतीपूर्ण मानते हैं?
मेरे लिए कुलपति का दायित्व वैसा ही है जैसे IIMC के महानिदेशक का था। दोनो जगह संस्थान की विभागीय बनावट से लेकर अकादमिक उद्देश्य लगभग एक जैसे ही हैं। इसके अलावा मुझे यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेट्रोलियम एनर्जी स्टडीज़ में डीन रहने के अकादमिक प्रशासन के अनुभवों का लाभ भी इस उद्देश्य के लिए मिल रहा है। लिहाजा मेरे लिए कोई ख़ास चुनौती या मुश्किल की बात नहीं है।

• भारतीय दृष्टिकोण से दुनिया को परिचित कराते हुए आपको भारतीय मीडिया के लिए दुनिया के किस दृष्टिकोण ने सर्वाधिक प्रभावित किया?
मुझे पश्चिम के उन देशों ने बहुत प्रभावित किया है, जहाँ पब्लिक हेल्थ कम्युनिकेशन के क्षेत्र में बेहतरीन शोध किए जा रहे हैं। वहाँ कई ऐसे देश हैं, जिनकी संवाद समितियों की यदि आप कॉपी देखें तो उनमें आपको बैकग्राउंडर मिलेंगे। इससे नए पाठकों को संबंधित विषय-वस्तु को समझने में बड़ी आसानी होती है। भारतीय मीडिया में यह मिसिंग है, जबकि पश्चिम में इसकी बेहतरीन परंपरा है। विषय-विशेषज्ञता पर ज़ोर वहाँ की दूसरी प्रभावशाली बात है और इसका कारण है संचार के क्षेत्र में ज़बरदस्त शोध।

• ...लेकिन जनसंचार में शोध की क्या गुंजाइश है, जबकि ज्यादातर विद्यार्थी पेशेवर पत्रकारिता में चले जाते हैं?
बिल्कुल। लेकिन मीडिया में शोध का मतलब केवल पीएचडी ही नहीं है। मीडिया में शोध का सीधा मतलब है कि गूगल सर्च से हटकर अध्ययन, फुटवर्क और दूसरे माध्यमों से जानकारियाँ एकत्र करना और उनका विश्लेषण करके नई दृष्टि देना। इस प्रक्रिया पर बहुत कम पत्रकार चल पा रहे हैं, जिन्हें विचार करने की आवश्यकता है।

• पीएचडी ही शोध नहीं है, लेकिन पीएचडी भी शोध है। लिहाजा एक विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर क्या आपको नहीं लगता कि जनसंचार में शोध की प्रवृत्ति और गुणवत्ता को बढ़ाये जाने की ज़रूरत है? इसके लिए आपके क्या प्रयास होंगे?
सतही और अत्यधिक उपलब्ध साहित्य वाले विषयों पर शोध से हटकर नीतिगत बदलाव ला सकने में समर्थ विषयों का शोध के लिए चयन हमारी प्राथमिकता में होगा। इसके अलावा कुछ अछूते विषयों पर शोध किये जाने की आवश्यकता को भी हम महसूस करते हैं।

• जब आप IIMC के महानिदेशक थे तो वहाँ आपकी कार्यप्रणाली से बड़ा कायाकल्प देखने को मिला था। बतौर कुलपति क्या माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में भी बड़े बदलाव देखने को मिलेंगे?
देखिए, ये तो वक़्त बताएगा। लेकिन मेरे कुलपति बनने के हफ़्तेभर के भीतर ही जो मैंने फ़ैसले किए हैं उनके बारे में मुझे बताया जाता है कि आजतक इस तरह से फ़ैसले नहीं किए गये। मसलन, सभी संकाय-सदस्यों के लिए सतत् तकनीकी दक्षता का फैसला, क्रॉस-कैंपस टीचिंग का फ़ैसला और हमारे एसोसिएट स्टडीज़ सेंटर्स के अकादमिक ऑडिट का फ़ैसला आदि। इसके अलावा छह-सात महीने में हम अपने कैंपस को बिशन खेड़ी में शिफ़्ट कर लेंगे, जो संचार के नए प्रयोगों से लबरेज होगा। यहाँ बहुत ऐसे नए प्रयोग किए जाएँगे जो शायद ही भारत के किसी पत्रकारिता के विश्वविद्यालय में अभी तक प्रयोग किए गये हैं।

Friday, 16 October 2020

कहानी: क्या लेकर जाओगे!

• अमित राजपूत

चित्रः साभार

ज़माना आज यहाँ आ खड़ा है, कि केवल चार-पाँच डिज़िट का अंतर भर बचा है; वरना चार पहिया गाड़ी और बुलट के एवरेज में कोई ख़ासा अंतर नहीं बचा है। लेकिन पप्पन पांड़े को कउन समझाये! इनको समझाना मानों हाथी को चड्ढी पहनाना है। बुलट के तो पप्पन अइसे शौकिया हैं, कि जीवन बीत गया, लेकिन बुलट के नीचे मजाल है कि कउनों दूसरी गाड़ी पसन्द किए हों।

पूरे बाँभन टोला में पंड़ाना बड़ा मज़बूत है। पप्पन पांड़े का घर छोड़कर अइसा कउनो घर नहीं है कि जिसकी चौखट पर चार पहिया न खड़ी हो। यही कारण है कि बाँभन टोला में पंड़ाना की तूतू बोलती है। यहाँ एक कहावत बड़ी मशहूर है कि दुई साँड़न के बीच से निकल जाना, लेकिन दुई पाँड़न के बीच से नहीं।

सच पूछो तो पंड़ाना से बाँभन टोला के दूसरे पण्डित खार खाते हैं और पप्पन पांड़े से पूरा पंड़ाना। पप्पन का अलग ही रौला है। लोग कहते है कि पप्पनवा सार बड़ा खोखटी है।

