Thursday, 28 January 2016

आईआईएमसीः स्वर्ण दीक्षांत



आईआईएमसी के 'स्वर्ण-बैच' का दीक्षांत समारोह होना सुनिश्चित हो गया है। लम्बे अरसे के बाद यह फैसला लिया गया है। प्रतीत होता है की आईआईएमसी के स्तम्भ इस क़दर कमज़ोर हो गए हैं कि अब इसे इतराना नहीं आता, उम्मीद है कि कोई सिकन्दर इसे अपना लक्ष्य भी बना बैठे।
आलम यह है कि एक तो इननी लतीफी के बाद दीक्षांत समारोह होना सुनिश्चित हो पाया हो, उसमें भी पंगु प्रशासन ने किसी क़ायदे के मुख्य अतिथि को आमंत्रित कर पाने में अपनी असफलता का परिचय दिया है। उम्मीद यह भी है कि शायद संस्थान में मतैक्य न होने से इसकी शक्तियां बिखरी पड़ी हैं, जिसका परिणाम हमारे सामने दिख रहा है कि जहां स्वर्ण दीक्षांत में माननीय प्रधानमंत्री या महामहिम राष्ट्रपति के बतौर मुख्य अतिथि आने के बजाय उसके मंत्रालय के एमओएस से ही काम चलाया जा रहा है, केन्द्रीय मंत्री तक भी अब इनकी संप्रेषण-शक्ति नहीं रही या फिर ये कहें कि हमने तो कहा था वो हमारी सुने ही नहीं। मुझे लगता है कि राज्यमंत्री भी शायद इसलिए चले आ रहे हैं कि उनका आवास वहीं पड़ोस में बसन्त कुंज में है वरना... हे भगवान!
बेहतर होता कि आप आईआईएमसी की धरोहर को ही तवज्जो देते। एमओएस से ठीक तो यही था कि आप हमारे किसी बेहतरीन पुरा छात्र को ही बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित कर लेते, विदित है कि संस्थान के पुरा छात्र इस पद को संभाल पाने में एक एमओएस से काफी खरे हैं। निश्चित है कि यह स्वर्ण-बैच अपने अभिभावक से यह सम्मान पाकर गर्व का अनुभव करता। लेकिन आपने तो ऐसी स्तरहीनता दिखाई है कि मन खिन्न हो गया है। उत्साह जाने किस लोक में जा दुबका है कि उसे ढूढ़ने जाने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहे हैं हम।
यही प्रक्रिया होती है किसी संस्थान की गुणवत्ता और उसके अतीत या वर्तमान के उन्माद पर दीमक लगने की। ज़िम्मेदार कौन-कौन..?? आत्म मन्थन का वक़्त शेष है।
सादरः एक आईआईएमसिएन।


