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अमित राजपूत
चित्रः साभार |
भाग-1
इकबार परमेश्वरी अबला बन
पहुँची जाकर अवपीड़न वन,
व्यवहार कुटिल पशुवत पाकर
कहती अबला य बला मत बन।
भ्रकुटि दुष्ट की केश झरोखे
डसने जो लगी करिया सा फन,
तब काँप उठी देवी निढाल
तब काँप उठा नारी का मन।
मैं बात बताता तमस रात्रि
चीत्कार उठा यौवन सा तन,
न कोई उसके निकट दिख रहा
लुटने को पड़ा रक्तिम सा बदन।
बदहोश होश को लगा ठिकाने
फिर चाल चली थी नारी,
हाथ जोड़ दोनों आपस में
बोली- विनती सुनो हमारी।
अट्टहास कर गरजा फिर वो
जैसे शिवभक्त दशानन,
बावरी मुरइली शिरोधरा को
छूने लाया आनन।
आनन-फानन उसे झटककर
अनुग्रह तज मीनाक्षी,
गाड़के नैना उसके नैना
स्वयं की बन गयी रक्षी।
बाँध जटा अपनी उठ गयी
ले कुँडल कवच सिधारी,
गड़ा दृष्टि भँउहन में उसकी
कहती सुनो हमारी...
याचना नहीं अब होगा रण,
फिर याद रखेगा तू ये क्षण।
क्षण अभी शुरू हो युद्ध न कल
हा हा कायर!
हा हा रे विकल!!
भाग-2
फाड़कर लोचन को
सोचन क्या लाग है,
डर गई मैं
काँप-काँप थर थरा थरा थरा।
हट फट झट,
देख सर फरा सरा सरा...
चीर चीर देख मोर चीर
चीर खोल लोचन को,
गंध मोर अंग खुले
सुर सुरा सुरा सुरा...
ढील छोड़ी काली तोरी
बह चला पूरा पूरा।
ओ रे सठ!
देख लट्ठ सी भुजंग मोर है
साँझ ढली ज़िंदगानी तोर है
मेरे यहाँ भोर है।
मैं चेतना
जगाऊँगी
राग गुनगुनाउँगी
डमरू मैं बजाउँगी
नाद भरती जाउँगी
डमड् डमड् सुनाउँगी
मैं दंभ तेरा खाऊँगी।
देख, कर
में कोई अस्त्र नहीं
बाजू भी नेक शस्त्र नहीं
मुझसे कभी तू त्रस्त नहीं
त्रासदी ले लाउँगी
जो ख़ुद को मैं जगाउँगी।
ख़ामोश जो वो स्त्री नहीं
प्रचंड हूँ
कराल हूँ
मैं काल विकराल हूँ।
लिखुँगी अपनी अस्मिता
विरक्त हूँ
उन्मुक्त हूँ
विभक्त किंतु तुझसे नहीं।
सार है तू मेरा
तेरी शक्ति मैं अपार हूँ
सवार हूँ मैं ख़ुद में
तुझमें जीवन का सार हूँ।
मैं बार-बार कहती तुझसे
पूरा संसार हूं।
हाँ, पूरा
संसार हूं।।
मैं पूरा
संसार हूं।।।
ReplyDeleteअद्भुत
बहुत बहुत धन्यवाद मित्र।
ReplyDeleteIncredible work !
ReplyDeleteधन्यवाद आदर्श बाबू।
Deleteधन्यवाद आदर्श बाबू।
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