ख़ैर, बात चली थी पप्पन पांड़े और उसकी बुलट की। दरअसल, पप्पन आज फिर से एक नई बुलट निकलवाकर घर लाये हैं और उसी की पूजा-अर्चना के चक्कर में उन्होंने अपना पूरा मोहल्ला यानी कि पड़ाना भर को आज अपने सिर पर उठा रक्खा है।

पप्पन पांड़े का मानना है कि जितना पंड़ाने में किसी के घर चार पहिया रखने पर भौकाल बनता है, उससे ज़्यादा भौकाल तो वो अपनी बुलट से मार देता है। इस बात में अधिकतम सच्चाई भी है। अपने जीवनभर में पप्पन ये सत्रहवीं बुलट निकलवाकर लाये हैं। हाँ... हालाँकि नई बुलट ख़रीदते ही वो अपनी पुरानी बाइक बेच देते हैं। यही कारण है कि पूरा मोहल्ला जानता है कि पप्पन पांड़े का बुलट प्रेम कैसा है।

डबल स्टैण्ड पर खड़ी बुलट के अगले पहिये के आगे रखी ईंट पर नारियल फोड़ते ही पप्पन नारियल के जल की धार लेकर बुलट की परिक्रमा करने लगे कि इधर पीछे से पप्पियाइन यानी कि पप्पन पांड़े की पंड़ाइन बुदबुदाने लगीं- साठा पार कर चुके हैं बुढ़ऊ, लेकिन न मूँछों का ताव कम हो रहा है और न इनके बदन का। हुँह्ह... कहकर पल्लू से मुँह छिपाते हुए मुँह मोड़ लेती हैं।

पड़ाइन के इस हरक़त के पीछे की असल हक़ीक़त यह है, कि इनको इस उम्र में पप्पन पांड़े का ऐसा स्वैग देखकर चिढ़न होती है। मसलन बालों में डाई, मुँह में सिगरेट और गले में सोने की चेन के साथ बुलट पर स्टाइल मारते हुए चलने वाली उनकी पुरानी आदत आदि। वो आगे बड़बड़ाती हैं- हर चीज़ की एक उमर होती है भाई... ये नहीं, कि बुढ़ापे में इनकी जवानी चर्रानी है। लोफड़ापन सुहावा है।

दरअसल, पुलिस में सब-इंस्पेक्टर रहे पप्पन पांड़े को रिटायर हुए तक़रीबन ढाई साल से ऊपर हो गया है। लेकिन उनका पुलिसिया रौब और ऊपरी शान-ओ-शौक़त की आदत अभी तक गयी नहीं है। पप्पन उसे लादकर घूमता रहता है। शायद यही कारण है कि वो अभी तक ख़ुद को बिना वर्दी का आइडियल सिविलियन नहीं मान पाया है। इसका दुष्परिणाम यह है कि पप्पन अपने रिटायरमेंट के बाद अपने मोहल्ले में किसी को भी गाली-गलौच करता रहता है। कभी-कभी तो हाथापाई पर भी उतर आता है। ये पूरा बाँभन टोला ख़ासकर पंड़ाना अच्छी तरह से जानता है कि कितना हथछुटा है पप्पन पांड़े।

बहरहाल, अब जब पप्पन ने अपनी नई बुलट की पूजा-अर्चना करके नारियल तोड़ दिया है तो ध्यान से देखिए उसके पास क़रीब एक किलो मोतीचूर के लड्डू हैं, जिन्हें यक़ीनन प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है। लेकिन यदि आप पप्पन से ऐसी उम्मीद लगाकर बैठे हैं तो बेशक ग़लत हैं आप। मोहल्ले में आए-दिन उसका कैसा ड्रामा चला करता है उससे तो अभी परिचित ही नहीं हैं आप। लीजिए... देखिए, वो ख़ुद ही बानगी पेश करने लगा- कउनों परसाद लेने के चक्कर में आस लगाए बइठा हो तो बता देना... सूखा लेड़ भी न मिलेगा। बंदरे का गू खाना हो तो आओ! ... नहीं तो अपनी-अपनी महतारिन के बिलन मा घुसे रहना।

अर्रे यार... पापा!!! कुछ सोच-समझकर बोला करो। पागल हो का! कउन चला आ रहा है तुमसे परसाद माँगने, जो ऐसे गरियाए चले जा रहे हो। पप्पन पांड़े का बड़ा बेटा लव पांड़े दाँत किटकिटाते हुए बोला।

पप्पन बोला- अर्रे किसी का मुँह भी है परसाद माँगने का हमसे?”

हाँ-हाँ ठीक है। जानती हो कि कितने लक्ष्मी चंद हो। घर में मूस गिरे तो दाना नहीं है। इकलौती बिटिया ब्याह को पड़ी है। वो सब तो दिखाई ही नहीं पड़ रहा है न इनको। बड़े आये हैं कुबेर के चोदे... फिर इसी तरह में हमसे सुनते हो!” पप्पन पर पंड़ाइन गरजी।

हमसे होशेन मा बतियाएव भला! नहीं अबहिन एकेन रहपट मा कुल्लाभर खून डारि देहो पंड़ाइन, समझ लेव। पप्पन पलटकर गरजा।

...अब यहाँ पूजा-पाठ चल रहा कि अखाड़ा चालू कर दिया तुम लोगन ने? साला गँवरपन की हद्द है। कहाँ से हम इस घर मा पइदा होइ गएन... पास खड़े होकर ये सब नज़ारा देख रहा पप्पन का छोटा बेटा कुश पांड़े खिसियाकर बोला।

