यूं तो भारत और योग का संबंध हज़ारों साल से
भी ज़्यादा पुराना है। लेकिन हाल के कुछ दशकों में इसकी लोकप्रियता तथा स्वीकार्यता
तेज़ी से बढ़ी है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यही है कि पुरातन प्रयासों के
समानान्तर आज भी भारतीय ज्ञान की वर्षा सम्पूर्ण विश्व-जगत में हो रही है, भले ही औसतन उसका प्रतिशत कम हो किन्तु निःसंदेह रूप से हमारे योगियों,
ज्ञानियों, ऋषियों और महात्माओं के द्वारा आज
भी उसके पोषण के प्रयास निरन्तर जारी रहते हैं। ऐसे ही प्रयासों में लगातार ख़ुद
को समर्पित करने वाले हैं योग व समाज-सेवा के क्षेत्र में भारत के राष्ट्रपति व
देश-विदेश की अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा सम्मानित योगी अरुण तिवारी जिन्होने
भारत के अलावा संयुक्त राष्ट्र संघ सहित दुनिया के अनेक देशों जैसे श्रीलंका,
यूरोप, स्वीडन, नार्वे,
डेनमार्क, फिनलैंड, लुथवेनिया,
अमेरिका और कनाडा आदि में योग-सुधार कार्यक्रम के माध्यम से हज़ारों
लोगों तक योग को सही रूप में पहुँचाया है। योग को लेकर दुनिया भर में उनके
प्रयासों की पड़ताल कर रहे हैं अमित राजपूत-
आप योग में पार्श्व कुण्डलिनी योग के
स्वामी हैं। योग के छः प्रमुख आयामों राजयोग या आष्टांग योग, हठयोग, लययोग, ज्ञानयोग,
कर्म योग और भक्ति योग में से पार्श्व कुण्डलिनी योग किसके अंतर्गत
समाहित है?
योग की क्रियाओं के नाम यथा पशुवत आसन, वस्तुवत आसन, प्रकृति आसन, अंग
एवं अंगमुद्रासन और योगीनाम आसन उनको वेशभूषित करने के लिए रखे गए हैं या फिर कोई
और कारण हैं?
इनके प्रमाण समझिए, जैसे मयूर है वो सांप को भी पचा लेता है, विष को भी पचा लेता है। तो उस आसन को करने से उसी की तरह हम शक्तिवान भी हो जाते हैं। हमारी पाचक क्षमता बढ़ जाती है। बाद में जब शोध हुआ तो ये साबित भी हुआ कि मयूरासन करने से सबसे ज़्यादा प्रभाव पेट पर पड़ता है। इसे करने से हमारे पेट के अन्दर जो ऑर्गन्स हैं वो सब स्वस्थ हो जाते हैं। मयूर आसन करने से हमारा फेफड़ा बहुत मज़बूत हो जाता है, इससे हमारी पाचक क्षमता बढ़ जाती है। तो हमारे योग ऋषियों ने कहा कि मयूर आसन करने वाला व्यक्ति कुछ भी पचा सकता है, यहां तक कि यदि कोई साधना करे तो वह विष को भी पचा सकता है। इसी तरह भुजंग की आयु का कुछ पता नहीं है, हज़ारों साल तक सांप जीता है। तो भुजंग आसन करने की कोशिश ऋषियों-मुनियों ने की और उसको साधा। और फिर जो परिणाम सामने आया वह यह कि आपकी आयु लम्बी होगी क्योंकि भुजंग आसन करने वाले का हृदय, फेफड़ा और मस्तिष्क इतना मज़बूत हो जाता है कि वह शक्तिशाली अनुभव करता है।
भारतीय योग को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिलते हुए आरम्भिक विश्व योग दिवस को आप किस रूप में देखते हैं?