Tuesday, 19 January 2016

उभरती अयोध्या का आग़ाज़


अयोध्या.. यानी श्री राम जन्मभूमि स्थल। जी हाँ, यद्यपि श्री राम की जन्मस्थली अयोध्या आए दिन चर्चा और विवादों का विषय बनी रहती है। तथापि यह व्यक्तिगत मेरे लिए किसी विवाद का विषय नहीं है और न ही हो सकता है। प्रमाण स्वरूप मैने आलेख के आरम्भ में ही अयोध्या को श्री राम जन्मभूमि स्थल मान लिया है। वास्तव में कथित श्री राम जन्मभूमि विवाद ठीक उसी तरह है जैसे इस बात को सिद्ध करना हो कि तुम्हारा बाप कौन है और तुम घर के किस स्थान/कमरे में पैदा हुए थे, जबकि तुम्हारी माता और वह घर सब कुछ सप्रमाण सुरक्षित हो और जानबूझ कर आवश्यक कार्यवाई या प्रक्रियाबद्ध जांच न की जाए जो कि सरलतम प्रक्रिया का हिस्सा है। सारशः यह सिद्ध करना ही अपने आप में दकियानूसी फसाद है। श्री राम जन्मभूमि मन्दिर के निर्माण का विवाद भी ऐसा ही दकियानूसी फसाद है।
वास्तव में मन्दिर निर्माण के साथ ही हमारी पारम्पिक शिक्षा व्यवस्था, योग व आध्यात्म आदि की व्यवस्था दुबारा स्थापित हो सकेगी। हांलाकि मन्दिरों को नष्ट करने के पीछे संस्कृति विनष्ट करने की मुस्लिम आक्रान्ताओं की चेष्ठा थी। फिर भी आख़िरकार यह विवाद छिड़ा ही सही, तब भी इसका निबटारा जाने कब के हो जाता, लेकिन इससे जुड़े तमाम पक्ष, विपक्ष और ढेरों वैधानिक व गैर-वैधानिक या कथित भावनाओं से लब्धप्रद जनों की बदौलत यह विवाद आज तक विवाद ही बना रहा, इसमें मुस्लिम समुदाय से ज़्यादा इस विवाद को बढ़ाने में तथाकथित सेक्युलरों की भूमिका अव्वल रही है।
इस श्री राम जन्मभूमि मन्दिर विवाद के मूल इतिहास पर एक नज़र डालें तो हमें साफ़ दिखता है कि सन् 1527 ई. में मुस्लिम शासक बाबर फरगना से भारत आया था। उसने चित्तौड़गढ़ के हिंदू राजा राणा संग्राम सिंह को फ़तेहपुर सीकरी में परास्त कर दिया। बाबर ने अपने युद्ध में तोपों और गोलों का इस्तेमाल किया। जीत के बाद बाबर ने इस क्षेत्र का प्रभार मीर बांकी को दे दिया, जो बाबर की सेना का कमॉण्डर इन चीफ़ भी था। मीर बांकी ने उस क्षेत्र में मुस्लिम शासन लागू कर दिया। उसने आम नागरिकों को नियंत्रित करने के लिए आतंक का सहारा लिया। मीर बांकी सन् 1528 ई. में अयोध्या आया और राज्य के प्रतीक एवं प्रजा की आस्था के केन्द्र श्री राम मंदिर को तोड़कर मस्ज़िद बनवाया।
इससे पहले मस्ज़िद में नमाज अता करने वाले मुसलमानों का भारत में कोई और इतिहास व प्रमाण है ही नहीं। यानी यदि यह प्रमाण हो कि यहां श्री राम जन्मभूमि मन्दिर था तो फिर इस मस्ज़िद सहित तमाम मस्ज़िदों पर प्रश्न चिह्न तो खड़ा ही हो सकता है। मीर बांकी का इतिहास तो सबके सामने ही है। इसके अलावा जितने भी मध्यकाल के इतिहासकार हैं वो सभी एक स्वर में ये कहते हैं कि यहां श्री राम जन्मभूमि में जो बाबरी मस्ज़िद बनाई गई है वो मन्दिर को तोड़ कर बनाई गई है। और पहला सर्वे जो अंग्रज़ों के द्वारा हिन्दुस्तान में किया गया वो सन् 1838 ई. में मार्ट गुमरी ने सर्वे जनरल ऑफ़ इण्डिया के नाम से किया था, जिसमें उन्होने अयोध्या को भारत की कुछ प्रमुख नगरियों में शामिल किया है और श्री राम जन्मभूमि मन्दिर की भव्यता का वर्णन करते हुए उसके तमाम प्रमाण दिए हैं। साथ ही नवजीवन के भीतर गांधी जी ने भी इन तमाम मस्ज़िदों को जो मन्दिरों को तोड़कर बनाई गई हैं उन्हें मुग़ल काल की ग़ुलामी का प्रतीक मानते हैं। और इसके अलावा भी जिसे अन्य तमाम प्रमाणों का अम्बार चाहिए तो वह अरुंधती वशिष्ठ अनुसंधान पीठ या फिर विश्व हिन्दू परिषद से निजी तौर पर प्रमाण मांग सकता है। ज़ाहिर है कि तब ऐसे में अयोध्या में किसी कथित बाबरी मस्ज़िद का प्रश्न ही नहीं है।
वास्तव में यही कारण रहे होंगे कि हमें 20वीं शताब्दी के अन्तिम दशक की शुरुआत के पहले-पहले भारतीय अस्मिता और सनातन संस्कृति के केन्द्र अयोध्या पर अवस्थित श्री राम जन्मभूमि मन्दिर के पुनर्जागरण हेतु लोगों के मन में उपज रही चेतना के प्रमाण भी मिलने शुरू हो गए थे, जब 30 जनवरी 1990 को हज़ारों रामभक्तों ने मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा खड़ी की गई अनेक बाधाओं को पार कर अयोध्या में प्रवेश किया और विवादित ढांचे के ऊपर भगवा ध्वज फहरा दिया। इसके बाद 2 नवम्बर 1990 को मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया, जिसमें कोलकाता के राम कोठारी और शरद कोठारी (दोनों भाई) सहित अनेक रामभक्तों ने अपने जीवन की आहुतियां दे दीं।
इन सबके परिणाम स्वरूप समय आया था एक ऐतिहासिक रैली का जब 4 अप्रैल 1991 को दिल्ली के वोट क्लब पर अभूतपूर्व रैली हुई। इसी दिन तब तक कारसेवकों के हत्यारे समझे जाने वाले उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने इस्तीफा दिया था। मुलायम सिंह के इस्तीफ़े के बाद श्री राम भक्तों के हृदय में उल्लास का भाव पैदा हो गया था और सितम्बर, 1992 में भारत के गांव-गांव में श्री राम पादुका पूजन का आयोजन किया गया और गीता जयंती (6 दिसम्बर 1992) के दिन रामभक्तों से अयोध्या पहुंचने का आह्वान किया गया। फलस्वरुप लाखों राम भक्त 6 दिसम्बर को कारसेवा हेतु अयोध्या पहुंचे और श्री राम जन्मस्थान पर बाबर के सेनापति द्वारा बनाए गए अपमान के प्रतीक मस्ज़िदनुमा ढांचे को ध्वस्त कर दिया।
निःसंदेह हमारे सुशासन और एकता के प्रतीकों के पुनरुद्धार के लिए जब-जब चेतना जन्म लेती है तो कुछ बिखराव अवश्य होता है, क्योंकि हमारे समाज में उन ग़ुलामियों के पैरौकार भी कुछ हद तक ज़रूर बसे होते हैं, शायद जिन्हें अपनी जड़ों से स्नेह नहीं होता है। लिहाजा अब आज स्थित यह है कि हिन्दू समाज के लोग एवं अधिग्रहण की मानसिकता से परे अपने प्रतीकों को पहचानने वाले कथित मुसलमानों का एक बड़ा समुदाय बाबर के उस आतंक के प्रतीक को समाप्त कर पुनः श्री राम मन्दिर के भव्य निर्माण की मंशा रखता हैं और रही बात अयोध्या में मुसलमानों के नमाज अता करने की तो उसके लिए भी यह राष्ट्रवादी भावों से भरा मंतव्य यह मनन करता है कि भारत का एक भी मुसलमान भारतीय माटी को हड़प कर बनाए गए मस्ज़िद में अपनी नमाज नहीं पढ़ेगा। इसलिए भारतीय ख़ुशबू को महसूस करने वाले मुसलमानों के लिए भी श्री राम मन्दिर निर्माण के लिए आगे आने वाले कंधे सरयू नदी के उस पार अपने हाथों से पाक मस्ज़िद का निर्माण करवाएंगे और उसी में हमारे मुसलमान अपनी नमाजें अता करेंगे न कि बाबरी में। इसके अलावा भी इस्लाम स्वयं बाबरी मस्ज़िद को नापाक और नमाज अता न करने योग्य स्थल मानता है क्योंकि इस्लाम की मान्यताओं के अनुसार ज़ोर-ज़बरदस्ती से प्राप्त की गई भूमि पर पढ़ी गई नमाज अल्लाह स्वीकार नहीं करते हैं और न ही ऐसी सम्पत्ति अल्लाह को समर्पित (वक़्फ) की जा सकती है। किसी मन्दिर को विध्वंस करके उसके स्थान पर मस्ज़िद के निर्माण करने की अनुमति कुरआन व इस्लाम की मान्यताएं नहीं देती। यानी आप जब तक भूमि के स्वामी नहीं हैं तब तक कोई भी भूमि किसी को कैसे सौंप सकते हैं। बाबर भूमि का स्वामी नही रहा है। इसलिए वह भूमि जिस पर मस्ज़िदनुमा ढांचा (बाबरी) बना है, उसे उसके मूल रूप को प्राप्त करना ही होगा।
लेकिन संकट यहां हैं कि इसे दकियानूसी चोला पहनाकर कोर्ट और मुक़दमेबाजी के फेर में उलझा दिया गया है जो अपने आप में दुनिया का एक रोमांचक मुक़दमा बन गया है। इसके केस पर दृष्टिपात करके देखें तो अब तक मिली सूचना के अनुसार अयोध्या पर मुक़दमा 60 साल से अधिक समय तक चला। माना जा रहा है कि यह अपने आप में पहला ऐसा संवेदनशील मुक़दमा रहा जिसको निपटाने में इतना लम्बा समय लगा। इसमें कुल 82 गवाह पेश हुए। हिन्दू पक्ष की ओर से 54 गवाह और मुस्लिम पक्ष की ओर से 28 गवाह पेश किये गये। हिन्दुओं की गवाही 7128 पृष्ठों में लिपिबद्ध की गयी जबकि मुसलमानों की गवाही 3343 पृष्ठों में कलमबद्ध हुई। पुरातात्विक महत्व के मुद्दों पर हिन्दुओं की ओर से चार गवाह और मुसलमानों की ओर से आठ गवाह पेश हुए। इस मामले में हिन्दू पक्ष की गवाही 1209 तथा मुस्लिम पक्ष की गवाही 3211 पृष्ठों में दर्ज की गयी। हिन्दुओं की ओर से अन्य सबूतों के अलावा जिन साक्ष्यों का संदर्भ दिया गया उनमें अथर्ववेद, स्कन्द पुराण, नरसिंह पुराण, बाल्मीकि रामायण, रामचरित मानस, केनोपनिषद और गजेटियर आदि हैं। मुस्लिम पक्ष की ओर से राजस्व रिकार्डों के अलावा बाबरनामा, हुमायूंनामा, तुजुक-ए-जहांगीरी, तारीख़-ए-बदायूंनी, तारीख़-ए-फ़रिश्ता, आइना-ए-अकबरी आदि का हवाला दिया गया। पूरा फैसला 8189 पृष्ठों में समाहित है। फिर भी इसका केस अभी करीब 60 सालों (ज़िला न्यायलय में 40 साल और उच्च न्यायलय में 20 साल) के बाद भी मुसलिमों द्वारा चुनौती देने के बाद उच्चतम न्यायलय में पिछले पांच सालों से भी अधिक समय से अंटका पड़ा है।
बावजूद इसके भी यदि हम श्री राम जन्मभूमि मन्दिर के वर्तमान स्वरूप को निहारें तो यह स्थिति है कि आज इसके वर्तमान स्वरूप में कारसेवकों द्वारा तिरपाल की मदद से अस्थायी मंदिर का निर्माण किया गया। यह मंदिर उसी स्थान पर बनाया गया है जहां ध्वंस से पहले श्री रामलला विराजमान थे। श्री पी.वी.नरसिंह राव के नेतृत्व वाली तत्कालीन केन्द्र सरकार के एक अध्यादेश द्वारा श्रीरामलला की सुरक्षा के नाम पर लगभग 67 एकड़ जमीन अधिग्रहीत की गई। यह अध्यादेश संसद ने 7 जनवरी 1993 को एक कानून के जरिए पारित किया था। इसे पहले ही भक्तों द्वारा श्री रामलला की दैनिक सेवा-पूजा की अनुमति दिए जाने के संबंध में अधिवक्ता श्री हरिशंकर जैन ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में याचिका दायर की। 1 जनवरी 1993 को अनुमति दे दी गई। तब से दर्शन-पूजन का क्रम लगातार जारी है।
चूंकि 7 जनवरी 1993 को तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने संविधान की धारा 143(ए) के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय से अपने एक प्रश्न का उत्तर चाहा था। उनका प्रश्न था कि अयोध्या में बाबरी मस्ज़िद जिस स्थान पर खड़ी थी, उस स्थान पर इसके निर्माण के पहले कोई हिन्दू धार्मिक भवन अथवा कोई हिन्दू मन्दिर था, जिसे तोड़कर वह ढाँचा खड़ा किया गया?”
सर्वोच्च न्यायालय ने उपर्युक्त प्रश्न पूछने का कारण सरकार से जानना चाहा था, तब भारत सरकार के सॉलिसीटर जनलर ने 14 सितम्बर 1994 को एक शपथ-पत्र के माध्यम से केस [(1994) 6 SCC 383: इस्माईल फ़ारुखी बनाम भारत सरकार] के हवाले से कहा था कियदि महामहिम राष्ट्रपति द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर सकारात्मक आता है अर्थात् एक हिन्दू मन्दिर/भवन को तोड़कर विवादित भवन बनाया गया था तो भारत सरकार हिन्दू समाज की भावनाओं के अनुसार कार्य करेगी। यदि इसके विपरीत प्रश्न का उत्तर नकारात्मक आता है अर्थात् कोई हिन्दू मन्दिर/भवन सन् 1528 ई. के पहले वहां था ही नहीं तो भारत सरकार का व्यवहार मुस्लिम समाज की भावनाओं के अनुसार होगा।
सर्वोच्च न्यायलय ने इसकी करीब 20 महीने सुनवाई की और 24 अक्टूबर 1994 को अपने निर्णय में कहाइलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ विवादित स्थल के स्वामित्व का निर्णय करेगी और राष्ट्रपति द्वारा दिए गए विशेषरेफरेंस का जवाब देगी। लिहाजा लखनऊ खण्डपीठ में तीन न्यायमूर्तियों की पूर्ण पीठ ने 1995 में मामले की सुनवाई की। मुद्दों का पुनर्नियोजन किया गया। मौखिक साक्ष्यों को रिकॉर्ड करना शुरू किया गया। इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए अगस्त, 2002 में राष्ट्रपति के विशेष रेफरेंस का सीधा जवाब तलाशने के लिए उक्त पीठ ने उक्त स्थल पर ग्राउण्ड पेनेट्रेटिंग रडार सर्वे का आदेश दिया जिसे कनाडा से आए विशेषज्ञों के साथ तोजो विकास इंटरनेशनल द्वारा किया गया। अपनी रिपोर्ट में विशेषज्ञों ने ध्वस्त ढांचे के नीचे बड़े क्षेत्र तक फैले एक विशाल ढांचे के मौजूद होने का उल्लेख किया जो वैज्ञानिक तौर पर साबित करता था कि बाबरी ढांचा किसी खाली जगह पर नहीं बनाया गया था, जैसा कि सुन्नी वक़फ बोर्ड ने दिसम्बर, 1961 में फैजाबाद के दीवानी दंडाधिकारी के सामने दायर अपने मुक़दमे में दावा किया है। विशेषज्ञों ने वैज्ञानिक उत्खनन के जरिए जीपीआरएस रिपोर्ट की सत्यता हेतु अपना मंतव्य भी दिया।
सिर्फ़ इतना ही नहीं सन् 2003 में उच्च न्यायालय ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को वैज्ञानिक तौर पर उस स्थल की खुदाई करने और जीपीआरएस रिपोर्ट को सत्यापित करने का आदेश दिया। अदालत द्वारा नियुक्त दो पर्यवेक्षकों (फैजाबाद के दो अतिरिक्त ज़िला दंडाधिकारी) की उपस्थिति में खुदाई की गई। संबंधित पक्षों, उनके वकीलों, उनके विशेषज्ञों या प्रतिनिधियों को खुदाई के दौरान वहां बराबर उपस्थित रहने की अनुमति दी गई। निष्पक्षता बनाए रखने के लिए आदेश दिया गया कि श्रमिकों में 40 प्रतिशत मुस्लिम होंगे। परिणाम यह आया कि फोटोग्राफी रिपोर्ट और उत्खनन रिपोर्ट दोनों ने ही ढाँचे के नीचे एक विशाल हिन्दू मन्दिर होने की बात स्वीकार की। इन्ही वैज्ञानिक रिपोर्टों के आधार पर न्यायाधीशों ने लिखा है कि-

विवादित ढाँचा किसी पुराने भवन को विध्वंस करके उसी स्थान पर बनाया गया था। पुरातत्व विभाग ने यह सिद्ध किया है कि वह पुराना भवन कोई विशाल हिन्दू धार्मिक स्थल था।
(न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा)

तीन गुम्बदों वाला वह ढाँचा किसी खाली पड़े बंजर स्थान पर नहीं बना था बल्कि अवैध रूप से एक हिन्दू मन्दिर/पूजा-स्थल के ऊपर खड़ा किया गया था।
(न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल)

प्रत्यक्ष साक्ष्यों के आधार पर यह सिद्ध नहीं किया जा सका कि निर्मित भवन सहित सम्पूर्ण विवादित परिसर बाबर अथवा इस मस्ज़िद को निर्माण कराने वाले व्यक्ति अथवा जिसके आदेश से यह भवन बनाया गया, उसकी सम्पत्ति है।
(न्यायमूर्ति एस. यू. ख़ान)

