Friday, 29 October 2021

लोक-गीतों व संस्कृतियों के मौलिक बोध से ही रहने लायक बनेंगे गाँव

• अमित राजपूत

खड़कपुर। यही वह पहला गाँव है, जिसका बोध मुझे मेरे जीवन व अनुभव-संसार में पहली बार हुआ। सोलह महा-जनपदों में से एक भगवान बुद्ध की तपोस्थली कौशाम्बी-जनपद (उत्तर प्रदेश) का एक छोटा सा गाँव है खड़कपुर, जहाँ औसतन ग़रीब लोधी-राजपूतों की एकमुश्त आबादी है। गाँव के निर्वासित-इलाक़े के दक्षिण-पश्चिमी कोने पर एक सम्पन्न ब्राह्मण परिवार का भी घर है, जो कुछ ही सालों पहले यहाँ आकर बसा था। इस अकेले ब्राह्मण परिवार समेत यहाँ की पूरी आबादी कृषि पर ही आधारित है। गाँवभर में नौकरी-पेशे में कोई नहीं है। एकाध परिवारों में जिनका गाँव से पलायन भी हुआ, वो मज़दूरी करने पुणे, मुम्बई और लुधियाना जैसे शहरों में गए हुए हैं। इसमें भी पुणे की ओर पलायन करने वालों की संख्या अधिक है। यहाँ गाँव से पलायन करने वालों की कुल संख्या औसतन बहुत कम है, क्योंकि पहले तो गाँव की मिट्टी ही बहुत उपजाऊ है। गंगा का मैदानी इलाक़ा है। दूसरा, प्रयागराज जैसा महानगर भी बहुत नज़दीक है। प्रयागराज के नज़दीक होने से किसानों को अच्छी मण्डियाँ मिल जाती हैं, जो लोग अपने निजी काम-धंधे के लिए प्रयासरत् हैं, उनके लिए यहाँ बेहतर मौक़े हैं।

बहरहाल, खड़कपुर मेरा ननिहाल है। यहाँ के मंगल सिंह की इकलौती बेटी कमला देवी ही मेरी माँ हैं। मेरे कुल तीन मामा थे, जिनमें से अब अकेले मानसिंह मामा ही जीवित हैं। शेष दो बड़े मामा-लोगों की गाँव की ही रंज़िश में किसी ने हत्या कर दी थी। मेरे मामा-लोगों की हत्या के शोक में मेरे नाना मंगल सिंह इतने संतृप्त और बीमार हुए कि उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये। ये सब क़िस्सा मेरे जन्म के बहुत पहले का है, लिहाज़ा मैंने अपने दो बड़े मामाओं और नाना को नहीं देखा। मेरे नाना और दो मामाओं की मौत के बाद मैंने अपने सीधे-साधे मानसिंह मामा को पाया। वो मुझे बहुत प्यार करते हैं। मेरे ननिहाल का घर मिट्टी की मोटी-कच्ची दीवारों का है। दुवारे मतलब भर का मैदान है और उसके आगे बड़ा सा गहरा तालाब, जिसे गाँव के लोग धीरे-धीरे कचरा डाल-डालकर पूरते जा रहे हैं।

मामा के घर के सामने वाले तालाब की मौजूदा स्थिति।

मेरे बचपन में इस तालाब की अलग ही रौनक थी। इसमें तैरने वाले जलीय पक्षियों के गीत और उनकी अटखेलियों की स्मृतियों से मेरे बालमन का आकाश भरा पड़ा है। तालाब के किनारे खड़े कुछ गूलर के पेड़ों पर टिटिहरी, पड़की और बुलबुलों का कब्ज़ा रहता था। दिलचस्प होता था इनका सामूहिक गान कि क्या पता एक-दूसरे को गरियाया ही करते रहते थे। लेकिन जो भी था, उनका चहकना तो कभी-कभी मन में सिंफ़नी की धुन पैदा कर देता था। ठंड की रातों की वो स्मृतियाँ मेरे मन से कभी जुदा न होंगी, जब दुवारे कउड़ा (अलाव) जलाकर मामा हम बच्चों के लिए उनसे कुछ गंजियाँ (शकर-कंद) गाड़ दिया करते थे। फिर हम मामा से कहानियाँ सुनते-सुनते उन्हें बड़े चाव से खाया करते थे। माँ क़सम... कउड़े में भुनी उन गंजियों की मीठास अब मोल नहीं मिलती।

खड़कपुर से कुछ चंद किलोमीटर की दूरी पर पूरब दिशा में कड़ा है। कड़ाधाम में गंगा किनारे माँ शीतला की मौलिक सिद्धपीठ है। यहीं बाबा मलूकदास का आश्रम भी है।

कौशाम्बी के कड़ा में स्थित संत मलूकदास की गद्दी व साधना स्थल का मौजूदा स्वरूप।

इसके अलावा कड़ा में राजा जयचंद का जर्जर क़िला भी है, जो अब दिन-ब-दिन धराशाई होता जा रहा है। 12वीं-13वीं सदी के तमाम अवशेष और क़ब्रें भी यहाँ विपुल मात्रा में हमें देखने को मिला करती थीं।

कड़ा में राजा जयचंद के क़िले का भग्नावशेष।

इन सब तमाम बिम्बों का मुझ पर गहरा असर हुआ। मुझमें जिज्ञासाएँ पनपने लगीं। खड़कपुर से कड़ाधाम हमलोग पैदल जाया करते थे। यात्रा में ख़ूब आनन्द आता था। हमलोग पूड़ी-सब्ज़ी रुमाल में बाँधकर चलते थे। रास्ते में किसी दरख़्त की छाँव में उससे पेट छकने पर आत्मा तक छक जाया करती है। वो स्वाद, उसका जीवन और वो यात्राएँ अलौकिक हुआ करती थीं। उनमें जीवन था। वो केवल घटनाओं के घटने का प्रमाण भर न थे।

