Tuesday, 19 March 2019

यूँ ही नहीं कोई 'विद्यार्थी' बन जाता...

चित्रः साभार


अमित राजपूत
गणेश शंकर विद्यार्थी का भारतीय पत्रकारिता में होना एक ऐसी कालजयी घटना थी, कि उसकी आभा से उपजे मायने आज भी उतने ही सजीव और प्रभावी हैं। गणेशजी के न रह जाने के 88 बरस बाद भी आज ऐसा लगता है, कि मानों पत्रकारों और पत्रकारिता में समसामयिक सुधार के लिए हमें उनकी कार्यशालाओं की ज़रूरत है। ऐसे में ये स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है कि गणेश शंकर विद्यार्थी समय की सीमाओं से परे आज भी हमारे लिए कितने ज़रूरी हैं और हम उनके कितने अधिक ज़रूरतमंद। हालाँकि ये बात अलग है कि 88 बरस पहले वो 25 मार्च, 1931 को कानपुर में हुये एक सांप्रदायिक दंगे के चलते काल के गाल में समा गये, लेकिन उनकी शहादत ने जो अमरता हासिल की है, उससे युगों-युगों तक ख़ासतौर पर हिन्दी पत्रकारिता को संजीवनी मिलती रहेगी।

समझने वाली बात यह है, कि हिन्दी पत्रकारिता की स्पष्टवादिता और निडरता के जो पैमाने गणेशजी ने गढ़े थे, उसके अंश मात्र को आज के संपादकों का छू पाना निपट सपना है, कइयों के लिए तो ये सपना भी मयस्सर नहीं है। इसका सबसे ताज़ा उदाहरण हमें बीते हफ़्ते नई दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में हुये एक सेमीनार में स्पष्ट रूप से देखने को मिला जिसका विषय था- हिन्दी पत्रकारिता का क्या यह दब्बू युग है?” इस आयोजन में चोटी के पत्रकार माने-जाने वाले एक प्रगतिशील न्यूज़ एंकर ने हिन्दी के कई चर्चित अख़बारों की बखिया उधेड़ते हुए उन पर ये आरोप लगाया कि बिना रिपोर्टरों के मनगढंत ढंग से ख़बरों की तिजारत का माहौल हिन्दी पत्रकारिता की दुनिया में धड़ल्ले से चल रहा है। इनमें प्रिंट और टीवी दोनों विधा के पत्रकार और ख़ासतौर पर संपादक शामिल हैं। इसके अलावा इसी मंच पर बतौर वक्ता पधारे एक आहत और अति प्रगतिशील कहलाने वाले ख्यातिलब्ध लेखक ने पहले तो मीडिया को दुत्कारा और फिर उसे याद दिलाया कि मीडिया और साहित्य कभी सहचर हुआ करते थे और आज के पत्रकारों को पढ़ने की आदत भी नहीं है। इन सन्दर्भों से ये समझ में आता है, कि जहाँ गणेश जी ने भारतवर्ष में स्पष्टवादिता और निडरता की पत्रकारिता के बीज बोए थे, उसके बरक्स अब कहीं न कहीं पत्रकारिता का दब्बूपन या यूँ कहें कि कायरता वाला दौर चल पड़ा है। तभी तो ऐसे विषयों पर संगोष्ठियों की ज़रूरत पड़ती है।

बहरहाल, विद्यार्थी जी के बारे में बड़ा स्पष्ट है कि उनको साहित्य में बड़ा रस मिलता था। 40 वर्ष की उम्र में स्वर्गवास के 3-4 मास पहले जबकि वह हरदोई जेल में थे, उन्होंने बर्नार्ड-शॉ, अपटन, सिन्क्लेयर आदि विदेशी लेखकों की अनेक पुस्तकें एवं श्री अयोध्या सिंह उपाध्याय का प्रिय प्रवास मांगकर पढ़ा था। जेल में उन्होंने खूब अध्ययन किया, सैकड़ों पुस्तकें पढ़ डालीं। शेली, स्टुअर्ड मिल, स्पेन्शर, रूसो, मोपासाँ, रस्किन, कारलाइस, टॉलस्टाय, थोरो, शेक्सपीयर, टेनीसन, ब्राउनिंग, आनातोले फ्रांसिस, बालजक और एचजी वेल्स आदि विदेश के सभी प्रमुख राजनीतिक और साहित्य के लेखकों की पुस्तकें उन्होंने पढ़ी थीं और जो नई निकलती थी, मंगाकर पढ़ते थे। दुःखद है कि ज़्यादातर मीडिया हाउसेज़ को अन्य संसाधनों की तुलना में एक अदद औसत लाइब्रेरी की ज़रूरत भी नहीं सूझती। हालाँकि कुछ पत्रकार और संपादक इसके अपवाद ज़रूर होंगे।

आज जब हम गणेश शंकर विद्यार्थी के बलिदान दिवस पर उन्हें श्रृद्धांजलि दे रहे हैं, तब हमें उनकी शहादत को भी ज़रूर स्मरण कर लेना चाहिए, कि कैसे सन् 1931-32 के राजनैतिक संकट के समय उन्होंने परहित और शान्ति की कामना के लिए प्रयास करते हुए स्वयं के प्राण न्यौछावर कर दिये और सांप्रदायिक दंगे की भेंट चढ़ गये। इस ख़बर से सम्पूर्ण देश के सक्रिय क्रान्तिकारियों में कोलाहल मच गया था। लेकिन आज आलम यह है कि कुछ संपादक इतने निर्वेद में जीते हैं कि उन्हें संवेदना मशीनी उत्पाद सी लगने लगी है। इसका परिणाम पत्रकारिता पर स्याह किन्तु परिलक्षित होता है।

यद्यपि विद्यार्थी जी पत्रकार के दायित्व को भलीभांति अनुभव करते थे और निभाते भी थे। किसानों, मजदूरों, देश की गरीब जनता के आर्तनाद ने उन्हें अपनी ओर चुंबक की तरह खींच लिया था। अंग्रेजों की नौकरशाही के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करने के लिए वे आजीवन कमर कसे रहे। चाहे देशी रियासतों के राजाओं द्वारा जनता के प्रति अत्याचार हो अथवा किसी ज़मींदार के द्वारा किसी किसान को सताया जा रहा हो- विद्यार्थी जी सब का सामना करने के लिए तैयार रहते थे। हालांकि उन्हें अपने समकालीन और आगे के पत्रकारों के मूल्यों और क्रिया कलापों के बारे में बड़ी चिन्ता थी। उन दिनों वे पत्रकारिता के भविष्य से इतने व्यथित थे कि उन्होने कहा- इस देश में भी समाचार पत्रों का आधार धन हो रहा है। धन ही से वे निकलते हैं। धन ही के आधार पर चलते हैं और बड़ी वेदना के साथ कहना पड़ता है कि उनमें काम करने वाले बहुत से पत्रकार भी धन ही की अभ्यर्थना करते हैं। अभी यहां पूरा अंधकार भी नहीं हुआ है, किन्तु लक्षण वैसे ही हैं। कुछ ही दिन पश्चात यहां के समाचार पत्र भी मशीन के सदृश हो जाएंगे और उन में काम करने वाले पत्रकार केवल मशीन के पुर्जे। व्यक्तित्व न रहेगा, सत्य और असत्य का अंतर न रहेगा, अन्याय के विरुद्ध डट जाने और न्याय के लिए आदतों को भुलाने की चाह न रहेगी, रह जाएगा केवल खींची हुई लकीर पर चलना।

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