Thursday, 31 October 2019

स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार की पहली हक़दार फ़्रेडरिक इरीना ब्रूनिंग को बधाई!



• अमित राजपूत
बुधवार 30 अक्टूबर, 2019 को जैसे ही स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार की घोषणा हुयी देश-दुनिया में गाय और गो-सेवा के प्रति लोगों का नज़रिया बदलने लगा। वास्तव में गो-सेवा को लेकर अभी इतना ही नहीं, बल्कि गहरे रोमांच की ज़रूरत है। कम से कम भारत में तो यक़ीनन इसकी बेहद ज़रूरत है और स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार इसके आरम्भ की बहुत ही सुनियोजित और दिलचस्प शुरुआत है। यह पुरस्कार दो श्रेणियों गो-सेवा और शिक्षा के क्षेत्र में दिया जा रहा है। इसमें गो-सेवा के क्षेत्र में पुरस्कार की श्रेणी अपने आप में विशिष्ट श्रेणी है, क्योंकि गो-सेवा विशेष के लिए अब तक इस तरह का कोई भी पुरस्कार चलन में नहीं है।

स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार भारत के पहले गेरुआ वस्त्रधारी सांसद और अभूतपूर्व सन्यासी स्वामी ब्रह्मानंद के नाम पर इस साल उनकी 125वीं जयंती-वर्ष से गो-सेवा और शिक्षा के क्षेत्र में विशिष्ट कार्य करने वाले भारतीय और गैर-भारतीय नागरिकों को प्रत्येक वर्ष प्रदान किया जायेगा। जहाँ तक मुझे ख़बर है कि स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार प्रत्येक वर्ष त्यागमूर्ति स्वामी ब्रह्मानंद जी की जयन्ती 4 दिसम्बर के दिन लोधेश्वर धाम, राठ (उत्तर प्रदेश) में दिया जाया करेगा। यदि फ़्रेडरिक का वहाँ आना संभव न हो पाया तो समिति उन्हें उनके आश्रम जाकर शनिवार, 23 नवम्बर, 2019 को सम्मानित कर सकती है।

इस स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार में अवॉर्डी को 10,000 रुपये जो कि भविष्य में बढ़ाये भी जा सकते हैं, धातु विशेष का पदक, स्टेचू, सनद और अंगवस्त्र प्रदान किया जायेगा। इस पुरस्कार का प्रयोजक लक्ष्य(लोधी क्षत्रिय एम्प्लॉइज़ एंड इंटलैक्चुअल्स एसोसिएशन) नाम का ग़ैर-सरकारी संगठन है।


मेरे लिए निजी तौर पर यह बेहद दिलचस्प बात है कि स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार का आरम्भिक पुरस्कार जिन फ़्रेडरिक इरीना ब्रूनिंग को दिया जा रहा है मैं उनका प्रस्तावक हूँ। मेरे प्रस्ताव को स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार समिति ने सर्व सम्मति के साथ स्वीकार किया मैं इस समिति के प्रत्येक सदस्य का हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।

इस साल की स्वामी ब्रह्मानंद अवॉर्डी फ़्रेडरिक के बारे में बताऊँ तो सु श्री फ़्रेडरिक इरीना ब्रूनिंग का जन्म 02 मार्च, 1958 को जर्मनी के बर्लिन शहर में हुआ है और अब ये 61 वर्ष की हैं। साल 1978 में जब ये 20 वर्ष की किशोरवय थीं तो पर्यटन के उद्देश्य से भारत आयी हुयी थीं, जिसके बाद से ये हमेशा-हमेशा के लिए भारत में रच-बस गयीं और ब्रज को अपनी साधना का केन्द्र बनाया। बीते 41 सालों से यहाँ रहकर फ़्रेडरिक भारतीय अस्मिता को आत्मसात कर रही हैं और पिछले 25 सालों से अनवरत गायों की देखभाल और उनकी सेवा के प्रति पूरी तरह से समर्पित हैं।

इन्होंने उत्तर प्रदेश के मथुरा में कोन्हई गाँव के पास एक राधा सुरभि गोशाला बनाई है, जहाँ ये लगातार लगभग डेढ़ हज़ार गायों की सेवा करती हैं। जिन गायों की सेवा में फ़्रेडरिक लगी हैं, वे सभी ग़ैर-उपादेय यानी कि सामान्यतः लोग जिन्हें ग़ैर-ज़रूरतमंद समझते हैं मसलन जो दूध नहीं देतीं उन गायों का पालन-पोषण करती हैं। इनमें ज़्यादातर बूढ़ी, बीमार, रोगी, घायल और कमज़ोर गायें शामिल रहती हैं। अपने सम्पूर्ण जीवनवृत्त में अब तक इन्होंने लाखों गायों की सेवा का पुण्य लाभ उठाया है।