उक्त तीनों माननीय न्यायाधीशों ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि जो विवादित ढांचा था वह एक बड़े भग्नावशेष पर खड़ा था। न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने कहा कि वह 12वीं शताब्दी के श्री राम मंदिर को तोड़कर बनाया गया था, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने कहा कि वह किसी बड़े हिन्दू धर्मस्थान को तोड़कर बनाया गया और न्यायमूर्ति ख़ान ने कहा कि वह किसी पुराने ढांचे पर बना। इसके अलावा न्यायमूर्ति ख़ान का उक्त निष्कर्ष विवादित भवन के वक़्फ होने पर भी प्रश्न चिह्न लगाता है।
इसलिए अब श्री राम मन्दिर के निर्माण में हो रही देरी को देखते हुए पुनः जनजागरण हेतु 30 मई 2013 को सन्तों का प्रतिनिध मण्डल भारत के महामहिम राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी से मिला और उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ द्वारा 30 सितम्बर 2010 को दिए गए निर्णय से अवगत कराया। जिसमें न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने स्पष्ट लिखा है कि विवादित स्थल ही भगवान राम का जन्मस्थान है। जन्मभूमि स्वयं में देवता है और विधिक प्राणी है। जन्मभूमि का पूजन भी रामलला के समान ही दैवीय मानकर होता रहा है और हर समय होता रहता है और यह भाव किसी भी व्यक्ति को किसी भी रूप में भक्त की भावनाओं के अनुसार प्रेरणा प्रदान करता है। देवत्व का यह भाव निराकार में भी हो सकता है।
न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने कहा कि हिन्दुओं की श्रृद्धा व विश्वास के अनुसार विवादित भवन के मध्य गुम्बद के नीचे का भाग भगवान श्री राम की जन्मभूमि है।
वहीं न्यायमूर्ति एस.यू. ख़ान ने स्पष्ट किया कि यह घोषणा की जाती है कि आज अस्थाई मन्दिर में जिस स्थान पर रामलला का विग्रह विराजमान है वह स्थान हिन्दुओं को दिया जाएगा।
यद्यपि मुस्लिम नेताओं ने भारत सरकार द्वारा जारी किए गए श्वेत पत्र में क्रमांक 2.1, 2.2 व 2.3 के अनुसार सरकार को वचन दिया था कि ..यदि मन्दिर तोड़कर मस्ज़िद बनाने की बात सही पाई जाती है तब मुस्लिम स्वेच्छा से इस विवादित स्थल को हिन्दुओ को सौंप देंगे। जबकि मुस्लिम अगुवाकारों ने इसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के द्वारा 30 सितम्बर 2010 को दिए गए फैसले के बाद पुनः सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे डाली। इसके अलावा उन्होने न सिर्फ़ चुनौती दी बल्कि कहा कि कोर्ट का फैसला हमारे पक्ष में नहीं आता तो भी हम देख लेंगें। हांलाकि इन्हें चाहिए यह था कि मुस्लिम समाज अपने द्वारा सरकार को दिए गए वचन का पालन कैसे करे इस पर विचार करें और स्वेच्छा से यह स्थान हिन्दू समाज को सौंप दें एवं भारत सरकार भी अपने शपथ-पत्र का पालन करे और जन-भावनाओं का आदर करते हुए सम्पूर्ण 70 एकड़ भूमि श्री राम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण हेतु हिन्दू समाज को सौंप दें। लेकिन सितम्बर 2010 के फैसले के बाद न तो सरकार ने इस मामले का संज्ञान लेकर न्यायलय को चेताया और न स्वयं न्यायालय ने ही इसे राष्ट्रहित में ध्यान रखकर इसका जल्द निपटारा किया। लिहाजा अयोध्या के उभरने का अभी इंतज़ार बाकी ही था।

परिणाम स्वरूप वास्तव में उभरती अयोध्या के आग़ाज़ का स्वर्णिम समय हाल ही में देखने को मिला जब दिनांक 9 व 10 जनवरी 2016 को अरुंधती वशिष्ठ अनुसंधान पीठ द्वारा दिल्ली विश्वविद्यालय में श्री राम जन्मभूमि मन्दिरः उभरता परिदृश्य विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गयी। इस संगोष्ठी की प्रस्तावना अनुसंधान पीठ के संयोजक डॉ. चन्द्र प्रकाश सिंह के द्वारा रखी गई। उन्होने कहा कि नीतियों के निर्माण के कार्य पूरी तरह से शासन या राज्य के कंधों पर ही नहीं छोड़ देने चाहिए। इस काम को शासन या राज्य के साथ-साथ विश्वविद्यालयों के विद्वानों एवं शोधार्थियों को भी करना होगा।
इसीलिए अबकी बार इस श्री राम जन्मभूमि मुद्दे पर पहली बार साफ़ तौर पर यह देखने को मिलता है कि इसकी प्रक्रिया को संस्थागत रुप दे दिया गया है, जो कि एक बौद्धिक राष्ट्र के लिए आवश्यक था। इस मुद्दे को संस्थागत रूप देने से निश्चित है कि अब तक इस पर होने वाली राजनीति पर भी काफ़ी हद तक अंकुश लग सकेगा। इस पर पीठ का भी साफ़ कहना है कि श्री राम जन्मभूमि का प्रकरण एक राष्ट्रीय मुद्दा है। शताब्दियों से यह भारतीय समाज को प्रभावित करता रहा है। विगत तीन दशकों से भारत की समाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना व्यापक रूप से इससे प्रभावित रही है। हम विरोध करने वालों से पूछना चाहते हैं कि ऐसे मुद्दे के ऐतिहासिक, पुरातात्विक एवं विविध पहलुओं की चर्चा यदि विश्वविद्यालयों में नहीं हो सकती तो और कहाँ होगी?


ये एक तथ्यपरक ऐतिहासिक, पुरातात्विक और विधि विषयों पर एकेडमिक संगोष्ठी थी। मुझे बड़ा आश्चर्य है जैसे इसका कुछ विरोधी वाम छात्र संगठनों ने विरोध किया और नारेबाजी की, लिहाजा हमें एक बड़ी सुरक्षा घेरे में इसे सम्पन्न करना पड़ा। जब कि यही लोग इससे पूर्व में दिल्ली विश्वविद्यालय में बटला हाउस एनकाउंटर में संसद जैसे हमले के संदिग्ध गिलानी को बुलाकर सेमिनार आयोजित करते हैं और उसमें महेश चंद्र शर्मा शहीद नहीं है ऐसा कहा जाता है, साथ ही आतंकवादियों को सम्मानित व्यक्ति बताया जाता है। एक अन्य सेमिनार में कहा जाता है कि हिन्दुस्तान की सेना दुनिया की सबसे क्रूरतम सेना है। यहाँ ऐसे सेमिनार आयोजित होते हैं जो सीधे देश के संविधान को ही नहीं देश की एकता और अखंडता को नष्ट करने की बात करते है, लेकिन विश्वविद्यालय में श्री राम जन्मभूमि के उभरते परिदृश्य विषय पर केंद्रित सेमिनार का विरोध हो रहा है। राष्ट्र के मानक इस तरह बदलना दुर्भाग्यपूर्ण है।
अजीत प्रताप सिंह
शोधार्थी, अरुंधती वशिष्ठ अनुसंधान पीठ


अपनी संस्थागत बहसों और विधायी शस्त्रों से युद्ध लड़ने के लिए विख्यात डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी इस पीठ के अध्यक्ष हैं। पीठ के संयोजक डॉ. चन्द्र प्रकाश सिंह और अध्यक्ष डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी की जुगलबंदी ही इस दफ़ा उभरती अयोध्या के आग़ाज़ के मुख्य नायक के तौर पर सामने आए हैं। हांलाकि एक बड़े विरोध के बावजूद इस संगोष्ठी में कुल 3200 लोग दिल्ली विश्वविद्यालय में शामिल हुए थे, जिनमें से देशभर के तमाम विश्वविद्यायों से 525 शिक्षक एवं शोधार्थियों ने भाग लिया। 26 लोगों को समयाभाव के बावजूद भी अपने शोधपत्र प्रस्तुत करने का मौका मिला। वास्तव में इस तरह की संस्थागत संगोष्ठियों में सहमत और असहमत दोनों पक्षों के लोगों को अवश्य भाग लेना चाहिए ताकि किसी संश्लेषण की प्रप्ति की जा सके।
वास्तव में संगोष्ठी कई मायनों में ऐतिहासिक व लाभदायक रही। इस संगोष्ठी के दूसरे दिन के प्रथम सत्र उत्खनन एवं पुरातात्विक साक्ष्य में विषय का प्रतिपादन करते हुए अधिवक्ता श्री मदनमोहन पाण्डेय ने जीपीआरएस रिपोर्ट, आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इण्डिया, कार्बन डेटिंग की रिपोर्टों द्वारा प्राप्त निष्कर्षों को सामने रखते हुए यह बताया कि ध्वस्त मन्दिर के अवशेष 10वीं सदी या उससे पहले के हैं। उत्खनन के दौरान उत्तर दिशा से प्राप्त गोलाकार लाईन की बात हो या कसौटी पीलर आदि अवशेषों से प्राप्त निष्कर्षों को सामने रखते हुए उन्होंने उपरोक्त स्थान पर एक भव्य मन्दिर होने के प्रमाण को पुष्ट किया। पुरातत्वविद् एवं छत्तीसगढ़ सरकार के पुरातात्विक सलाहकार डॉ. अरुण कुमार शर्मा ने स्पष्ट किया कि विवादित ढाँचा मस्ज़िद होने के लिए आवश्यक शर्तों को पूरा नहीं करता था। न तो वहाँ मीनारें थीं और न ही वहाँ वजू करने का स्थान या टैंक ही था। विवादित ढाँचे में पाए गए स्थापत्य भी हिन्दू मन्दिर होने के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। शिलालेख के अनुवादित पाठ को स्पष्ट करते हुए शर्मा जी ने बताया कि विवादित स्थान पर 11वीं सदी के गहड़वाल वंश के राजा ने मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया था।
सच्चाई यह है कि उक्त प्रमाण-खण्ड प्रमाण के तिनके मात्र हैं। वास्तव में जो भी जन इस संगोष्ठी का हिस्सा रहा है उसने प्रमाणों का दरिया देखा है। तो अब सवाल यह है कि आख़िरकार इतने प्रमाणों के साक्ष्य होते हुए भी फिर श्री राम मन्दिर का भव्य निर्माण अब तक क्यूं नहीं हो सका। निःसंदेह अब तक इस पर भारी राजनीति हुई है और आगे भी होने की सम्भावना है। प्रमाण देखिए, संगोष्ठी के सम्पन्न होने के महज चौथे दिन ही अवस्थित अरुंधती अनुसंधान पीठ के पड़ोसी ज़िले फ़तेहपुर के जहानाबाद क़स्बे में जो कि खाद्य एवं प्रसंस्करण राज्य मंत्री निरंजन ज्योति का संसदीय क्षेत्र है और जहानाबाद क़स्बे में ही उनका निवास स्थान भी है, मकर संक्रन्ति के अवसर पर श्री राम जन्मभूमि मन्दिर के प्रारूप की शोभायात्रा निकल रही थी और उस पर मुसलमानों ने पत्थरबाजी कर दी जिससे दंगा भड़क गया। परिणामतः कुछ दुकानें और गाड़ियाँ आगजनी का शिकार भी हुईं। यह कोई स्वाभाविक घटना नहीं थी। जानकार इसे पूर्णतः राजनीति से प्रेरित मानते हैं। माने मन्दिर पर फिर से राजनीति। ये घटना उत्तर प्रदेश सरकार के साथ-साथ निरंजन ज्योति पर भी एक प्रश्न चिह्न खड़ा करती है कि उनके गृहनगर में ही श्री राम मन्दिर को लेकर ऐसी घटना कैसे घटी? इसके अलावा इस घटना को सीधे तौर पर डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी और डॉ. चन्द्र प्रकाश सिंह के माथे पर चिन्ता की लकीर बन जानी चाहिए क्योंकि इसमें कोई संहेद नहीं है कि ऐसी घटनाएं उनके श्री राम जन्मभूमि मन्दिर को लेकर किये जा रहे संस्थागत प्रयासों पर सीधे अवरोध का काम करेंगी। ऐसे में पीठ को भी ऐसी घटनाओं पर संवेदनशील होना चाहिए। साथ ही मन्दिर निर्माण के लिए ज़रूरी यह भी है कि इस पर होने वाली राजनीति की सारी सम्भावनाओं के द्वार जल्द से जल्द बंद कर दिए जाएं, जो कि काफी हद तक संस्थागत प्रयासों से ही सम्भव है।