जवाब- हमारे योग-इतिहास के लिए बड़े गौरव का
प्रश्न हैं। ये हमारे देश के गौरव का विषय हैं। मुझे ख़ुद अपने आप पर ख़ुशी होती
है,
गर्व होता है कि सन् 2013 में मैने संयुक्त राष्ट्र
संघ में पूरे एक घण्टे का योगाभ्यास और व्याख्यान किया जहाँ लगभग 40-45 राष्ट्राध्यक्ष भी उपस्थित थे। योग को लेकर यह यूएनओ के इतिहास में पहली
बार था। तभी मैने देखा कि उन दिनों योग को लेकर यूएनओ में भी एक हवा थी और इसी बीच
भारत से प्रधानमंत्री मोदी जी का प्रस्ताव आया जिसे सभी ने सहर्ष स्वीकार किया और
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रुप में हर भारतीय को गौरवान्वित होने का मौका मिला।
और इसके साथ ही एक बात यह भी है कि पूरी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में योग को
पेटेण्ट कराने की होड़ में लगे हुए लोगों के गाल पर ये एक तमाचा भी सिद्ध हुआ। अब
पूरी दुनिया में एकमत से यह स्वीकार्यता अवश्य बनेगी कि योग भारत की आत्मा की
प्रबलता है।
आपके अनुभवों के आधार पर हमें दुनिया के
दूसरे देशों के लोगों की दृष्टि में बताएं कि वह योग को किस तरह से देखते हैं और
हमारी दृष्टि उनसे किस तरह भिन्न है?
जवाब- सबसे बड़ा अन्तर है सोच का। यहाँ हम
जिसेको भी बोलते हैं कि आप आसन कीजिए और इससे आपको फ़ायदा होगा तो उसमें प्रश्न
नहीं आता कि क्यूँ फ़ायदा होगा, कैसे होगा, कितनी देर में होगा और क्या-क्या नहीं करना चाहिए। भेंड़चाल है। अग़र हमने
दो हज़ार लोगों को यहाँ योग कराया तो उसमें प्रश्न करने वाले सिर्फ़ दस लोग होंगे।
वहीं दूसरे देशों में हमने देखा कि दो हज़ार लोगों में ही लगभग अठारह सौ लोग
प्रश्न पूछने वाले वहां हैं। अगर मैने वहाँ हार्ट के लिए योग बताया तो लोग पूछते
हैं कि मुझे बैक-पेन है तो क्या मैं हार्ट का योग करूँ? यहाँ
ऐसा नहीं है, किसी को हार्ट-पेन है तो वह पूँछेगा नहीं। वहाँ
लोग प्रत्येक आसन का आधार जानना चाहते हैं, लोग तभी कोई योग
करते हैं जब वो लगभग उसके वैज्ञानिक पक्ष को समझते है। इसके अलावा पश्चिमी देशों
में लोग पैदल चलनें में भी सहज हैं। लोग दस किलोमीटर तक पैदल ही चले जाते हैं,
जोकि हमारे यहां पहले होता था लेकिन अब भारत में लोगों ने पैदल चलना
कम कर दिया है।
योग को आध्यात्म से जोड़कर देखना कितना
उचित होगा?
जवाब- देखिए, वास्तव
में योग आध्यात्म के बिना सिद्ध नहीं होता है। इसलिए योग आध्यात्मिक ही है,
आसन एक पड़ाव है। यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार,
धारणा, ध्यान और फिर समाधि ये योग के चरण हैं।
जिन्होंने भी योग प्रस्तुत किया सब समाधि तक अपनी बात को ले गए। तो योग शरीर की
यात्रा करके समाधि तक जाता है। सबसे पहले है आचरण इसलिए यम की स्थापना हुयी। फिर
नियम में व्रत को धारण करना है, जिससे हमारी दिनचर्या
दुरुस्त रहे। इसी तरह आसन से हम अपने तन-मन को साधते हैं। फिर इसी तरह हम क्रमशः
प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान
के माध्यम से समाधि में विलीन होते हैं। तो ये सब पड़ाव पार कर पाना बिना आध्यात्म
के सम्भव ही नहीं है। तभी हमें आत्मबोध हो पाता है। पूरी दुनिया में लोगों ने माना
है कि आध्यात्म के बिना न मन में शान्ति हो सकती है और न हमें लक्ष्य का पता चल
सकता है। इसीलिए सभी धर्मों और संप्रदायों ने आध्यात्म को स्वीकार किया है जिसे
वास्तविक मायने में योग ने पूर्ण किया हु्आ है। आप देखिए, योग
ने हमें जो दिया है वह एक सम्प्रदाय-मुक्त योग दिया है। योग भारतीय-संस्कृति का हो
सकता है किसी धर्म का नहीं और इतनी स्वच्छंदता आध्यात्म के अलावा पूरे ब्रह्माण्ड
में कहीं और नहीं है।
आज लोगों में योग की उपयोगिता के प्रति नज़रिया क्या है? क्या वो कुछ बदल गया है?