(कुश की बात काटकर) ...तो जाकर कहीं मर क्यों नहीं जाते मादरचोद!! हमारी खोपड़ी में दाल दरते हो सब मिलकर।

होश में थोड़ा!!! टोला-मोहल्ला देख के। लड़का सब जवान हो गये हैं। जीवनभर तो अपने ही मूत की दीया जारे हो। पड़ाइन अपनी क़िस्मत को कोसने लगी।

पांड़े पलटे- हाँ तो! पांड़े का मूत है... पप्पन पांड़े का। दीया भी जरी अउर ज़रूरत पड़ी तो बस्ती मा आग भी लगी। हमरे ही मूत से।

आग ही तो लगाए हो जीवनभर ऐसे ही पेट्रोल मूत-मूतकर। तुम्हारे इसी पेट्रोल से घर भी जल रहा है अपना पापा। मूत लेव जितना पेट्रोल मूतना है, एक दिन इसी से ऐसी भयानक आग लगेगी कि हम कुल घर इसमें जलकर खाक़ हो जाएंगे। तप तो अभी ही रहे हैं। कुश बोला।

तप रहे हो तो अपनी छाया का इंतज़ाम कर लो तुम सब। अपना कमाओ-अपना खाओ। हरामजादे! बाप की कमाई अउर पूत का शिकार सालों। भूखों मार डालूँगा, नहीं तो तुम बाप न बनो हमार।

लव फिर लपलपाया- नहीं खिलाना था तो...

चुप्प!!! बेटीचोद...मारा तो एकेन रहपट में चहूँ घूम गया तुम्हारा। चलो सबके सब भीतर। चलो... पप्पन ने घुड़की देकर सबको घर के भीतर हाँक दिया और ख़ुद बुलट पर किक मारी और फड़-फड़ करती गाड़ी लेकर वहाँ से टर लिया।

देख लिया! ...तो भइया ये थे पप्पन पांड़े। ऐसी पूजा-पाठ इनकी रोज़ की है। फिलहाल इधर बुलट की पूजा-अर्चना के बाद न किसी को टीका दिया और न प्रसाद। ग़ुस्से में मोतीचूर के लड्डुओं से भरा डिब्बा भी पप्पन यूँ ही सड़क पर छोड़कर चले गए। पड़ाइन ने उसे उठाया। ...ग़ुस्साकर नहीं, आस्था और सलीके के साथ। उन लड्डुओं के प्रसाद को पड़ाइन ने वहाँ आसपास मौजूद लोगों और उनके घरों में देने तो गयीं, लेकिन किसी भी शख़्स ने पड़ाइन के दिए लड्डू नहीं स्वीकार किए। लोगों ने लड्डुओं के प्रसाद और पड़ाइन को दूर से ही प्रणाम कर लिया। हालाँकि ये बात पड़ाइन के छोटे बेटे कुश को नागवार गुजरी। कुश ने इसे अपने परिवार का अपमान समझा। लिहाजा उसने अपनी माँ से लड्डुओं का डिब्बा लिया और फिर मोहल्ले को चिल्लाकर बोला- जो लड्डू नहीं लेगा समझकर रहेगा। शाम को पापा के घर आने पर उन्हें बताऊँगा कि किसने भगवान की और हमारी इज़्ज़त रखी और किसने नहीं। साले तुम लोगन की हिम्मत तो देखो- पप्पन पांड़े की घरइतिन परसाद लेकर तुम्हारे पास स्वयं गयीं तब भी तुम सबको इतनी चर्बी चढ़ी है कि हमरी महतारी का दिया परसाद स्वीकार नहीं करोगे? हाँय... बोलो!! अर्रे भोसड़ी वालों! परसाद तो तुम्हें लेना ही पड़ेगा और समझ लो अब मैं देने भी नहीं आ रहा। ये रखा है हमारी चौखट पर परसाद और देखता हूँ कउन-कउन लेता है और कउन शाम को हमरे बाप का बाँस अपनी गाँड़ में लेता है।

कुश पांड़े इतना कहकर अपनी माँ और बड़े भाई लव सहित घर के भीतर चला जाता है। इधर मोहल्ले वाले एक-एक करके मोतीचूर के लड्डुओं से भरे प्रसाद के डिब्बे पर टूट पड़ते हैं। ये नज़ारा देखकर कुश अपनी बालकनी में खड़ा मुस्कुरा रहा है।

वास्तव में कुश काफी हद तक पप्पन पांड़े के ही नक़्श-ए-क़दम पर गया है। केवल एक ही अंतर नशे भर का है। पप्पन वैसे तो अपनी पुलिस सर्विस के दौर से ही शराब पीता रहा है, लेकिन इधर रिटायरमेंट के बाद तो उसने बहुत ज़्यादा पीना शुरू कर दिया है। मोहल्ले के आला दर्ज़ें के पियक्कड़ों में पप्पन पांड़ें कुख़्यात हैं। लेकिन कुश की संगत इस मामले में अपने बाप से अलग है। उसके नशे के नाम पर एक सुपाड़ी तक की क़सम है। वैसे कुश बेचारा अभी है भी कितना बड़ा। अब तो थोड़े-थोड़े मूँछ रेखियाना शुरू हुए हैं।

