• अमित राजपूत
समेटकर
ऐब दुनिया के
चलते
हैं जो
जाकर
मिलते हैं
थके
हारे
बाप
सा पाकर पोषक
ममता
माता सी
देखकर
मिल जाते हैं जहाँ
उस
ठौर से
करते
हैं याचना
बताते
हैं उलझनें
कितनी
भरी पड़ी हैं उनमें।
फिर
रोते हैं
तड़पते
हैं
बदन
नीला होने तक
काल
बनते हैं ख़ुद के
और
उड़ जाते हैं इस दुनिया से
अचानक
पल
भर में
आग़ोश
में ले लेते हैं
काले
मेघों से चितधारी
जिनके
पास है पूरा आकाश
लिहाजा
ये सेते हैं
लेकर
दुःखों का अर्क
ये
काले मेघ
सोचते
हैं
उतारें
बोझ
या
ढोते रहें इनको?
कोसते
हैं दुनिया वाले
गरियाते
हैं
जो
अइबी हैं
बरसते
क्यों नहीं हैं
ये
काले मेघ
स्वयं
भी यही सोचते हैं
क़द्र
तो है नहीं किसी को
फिर
क्यों उढ़ेलूँ
अपने
मारफ़त
किसी
के दुःख भरे एहसास।
अंत
में बरस जाते हैं
देकर
चोट पर चोट
लहूलुहान
होते हैं
अपनी
छाती पर भारी पत्थर मार
काले
मेघों की व्यथा
यही
है।
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