जहानाबाद की घटना पूरी तरह से प्रशासन की लापरवाही का नतीजा है। मकर संक्रान्ति पर हर साल यहां श्री राम मन्दिर की रथयात्रा निकलती है। पिछले साल भी लगभग एक लाख लोगों ने इसमें हिस्सा लिया था, तो इसको देखते हुए प्रशासन ने अपनी तैयारियां क्यूं नहीं की। चूंकि उत्तर प्रदेश सरकार में सूबे की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है इसलिए आगामी चुनावों को देखते हुए यह सरकार जानबूझकर मेरे संसदीय क्षेत्र में इस तरह की घटनाओं को अंजाम दे रही है, जिससे हमारी छवि ख़राब हो। इस घटना में भी सपा का नगर अध्यक्ष प्रशासन के साथ मिला हुआ था क्योंकि हमें वहां जाने से रोका गया है और सपा के लोगों ने ही अगुवाई करके इसे फैलने दिया। श्री राम मन्दिर से जुड़े मुद्दे न्यायालय से सम्बंधित हैं और हमें धैर्य व सम्मान के साथ न्यायालय के फैसले का इंतज़ार करना चाहिए।
साध्वी निरंजन ज्योति
केन्द्रीय राज्य मंत्री व सांसद-फ़तेहपुर


ख़ैर, पीठ को उक्त घटनाओं के नियमन के साथ-साथ 9 व 10 जनवरी की संगोष्ठी के फलस्वरूप लिए गए अपने क़ायदो और संकल्पों को याद रखना होगा कि श्री राम जन्मभूमि मन्दिर का निर्माण हमारे राष्ट्रीय पुनर्जागरण का हिस्सा है। इसका अर्थ एक ऐतिहासिक क्रूरता को ठीक करना भी है। अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि पर श्री राम मन्दिर का निर्माण एक राष्ट्रीय लक्ष्य बन गया है। यद्यपि यह क़ानूनी रुप से और अधिकतम आम सहमति के साथ पूरा किया जाना चाहिए। चूंकि 10 जनवरी को ही समाचार टीवी चैनल आज तक पर श्री राम मन्दिर मुद्दे पर आधारिक कार्यक्रम टक्करमें सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने भी सार्वजनिक रूप से घोषित किया कि वे और अधिवक्ता गिलानी एवं अन्य मुस्लिम हितधारक दिन-प्रतिदिन की सुनवाई का पक्ष लेते हुए शीघ्र निपटारा चाहते हैं। इसलिए अपील की सुनवाई को यथाशीघ्र पूरा होने पर व्यापक सहमति है। इसका अर्थ यह होगा कि इन सभी सिविल सूटों पर सर्वोच्च न्यायालय का सितम्बर, 2016 तक फैसला सम्भव हो सकेगा।
सुब्रह्मण्यम स्वामी ने भी अगले क़दम के तौर पर प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर मांग की है कि केन्द्र सरकार को पहल करनी चाहिए कि विभिन्न पक्षों द्वारा दायर सिविल अपील को शीघ्र सूचीबद्ध किया जाए और दिन-प्रतिदिन की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय में 15 मार्च, 2016 तक प्ररम्भ की जाए। इसके अलावा उन्होने आश्वस्तता भी जताई कि इस साल के अन्त तक श्री राम जन्मभूमि पर श्री राम मन्दिर निर्माण प्रारम्भ हो जाएगा।


श्री राम मन्दिर हमारी संस्कृति और हमारी सभ्यता का प्रतीक है। हम भारतवासी असभ्य नहीं हैं इसीलिए हमारी पूरी अवाम चाहती है कि श्री राम मन्दिर का भव्य निर्माण हो। इसके लिए पुरानी सरकारों ने भी प्रयास किए थे। राजीव गांधी जी का इसमें बड़ा योगदान रहा है। उन्होने ही राजनैतिक रूप से सबसे पहले राम राज्य की बात कही, अपना पहला चुनाव भी उन्होने राम की भूमि से ही लड़ा, श्री राम मन्दिर का ताला उन्ही की इच्छा शक्ति से खुल पाया था और भारत के घर-घर में श्री राम जी की चेतना का संचार दूरदर्शन में रामायण धारावाहिक के जरिए करने का श्रेय भी राजीव गांधी जी को ही जाता है। मेरा पूरा अनुमान है कि न्याय मन्दिर के ही पक्ष में आएगा और लगभग मेरा अनुमान ग़लत नही होता है। मैने कहा था कि टू जी में राजा जेल जाएगा, वह गया। मैने नेशनल हेराल्ड में भी कहा था की मां-बेटे को कोर्ट का मुंह देखना होगा और अब श्री राम मन्दिर के लिए भी मेरा अनुमान सत्य होगा।
डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी
अध्यक्ष, अरुंधती वशिष्ठ अनुसंधान पीठ


सही मायनों में देखें तो यह सब लगभग इस संस्थागत बहस का ही परिणाम है। अतः पीठ द्वारा सम्पन्न इस राष्ट्रीय संगोष्ठी को श्री राम जन्मभूमि मन्दिर के परिप्रेक्ष्य में उभरती अयोध्या के आग़ाज़ स्वरूप देखना अतिश्योक्ति न होगा।      