इसके अलावा कुश का बड़ा भाई लव पूर-पार अपनी माँ पर गया है। एकदम गऊ है। लेकिन अब वो बात अलग है कि पप्पन का पगलापन जब ज़्यादा बढ़ने लगता है तो फिर लव और उसकी माँ को बोलना ही पड़ जाता है। वरना मोहल्ले वालों ने पड़ाइन को कभी घर की दहलीज़ के बाहर क़दम निकालते नहीं देखा। लव के बोल भी लोगों के लिए सुनना दुर्लभ रहता है। कुश और पप्पन पांड़े ही हैं जो मोहल्ला साधे हैं। इन सबके अलावा लव-कुश की एक बहन भी है-अर्चना। अर्चना का तो घर में रहना या न रहना सब एक जैसा ही है। जी हाँ, ये बात सुनने में थोड़ा अचरज भरी ज़रूर लगेगी लेकिन ये सच है कि पप्पन के आधे मोहल्ले को पता ही नहीं है कि इनकी कोई बिटिया भी है। जिन्हें पता है, उन्होने कभी अर्चना की शक्ल नहीं देखा। यानी अर्चना को उसके मोहल्ले वाले कभी बाज़ार में देखें तो पहचान न पायें कि ये उनके मोहल्ले की लड़की है। अर्चना पर ये सख़्ती पप्पन पांड़े की बदौलत है।

वैसे तो पप्पन को अपनी औलादों में सबसे बड़ी अर्चना के लिए शादी की कोई फ़िक़्र या प्रयास नहीं हैं। बावजूद इसके वो भी यह चाहता है कि अर्चना कितनी जल्दी अपने घर-द्वार की हो जाये।

लव और उसकी माँ ही अर्चना के लिए वर तलाशने का काम करते हैं। उनका यह प्रयास आगे भी कुछ महीनों तक भगीरथ की तरह चला और फिर परिणाम यह रहा कि सालभर के भीतर ही पप्पन पांड़े की बिटिया अर्चना के हाथ पीले हो गये।

बुढ़ापे में सफ़ेदी पा चुके बालों में डाई करके आँखों में मस्त चश्मा चढ़ाकर पप्पन पांड़े अपनी बुलट पर अब और लहराकर चलने लगे हैं। एक रोज़ पप्पन की इसी स्टाइल पर उनकी पड़ाइन भड़क गयीं। बोलीं- काहे बुढ़ापे में जवानी सवार है पांड़े महाराज। लउँडहाई म पाँव न धरौ, अबेन बिटिया ब्याहे हो। तनी म्यान में रहा करो, नहीं तो तुम्हार बड़ी गत होइहैं। कुल बार बन जइहैं जो य जुल्फ़ी धराय घूमा करते हौ।

अर्रे अब का बार बन जइहें पड़ाइन! बिटिया ब्याह गयी तो मानों कुल बार बनिगैं। अब इससे ज़्यादा तो कुछ न होई। अब तो बस, झूमेंगे... ग़ज़ल गाएँगे... लहराकर पिएँगे... पप्पन ने पड़ाइन से मसखरी शुरू कर दी।

लेकिन पड़ाइन गंभीर थी- कुछ समझ भी लिया करो। हर समय केवल खिसनिपोरी! दोनों लड़के लव-कुश अभी पढ़ाई करते हैं। नौकरी-उद्दिम (उद्यम) की अभी दूर-दूर तक कउनो आस नहीं। अइसे कइसे काम चलेगा? ऊपर से तुम इतनी पीते हो कि तुमको कैंसर-वैंसर कुछ हो गया तो मानों हम मर गइन।

अर्रे हटो पड़ाइन, ...ऐंसर-कैंसर। साला कुच्छू नहीं होता। कैंसर का तो अइसा है कि जइसे तुम नहीं पीती शराब, पर तुमको भी कैंसर हो सकता है। ...का समझी?

ई कलजुग है पड़ाइन। यहाँ पापिन कै वास है। हमरे जइसे पापी यहाँ शराब पीकर अड़लइहें, अउर तुम्हारी जइसी गऊ बिना शराब को कभी हाथ लगाए कहौ कैंसर से मरें। ...का समझिउ पड़ाइन! ई कलजुग है कलजुग। ये कहकर पप्पन पांड़े ठहाका मारकर हँसता है।

दाँत न चिघ्घारो! हमको कुछ नहीं कहना, अपनी करम आप ही भुगतोगे। हम तो ख़ाली समझा रही हन, बाक़ी पता तो है ही कि तुमको दीया तो अपने ही मूत का जारना है। पियो...! मरो...!!” पड़ाइन  बुदबुदाती हुयी हरी मटर भरी डेलिया और थाली लेकर छत पर चढ़ गयी।

अर्चना को ब्याहे अभी केवल छह महीने ही बीते हैं, वो वापस अपने मायके आकर रहने लगी। उसकी माँ के घुटनों और टखनों में काफ़ी दिनों से इतनी असहनीय पीड़ा है कि चल-फिर नहीं पा रही हैं। पड़ाइन की इसी हालत के चलते घर पर खाना-पीना बनाने और उनकी देखरेख के लिए पप्पन ने अपनी बिटिया को उसकी ससुराल से बुला लिया है।

पड़ाइन के पैरों की हड्डियों का दर्द अब हर रोज़ बढ़ता जा रहा है। कई-कई डॉक्टर्स से सलाह ली गयी, लेकिन उन्हें आराम नहीं मिला। धीरे-धीरे दर्द पड़ाइन के पैरों से बढ़कर शरीर के दूसरे हिस्सों की हड्डियों में भी जा पहुँचा। लेकिन दर्द का केन्द्र पैरों पर ही बना रहा।

पड़ाइन का इलाज़ अभी जिस अस्पताल में चल रहा है, यहाँ के डॉक्टर पाल ने एक रोज़ पड़ाइन की एक ताज़ा रिपोर्ट पप्पन के हाथ में पकड़ाते हुए कहा- इन्हें कैंसर है। बोन कैंसर।

कैंसर मात्र का नाम सुनते ही पप्पन होश खो बैठा और वहीं डॉक्टर पाल के सामने ही तड़ाक से गिरकर बेहोश हो गया। हालाँकि कुछ देर बाद जब पप्पन को होश आया तो उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि हमेशा कैंसर के प्रति उसको आगाह करने वाली उसकी पत्नी को कैंसर हो गया है। पप्पन पड़ाइन के साथ बीती अपनी ज़िन्दगानी के सुनहरे पलों के ख़्यालों की गहराई में डूब गया।