इन गायों की देखभाल के लिए सु श्री फ़्रेडरिक को लगभग 25-30 लाख रुपये मासिक का खर्चा आता है, जिसे ये प्रमुख रूप से बर्लिन में स्थित अपनी पुश्तैनी संपत्ति से वहन करती हैं। शेष उन्हें लोगों का सहयोग भी प्राप्त होता है। गो-सेवा के प्रति सु श्री फ़्रेडरिक की दीवानगी ऐसी है कि इन्होंने इसके लिए अपनी तरुणाई समेत पूरा जीवन इसमें खपा दिया, यहाँ तक कि इन्होंने विवाह भी नहीं किया बावजूद इसके कि वह अपनी माँ-बाप की इकलौती संतान हैं।

इनके ऐसे प्रेरणादायी कार्य के लिए लोग इन्हें बछड़ों की माँ कहते हैं और ये ब्रज समेत पूरे भारतवर्ष में सुदेवी दासी या सुदेवी माता के नाम से पुकारी जाती हैं। इसलिए, गो-सेवा के क्षेत्र में सु श्री फ़्रेडरिक इरीना ब्रूनिंग के द्वारा किए गये अद्वितीय, अप्रतिम एवं अनुकरणीय कार्यों और उनके विशिष्ट प्रयासों हेतु उन्हें जो आरम्भिक स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार मिला है असल में उसकी पहली हक़दार वो ही थीं। अतः मेरी ओर से स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार की पहली हक़दार फ़्रेडरिक इरीना ब्रूनिंग जी को कोटि-कोटि बधाई!

Thursday, 24 October 2019

सावरकर नहीं, विद्यार्थी के नाम पर ही बन सकती है भारत रत्न की बात!

चित्रः साभार
• अमित राजपूत

हाल ही में बीते विधानसभा चुनावों में महाराष्ट्र-भाजपा की ओर से उनके चुनावी घोषणा-पत्र में विनायक दामोदर सावरकर को भारत रत्न दिये जाने के लिए मांग का ऐलान करते ही देशभर में सावरकर को लेकर बहस छिड़ गयी। इसके बरक्स दो दिनों पहले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कानपुर में एक जनसभा को संबोधित करते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी को भारत रत्न दिये जाने की अपनी मांग रख दी और उसके कारण भी बताये। इस प्रकार, भारत रत्न के प्रस्ताव हेतु महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के पास अपने-अपने विभूति क्रमशः सावरकर और विद्यार्थी हो गये हैं।
मुख्यमंत्री बघेल ने कानपुर में सार्वजनिक रूप से यह प्रस्ताव रखा कि भारत रत्न देना ही है तो आजादी के लिए लड़ने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी को दिया जाये। इस पर उनका तर्क था कि सावरकर को मानने वाले लोग वैचारिक असहमति होने पर बांटने की और प्रतिशोध की राजनीति करते हैं। लेकिन वहीं गांधी और गणेश का भारत अहिंसा का भारत है। इस प्रकार, हमारे पारंपरिक राष्ट्रवाद में असहमति को पूरा स्थान मिलता था। जबकि सावरकर के पैरोकारों में यह परंपरा निर्वहन नहीं करती है। गणेश शंकर विद्यार्थी के बारे में बघेल ने जो दीगर महत्वपूर्ण बात कही जो कि अन्य कांग्रेसी नेता अब तक नजरअंदाज़ करते आये हैं वह ये कि उन्होंने स्पष्ट रूप से रेखांकित करते हुए कहा कि गणेश शंकर विद्यार्थी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष (यूनाइटेड प्रोविन्स यानी यूपी के) रहे थे।

वास्तव में बघेल का गणेश शंकर विद्यार्थी को लेकर दिया गया इस तरह का बयान उनके विरोधियों द्वारा उनकी पार्टी के शीर्ष प्रतीकों की वैचारिक हड़प की शैली पर अवरोध पैदा करने के तौर पर भी देखा जा सकता है। यह बघेल का एक अच्छा पॉलिटिकल डिफेन्स है, क्योंकि गणेश शंकर विद्यार्थी के बारे में अब तक स्वयं काग्रेस पार्टी द्वारा भी यह प्रमुखता से रेखांकित नहीं किया जाता रहा है कि वह यूपी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे हैं, लेकिन देश में चल रही राजनैतिक तासीर को समझते हुए बघेल ने एक अच्छा दांव खेला है।
भूपेश बघेल के पास गणेश शंकर विद्यार्थी को भारत रत्न दिये जाने के पीछे कई सारे तर्क हैं और वो सभी उनके राजनीतिक विरोधियों की विचारधारा पर प्रहार करते हैं। बघेल ने सबसे पहला तर्क यह दिया है कि गणेश शंकर विद्यार्थी जोकि कांग्रेस के बड़े नेता थे उन्होंने भगत सिंह को अपने नज़दीक रखा जबकि भगत सिंह वामपंथी विचारधारा के थे। बावजूद इसके उन्होंने भगत सिंह को दो महीने अपने घर पर रखा। इतना ही नहीं उन्होंने भगत सिंह को अपने प्रतिष्ठित अख़बार प्रतापका कॉरेन्पॉन्डेंट भी रखा था। बघेल बताते हैं कि यह असहमति का सम्मान है, जो अब ख़त्म हो गया है। इस बहाने बघेल यह भी बताने की कोशिश कर गये कि कांग्रेसियों की विचारधारा असहमति का सम्मान करने की रही है और है, जबकि उनके विरोधी असहमति की राह पर चलते हैं।