Wednesday, 6 January 2016

पत्रकारों का इम्तिहान




यूं तो आज के कौशलवादी मानसिकता के दौर में लगभग प्रत्येक क्षेत्र के कॅरियर अथवा कामकाज में ज़ूमिंग अर्थात् दृष्टि-विशेष देखने को मिल रही है। चाहे वो बाल काटने की कला हो, गीत गाने की कला हो, अभिनय हो, कपड़ों को डिज़ाईन करना हो, घर का नक्शा कैसा होगा ये तय करना हो या फ़िर पार्टियों में म्यूज़िक प्लेयर कौन और किस पैमाने पर प्ले करेगा इसका निर्धारण करना हो। अब हर क्षेत्र में विशेषज्ञ की मांग है और इन साब कामों के लिए लोग इन विशेषज्ञों को  भारी से भारी रक़म भी चुकाते हैं। वहीं दूसरी तरफ़ कहीं न कहीं इन सभी कार्यों के बरक्स संप्रेषण, पत्र-व्यवहार या संवाद जैसे गम्भीर और सावधानी पूर्वक किये जाने वाले काम की बात करें, जिसके लिए सरकार ने विशेष विश्वविद्यालय खोले हैं, भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने एक स्वायत्तशाषी भारतीय संस्थान भी स्थापित किया है जिसे पत्रकारिता के मक्का आदि की संज्ञा भी दे दी गई है और यह अपने आप में पत्रकारिता के लिए एशिया का एक अति महत्वपूर्ण संस्थान भी है, इसके अलावा तमाम निजी संस्थान भी कम समय में शीघ्र व अधिक उत्पादन की कला सहित समावेशी ज्ञान और कौशल देकर पत्रकारो को तैयार करता है, फिरी इनकी पूछ नौकरशाही मानसिकता की बदौलत कूड़े के भाव कर दी गई है। एक पत्रकार के भीतर छिपी ढेरों संभावनाओं को दर किनार करते हुए उसके तमाम अधिकारों पर लालफीताशाही का जटिल मकड़जान फैलाकर अतिक्रमण किया गया है। इससे न सिर्फ़ पत्रकारों के अधिकारों का हनन हुआ है बल्कि  देश का विकास रुका है, समाज की गतिशीलता रुकी है और एक सकारात्मक दृष्टिकोंण को बनाने के प्रयासों पर प्रहार भी किया गया है। शायद इसी लिहाज से इस बार के सातवें वेतन आयोग में वेतन वृद्धि के अलावा नौकरशाही में सुधार के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए गए हैं। तमाम वरिष्ठ पदों पर विशेषज्ञों की सीधी नियुक्ति की सिफारिश भी की गई है। क्योंकि अभी अधिकतर पदों पर आईएएस अफ़सरों का ही कब्ज़ा है, भले ही वहां विशेषज्ञों की ज़रूरत हो। यदि आयोग की अनुशंसाओं को अमली जामा पहनाया गया तो नौकरशाही में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन आ सकता है।
बात चाहे सार्वजनिक क्षेत्र की हो अथवा निजी क्षेत्र की आज एक पत्रकार का काम किसी संवेदनशील दिहाड़ी मजदूर से कम नहीं है, जो अपने तमाम अनुभवों और कौशल के दम पर इस डर के साथ कि हर एक छोटी ग़लती पर उसकी नौकरी कभी भी छीन ली जा सकती है, वह पूरी लगन के साथ काम करता रहता है और यदि पूरे महीने का औसत निकाल कर बात करें तो मात्र 500 से 800 रुपये लेकर वह पराए शहर में पड़ा अपनी दो जून की रोटी के इतज़ाम का ख़्याल करता अपने झूठे आशियाने की ओर हर रोज़ दफ़्तर का बोझ लिए वापस लौटता है। ये सब इसलिए है क्योंकि उसके अधिकारों पर, उसके लिए निर्धारिक की गई जगहों पर और उसकी प्रगति के रास्तों पर कुछ लोग सर्प पिण्डली मार कर बैठे हैं।  
यद्यपि कोई अन्य कथित विद्वानों की तरह भले ही किसी उच्च स्तरीय संस्थान से गुणवत्तापरक शिक्षा, प्रशिक्षण और कौशल लेकर निकला हो, लेकिन पत्रकारों की जात में उसका भी हाल दिहाड़ी सा ही है। वास्तव में ये हाल एक अदने से पत्रकार से लेकर एक आईआईएस अधिकारी तक का है जो कभी पत्रकारिता का विद्यार्थी रहा हो। यूँ तो आईआईएस के हक़ों में भी इन सफ़ेद कॉलर वालों के द्वारा निब और स्याही को क्रमशः कुण्ठित और खुरदुरी बनाने का काम किया गया है जिससे उसका रंग चढ़ाए न चढ़े और लिपि में धुंधली काया सी पड़ जाए, जहाँ विशेषज्ञों को मात्र शगुन के तौर पर रखा गया है और पूरी बारात किन्हीं औरों से ही सजायी गयी है। तो फ़िर हमें इसके दुष्परिणाम भी देखने को मिलते हैं। अभी  हाल ही में पीआईबी की घटना को ही ले लीजिए। दिसम्बर के शुरुआती दिनों में बाढ़ से बेहाल चेन्नई का हवाई जायजा लेने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तमिलनाडु पहँचे थे। पीआईबी में बैठे पेशेवर अपरिपक्व गैर विशेषज्ञ और कथिक अधिकारी जनों की भारी भूल का ही परिणाम थी वो फोटोशॉप वाली घटना, जिसके ऊपर उन दिनों खूब हो-हल्ला हुआ था। चिन्ता इस बात की है कि जब सरकार के पास पेशेवर कौशल रखने वाले, विशेषज्ञ और इस विधा में  ख़ासा अनुभव रखने वाले कम्युनिकेशन के जानकार लोग हैं तो फिर ऐसी लीपापोती क्यूं की जा रही है। क्या यह मान लिया जाए कि मौजूदा सरकार भी ब्यूरोक्रेसी के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है या फिर से सच में कौशल का अमल करती है, अन्यथा इसके कौशल-विकास के पहल पर भी प्रश्नवाचक चिह्न खड़ा हो रहा है।  
यद्यपि ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इसके लिए भारत सरकार का सूचना और प्रसारण मंत्रालय ज़िम्मेदार नहीं है। सच त यह है कि उसे सब पता रहता है। क्योंकि यदि हम कुछ साल पहले गुड़गांव में घटी हॉण्डा वाली घटना का विश्लेषण करें जिसमें कम्पनी के लेबर यूनियन के मजदूरों और प्रबन्धन के बीच मनमुटाव हो गया था। सरकार की ओर से मध्यस्थता स्वरूप संवाद न स्थापित करने से वो मजदूर और भी ज़्यादा आक्रामक होते-होते हिंसक भी हो गए थे और वह इस क़दर कि इसका परिणाम यह हुआ कि प्रबन्धन की ओर से उस हिंसक झड़प में एक प्रबन्धन अधिकारी को जान से हाथ धोना पड़ गया था। इस पेर मामले में पुलिस को लाठी चार्ज भी करनी पड़ी थी, जिसकी बाहर मीडिया में खूब आलोचना भी हुयी थी, जबकि वास्तव में यह एक संवाद हीनता के कारण घटी घटना थी। इस पूरे मामले को भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने गम्भीरता पूर्वक लिया और इसके बाद सूचना और प्रसारण मंत्रालय को इसकी पूरी जनकारी देते हुए सलाह दी कि पब्लिक क्षेत्र में कुशल संवाद और सही सूचनाएं एक निश्चित समय पर न होने के कारण इस तरह की हिंसक घटना घटी। इसलिए क्यों न अति शीघ्र ऐसे तमाम सार्वजनिक संस्थानों में सरकार पीआरओ जैसे पदों का निश्चय करे और इन पदों पर विशेषज्ञों को नियुक्त करने के प्रयासों में तेज़ी लायी जाए। हांलाकि, इस घटना के सालों बीत जाने के बावजूद भी सम्बन्धित मंत्रालय की ओर से इस दिशा में अब तक कोई पहल नहीं की गई है और न ही कोई अन्य ज़रूरी क़दम भी उठाए गए हैं। ऐसे में इसका सटीक अर्थ यही निकाला जा सकता है कि सरकार का यह तंत्र ऐसी हिंसक या इससे भी विनाशकारी घटनाओं के घटने के आमंत्रण स्वरूप इन्तज़ार में अब तक हाथ पर हाथ धरे बैठा है, अन्यथा इससे सम्बन्धित कार्यों की पहल न करने का इसका कोई भी कारण समझ से परे है।
ये हाल सिर्फ़ निजी क्षेत्रों का ही नहीं है। सरकारी संस्थाओं की जानकारी तो हैरान ही कर देने वाली है। स्वयं भारत के लोक सेवा प्रसारक कहे जाने वाले आकाशवाणी और दूरदर्शन में ही अकेले कार्यक्रम  निष्पादकों (पेक्सों) के आधे से भी अधिक पद रिक्त पड़े हैं जबकि हर साल पर्याप्त मात्रा में कुशल पत्रकार सम्बन्धित मंत्रालय को मिलते हैं। एक आरटीआई संख्या ए-11070/78/2015-कर्म-3/3343में आरटीआई एक्टीविस्ट नरेन्द्र कुमार तिवारी को मिले जवाब से साफ होता है कि देश भर में दूरदर्शन के सभी केन्द्रों में कुल 225 प्रोग्राम एग्ज़िक्यूटिव (पैक्स) हैं और 229 प्रोग्राम एग्ज़िक्यूटिव (पैक्स) के पद रिक्त हैं। यानी आवश्यक पैक्सों में आधे से अधिक कार्यक्रम निष्पादकों की भर्ती ही नहीं की गई है और जो कार्यरत हैं भी तो उनमें भी सम्भवतः कईयों के कार्यकाल समाप्त हो गए हैं, लेकिन फिर भी वे सब अभी तक इस संस्थानों में घइस रहे हैं। इसके अलावा भी जो अन्य शेष कार्यरत पैक्स हैं उनमें से यह देखना दिलचस्प होगा कि कितनों के पास पत्रकारिता की डिग्री, डिप्लोमा और अनुभव है। वास्तव में जब देश का पत्रकार अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठा रहा हो, सन्घर्ष कर रहा हो और उसे एक दिहाड़ी मजदूर के दाम पर काम करने की मजबूरी हो तो ऐसी स्थिति में इन पदों की भर्ती क्यूं नहीं की जा रही है। इस बात का जवाब मंत्रालय के पास नहीं है और यदि जवाब है भी तो यह सिद्ध मानिए कि वह अकर्मण्य है।
इस आरटीआई में ही कार्यक्रम निष्पादकों के कार्यों का विवरण भी मांगा गया है, जिसके जवाब कुछ इस प्रकार हैं कि प्रोग्राम एग्ज़िक्यूटिव (पैक्स) का काम कार्यक्रम के विभिन्न पहलुओं पर और मार्गदर्शी सिद्धान्तों पर दर्शकों, दूरदर्शन के अन्य केन्द्रों और महानिदेशालय से पत्राचार करना हैं, तथा यदि अपेक्षा हो तो प्रसारण की विशिष्ट प्रकृति की बाबत पम्फलेट और पुस्तिकाएं निकलवाना होता है। इसी आरटीआई में प्रोग्राम एग्ज़िक्यूटिव (पैक्स) के और कामों की रूपरेखा में कहा गया है कि दूरदर्शन केन्द्र में प्रस्तुतकर्ता/कार्यक्रम निष्पादक द्वारा किए जाने वाले कृत्यों का दूसरा महत्वपूर्ण प्रवर्ग जनसम्पर्क का क्षेत्र है। यह ऐसे कलाकारों और वक्ताओं से व्यवहार करने का है जो बुक किए जाते हैं। ऐसे सार्वजनिक क्रियाकलापों और समारोहों में उपस्थित होना जो, साहित्य, कला, उद्योग, समाज कल्याण, राष्ट्रीय विकास आदि दोनो में होते हैं। ऐसे क्रियाकलाप जिनमें कार्यक्रम निष्पादक/प्रस्तुतकर्ता को निकट सम्पर्क में रहना चाहिए ताकि वो किसी न किसी रूप में कार्यक्रम में प्रतिबिम्बित हो सकें। उस कार्यक्रमों के बारे में लोगों की पत्रों में व्यक्त, बातचीत में व्यक्त या प्रेस के माध्यम से व्यक्त प्रतिक्रिया की भी जानकारी रखनी चाहिए।
वास्तव में उक्त समस्त कार्यों के लिए विशेषज्ञ के तौर पर मास कम्युनिकेशन के विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है।  इसलिए अब सूचना और प्रसारण मंत्रालय को यह स्वयं देख लेना चाहिए कि कार्यरत कार्यक्रम निष्पादकों में कितनों ने पत्रकारिता की शिक्षा और उसका प्रशिक्षण लिया है, जोकि एक कम्युनिकेशन के विद्यार्थी के लिए आवश्यक होता है और जो उनको अपने क्षेत्र का विशेषज्ञ बनाता है।
ऐसे ही रेलवे के क्षेत्र में भी तमाम ऐसे पद हैं जो एक कम्युनिकेशन के विद्यार्थी की ही मांग पर बने हैं और उन्हे इनकी ज़रूरत भी है, लेकिन आज भी वहां गैर विशेषज्ञ लोग ही कुर्सी गरम करने में लगे हुए हैं। रेलवे में एक एडीजी-पीआर का पद होता है, जो पूरे देश के रेलवे नेटवर्क को कम्युनिकेट करता है, जो एक आईआईएस होता है और इस पद के लिए एक कम्युनिकेशन के विशेषज्ञ की ज़रूरत होती है, जबकि आज इसके लिए एक गणित विषय से एमएससी-एमफिल की अर्हता रखने वाले व्यक्ति को ऐसे संवेदनशील पद पर नियुक्त कर रखा गया है। वास्तव में यहां किसी तर्क-शक्ति की नहीं बल्कि संवाद और कुशल पत्राचार के कौशल की आवश्यकता है।
ऐसे ढेरों मामले अकेले रेलवे में ही सरकार की नाक के नीचे ढंके की चोट पर यूं ही पड़े हैं और इनके कान पर है कि जूँ तक नहीं रेंगती। ऐसे ही मामले गृह मंत्रालय, पुलिस विभाग, विश्वविद्यालय और तमाम स्थानीय सार्वजनिक उपक्रमों से जुड़े हुए हैं जहाँ पर एक स्पोक पर्सन और सही व आवश्यक सूचनाएं देने वाले या संवाद स्थापित करने वाले अधिकारी और पब्लिक से डीलिंग करने सम्बन्धी तमाम कामकाज के लिए एक विशेषज्ञ की अत्यन्त आवश्यकता है, और इस आवश्यकता को एक प्रशिक्षित पत्रकार ही पूरा कर पाने में सक्षम है। लेकिन इतना ही नहीं खजूर नज़दीक मिले तो दूर क्या जाना। एक कथित आईआईएस अधिकारी  मात्र एमए की शिक्षा लेकर भारत के जाने-माने लोक सेवा प्रसारक के बड़े केन्द्र का निर्देशन कर रहे हैं। इनकी गुस्ताख़ी यहीं पर आकर नहीं रुक जाती है। आजकल तो ये उस आईआईएमसी को डायरेक्शन देने के लिए सूची में अग्रणी चल रहे हैं और न सिर्फ़ आगे चल रहे हैं बल्कि ऊपर के आकाओं को अपने विश्वास में लेने की फ़िराक में अपनी एड़ी-चोटी का बल भी लगा रहे, जिन्होने आईआईएस की ट्रेनिग के दैरान सन् 2003 में आईआईएमसी का सिर्फ़ तीन दिन (25-08-2003 से 27-08-2003 तक) ही मुंह देखा था। अब भला ऐसे में कोई भी पत्रकारिता का विद्यार्थी या उससे जुड़ा कोई भी शख़्स इस कैसे बर्दास्त कर सकता है। यह तो वैसे ही है जैसे अपना चूल्हा अपनी आँखों के सामने फुंकते देखना।

इसके अलावा कुछ बातें और जो गम्भीर हैं और सोचने वाली भी हैं, कि जब एक मेडिकल स्टोर की दुकान खोलने के लिए फॉर्मासिस्ट की डिग्री का होना अनिवार्य है तो फिर एक पीआर की एजेन्सी चलाने वाले के लिए पत्रकारिता की डिग्री या डिप्लोमा का होना अनिवार्य क्यूं नहीं होता? जबकि एक कुशल पत्रकार पहले पत्रकारिता की शिक्षा लेता है, आवश्यक प्रशिक्षण प्राप्त करता है। इसके बाद वह इण्डस्ट्री के भीतर जाकर पेशेवर प्रशिक्षण (इंटर्नशिप) प्राप्त करने के बाद वही पत्रकार कहलाता है। बज़ाहिर, इंटर्नशिप के दौरान हर काम के लिए एक ख़ास तरह के प्रशिक्षण की ज़रूरत होती है। आख़िरकार पत्रकारों के साथ ये छलावा कब तक। ऐसे में जो लोग भी पत्रकारों के हितों को चकनाचूर करते हुए देश को धोखा दे रहे हैं, शायद उन्हें इस बात का भी भान नहीं है कि हुनरबंद बनने के लिए काम करना ज़रूरी है, न कि चंद किताबों की घुट्टी पीकर एक दिन-विशेष को इम्तिहान पास करके अपनी कॉलर टाईट कर लेना। वास्तन में इन सबको याद रखना होगा कि एक पत्रकार हर दिन इम्तिहान देता है, ...हर दिन।

