चित्रः साभार |
गुनागार नहीं मैं,
निर्गुनी हूँ।
फ़क़ीर हूँ... कहाँ मैं
धनी हूँ?
बिखरी हैं पत्तियाँ
दुनिया में मेरी भी,
ढीठ हूँ, जटिलता में
नागफनी हूँ।।
जग में... शोर बहुत है
यारों!
सुन-सुन किसकी-किसको
तारूँ?
छेड़ा जो राग सिंफ़नी
का, बज उठी
अपनी ही धुन का धुनी
हूँ।।
जीवन निर्वासित,
अंगार-आसित
कामना नहीं, फिर भी धन
है अयाचित।
देना न लेना मैं बंद गनी
हूँ,
रहने दो छूना न! चुभते-सनसनी हूँ।।
बिखरी हैं पत्तियाँ
दुनिया में मेरी भी,
ढीठ हूँ, जटिलता में
नागफनी हूँ।।
शानदार, जबरदस्त
ReplyDeleteहार्दिक आभार।🌺🙏
Deleteबहुत ही शानदार और जबरदस्त है ये कविता वाह भैया वाह दिल को छू लिया
ReplyDeleteधन्यवाद प्रिय पवनेश जी।🙏🌻🌺🌿🥰
Deleteशानदार जबरदस्त जिंदाबाद
ReplyDeleteहार्दिक आभार।🌺🙏🌿
DeleteUnmatched and meaningful
ReplyDeleteThank you so much.🌻🙏
DeleteRegards🌺
अद्भुत एवं अद्वितीय रचना!!!!
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका।🌺🙏🌻🌿🥰
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteअमित जी, बहुत खूब। भावी रचनाओं के लिए शुभकामनाएं।
ReplyDeleteGreat🤗 👌👌
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