...अब पड़ाइन के ख़्यालों से बाहर आकर पप्पन ख़ुद को बड़ा कमज़ोर महसूस कर रहा है। ऐसे में उसने एक बात यह तय कर ली कि वो अपनी संतानों को उनकी माँ के कैंसर से पीड़ित होने के बारे में नहीं बताएगा। पप्पन ने ऐसा ही किया। उसने अपने दोनों बेटों और बेटी से इस बात को छुपा लिया कि उनकी माँ को बोन कैंसर हुआ है।

जैसे-जैसे पड़ाइन कैंसर से जूझती जा रही हैं, वैसे-वैसे दिन-ब-दिन शराब की बढ़ती डोज़ के साथ पप्पन की तकलीफ़ भी बढ़ती जा रही है कि उसकी कैंसर पीड़ित पत्नी कुछ ही महीनों बाद उसका साथ छोड़कर इस दुनिया से हमेशा के लिए चली जाएगी। हाँ जी, पप्पन इतना किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुका है कि उसने इस बात पर अटल विश्वास क़ायम कर लिया है कि उसकी पत्नी कैंसर से मर जाएगी। पप्पन के इस पूर्वाग्रह का प्रभाव पूरी तरह से पड़ाइन के इलाज़ पर पड़ा। मसलन, पप्पन पांड़े अपनी पत्नी के इलाज़ को लेकर बेहद शिथिल पड़ गया था। अस्सी बीघे की खेती का कास्तकार और पुलिस सब-इंस्पेक्टर की पेंशन के हक़दार पप्पन पांड़े ने अपनी पत्नी का इलाज़ कराने की बजाय हाथ पर हाथ धरे पड़ाइन की मौत का इंतज़ार सा करने लगा।

ये पप्पन पांड़े की अकर्मण्यता ही थी कि जिसका पाँच-छह महीने के भीतर परिणाम यह रहा कि उसकी पत्नी अब इस दुनिया में नहीं रही। वो चुपचाप बिना कुछ कहे पप्पन का साथ छोड़कर हमेशा-हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह चल बसीं। उनका पार्थिव लेने अस्पताल अपने पिता के साथ उनका छोटा बेटा कुश भी गया तो कुश को अपनी माँ के गुजर जाने का कारण अस्पताल में मालूम पड़ा। अपनी माँ की मौत का कारण कैंसर जानकर कुश आश्चर्य से भर गया। वह कुछ विचलित हुआ पर स्तब्ध नहीं। उसे अपने पिता पप्पन पांड़े पर इस बात को लेकर घिन आने लगी कि आख़िर इतनी बड़ी बात उसके बाप ने किसी से बताई क्यों नहीं। कुश पप्पन पर आगबबूला हो रहा था, लेकिन सामने माँ का पार्थिव देखकर उससे कुछ कहा न गया।

पप्पन और कुश पड़ाइन का पार्थिव लेकर घर पहुँचे। पहली बार उनके मोहल्ले के लोगों ने पप्पन की आँखों में आँसू देखे। पड़ाना समेत पूरे बाँभन टोला में आजतक किसी ने पप्पन को रुलाने के सिवा कभी रोते नहीं देखा। वहाँ उपस्थित लोगों के लिए यह किसी कुतूहल से कम न था। आज पप्पन अपनी पत्नी को कहे अपने वो शब्द बार-बार याद करके फफक पड़ता है कि हमरे जइसे पापी यहाँ शराब पीकर अड़लइहें, अउर तुम्हारी जइसी गऊ बिना शराब को कभी हाथ लगाए कहौ कैंसर से मरें।

शोक संतृप्त पप्पन पांड़े के परिवार में जितनी चिक-चिक पिक-पिक मचा करती थी, अब वहाँ सन्नाटा भरा ग़मगीम माहौल रहता है। आपस में कम बोलने के कारण इस घर में अब विचलित शांति रहती है। ऐसे में यहाँ हर किसी के भीतर गहरा विक्षोभ भर गया है, ख़ासतौर पर पप्पन पांड़े के भीतर।

पड़ाइन के चले जाने के बाद ऐसे सन्नाटे में महीनेभर निकल गये। अब अर्चना भी फिर से अपने ससुराल जा रही है। घर में पप्पन और उसके दो बेरोज़गार, मज़बूर और आधे अनाथ बेटे लव और कुश ही रह गए हैं। विडंबना है कि पप्पन और लव खाना नहीं पका पाते। छोटा बेटा कुश ही अब बनाता-खिलाता है।

ऐसे ही एक रात भोजन के समय लव-कुश ने पप्पन से इसका कारण पूछा आख़िर उन्हें क्यों नहीं बताया गया कि उनकी माँ को कैंसर था। इसके अलावा उन्हें पप्पन से यह भी शिकायत थी कि उनके पिता को जब उनकी माँ के कैंसर के बारे में पहले से मालूम था तो फिर अस्सी बीघे की उपजाऊ खेतिहर ज़मीन और मोटी पेंशन राशि होने के बावजूद उनकी माँ को बिना इलाज़ के यूँ ही मरने के लिए क्यों छोड़ दिया गया।

फिलहाल पप्पन के पास अपने बेटों के किसी भी सवाल का कोई जवाब नहीं था। वो अपनी निःशब्दता से गहरी पीड़ा महसूस कर रहा था। इस पीड़ा के चलते उसने अपनी शराब की लत को और बढ़ा दी। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पप्पन का अब हर रोज़ उसकी पत्नी की यादें पीछा करने लगी हैं। इसके साथ ही हर रात पप्पन के दोनों बेटों का वही सवाल उसके सामने आकर उसका कॉलर पकड़ लेते हैं और पप्पन मज़बूर, पापी और अपराधी की तरह हर रोज़ उनका सामना करता है; ...हर रोज़।

