आम हो या ख़ास लिखूँगा,
सुबह को सुबह शाम को शाम लिखूँगा।
ढलने दो सूरज को ज़रा और
उलझने तमाम लिखूँगा।।
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जब बीती होरी आग, लगी तन-मन में।
लौ उठ रही धू-धूकर, बढ़त जोबन में।।
है रंग लगा जो गाल, बहुत गहराया।
छुआ किशन ने ऐसा कि, फिर ना छुड़ाया।।
जड़ता में डूबे अधर, गये खिल कैसे।
स्वाति में बूँद पपीहा, पा गया जैसे।।
हरी-भरी भयी छाती, बड़ा सुकून है।
वो कली रही न खिलकर, मस्त प्रसून है।।
महुअन म फूल खिला है, रात शरमाई।
उठी गंध जहाँ मादक, झरत अमराई।।
गगन में तारे टिमटिम, ख़ुले हैं ऐसे।
नवोढ़ा का पट खोला, किसी ने जैसे।।