असहमति का सम्मान करके के एवज में गणेश शंकर विद्यार्थी का वास्तव में कोई सानी नहीं था। सन् 1915 में होम रुल लीग के प्रभारी रहे विद्यार्थी ने जब फतेहपुर में कांग्रेस की नीव डालने पर विचार किया तो उग्र क्रान्तिकारी तेवर वाले घोर राष्ट्रवादी और राम चरित मानस के पक्के वाचक झंडा गीत की रचना करने वाले श्याम लाल गुप्त पार्षद को सबसे पहले अपने क़रीब रखा और उनके नेतृत्व में फतेहपुर कांग्रेस के गठन का काम आगे बढ़ाया। इसके बाद भी जिन दो लोगों को विद्यार्थी ने पार्षद जी के साथ लगाया उनमें फ़तेहपुर के दो नामी वकीलों बाबू उमाशंकर व बाबू वंशगोपाल को भेजा। इन दोनों में बाबू उमाशंकर आर्य समाज के परम उपासक और स्पष्ट रूप से दक्षिणपंथी विचारधारा वाले नेता थे और गांधीवादी बाबू वंशगोपाल घोर कांग्रेसी नेता थे। ऐसे में गणेश शंकर विद्यार्थी में वैचारिक असहमति के बाद भी लोगों को साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति का पता चलता है।

इसके अलावा भारत रत्न देने की बात यदि राष्ट्रवाद के नाम पर ही हो तो भी लोगों को यह ध्यान में रखना होगा कि गणेश शंकर विद्यार्थी को संगठित राष्ट्र का बीज बोने वाले नेता के तौर पर भी देखा जाता है। ऐसे में बहुत हद तक इसमें कोई दो राय नही है कि गणेश शंकर विद्यार्थी को भारत रत्न दिये जाने के प्रस्ताव को दक्षिणपंथी धड़ा नकार पाये, क्योंकि वह कहीं न कहीं विद्यार्थी की विचारधारा और उनके कार्यों की सराहना करती आयी है। इसमें सबसे दिलचस्प तो यह रहा कि यूपी की मौजूदा योगी सरकार ने साल 2017 में अपनी सरकार बनाने के महीने भर के भीतर ही गणेश शंकर विद्यार्थी की कर्मभूमि कानपुर के चकेरी हवाई अड्डे का नाम बदलकर या नामकरण कर गणेश शंकर विद्यार्थी हवाई अड्डा कर दिया था। ये संकेत बताते हैं कि दक्षिणपंथियों को विद्यार्थी के नाम पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। इसलिए जब बात सहमति की ही होगी तो सावरकर से अधिक गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम पर ही भारत रत्न दिये जानने की आम सहमति बननी चाहिए।

इस प्रकार, वास्तव में वैचारिक शून्यता के दौर से गुजर रही कांग्रेस पार्टी के लिए भूपेश बघेल की ये धारा उनकी पार्टी को राजनीति की ख़तरीली लहरों से निकालकर साहिल तक पहुँचा सकती है, जहाँ से उनकी पार्टी फिर से अपनी कश्ती को एक नए सफर के लिए बेहतर ढंग से तैयार कर सकती है।
(लेखक अंतर्वेद प्रवरः गणेश शंकर विद्यार्थी पुस्तक के लेखक हैं)

Tuesday, 1 October 2019

काले मेघों की व्यथा



अमित राजपूत
समेटकर ऐब दुनिया के
चलते हैं जो
जाकर मिलते हैं
थके हारे
बाप सा पाकर पोषक
ममता माता सी
देखकर मिल जाते हैं जहाँ
उस ठौर से
करते हैं याचना
बताते हैं उलझनें
कितनी भरी पड़ी हैं उनमें।

फिर रोते हैं
तड़पते हैं
बदन नीला होने तक
काल बनते हैं ख़ुद के
और उड़ जाते हैं इस दुनिया से
अचानक
पल भर में
आग़ोश में ले लेते हैं
काले मेघों से चितधारी
जिनके पास है पूरा आकाश
लिहाजा ये सेते हैं
लेकर दुःखों का अर्क
ये काले मेघ
सोचते हैं
उतारें बोझ
या ढोते रहें इनको?

कोसते हैं दुनिया वाले
गरियाते हैं
जो अइबी हैं
बरसते क्यों नहीं हैं
ये काले मेघ
स्वयं भी यही सोचते हैं
क़द्र तो है नहीं किसी को
फिर क्यों उढ़ेलूँ
अपने मारफ़त
किसी के दुःख भरे एहसास।

अंत में बरस जाते हैं
देकर चोट पर चोट
लहूलुहान होते हैं
अपनी छाती पर भारी पत्थर मार
काले मेघों की व्यथा
यही है।