Sunday, 2 October 2022

साँझ गुलाबी...

 


अर्रे धीमे-धीमे इश्क़ में गुइयाँ शर्माती है।

हाय! इनकी शरारत साँझ गुलाबी कर जाती है।।

 

स्निग्ध लताएँ पक जाती हैं

गुच्छे डलियाँ लद जाती हैं

सौ-सौ बार मरन हो अपना

ऐसा प्रिय-वो मुसकाती हैं

मधुरेचक इतने मँड़राते...

सारी गलियाँ थक जाती हैं।

धीमे-धीमे... (1)

 

बदरे उमड़-घुमड़ करते हैं

जाने क्या बेताबी है

आफ़ताब की चौखट बैठे

मौसम कुछ मेहताबी है

सुन्दर गंध सुहानी इतनी...

जान चली ही जाती है।

धीमे-धीमे... (2)

 

आसमान में आग लगी है

बुझती नहीं बुझती है

जो पीड़ा तपती है मन में

यूँ ही बरन-न जाती है

गिरे झमाझम बारिश ऐसे...

कुल-बगिया सुलगी जाती है।

धीमे-धीमे... (3)

-अमित राजपूत