Thursday, 10 September 2020

यह जो दुःख है...

(फ़ाइल फोटो)

मैं गहरे दुःख में हूँ। ईश्वर ने हमारी बेशक़ीमती धरोहर, हमारे रत्न को हमसे छीन लिया है। प्रणब दा सशरीर अब हमारे बीच नहीं रहे। सभी के लिए उनसे सीखने का सौभाग्य सदा के लिए नष्ट हो गया।


"Congratulations the budding celeb writer."
मुखातिब होते ही प्रणब दा ने सबसे पहले मुझे यही कहा था और उत्साह के साथ अपना हाथ आगे बढ़ाकर मुझसे मिलाया था। हालाँकि इससे ठीक पहले मैं उन्हें नब्बे डिग्री झुककर प्रणाम कर उनका आशीर्वाद पा लिया था। इस वक़्त उनके चेहरे पर मर्गों सी धवल और सम्मोहक मुस्कान थी।


सच मानिए, मेरी जगह आप भी होते तो क्षण भर की इस अप्रत्याशित घटना में उदारता, प्रेम और महानता के जो मैंने दर्शन किये थे उनमें ईश्वर की प्रमाणिकता के आप दर्शन कर पाते। आपको मालूम हो पाता कि यक़ीनन महानता का प्रकाश कितना नैसर्गिक और उज्जवलता लिये होता है, जिसके बरक्स आरोपित/बलात् महानता का दंभ कितना थोथा और ग़ैर-टिकाऊ होता है।


बहरहाल, प्रणब दा ने आगे बातें जारी रखीं- वो पुस्तक के बारे में जितना पढ़ पाये थे उससे उन्होंने मुझे कहा 'हमारे ज़माने में (उनकी तरुणाई का समय) भी ऐसा काम कर पाने वाले कम होते थे। इस समय तो कोई करने की सोचता भी नहीं, करने की बात दूर। आपने न सिर्फ़ किया बल्कि बेहतर और अभिनव किया। शाबाश!!" ये उनके अगले शब्द थे। यक़ीन मानिए मैं प्रणब दा कि बातों पर पर कम ग़ौर कर पा रहा था। मैं अवाक् था कि विद्वान, नागरिक-समाज का पहला व्यक्ति, नेतृत्वकर्ता, रत्न और महामहिम इतना नवनीत भी कैसे हो सकता है! मुझमें अब तक वैसा ही संदेह घर कर गया था जो किसी नास्तिक को ईश्वर की मौजूदगी पर होता है।


दादा ने मेरी पुस्तक 'अंतर्वेद प्रवर' के बारे में मसलन उसकी अवधारणा आदि के बारे में अधिक जानना चाहा तो आश्चर्य था कि मैंने उन्हें कोई जवाब ही न दिया। मैं तो उनकी सादगी पर फ़िदा था। उनकी मौजूदगी और हलचलों को observe कर भीतर तक सहेज रहा था। विमोचन के लिए मेरे साथ मौजूद साथियों को दादा के प्रश्न के सामने मेरा नि:शब्द होकर खड़े रहना शायद आश्चर्य कर गया हो, बावजूद इसके चूँकि मेरे साथ सभी बड़े विद्वान, चर्चित और ज़िम्मेदार लोग ही वहाँ थे लिहाजा बात बिगड़ी नहीं।


हुआ यूँ कि दिल्ली स्टाफ़ सेलेक्शन बोर्ड के सचिव बड़े भाई श्री शैलेन्द्र परिहार जी ने सँभाला और दादा की जिज्ञासा पर उन्हें देर तक ब्रीफ़ करते रहे रहे। सच में शैलेन्द्र भइया ने ढंग से और देर तक सँभाला (उन्हें पुस्तक की अवधारणा के बारे में मैंने पूर्व में ब्रीफ़ कर रखा था, केवल उस आधार पर। पुस्तक भइया ने बिल्कुल नहीं, जबकि दादा ने थोड़ी ज़रूर पढ़ रखी थी, जिसके आधार पर वह विमोचन को राजी हुये थे।) था।


ख़ैर, तब तक मेरा ध्यान भंग हो गया था और मैं वहाँ हो रही हरक़तों पर Involve होने की कोशिश करने लगा तो फौरन विज्ञान भवन में इंजीनियर राजीव तिवारी जी ने मुझे झकझोरा और कहा कि 'सर को पुस्तक के बारे में और बताओ यार... तुम बताओ परिहार जी कितना बतायेगे!"


"
बाक़ी सर आगे की पूरी बात लेखक अमित जी आपको स्वयं बतायेगे।" शैलेन्द्र परिहार जी इतना कहते हुये अपनी ब्रीफ़िग की बैटन मुझे थमा दिये। मानों वो इसी मौक़े की तलाश में थे शायद तभी राजीव चाचा जो फुसफुसाकर मुझसे कह रहे थे। उसमें भी उनका कितना गहरा ध्यान था।


इस तरह, मेरी और प्रणब दा की अब चर्चा होती रही। लम्बी हुयी। तब तक उनके व्यक्तित्व ने मुझे बहुत अधिक सहज और उदार कर दिया था...


अब प्रणब दा हमारे बीच नहीं रहे। लेकिन उनकी स्मृतियाँ शेष हैं और उनके तेज़ से भारतवर्ष का लालित्य कभी कम न होगा। मुझ जैसे अनेकानेक जनों को उन्होंने न सिर्फ़ प्रभावित किया है, बल्कि इतनी गहरी अनुभूति भर दी हैं कि उनके अंश को लेकर हम उनके प्रकाश को न कम होने देंगे और न ही उसके सरोकार ही मिटने पायेंगे। उनके सार्वजनिक जीवन में जिन भी भद्रजनों को उन्हें जानने, समझने और आत्मसात करने का मौक़ा मिला है/होगा मैं उनकी आत्मा की सद्गति के ऐसे समय पर उन सभी अनेकानेक भद्र जनों की अनुभूतियों में भी प्रभब दा को प्रणाम करता हूँ।


हे भारत के रत्न! तुम्हारा प्रकाश कभी कम न होगा।
प्रणब दा अमर रहें...

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