∙ अमित राजपूत
(पत्रकार/स्तम्भकार)
दुनियाभर
के लिए आज तीन मई को मीडिया की आज़ादी के जश्न का दिन होता है। इस दिन प्रेस की
आज़ादी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानव अधिकारों की सार्वभौमिकता आदि पर एक बार
फिर से चर्चा होती है, लेकिन नए सिरे से नहीं क्योंकि ना तो इसके कोई उदाहरण देखने
को मिलते हैं और ना ही कोई ख़ासा प्रभाव
कि ये अंदाज़ा ही लगाया जा सके कि कहीं उक्त विषयों के बारे में कहीं कोई गंभीरता
से बात हो रही है। चूँकि जहाँ आज़ादी का प्रश्न है वहाँ यक़ीनन जश्न का माहौल बनता
है या कि बनना चाहिए। लेकिन मीडिया के पास कभी भी इसका जश्न मनाने का कोई स्पष्ट
बिम्ब ही नहीं रहा है। हालाँकि ख़ुद से बेख़बर होकर ख़बर लिखने में जुटे रहने वाले
पत्रकारों के लिए यह एक अच्छा मौक़ा हो सकता है जब वो अपने लिए गंभीरता से विचार
कर सकते हैं और अपने होने मात्र का जश्न मना सकते हैं। यही पत्रकारों के लिए काफ़ी
है, लेकिन वो इसे तक नहीं पाते या पा नहीं पाते या कि पाना नहीं चाहते। प्रश्न
अनेक हैं।
बहरहाल, उक्त बातों पर चिन्तन करने की अलग से ज़रूरत है। फिलहाल आप मीडिया की
आज़ादी के प्रश्न को समझें। इतना तो सभी जानते हैं कि जहाँ कहीं भी आज़ादी की बात
होती है तो इसमें जो मूल चरित्र है वह ग़ुलामी के अस्तित्व का है। आज़ादी ये
दर्शाती है कि कहीं न कहीं ग़ुलामी रही होगी तभी आज हम आज़ादी का जश्न मना रहे
हैं। ऐसे में सवाल ये है कि आख़िरकार मीडिया किसका ग़ुलाम रहा है, जिससे यह आज़ाद
हो गया है और अब ये अपनी आज़ादी का जश्न मना रहा है? कम शब्दों में यदि आप समझना चाहते हैं तो ऐसे समझिए कि चाहे अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता हो या फिर मानव
अधिकारों की सार्वभौमिकता की
बात हो यह एक नागरिक समाज के लिए भी उतना ही अति आवश्यक है जितना की एक पत्रकार के
लिए। पत्रकारों को ग़ुलाम करने वाला कोई नहीं है सिवाय इसके कि वो अपने मौलिक अधिकारों
का ही प्रयोग न कर पायें।
हम सभी जानते हैं कि अपने यहाँ भारत में एक पत्रकार के लिए आम नागरिक को मिलने
वाले अधिकारों से इतर चूँकि कोई अन्य या विशेष अधिकार ही नहीं हैं। इसलिए कम से कम
भारत में प्रेस की आज़ादी का मतलब है कि एक आम आदमी को संविधान में दिये गये अधिकारों
का अनुप्रयोग कर पाना। इसके अनुप्रयोग में आने वाली बाधाएँ संवैधानिक अधिकारों का
हनन हैं। वह भी प्रेस की आज़ादी जैसा कुछ नहीं है। ऐसे में भारतीय प्रेस के अधिकार
तो यहाँ नागरिक समाज के अधिकारों के साथ ही गतिशील हैं। उन्हें थोड़ा विशिष्ट बना
देना ही मैं समझता हूँ आज के परिप्रेक्ष्य में प्रेस को तनिक आज़ादी दे देने जैसा
है और इसके लिए प्रेस को विशेषाधिकार देने का अब वक़्त है।
(लेखक भारतीय जनसंचार
संस्थान, नई दिल्ली के सामुदायिक रेडियो में कार्यक्रम समन्वयक हैं।)
No comments:
Post a Comment