संचार छात्रों के रोजगार अवसरों के प्रमुख क्षेत्र जहाँ गैर-पेशेवर हावी हैं

• भारतीय जन सूचना सेवा, ग्रुप-ए
• राज्यों के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग
• भारतीय प्रसारण (कार्यक्रम) सेवा
• प्रसार भारती के कार्यक्रम अधिशाषी
• विभिन्न मंत्रालयों के अन्तर्गत आने वाले जनसम्पर्क तंत्र एवं मीडिया सेल
• विदेश मंत्रालय के तहत विभिन्न देशो में कार्यरत सूचना केन्द्र
• केन्द्रीय विश्वविद्यालयों, सार्वजनिक उपक्रमों, न्यायालयों और विभिन्न प्राधिकरणों/आयोगों के संचार तंत्र

• स्थानीय निकायों की जनसम्पर्क इकाईयाँ आदि।

ई-हॉस्पिटल से स्मार्ट बनता स्वास्थ्य-तंत्र



ज़िन्दगी की बदलती चाल-ढाल को देखते हुए और विकास की ओर मुँह करके खड़े होने पर आज हमें लगभग सभी क्षेत्रों में कुछ बदलाव की गुञ्जाईश दिख रही है जोकि समस्त दशाओं की अनुकूलता का परिणाम ही है। यही कारण है कि हम आज शहर सहित तमाम क्षेत्रों के स्मार्ट बनने की बात करते हैं। इसी स्मार्टनेस की ओर बढ़ने के एक क़दम में डिजिटलाईजेशन का भी पड़ाव आता है। इस दिशा में विशेष रूप से मौजूदा सरकार ने कई महत्वपूर्ण और आवश्यक क़दम भी बढ़ाए हैं। जहाँ आज हम ई-टिकटिंग, ई-कॉमर्स और ई-बैंकिंग जैसी तमाम डिजिटल सेवाओं का लाभ ले भी रहे हैं, जहाँ अब गांव-गांव में इण्टरनेट की पहुँच को आसान बनाने के लिए ऑप्टिकल फाइबर केबिल बिछाई जा रही हैं, जो कहीं न कहीं मौजूदा सरकार की डिजिटल सोच और उस ओर बढ़ाए गए आवश्यक क़दम के परिणाम हैं। वहीं अब इस दिशा में हम स्वास्थ्य-क्षेत्र में भी ई-हॉस्पिटल का नाम सुन रहे हैं।
ई-हॉस्पिटल अस्पताल और मरीजों से सम्बंधित समस्त छोटी-बड़ी सुविधाओं, प्रबंधन और उनके प्रशासन को सरल, सुगम, अधिक सुविधाजनक एवं उसकी बेहतरी के लिए बनाई गई एक स्वचालित प्रणाली है जो हेल्थ मैनेजमेण्ट इन्फ़ॉर्मेशन सिस्टम (HMIS) और HL7 डेवेलपमेण्ट फ़्रेमवर्क पर आधारित है। HL7 हेल्थकेयर सिस्टम और मेडिकल डिवाइसों में बाधआरहित अन्तरकार्यकारी कार्यों को निष्पादित करता है, यानी ये तमाम अस्पतालोंओं के मध्य परस्पर निर्बाध डाटा स्थानान्तरण का काम सुगमता से करता है। इसे सरकार की डिजिटल इण्डिया योजना की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण क़दम माना जा रहा हैं। भारत-नीति के राष्ट्रीय संयोजक अनूप काईपल्ली ने बताया कि हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के बेहतर प्रशासन के लिए किये जा रहे प्रयासों को आगे बढाने में ई-हॉस्पिटल JAM (जनधन, आधार और मोबाईल) के तहत एक महत्वपूर्ण पहल है, जो समाज के उन वंचित और ज़रूरतमंदों के लिए एक क्रांतिकारी पहल है, जो अब तक चिकित्सा के क्षेत्र में उसके सहज उपयोग के साधन न होने और उसकी जटिलता के कारण गुणवत्तापरक चिकित्सकीय सुविधाएं लेने में असमर्थ रहे हैं।
वास्तव में ई-हॉस्पिटल की शुरुआत, विकास और इसका कार्यान्वयन अगरतला गवर्नमेण्ट मेडिकल कॉलेज और जीबीपी टीचिंग हॉस्पिटल- त्रिपुरा में एनआईसी, त्रिपुरा स्टेट सेण्टर द्वारा सन् 2009 में हुआ। इसके बाद एनआईसी के एक समूह ने इसकी और अधिक बेहतरी के लिए बाद में जमकर काम किया और ई-गवर्नेन्स के माध्यम से इसके लिए एक किफ़ायती  एवं निःशुल्क नीति को तैयार किया, जिसमें हम e-hospital@nic के नाम से जानते हैं। इसको बाद में लोगों से बहुत अच्छी प्रतिक्रियाएं मिलीं जो आज भी बदस्तूर ज़ारी है क्योंकि ई-हॉस्पिटल के यूज़र इण्टरफ़ेसों औऱ सूचनाओं को आसानी से प्रयोग में लाया जा सकता है।
जनसंख्या वृद्धि के बहुत अधिक दबाव होने से बढ़े हुए कामकाज के भार को ई-हॉस्पिटल ने कम किया है, जिससे लोगों के कार्य-प्रवाह में तेज़ी आयी है और उनको आसानी से स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ भी मिल रहा है। इसके अलावा ई-हॉस्पिटल को उपयोग करने वाला जन अस्पताल की आवश्यकताओं और अन्य छोटी-मोटी ज़रूरतों तक भी आसानी से पहुँच सकता है। ई-हॉस्पिटल की सेवाओं का लाभ प्राप्त चुके दिव्यांशु बताते हैं कि ई-हॉस्पिटल प्रणाली एक वरदान की तरह है। दिव्यांशु को फ़ियोक्रोमो सायटोमा नाम की बीमारी थी, जिसका इलाज उन्होने ई-हॉस्पिटल के जरिए कराया है। वह कहते हैं कि मेरा ई-हॉस्पिटल की सेवा का अनुभव बहुत ही अच्छा रहा है। इससे मैं बीमारी के दौरान होने वाले भारी तनाव और अतिरिक्त परेशानियों से बच गया हूँ। इस सेवा के लाभ से किसी मरीज के साथ लगने वाले लगभग किसी तीमारदार की काफी हद तक ज़रूरत कम हुई है और स्वयं मरीज को भी आवाजाही से छुटकारा मिल गया है। मुझे अपने ट्रीटमेण्ट के दौरान तमाम काग़जातों को संभालने के लिए कोई रिस्क नहीं था, क्योंकि इससे पहल मेरे साथ पिछले कई मामलों में ऐसा भी हुआ है कि कई बार अस्पतालों से हमें मिलने वाले पर्चे पानी में धुलकर ख़राब हो गए, वो सड़ गए तो कई बार उनको चूहों ने भी कुतर डाला था। लेकिन इस ई-ह़स्पिटल की सेवा को पाकर मैं इस दफ़ा ऐसे तनावों और रिस्कों से भी दूर था। डॉक्टरों में भी मुझे ईलाज के दौरान अतिरिक्त रोमांच देखने को मिला। मैं इस सेवा का लाभ लेकर बहुत अच्छा महसूस कर रहा हूँ और लोगों को भी सलाह दूंगा कि लोग अधिक से अधिक इस सेवा का लाभ लेकर अपना कीमती समय और पैसा दोनो बचाएं?’   
वास्तव में ई-हॉस्पिटल एक वृहद संरचना में तैयार की गयी प्रणाली है जो कुछ विशेष मूलभूत उपागमों के अतिरिक्त तमाम अतिरिक्त सेवाओं से सम्बंधित उपागमों से सजा एक तंत्र है। मूलभूत उपागम सभी अस्पतालों में अनिवार्य रूप से उपलब्ध होते हैं। इसमें सबसे पहले मरीजों के पंजीकरण और अस्पताल में उनके अप्वाइंटमेण्ट से सम्बंधित सुविधाएं दी गयी है। इसके अन्तर्गत मरीज पंजीकरण उसके समस्त ब्यौरों के साथ किया जाता है, जिससे मरीज को प्रशासनिक कार्यों और देखरेख प्रक्रिया में सुगमता मिलती है।
दूसरा, वाह्य रोगी प्रबंधन की सुविधाओं के अन्तर्गत भी मरीजों को चिकित्सकों की उपलब्धता की व्यवस्था की गयी है। इस मॉड्यूल में सभी मरीजों और उनकी रोग-सम्बन्धी सूचनाएं त्वरित उपलब्ध होने से चिकित्सकों को मरीजों की प्रशासनिक जानकारियां हासिल करने और उनकी देखभाल दोनों प्रक्रियाओं में सुगमता होती है। इसके अलावा मूलभूत उपागम के अन्तर्गत ही मरीजों की दीर्घकालिक एवं तत्कालिक सभी प्रकार की बिलिंग का भी निराकरण किया जाता है। इस मॉड्यूल में बिलिंग प्रक्रियाओं के समस्त प्रकार जैसे- वाह्य-रोगी, अन्तरिक रोगी और रेफ़रल रोगियों को भी सम्मिलित किया जाता है। इसके अन्तर्गत अस्पताल से सम्बंधित सभी भुगतान जैसे- बेड चार्ज, लैब परीक्षण, औषधियां, चिकित्सकीय शुल्क, भोजन आदि के बिल शामिल जाते हैं। इन सबके लिए भीड़-भाड़ की रेलमपेल से निजात पाने में ई-हॉस्पिटल बेहद उपयुक्त है जो इन सबके अतिरिक्त धन और समय दोनो को भी बचाता है।
इसके अतिरिक्त सेवा सम्बंधी मूलभूत उपागम भी ई-हॉस्पिटल की सेवाओं में शामिल हैं। इसके अन्तर्गत अस्पताल से सम्बंधित सभी सुविधाओं और सेवाओं की व्यवस्था उपलब्ध हो जाती हैं। साथ ही सुरक्षा कार्य-प्रवाह अथवा प्रयोगकर्ता प्रबंधन भी ई-हॉस्पिटल की सेवाओं से जुड़े अस्पतालों में हमें मूलभूत रूप से मिल जाते हैं। इसका मुख्य काम अप्लीकेशन में उपलब्ध सूचनाओं की पहुँच की सुरक्षा पर नियंत्रण करना है।
इन तमाम मौलिक उपागमों के अतिरिक्त कुछ अतिरिक्त उपागम भी ई-हॉस्पिटल की सेवाओं से जुड़े हैं। यद्यपि सभी अस्पतालों में समस्त सुविधाएं प्राप्त होती हैं, फिर भी ई-हॉस्पिटल की अतिरिक्त सुविधा यही है कि यदि कोई सेवा जो आपको चाहिए आपके द्वारा पंजीकृत अस्पताल में उपलब्ध नहीं है तो ई-हॉस्पिटल से जुड़े दूसरे अस्पताल से वह सेवा लेकर आपको उपलब्ध करा दी जाती है। तो यह कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी कि ई-हॉस्पिटल से स्वास्थ्य-तंत्र स्मार्ट बन रहे हैं। फिर भी एक नज़र ई-हॉस्पिटल के द्वारा उपलब्ध अतिरिक्त उपागमों पर फेर लेनी चाहिए।
सबसे पहले फ़ॉर्मेसी के अन्तर्गत सामान्य कार्यप्रवाह और प्रशासनात्मक प्रबंधन का स्व-चालन होता है। औषधियों को मरीजों तक पहुँचाने के लिए बार-कोड का प्रयोग होता है। प्रयोगशाला सूचना प्रणाली के तहत सम्बन्धित डॉक्टर अपने अनुभाग से प्राप्त परीक्षण प्रस्ताव और उत्पादित परिणामों को प्रेषित करता हैं। डॉक्टर ऑनलाईन प्रस्ताव के माध्यम से प्रयोगशाला कर्मचारी को सम्बन्धित रिपोर्ट बनाने की सूचना देता है। इसके अंतर्गत बायोमेट्रिक, कोशा-विज्ञान या साइटोलॉजी, माइक्रोबायोलॉजी, न्यूरोलॉजी और रेडियोलॉजी आदि से सम्बंधित परीक्षणों की व्यवस्था उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त रेडियोलॉजी प्रबंधन के अन्तर्गत एक्स-रे, स्कैनिंग और अल्ट्रासाउण्ड आदि की सुविधाएं भी ई-हॉस्पिटल में दी जाती हैं।
दूसरा, ई-हॉस्पिटल के उपागमों में इलेक्ट्रॉनिक मेडिकल रिकॉर्ड (EMR) की भी अतिरिक्त व्यवस्था है। यह पूर्ण रूप से समाकलित ज्ञान-कोष होता है जिसमें मरीज के क्लीनिकल रिकॉर्ड्स और अन्य सम्बन्धित सूचनाएं सुरक्षित रहती है। इस पर सभी सम्बंधित अनुभागों से प्राप्त सूचनाएं जैसे- चिकित्सकीय परीक्षण, निदान, निदान का इतिहास या पूरा ब्यौरा और परीक्षण रिपोर्ट आदि उपलब्ध होती हैं। इसके अलावा आहार सम्बंधी मॉड्यूल भी ई-हॉस्पिटल की अतिरिक्त सेवाओं का हिस्सा है। इस मॉड्यूल पर अस्पताल प्रबंधन प्रणाली सॉफ्टवेयर में अस्पताल के रसोई घर से रोगी को दिए जाने वाले आहार की रूपरेखा और उसकी मात्रा डाईटीशियन के निर्देशानुसार संग्रहीत रहती हैं। इसके साथ ही हाउस कीपिंग यानी साफ़-सफ़ाई की भी बेहतर व्यवस्था होती है। इस मॉड्यूल के अन्तर्गत अस्पताल के बेड, कमरों और अन्य सम्बन्धित कक्षों की साफ़-सफ़ाई से सम्बन्धित सूचनाएं अस्पताल प्रबंधन प्रणाली सॉफ्टवेयर में संग्रहीत रहती हैं। साथ ही यदि हम नर्सिंग मॉड्यूल की बात करें तो इसमें अस्पताल प्रबंधन प्रणाली सॉफ्टवेयर में मरीज की देखरेख और उसकी गुणवत्ता को बढ़ाने सम्बन्धी सूचनाएं नर्सों को नियमित रूप से प्राप्त होती रहती हैं।
ई-हॉस्पिटल में आपातकालीन प्रबंधन की भी अतिरिक्त व्यवस्था की गयी है। आपातकालीन मॉड्यूल में अस्पताल प्रबंधन प्रणाली सॉफ्टवेयर मरीज को अतिशीघ्र पंजीकरण कराने की सहूलियत देता है तथा मरीजों कों बहुत सी विशेष पंजीकरण सूचनाएं यथा सांख्यिकी सूचनाएं आदि प्राप्त हो जाती हैं। इसमें तमाम मशीनों और उपकरणों के रख-रखाव एवं रख-रखाव सम्बन्धी समय-सारणी की जानकारी अस्पताल प्रबंधन प्रणाली सॉफ्टवेयर पर उपलब्ध होती हैं। इसके अलावा एक अत्यन्त महत्वपूर्ण उपागम ई-हॉस्पिटल के अन्तर्गत आता है, और वह है CSSD यानी सेण्ट्रल स्टेरिल सप्लाई डिपार्टमेण्ट। ये मध्यम और बड़े अस्पतालों हेतु एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपागम है। कुछ देशों में तो ये उपागम अस्पताल लाइसेंस प्राप्त करने हेतुअनिवार्य भी है। इसके अलावा पिक्चर आर्चीविंग एण्ड कम्युनिकेशन सिस्टम (PACS) भी ई-हॉस्पिटल के गुणों को बढ़ाने का काम करता है, जो एक मेडिकल इमेजिंग प्रौद्योगिकी है और इसमें हम किसी इमेज के तमाम रूपों पर वृहद रूप से अध्ययन और उसका विश्लेषण कर सकते हैं।
ई-हॉस्पिटल के अतिरिक्त उपागमों में रक्त-कोष की भी अच्छी व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत E-HMS पर व्यापक रुप से रक्तदान देने वाले रक्तदाता एवं ग्राही की समस्त सूचनाएं संग्रहीत रहती हैं। यहाँ वित्तीय लेख-जोखा की भी सुगम व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत कैश, बैंक रसीद, भुगतान, बाउचर व कैशबुक आदि से सम्बन्धित सूचनाएं संग्रहीत रहती है। साथ ही इसमें बैलेंस-शीट और लाभ-हानि की भी जानकारियां उपलब्ध होती हैं।
ई-हॉस्पिटल के अन्तर्गत किसी भी अस्पताल की निर्धारित या स्थिर सम्पत्ति का लेखा-जोखा भी आता है। यहाँ भुगतान रजिस्टर के अन्दर सैलरी स्लिप की रसीद, कैल्कुलेशन और सैलरी के प्रमाण-पत्र आदि के विवरण की भी पूरी जानकारी होती है। इसके अलावा ई-हॉस्पिटल के अन्दर मैनेजमेण्ट इनफ़ॉर्मेशन सिस्टम यानी डैशबोर्ड की भी सुविधा पायी जाती है। इस मॉड्यूल में किसी अस्पताल प्रबन्धन के अनुभागों से सम्बन्धित समस्त सूचनाएं उपलब्ध होती हैं, जिनका अस्पताल के शीर्ष प्रबन्धन समूह द्वारा निरीक्षण किया जाता है। अर्थात् ई-हॉस्पिटल का सम्पूर्ण जाल न सिर्फ़ एकहरा है जो मात्र मरीजों के लिए है बल्कि यह पूरी तरह से एक विशाल-तंत्र हैं जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण अस्पताल प्रबन्धन और उसका पूरा प्रशासन बल्कि यह भी कह सकते हैं कि कई अस्पतालों की श्रृंखला इसमें शामिल है। तो निश्चित रूप से ई-हॉस्पिटल ने हमें स्वास्थ्य-क्षेत्र में स्मार्ट बनाया है जहाँ हमें इससे जुड़ी तमाम सहूलियतें बड़ी आसानी से प्राप्त हो जाती हैं।
इसके अलावा नागरिकों के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय ने किलकारी, द रिवाइज़्ड नेशनल टीबी कंट्रोल प्रोग्राम (RNTCP), मोबाइल एकेडमी और एम-सशेशन (M-Cessation) जैसी चार महत्वपूर्ण योजनाएं भी हाल ही में घोषित की हैं, जो आईटी पर आधारित सेवाएं हैं। यानी सरकार अपनी पूरी कोशिश कर रही है कि स्वास्थ्य-सेवाओं का तंत्र ज़्यादा से ज़्यादा कैसे स्मार्ट बन सके।