जवाब- योग का जो नज़रिया है वह अभी सिर्फ
स्वास्थ्य तक रह गया है। पहले योग साधना-परक होता था। आज योग के नाम पर एक तरह से
जैसे व्यापार सा हो रहा है और दिखावापन आ रहा है। पहले एक गुरू एक शिष्य को योग
सिखाता था। अभी गुरू नहीं सिखा रहा है, एक व्यापारी
योग को बेंच रहा है, बाँट रहा है और बाज़ार में दूसरे
ख़रीददार उसे ख़रीद भी रहे हैं। पैसे देकर योग हो रहे हैं, जिनमें
गुणवत्ता भी नहीं है। लोग दिखावेपन में भूल गए हैं कि योग से शरीर ही नहीं जीवन भी
सधता है। आसन का अर्थ मात्र शरीर को तोड़ना-मरोड़ना ही नहीं है, इससे हमारी चिति भी स्वस्थ होती है। आज योग के क्रम बदल गए हैं। निःसंदेह
योग के प्रति लोगों का नज़रिया बदला है। मै तो यही कहूँगा कि आज यह दिशाहीन हो रहा
है। इसलिए हमें इसके प्रसार के साथ-साथ योग के सही प्रचार की ओर भी ध्यान देना
होगा।
पश्चिमी देशों से 1990 में योग का विकसित रूप भारत आया, जिसे पॉवर-योग कहा गया। यह योग हर योगगुरु अपने मुताबिक कराता है। इसे आप कितना उपयोगी मानते हैं?
जवाब- (थोड़ा सोचकर)
देखिए, पॉवर-योग भी होता है और एक हॉट-योग भी
होता है। पॉवर-योग से मतलब है हमारा जो हठ योग है। वास्तव में पॉवर-योग
आष्टांग-योग का ही एक प्रकार है। और हॉट-योग जो है वह बंद कमरे में तक़रीबन चालीस
डिग्री सेण्टीग्रेट के तापमान में, जहाँ सांस लेना भी दुर्लभ
है वहां किया जात है। पश्चिमी देशों में योग को इंट्रेस्टिंग बनाने के प्रयास के
चलते ये सब विकृतियां आयी हैं। जब ये इंट्रेस्टिंग होता गया तो युवाओं को बड़ा
आकर्षित करने लगा। हॉट-योग करेंगे तो पसीना निकलेगा यही उन युवाओं की धारणा रहती
है। योग से आन्तरिक शान्ति प्राप्त करना है, रोग-मुक्त होना
है ये सब सरोकार उनसे छूटते जा रहे हैं। सही मायने में इसके कोई लाभ नहीं हैं। ये
तनिक भी उपयोगी नहीं हैं। ऐसे ही तमाम योग हैं- ड्रामा-योग होता है। पिलाटे-योग
होता है और हास्य-योग भी होता है। सच में इन्हें योग कहना ही व्यर्थ है, योग से तो तन के साथ-साथ मन, समाज, राष्ट्र और समस्त विश्व स्वस्थ होता है।
छोटे बच्चों के प्रति योग को लेकर तमाम
भ्रांतियाँ रहती है। बच्चे कितने साल की अवस्था से योग का आरम्भ कर सकते हैं?
