अर्रे धीमे-धीमे
इश्क़ में गुइयाँ शर्माती है।
हाय! इनकी
शरारत साँझ गुलाबी कर जाती है।।
स्निग्ध लताएँ पक
जाती हैं
गुच्छे डलियाँ लद
जाती हैं
सौ-सौ बार मरन हो
अपना
ऐसा प्रिय-वो मुसकाती
हैं
मधुरेचक इतने
मँड़राते...
सारी गलियाँ थक जाती
हैं।
धीमे-धीमे... (1)
बदरे उमड़-घुमड़ करते
हैं
जाने क्या बेताबी है
आफ़ताब की चौखट बैठे
मौसम कुछ मेहताबी है
सुन्दर गंध सुहानी इतनी...
जान चली ही जाती है।
धीमे-धीमे... (2)
आसमान में आग लगी है
बुझती नहीं बुझती है
जो पीड़ा तपती है मन
में
यूँ ही बरन-न जाती है
गिरे झमाझम बारिश ऐसे...
कुल-बगिया सुलगी जाती
है।
धीमे-धीमे... (3)
-अमित राजपूत
Great Amit ji 😍🥰
ReplyDeleteThanks dear❤️
Deleteबहुत सुंदर लिखा। गज़ब लिखा। जियो जियो।
ReplyDeleteधन्यवाद!❤️🙏
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