आज तो ग़ज़ब ही हो गया। सुबह कुश ने पप्पन को नाश्ते के साथ ही उस सवाल को भी परोस दिया, जिसका उत्तर पप्पन कई दिनों से नहीं दे पा रहे थे। लव ने उसमें और ज़ोर देकर प्रश्व की लावण्यता को और बढ़ा दिया तो पप्पन का ख़ून खारा होना ही था। पप्पन ने आव देखा न ताव, नाश्ते की प्लेट उठाकर कुश के मुँह पर दे मारी। ये काफ़ी ख़तरनाक था। लव के गाल को दो तमाचों से ही ऐसा लाल कर दिया कि लव के गाल पर पप्पन की तीन-चार मोटी उँगलियों के छाप पड़ गये।

मादरचोदों!! जीना हराम कर दिया है तुम दुनहूँ ने मिलकर हमारा। तुम लव-कुश नहीं, खर-दूषण हो भोसड़ी वालों। बाप की कमाई-पूत का शिकार। मैं बताए दे रहा हूँ दोनों से, कान खोलकर सुन लो। ये घर-वर बेचकर सब ताप लूँगा। खेत-बाड़ी बेच-बिकनकर कुल उल्लुक-दुल्लुक कर डारब। भीख माँगोगे तुम दोनों। हरामखोरों... पप्पन ने आँखों में ख़ून भरकर मुँह से झाक निकालते हुए अपने दोनों बेटों पर त्यौरियाँ चढ़ाई।

पप्पन पांड़े यहीं नहीं रुका। वो बाँभन टोला में बने अपने क़स्बे वाले इस दो मंजिला घर को हमेशा के लिए छोड़कर अपने पैतृक गाँव में दोनों बेटों से दूर जाकर सदा के लिए बस गया। वहीं पप्पन के सभी अस्सी बीघे खेत हैं। पप्पन अब न तो खेतों से अपने बच्चों को अनाज का एक भी दाना देता है और न ही वो उन्हें ख़र्च के लिए फूटी भर कौड़ी देता है। अपनी शराब की ख़ुराक को उसने अब ख़ुराक तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि पप्पन पांड़े तो अब रात-दिन शराब में ही डूबा रहता है।

इधर लव अपना और अपने छोटे भाई कुश का पेट पालने के लिए एक होज़री की दुकान में काम करने लगा। कुश घर पर रहकर थोड़ी बहुत पढ़ाई कर लेता, बाक़ी दोनों टाइम वो अपने और लव के लिए खाना बना देता। दुकान जाने के लिए उसका टिफ़िन भी लगा देता। इस तरह से दोनों भाई किसी तरह अपना गुजर-बसर करने लगे।

एक रोज़ शाम को लव जब काम पर से लौटकर घर वापस आया तो घर के पोर्श से घुसते ही उसके पैरों में जूठन की चिपचिपाहट सी महसूस हुयी। कुछ अजीब सी तीक्ष्ण बदबू आ रही थी। लव हिचकिचाते हुए कमरे के भीतर घुसा तो दरवाज़ा खोलते ही उसका पैर एक बोतल में तेज़ी से जा लगा और बोतल छिटककर पलंग के नीचे सरक गयी।

पप्पन के घर पर न रहते शराब की बोतल फ़र्श पर लड़खड़ाना लव के लिए अचरज भरा था। कमरे में घुप्प अंधेरा था। लव ने बत्ती का स्विच ऑन किया तो देखा कि कमरा उल्टियों से सना है। पलंग पर कुश उतान पड़ा है। उसके कपड़ों से शराब और उल्टी की गंध आ रही है।

वास्तव में, लव के लिए ये सब देखना बेहद पीड़ादायक था। वो भागकर दूसरे कमरे में जाकर ख़ुद को बंद कर लिया। उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे और क्या न करे। कमरे में बंद दहाड़ मारकर रोते लव की आवाज़ सुनने के बावजूद शराब के नशे में धुत्त कुश पर कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ रहा था। वो भयानक नशे में है और अपनी माँ की यादों में डूबा पलके फाड़े आँखों में आँसुओं का समन्दर भरकर चुपचाप चित्त पड़ा है।

पप्पन पांड़े की ख़ौफ़नाक दहाड़ों से गूँजने वाले इस मकान में आज उसके पड़ोसियों को आर्तनाद सुनाई पड़ रहा है। लेकिन पांड़े की चौखट कचरने वाला आज कोई भी नहीं। वैसे भी पांड़े की चौखट आज तक किसी पड़ोसी ने न लाँघी थी। ऐसे में जाने-अनजाने पड़ोसियों को कराया गया यह अभ्यास ही वह कारण है जिससे भीतर दोनों पांड़े बंधु दुःख के संसार में डूबे पड़े हैं बावजूद इसके उनकी सुध लेने को एक भी पड़ोसी नहीं। दोनों बिना खाए-पिए उसी हालत में रोते-बिलबिलाते सो गये।

सुबह में आलस भरी है। सूरज की किरणें लव और कुश के कमरों के भीतर तक घुस गयी है। फ़र्श पर पड़ी उल्टी सूख गयी। उस पर मक्खियाँ मँड़रा रही हैं। कुश के मुँह से एक कोने को निकली लार भी सूखी पड़ी है, जिस पर उल्टी चाट रहीं मक्खियाँ आ-आकर बैठ जाती हैं। कमरे में मौजूद सूरज की तेज़ रोशनी से कमरे की ऊष्मा बढ़ गयी। कुश के चेहरे पर हल्का पसीना फूट आया है। थोड़ी फसफसाहट महसूस हुयी तो कुश जाग गया। कुश ने फ़्रेश होकर सबसे पहले झटपट साफ़-सफ़ाई चालू की और फिर नहा-धोकर तैयार हो गया।