जवाब- जैसे ही बच्चा जन्म लेता है, किलकारी भरता है तो वह सबसे पहले ब्रीदिंग ही करता है। वह हाथ-पैर हिलाता
है तो कभी अंगूठे को चूसता है, यानी वह अपने और माँ के वियोग
के तुरन्त बाद ही योग से जुड़ जाता है। थोड़ा बड़े होने पर उनको खिंचाव के आसन और
स्थिरता वाले आसन जैसे- वृक्षासन, एकपादासन आदि करवाएं।
बच्चे लम्बी-गहरी साँसें लें और कठिन आसनों को थोड़ा हड्डियाँ मज़बूत होने के बाद
करें। ऐसे आसनों से हल्की उम्र में थोड़ा बचना चाहिए, पाँच
साल तक तो रुकें ही। मयूरासन न करें, भुजंग आसन आदि से बचें।
जिस तरह राम के निशान इस भारतीय
उपमहाद्वीप में जगह-जगह बिखरे पड़े है उसी तरह योगियों और तपस्वियों के निशान
जंगलों,
पहाड़ों और गुफाओं में आज भी देखे जा सकते है। उस परम्परा को
पुनर्जीवित करने के उद्देश्य में आपके क्या प्रयास हैं?
जवाब- जैसे पार्श्व कुण्डलिनी योग की विधा को
लोग नहीं जानते थे, जबकि यह विधा बहुत वैज्ञानिक
है। अमेरिका के अस्पतालों में वहां के डॉक्टरों के साथ मिलकर हम ख़ासकर कैंसर के
मरीजों पर इसका शोध कर रहे हैं। हमें बहुत अच्छे इसके परिणाम मिल रहे हैं। इसके
साथ-साथ अन्य विधाओं को भी हम साथ लेकर उसमें भी शोध कर रहे हैं। अग़र ग़लत रूप
में कहीं कोई ग़लत नाम में योग का प्रसार-प्रचार हो रहा है तो हमारा उन पर भी
ध्यान हैं क्योंकि अग़र इनका मूल रूप लोगों तक नहीं पहुँचेगा तो हम जैसे योगियों
का रहना ही व्यर्थ है। और ये सुधार ही इन ऋषियों-मुनियों के पदचिन्हों पर चलना,
उनकी परम्परा को आगे बढ़ाने में और उन्हें बनाए रखने के लिए आवश्यक
है। इसके अलावा मेरा व्यक्तिगत प्रयास सेना के जवानों को योग का प्रशिक्षण देना
है। मै अब तक अपने भारत देश के दस हज़ार जवानों को योग का प्रशिक्षण देकर स्वयं
गौरव का अनुभव कर रहा हूँ और मैं मानता हूँ कि इससे मेरा एक योगी होना सिद्ध हो
गया।
आप अपनी प्रसिद्धि को किस रूप में
स्वीकारोक्ति देंगे- भारतीय योगगुरू के रूप में, विश्व
प्रसिद्ध युवा योगी के रूप में अथवा एक एनआरआई योगी के रूप में?
जवाब- (मुस्कुराते हुए) एनआरआई नहीं..। मैं हमेशा
और कभी भी ये बात कहूँगा तो यही कहूँगा कि मैं एक भारतीय योगाचार्य ही हूँ। गुरू
के आदेश और अपनी परम्परा के वशीभूत होकर मैं विश्व के दूसरे हिस्सों में योग पर
शोध,
उसको सही रूप में पहुँचाने के अपने प्रयासों और योग के
प्रचार-प्रसार से जुड़ा हूँ। इसके पीछे हमारे ऋषियों-मुनियों का अनुकरण, मेरे गुरू का आशीर्वाद, मेरे बड़े भाई श्री अवधेश
तिवारी का स्नेहिल सहयोग और मेरे सभी भारतीयों की प्रेरणा सदा अपने साथ लिये रहता
हूँ।
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