मरीजो के स्वास्थ्य संबंधी आंकड़ों की सुरक्षा का मुद्दाः

चूंकि क्लाउड कंप्यूटिंग आज के दौर का एक महत्वपूर्ण डाटा संचरण माध्यम बन चुका है। सुगमता, उपयोगिता और परस्परानुकूलता के कारण विभिन्न क्षेत्रों में इसका व्यापक पैमाने पर उपयोग हो रहा है। बहुत ही महत्वपूर्ण सुविधाएं इसी सुविधा की वजह से ई-घेरे में आयी हैं।  ई-हॉस्पिटल भी इन में से एक है जिसका पूरे विश्व के कई देशों में व्यापक पैमाने पर उपयोग हो रहा है। यद्यपि परिणाम स्वरुप कार्य प्रणाली में बदलाव होने से इसके कार्य प्रवाह में काफी तेज़ी आयी है, किन्तु ई-हॉस्पिटल प्रणाली के अंतर्गत संचरित होने वाला स्वास्थ्य डाटा कई मामलों में सुरक्षा दृष्टिकोणों से काफ़ी असुरक्षित भी है। विभिन्न प्रकार के साइबर क्राइम और अन्य माध्यमों से इस स्वास्थ्य सूचना का ग़लत उपयोग भी हो सकता है। चूंकि संचरित होने वाली सूचनाएं संवेदनशील हो सकती है, इसलिए इन सूचनाओं का दुरुपयोग सम्भव है। यह निजता कानून के ख़िलाफ है और इसके लिए आईटी सुविधादाताओं को कानूनी रुप से जुर्माना भी देना पड़ सकता है। जबकि लाभार्थी दिव्याशुं का इस मामले में मानना है कि सिक्योरिटी बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है। आज भी मरीजों को सही समय पर सुविधा जनक लाभ नहीं मिल पाता है और इसी को आसान बनाने के लिए आम लोगों के हित में ये सेवा लायी गयी है। वह कहते हैं कि मेरा मानना है कि जिनकी सिक्योरिटी का मुद्दा आता है उनके पास उनके निजी डॉक्टर होते हैं, उनके फ़ेमिली डॉक्टर होते हैं, तो यदि जहाँ तक सिक्योरिटी का मुद्दा है तो इससे आम लोगों का बहुत सरोकार नहीं जुड़ा हुआ है। यदि फिर भी कुछ रिस्क है तो वह इस सेवा के लाभ के सामने गौण ही सिद्ध है।
हालांकि, यद्यपि इस प्रक्रिया में ऐसे कुछ सामान्य ख़तरे ज़रूर हैं, लेकिन बावजूद इसके लिए तमाम विशेषज्ञों द्वारा कई महत्वपूर्ण तकनीकों के माध्यम से इसकी सुरक्षा के लिए ज़रुरी क़दम उठाए गए हैं और तमाम प्रयास लगातार ज़ारी भी हैं।

