Monday, 28 May 2018

खानाबदोश...


अमित राजपूत



छोड़कर जहान...
जान अपनी
चले दूर होके ख़ुद से
ख़ुदा से
माँगने तेरा होश
इतने मदहोश हुए
खानाबदोश हुए...

यादों से लिपटी बारात लेकर
शफ़क़ गालों पे उतरे
तेरे जेहन में
बसे इतने भीतर
के ग़ुम गए
तेरी चौखट पर
औंधे भूल से खुले जो कपाट
पूरब से पश्चिम जा हुए
खानाबदोश हुए...

वो बेहिसाब ठहाके
जो कितनी बार लगे
ठहा के मेरे सीने में
गूँजती निजी सी हँसी तुम्हारी
अब मेरी हो रही थी
वो साँसें
समेत आँसू
जो पी गया ख़ुशी से
उनसे खेले तुमने जुँए
तो खानाबदोश हुए...

मुझे याद रहना था
उस छुअन में
थरथराहट भरी थी
कप से निकली कुनकुनी चाय के साथ
लबों को लब पिलाया था जिसमें
वो सिहरन याद रखना था मुझे
तुम्हारे सीने से पहला मिलन
जिसे कुछ ही दिन हुए
के खानाबदोश हुए...

सोचकर उड़ना है अकेले अब
मिलेगा ठौर चलते-चलते
हवाले दर तेरे रुककर
दुआ फिर इक तेरी माँगी
मिला न हिज्र में कुछ भी
यूँ सरफ़रोश हुए
खानाबदोश हुए...







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