लव जब तक जागा और फ़्रेश हुआ तब तक उसके दुकान जाने का समय बीच चुका था। उधर कुश लव से थोड़ा नज़रें चुराए किचन में घुसा चुपचाप नाश्ता तैयार करने में लगा था। नाश्ता तैयार करके टेबल पर आया तो दोनों भाइयों ने आज बहुत दिनों बाद डिनर की तरह सुबह का नाश्ता भी साथ बैठकर खाना शुरू किया। सही मौक़ा जानकर अब लव ने कुश को आहिस्ते से समझाना शुरू किया- देख कुश, तू अभी कितना छोटा है! शराब न पिया कर वरना आगे चलकर तू भी पापा की तरह हो जाएगा रे।

अब जाकर कुश लव से आँखें मिला पाया और फफककर अपने बड़े भाई के सीने से जा लगा कि अचानक किसी ने उनके घर की डोर बेल बजाई। लव-कुश दोनों एक-दूसरे को संशय से देखने लगे। लव ने जाकर दरवाज़ा खोला तो देखा कि सामने दस-बारह बंदूकधारी लोग खड़े थे। लव हकबकाया कि फिर अचानक उस भीड़ को चीरते हुए दरवाज़े की तरफ़ आगे बढ़ते आये लव-कुश के बाप- पप्पन पांड़े।

सामने से साइड हट। हट... घर दिखाना है। पप्पन अपने हाथ से लव को एक साइड धकेलकर साथ आये सब लोगों समेत घर के भीतर घुस गया।

भीतर सबको ऐसे आते देख कुश ने एक डंडा उठाकर तान दिया- रुक जाओ। ये क्या है? ...कौन हैं ये लोग और ऐसे धड़धड़ाते घर के भीतर क्यों घुसे आ रहे हैं।

ये लोग घर देखने आये हैं। ख़रीदार हैं। अब जल्दी से कहीं और रहने का अपना-अपना इंतज़ाम कर लो तुम लोग। बहुत बलबली सवार है न तुम लोगन के। ...व्यावस्था कर योद्धा (कुश पर खिसियाकर उसके जबड़े को दबाते हुए) कमाने में आँखी-दीदा सब एक हों तो तनिक पता चले तुम लोगन का। ये कहकर पप्पन ने उन लोगों को घर दिखाया और जाने को हुआ तो पोर्श से पलटकर बोला- ये लोग जो घर देखने आये हैं मुसलमान हैं। चिकवा। अब चिकवा रहेंगे यहाँ इस घर में। पड़ाना में। ...तो ज़्यादा चीं-पों के चक्कर में न पड़ना बेटा। चिकवा रहेंगे यहाँ तो मोहल्ले वालों की भी गाँड़ फटेगी भोसड़ी वालों की। तब पप्पन का सुमिरन होगा।

ये कहकर पप्पन अपने साथ आये लोगों समेत चला गया तो वहीं खड़े-खड़े ही कुश अपने भाई लव की ओर जिज्ञासा और चिंता भरी निगाहों से बार-बार देख रहा है। लेकिन लव बेचारगी में सिर झुकाए चुपचाप खड़ा का खड़ा रहा।

अचानक उनके सामने फिर से पप्पन वापस पलटकर आ खड़ा हुआ- सारे खेत बेच दिया हूँ। सुन रहे हो...! ख़ूब सारा पैसा आ गया है। इफ़रात। भूखों मरने लगना तो खर्चा-पानी के लिए गाँव आकर पइसा माँग जाना। पप्पन कहकर चला गया और इधर उसके दोनों बेटों को काटो तो ख़ून नहीं। मानों उन्होंने सब सुनकर भी अनसुना कर दिया हो।

अब लव और कुश के सामने इतनी गहरी अस्पष्टता थी कि दोनों ने उस रोज़ पूरी रात न एक-दूसरे से कुछ कह पाए और न ही ख़ुद में उनको कोई विचार आया। दोनों किंकर्तव्यविमूढ़ सोते रहे। अगली सुबह कुश ने चुपचाप खाना बनाकर लव के लिए टिफ़िन तैयार कर दिया और लव भी चुपचाप टिफ़िन लेकर अपने काम पर निकल गया।

लव तो अपनी दुकान और कामकाज़ में व्यस्त होकर सामान्य हो गया होगा। लेकिन इधर घर पर पड़े-पड़े कुश की उलझनें बढ़ने लगीं। पप्पन... जो कि उसका बाप है, के दिए अल्टीमेटम और उसके अप्रत्याशित कृत्य को सोच-सोचकर कुश बेहद विचलित होकर निराशा से भरने लगा। उसकी तकलीफ़े गहरा रही हैं। उसके मन को उसकी माँ की याद और बाप द्वारा दिये गये दुःख के पहाड़ ने इतना दबा दिया कि अब कुश उससे उबर नहीं पा रहा है। अंधकार के अलावा उसके जीवन में उसे कहीं से कोई भी रोशनी आती मालूम नहीं पड़ रही है। ऐसे विचारपाश में कुश पूरी तरह से बँध चुका है।

