Sunday, 12 August 2018

ऐलान-ए-रब्त...


अमित राजपूत

आँखों से हर्फ़ लिख्खा है दिल में किसी ने
सरेराह रुककर,
ऐलान-ए-रब्त का फ़तवा किया है किसी ने
मगर छुपकर।

जो मेरे दीद में कडुवाहट भरी है
उजासी पीप सी पीली-पीली
रोशनी जाती है कभी फिर तेज़ चिरागाँ,
लौ जले हैं नीली-नीली
हाय मंज़र ये देखूँ कैसा दिन में चाँदनी सा
उलझूँ रात में फिरूँ हमराज़ होकर
आँखों से हर्फ़ लिख्खा है दिल में किसी ने
सरेराह रुककर,
ऐलान-ए-रब्त का फ़तवा किया है किसी ने
मगर छुपकर।

वो कहते क्यों नहीं हैं बतला दें मुझे
हर्फ़-ए-ग़लत हूँ तो यक़ीनन झुठला दें मुझे
मौजूद हैं वो हर एहसास तेरे आगे
अब ज़रूरत क्या बची है जो दिखला दें तुझे।
सच कह गये पीर ओ फ़कीर दो पल की ज़िंदगानी में
खड़े हैं महकते हमाम में सब बेपर्दा होकर।
आँखों से हर्फ़ लिख्खा है दिल में किसी ने
सरेराह रुककर,
ऐलान-ए-रब्त का फ़तवा किया है किसी ने
मगर छुपकर।

रब का वास्ता है सुनो दिलबहार यार
लाज़िम है इश्क़, मोहब्बत, प्यार
यार बंद कर खिड़कियाँ, रोशनदान सारे
अकेले घुप्प कमरे में आख़िर करोगी कैसे इज़हार
आफ़रीन कहलाओ रूबरू-ए-यार बोलो..
हया छोड़ो, आज कह दो ज़रा खुलकर।
आँखों से हर्फ़ लिख्खा है दिल में किसी ने
सरेराह रुककर,
ऐलान-ए-रब्त का फ़तवा किया है किसी ने
मगर छुपकर।

1 comment:

  1. It is really incredibly stupendous.
    The true sensation of unconditional but super true love .

    ReplyDelete