पंजीकरण प्रणालीः

चूंकि अस्पतालों में मरीज के रोग से सम्बन्धित अलग-अलग ओपीडी होती हैं और उनकी अपनी निर्धारित क्षमताएं भी होती हैं, इस लिहाज से प्रश्न खड़ा होता है कि क्या सामान्यतः अप्वाइंट मिलने में मरीजों को किसी तरह की असुविधा का भी सामना करना पड़ता है अथवा नहीं। इस मामले में अखिल भारतीय विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी संस्थान नई दिल्ली के मीडिया को-ऑर्डिनेटर राजीव मैखुरी का कहना है कि कई बार ऐसा होता है कि देश के दूर-दराज इलाकों से हमारे पास मरीज बिना अप्वाइंटमेण्ट के चले आते हैं और हमारे पास ओपीडी में जगह नहीं होती है तो उस मरीज को अगली बार का अप्वाइंटमेण्ट लेकर वापस जाना पड़ जाता है, जिससे उसको दिक्कत होती है। इस तरह हम देखते हैं कि पंजीकरण मरीज के लिए पहली सीढ़ी होती है जिसको वह आसानी से चढ़ जाना चाहता है, इस लिहाज से ई-हॉस्पिटल की सेवा लोगों को बहुत पसन्द आ रही है। हमारे पास अब मैनुअल मरीजों की संख्या में भी कुछ कमी देखने को मिल रही है, अधिकतम लोग ई-हॉस्पिटल की सेवा से लाभान्वित हो रहे हैं। उनकी और बेहतरी के लिए सरकार ने सभी क्षेत्रों में अलग-अलग ओपीडी की भी व्यवस्था कर दी है, तो लोगों को निश्चित रूप से ई-हॉस्पिटल का लाभ लेना चाहिए और लोग भारी मात्रा में इसका उपयोग कर भी रहे हैं।
ई-हॉस्पिटल में पंजीकरण के लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन सिस्टम यानी ओआरएस (ORS) विकसित किया गया है जो संपूर्ण देश में आधार कार्ड पर आधारित पंजीकरण करता है। यानी आप मात्र अपने आधार नंबर को अंकित कर ई-हॉस्पिटल में अपना पंजीकरण करा सकते हैं। इसमें आउट पेसेण्ट डिपार्टमेंट (OPD) आदि कि सुविधाएं भी प्राप्त कर सकते हैं और अगर मरीज का मोबाइल नंबर यूनिक आईडेण्टिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ़ इण्डिया (UIADI) में दर्ज़ है तो ई-केवाईसी (e-KYC) के माध्यम से हम इस पोर्टल में विभिन्न अस्पतालों के तमाम विभागों में ऑनलाईन अप्वाइंटमेण्ट ले सकते हैं। लेकिन पुनः ध्यान रहे कि अगर मरीज का मोबाइल नंबर UIADI में पंजीकृत नहीं है तो उसके नाम के आधार पर पंजीकरण होता है। नए मरीज को अप्वाइंटमेण्ट के साथ-साथ एक यूनिक हेल्थ आईडेण्टिफिकेशन नंबर दिया जाता है। अगर आधार नंबर UIADI नम्बर से पहले से ही लिंक है तो अप्वाइंटमेण्ट नम्बर दिया जाता है और UIADI वही रहता है।
नए मरीज को अप्वाइंटमेण्ट लेने का तरीकाः
राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केन्द्र के वरिष्ठ तकनीकी निदेशक सुनील कुमार बताते हैं कि यदि आप रोगी हैं और एम्स या डॉ. राम मनोहर लोहिया, नई दिल्ली जैसे अस्पताल में दिखाना चाहते है तो आप ors.gov.in नामक पोर्टल पर जाकर पहले से ही अपॉइंटमेंट ले सकतें है जो आप को रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए लम्बी कतारों में खड़े होने से बचाएगा | आप आधार नंबर से या बिना आधार नंबर के अपॉइंटमेंट ले सकते हैं | इसके इलावा आप लैब-रिपोर्ट भी घर बैठे देख सकतें है | कुछ ब्लड बैंको में खून की उपलब्धता भी पता कर सकते हैं | आज तक इस पोर्टल के माध्यम से 15 अस्पतालों से 1.13 लाख से भी अधिक लोग अप्वाइंटमेण्ट ले चुके हैं।
यानी नए मरीज को ई-हॉस्पिटल सेवा का लाभ लेने के लिए सबसे पहले www.ors.gov.in पर जाना होगा। अगर आपके पास आपका आधार नम्बर है और आपका मोबाइल नम्बर आपके आधार से लिंक है तो आपके मोबाइल पर एक वन टाइम पासवर्ड यानी ओटीपी(OTP) प्राप्त होगा, फिर उसे आप वेबसाइट पर अंकित करके अपना अस्पताल चुनकर उसकी ओपीडी का अप्वाइंटमेण्ट ले सकते हैं और यदि आपके आधार कार्ड से आपका मोबाइल नंबर लिंक नहीं है तो उस स्थिति में आपको आधार कार्ड पर लिखित अपना नाम वेबसाइट पर भरना होगा और जनसांख्यिकीय प्रमाणीकरण के बाद आपको अपना मोबाइल नंबर और अन्य जानकारियां जैसे पता और उम्र आदि की जानकारीयां देनी होंगी। इसके अलावा यदि मरीज के पास आधार नंबर नहीं है तो उस स्थिति में वह ऑनलाईन अप्वाइंटमेण्ट तो कर सकता है लेकिन उसे सम्बन्धित अस्पताल के ओपीडी में जाकर अपने पहचान की पुष्टि करा कर ओपीडी-कार्ड प्राप्त करना होगा और इसके बाद मरीज को उसका अप्वाइंटमेण्ट स्टेटस एक एसएमएस के द्वारा प्राप्त हो जाएगा।

तालिका (क):-

ई-हॉस्पिटल के मुख्य आकर्षणः

ISO/IEC 9126 पंजीकृत
HDF (HL7 डेवेलपमेण्ट फ़्रेमवर्क) पर आधारित
∙ यूनीकोड आधारित भारतीय बहुभाषा समर्थन
∙ विभिन्न अनुकूलन मापदण्डों के आधार पर व्यापकता एवं सुगमता
∙ नियंत्रण और सुरक्षा आधार पर व्यापक महत्व
∙ डाटा सुरक्षा और गोपनीयता
∙ लेन-देन का अंकेक्षण
∙ शब्दकोष- ICD-9 & LOINC etc.
मरीजो के ब्यौरों की तीव्र एवं प्रभावशाली उपलब्धता
KIOSK टचस्क्रीन यूज़र इण्टरफेस
WINOWS और LINUX पर उपलब्धता
स्रोतः http//tsu.trp.nic.in/ehospital

 तालिका (ख):-

ई-हॉस्पिटल की अस्पतालों की मैनुअल सेवाओं से तुलनाः एक नज़र...

सेवा/सुविधाएं
मैनुअल प्रणाली में
(प्रति मरीज)
ई-हॉस्पिटल प्रणाली में (प्रति मरीज)
मरीज पंजीकरण
1 से 15 सेकण्ड
3 से 5 सेकण्ड
पुनः पंजीकरण
15 से 30 मिनट
15 सेकण्ड
भुगतान और नकद जमा
2 से 4 घण्टे
30 सेकण्ड
प्रयोगशाला परीक्षण रिपोर्ट (ओपीडी)
1 से 2 दिन
अधिकांशतः उसी दिन
रेडियोलॉजी परीक्षण रिपोर्ट (आरपीडी)
1 से 2 दिन
अधिकांशतः उसी दिन
आपातकालीन सेवाओं जैसे- एंबुलेंस/रक्त-कोष/OT
अप्रबंधित/कुछ विशेष केन्द्रों पर उपलब्ध
प्रबंधित और लगभग सभी केन्द्रों पर उपलब्ध
आहार सुविधाएं
अप्रबंधित आहार/प्रति आहार पैमाने पर ही वितरण
प्रबंधित आहार वितरण प्रणाली/प्रति आहार पैमाने पर विस्तृत सूची प्रणाली द्वारा वितरण
सामान-सूची
अप्रबंधित और महत्वपूर्ण भण्डार का दुरुपयोग
प्रबंधित/दुरुपयोग पर नियंत्रण
रक्त-कोष
मैनुअल और अपर्याप्त
रक्त उपयोगिता में बढ़ोत्तरी/रक्त की सूचना का प्रसारण और अतिरिक्त परीक्षणों की पुनरावृत्ति से बचाव/केन्द्रित रक्त सूची की उपलब्धता और धन की बचत
चिकित्सकों द्वारा देखभाल की योजना
मौका मिलने पर देखभाल और समय का अपव्यय
EMR होने से चिकित्सक को योजना निर्माण और निरीक्षण में सुगमता
स्रोतः informatics.nic.in जनवरी, 2014;

तालिका (ग):-

ई-हॉस्पिटल का कार्य-प्रवाह

अनुप्रयोग प्रबंधन
मरीजों का पंजीकरण
क्लीनिक
आईपीडी
प्रयोगशाला
आरआईएस और पीएसीएस
शल्य-क्रिया
बीमा और भुगतान
ईएमआर और सीडीए
फॉर्मेसी
नर्सिंग
एच.आर.
भण्डारण और सूची
उपकरण प्रबंधन

संरचना
सुगम उपयोगी
ISO/IEC9126 प्रमाणित
HL7 डेवेलपमेण्ट फ़्रेमवर्क
थर्ड पार्टी से जुड़ाव
PACS डिवाइसेस
बार-कोड डिवाइसेस
बायोमेट्रिक डिवाइसेस
लेब डिवाइसेस
अन्य
वाह्य प्रणाली अन्तरकार्यकारिता
इण्टरहॉस्पिटल
ईएमआर विनिमय
अन्य


तालिकाः(घ)

ई-हॉस्पिटल्स का विवरण

क्र. सं.
अस्पताल का नाम
पता
सम्पर्क
1.
गवर्नमेण्ट मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल
सेक्टर-32, चंडीगढ़
2.
पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल एजूकेशन और रिसर्च
सेक्टर-12, चंडीगढ़
3.
डायरेक्टरेट मेडिकल एण्ड हेल्थ सर्विस
सिलवासा, दादर एवं नगर हवेली
4.
अखिल भारतीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान (एम्स)
अंसारी नगर, नई दिल्ली
011-26588500, director@aiims.ac.in
5.
डॉ. राम मनोहर लोहिया हॉस्पिटल
कनॉट प्लेस, नई दिल्ली
011 2336 5525,
6.
कलावती सरण चिल्ड्रेन हॉस्पिटल
बांग्ला साहिब मार्ग, नई दिल्ली
23344160-Ext.-402 , drkksinghal@gmail.com
7.
लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज एण्ड श्रीमती सुचेता कृपलानी हॉस्पिटल
शहीद भगत सिंह मार्ग, दिल्ली
8.
राष्ट्रीय क्षय एवं श्वसन रोग संस्थान
दिल्ली
011-26854922 , v.vohra@nitrd.nic.in
9.
सफ़दरजंग हॉस्पिटल एण्ड वीएमएमसी
रिंग रोड, दिल्ली
01126176990 , ic.it@vmmc-sjh.nic.in
10.
स्पोर्ट्स इंजरी सेण्टर, सफ़दरजंग हॉस्पिटल
दिल्ली
098914 95930,
11.
पीएचसी एचसी सचिवालय
शिमला
12.
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेण्टल हेल्थ एण्ड न्यूरो साइंस
बैंगलुरू

080-26995001,

13.
प्राइमरी हेल्थ सेण्टर वालसँग
सोलापुर, महाराष्ट्र
02172258026 , phcvalsang@gmail.com
14.
जवाहरलाल इंस्टीट्यूट ऑफ़ पोस्टग्रेगुएट मेडिकल एजुकेशन एण्ड रिसर्च
पुडुचेरी

080-26995001,

15.
अगरतला गवर्नमेण्ट मेडिकल कॉलेज
कञ्जबन पोस्ट ऑफ़िस, अगरतला-त्रिपुरा
0381-235-7130, agmc@rediffmail.com
स्रोतः ors.gov.in/copp/more/jps

इसके अतिरिक्त कुछ और भी अस्पताल इस सेवा के साथ जोड़े गए हैं जो ई-हॉस्पिटल के साथ मिलकर काम कर रहे हैं-
∙ चरक पालिका हॉस्पिटल, मोतीबाग़, नई दिल्ली।
∙ सिविल हॉस्पिटल, सेक्टर-45, चंडीगढ़।
∙ पालिका हेल्थ कॉम्प्लेक्स, चाणक्यपुरी- नई दिल्ली।
∙ पालिका मेटरनिटी हॉस्पिटल, लोधी कॉलोनी-नई दिल्ली।
∙ रेफ़रल हॉस्पिटल सीएपीएफ़एस (CAPFs)