कुश को अपने साथ-साथ अपने बड़े भाई लव की भी चिंता है कि उनके खेतों को बाप ने बेच डाला है। अब घर भी हाथ से जा रहा है। ऐसे में उनकी मौजूदा सामाजिक प्रतिष्ठा के बरक्स वो कहाँ रहेंगे, कैसे रहेंगे और क्या खाएँगे? इन तमाम चिंताओं ने कुश को अब पूरी तरह से अपनी गिरफ़्त में ले लिया। ऐसे में शाम होते-होते कुश ने यह निश्चय कर लिया कि उसके और उसके भाई के लिए अब यह जीवन कठिन है। ऐसे में वो आज जब डिनर तैयार करेगा तो उसमें ज़हर मिलाकर अपने बड़े भाई लव को देगा और स्वयं भी खाएगा।

कुश ऐसा करने में तनिक भी विचलित न हुआ। उसका निश्चय अटल था। वो ज़हर ले आया और जैसे ही डिनर तैयार किया उसमें ज़हर मिलाकर लव का इंतज़ार करने लगा। लेकिन देखो ना! लव आज घर आने में देर कर रहा है। शाम गहराती जा रही है और लव के इंतज़ार में कुश अपना सब्र खोता जा रहा है। वो बार-बार किचन जाकर खाने के पतीले को खोलकर उसमें रखा भोजन देख आता और फिर से लव के इंतज़ार में आकर पोर्श में टहलने लगता।

घंटों देरी से जब लव घर आया तो कुश ने उत्सुकता से पूछा- इतनी देर क्यों हो गयी भइया आज? क्या करने लगे थे? मैं कब से इंतज़ार किये जा रहा हूँ!”

अच्छा चलो, तुम्हें खाने के लिए देर हो रही होगी। इसलिए पहले खाते हैं फिर बात करते हैं आराम से। लव ने लगातार घर के भीतर घुसते-घुसते अपने कपड़े उतारते हुए कहा।

मैं थोड़ा फ़्रेश होकर आता हूँ। तुम तब तक खाना लगाओ कहकर लव बाथरूम में घुस गया।

कुश तो कब से इंतज़ार कर रहा था। लिहाजा उसने बिना देर किए फौरन ही खाने को सजाकर फिर से लव के इंतज़ार में बैठ गया। लव ने बाथरूम में बिल्कुल भी देर नहीं लगाई। वो कुछ ही पलों में खाने पर कुश के साथ था। दोनों ने बड़े चाव से भरपेट खाना खाया। लव तो दोपहर से भूखा था। उसने तो थाली चाटकर खाई।

भाई आज तो खाना कुछ ज़्यादा हो गया कुश। चलो चटाई और तकिया ले लो आज छत पर ही सोएँगे और उससे पहले कुछ देर टहल भी लेंगे। लव के इतना कहने पर कुश चटाई और बिस्तर लेकर छत  पहुँच गया और दोनों टहलने लगे।

कुश! लव ने बड़े अपनत्व भाव और तसल्ली भरे स्वर में अपने छोटे भाई को पुकारा।

 “हाँ भइया...

तुझे बताऊँ कि आज मैं इतनी देर से क्यों आया!

हाँ भइया बिल्कुल। बताइए, आपने उस टाइम भी बताते-बताते रह गये थे।कुश ने अपनी ऐसी उत्सुकता ज़ाहिर की कि मानों जीवन के अंतिम क्षण वो सबकुछ जान लेना चाह रहा है।

अब हमें चिंता की कोई बात नहीं है।

मतलब???कुश ने अपनी उत्सुकता बढ़ाई।

मैं आज गाँव गया था। पप्पन पांड़े... हमारे बाप के पास।

पापा से मिलने गए थे आप! क्यों...?” कुश ने नाराज़गी भरे भाव से कहा।

मिलने नहीं कुश। उन्हें मम्मी से मिलाने गया था।

क्या कह रहे हो तुम भइया... कुछ समझा नहीं मैं। बताओ... क्या कह रहे हो? क्या मतलब हुआ इसका? कुश अपने भाई को झकझोरने लगा।

हाँ!!! मैंने पापा को मार डाला कुश। ...मार डाला। उनकी हत्या कर दी। कुश की भुजाओं को पकड़कर लव ने बताया।

क्या...? कैसे...?

लव के ख़ून से सना चाकू निकालकर दिखाते ही कुश अपनी आवाज़ को हाथों से मुँह में दबाकर रोकते हुए तड़प उठा। आँसुओं का सैलाब अपनी आँखों में भरकर कुश छत के ऊपर ख़ुले आसमान को मचल-मचलकर निहारने लगा।

कुश को इतना अधिक विचलित पाकर लव ने उसे पकड़कर अपने सीने से लगा लिया- मुझे माफ़ कर दो कुश। हमारे पास और कोई चारा नहीं था।

 “मुझे माफ़ कर दो भइया। कुश नाक-लार सब एक करते हुए हाथ जोड़कर बोला।

...और इसके बाद किसी ने कुछ न बोला। थकावट से भरे दोनो भाइयों ने आज ख़ुले आसमान के नीचे ही छत पर अपना-अपना बिस्तर लगाया। वो अपने-अपने बिस्तर पर आराम से सो गए एक ऐसी गहरी नींद में कि उन्हें अब सुबह परेशान न करेगी, सूरज उनका माथा न ठनकाएगा, नसूढ़ी शामें उनकी चिंता में इज़ाफ़ा न करेंगी और न ही स्याह रातें उनके कलेजे को अब छलनी ही कर पाएँगी।

बाँभन टोला के पड़ाना में पप्पन पांड़े की छत पर चाँदनी रात में उनके दोनों नौजवान बेटे लव और कुश अपनी माँ को याद करते हुए ऐसा सोए कि फिर वो कभी नहीं उठे।

उधर गाँव में पप्पन पांड़े की लाश तीन दिनों बाद तब मिली, जब वो सड़कर गाँवभर में बदबू करने लगी थी।

(इति।)