• अमित राजपूत
स्टेंसिलः शिवाजी सिंह |
बीछी के भ्रूण सा
भय
भर गया है मुझमें!
अब तलब को ठीक था
सटीक था
अस्तित्व मेरा
ज्यों बढ़ा
भीतर तेरे
भयभीत था
ये जानकर जाना
कि लड़ पड़ूँगा
अपने ही मीत से।
जीतेजी सब मर गया है मुझमें
बीछी के भ्रूण सा
भय
भर गया है मुझमें!
प्रश्रय दिया तूने मुझे
मिलाया गेह से
सँवारा नेह से
बताकर जीना मुझे
पीना सिखायी उलझन
सिखाया ठाठ से जीना
कमीना मैं
भला
स्वयं को पाऊँ कैसे
कैसे करूँ
अपना विस्तार
पार पाऊँ कैसे
तुझसे
उलझूँ
या चीर जाऊँ तुझको...
हे राम!
कहो...
मैं गर्भपात पाऊँ
या युक्ति दो
स्वयं को कैसे मिटाऊँ
अब थिर नहीं मुझमें
क्योंकि
बीछी के भ्रूण सा
भय
भर गया है मुझमें!
आशना में जा सना हूँ
पर, हैं मुझमें
उड़ ही जाऊँ...
या समेटे स्नेह-रज
वहीं गोता लगाऊँ
पर कहो तुम ही भला
रति में श्रृंगार ना पाऊँ
तो समझो
बीछी के भ्रूण सा
भय
भर गया है मुझमें!
रहना है
या नहीं रहना
लिए संशय इसी का
सोचता हूँ
कोसता हूँ
द्वंद्व को
हल करूँ कैसे
मौत तो निश्चित है
तेरी
या मेरी
मति में
कौंधती है इक बात
कहीं निर्वेद में
शान्ति ना पाऊँ
तो समझो
बीछी के भ्रूण सा
भय
भर गया है मुझमें!
बेहद सारगर्भित अभिव्यक्ति सर। बीछी के भ्रूण सा भय। आपने उन सारी भावनाओं, शंकाओं और पीड़ाओं को शब्द दिए हैं जो ह्रदय को कचोटती तो हैं लेकिन पहचान में नहीं आती हैं। ढेर सारी बधाई।
ReplyDeleteएक बेहतरीन पाठक और विवेचक के तौर पर आपको पाकर हर्षित हूँ सुयश जी।
Deleteहार्दिक आभार आपका। जीते रहो...