कड़ाधाम में माँ शीतला की सिद्धपीठ का मुख्यद्वार।

मेरे स्कूल में गर्मियों की छुट्टियाँ आने के बहुत पहले से मैं खड़कपुर जाने की तैयारियाँ करने लग जाता था। नकली नोटों का जितना मोटा हो सकता था, उतना मोटा गट्ठर बनाता था। वहाँ नानी के यहाँ बच्चों के बीच लुसाना है। सड़क पर नोट डालकर कभी किसी को बेवकूफ़ बनाना है आदिक। मेरे बचपन में मीठे ज़र्दे में सनी गिलोरी का एक सेशे-पाउच चलता था। उसका नाम चुटकी था। यूँ तो मैं कभी चुटकी न खाता, लेकिन मेरे एक और रिश्तेदार का बच्चा बीते साल शान से चुटकी खाकर उसके पाउच में उँगली डालकर स्टाइल से उड़ाता था। बड़ा रौब था उसका। खड़कपुर में वो गर्मियों की छुट्टी में अपनी मौसी के यहाँ आता था। बस, उसी के चक्कर में मैंने भी ठान लिया था कि चुटकी की पूरी छल्ली ख़रीदकर ले जाउँगा और माहौल बनाउँगा। मैंने ऐसा ही किया। सचमुच, गाँव में इतने भर से ही माहौल बन जाया करता था।

खड़कपुर गाँव का पूर्वी छोर, जहाँ मेरे बचपन के ज़्यादातर कच्चे घर अब पक्के हो गए हैं।








मुझे गाय, भैंस व बकरी चराने का बड़ा शौक था। अपनी ममेरी बहन गुड्डी के साथ मैं मेरे मामा और अम्मा के बार-बार मना करने के बावजूद भैंस चराने जाता था। दूसरे के फसली-खेतों में जा रही भैंसों को घेरकर वापस घास के मैदान तक लाने में मुझे रोमांच मिल रहा था। अब केवल मेरे मामा की नहीं, अपितु किसी की भी भैंस घेरकर लाने की बारी आती तो हर कोई मुझे ही दौड़ाता। मैं भी बड़े शौक से जाता। मज़ा आता था... मुझे भी और उन्हें भी, जिन्हें मैं बिन भुगतान का चरवाहा-नौकर मिल गया था।

यद्यपि मैं शाकाहारी हूँ। लेकिन गाँव के कुछ जो लोग तालाब में काँटा फँसाकर मछली पकड़ने जाया करते थे, मैं उनके साथ जाता और तालाब किनारे मछली पकड़ने के लिए घण्टों बैठा रहता। सबके काँटे में मछलियाँ फँसतीं, लेकिन मछली पकड़ने में मैं ऐसा कौशलहीन व्यक्ति रहा कि आजतक एक भी झख (मछली) नहीं मारी। मेरे मामा के बेटे भइयालाल, जोकि मुझसे बड़े हैं। वो एक बोरी प्याज़ को अपनी साइकिल पर रखकर तराज़ू-बटखरा लेकर गाँव-गाँव बेचने जाया करते थे। मुझे भी ये करना था। मैंने प्रस्ताव दिया। अम्मा ने मना किया और उस दिन पीटा भी। लेकिन मैं छुपकर भाग निकला और भइयालाल के साथ गाँव-गाँव प्याज़ बेचने गया। छोटा था तो साइकिल नहीं थाम पाता था। एक जगह ग्रहाक को मैंने ख़ुद तौलकर देने की भइयालाल से ज़िद की और साइकिल को अपने शरीर पर टिकाकर प्याज़ तौल ही रहा था कि प्याज़ समेत पूरी साइकिल अपने ऊपर लेकर मैं परास्त हो गया। फिर तो भइयालाल ने भी मुझे उस दिन बहुत डाँटा था। फिर अब साइकिल से बिक्री को जाने में मेरा पत्ता कट गया। मंगलवार को खड़कपुर के पास जी.टी. रोड (अब नेशनल हाई-वे) किनारे सराँय की बाज़ार लगती है। वहाँ ज़मीन पर रखकर बेचना था। मैंने वहाँ साथ चलने के लिए फिर ज़िद की और सब मान गए। हमसब सब्ज़ी ख़रीदने तो जाते हैं, लेकिन सब्ज़ी के ढेर के उप पार विक्रेता होने का जो रोमांच है, मैं वो महसूस करना चाहता था। वास्तव में, सामान्य अनुभव नहीं है। कभी करके देखिएगा। मैंने उस दिन सराँय की बाज़ार में प्याज़ बेची। घण्टों बैठना पड़ा था, जबकि मेरे मन में प्याज़ के जल्दी बिक जाने की प्रार्थनाएँ चल रही थीं। उस रोज़ मुझे हर ग्राहक प्याज़ का ही ग्राहक दिख रहा था। जो मेरी ओर प्याज़ लेने न मुड़ता, वो मुझे अपराधी की तरह दिखता। काफी मशक्कत के बाद हमारी आधी से अधिक प्याज़ बिक गयी। मैं थक चुका था। भइयालाल तम्बाकू-युक्त गुटका खाते थे। उन्हें मैंने खाते देखा था। मुँह से ज़र्दा उड़ाने का भी अपना अलग माहौल है। मैं प्याज़ की बेंच से पैसे लेकर चुपके से गुटका खाने निकल गया। खाया और ज़र्दा उड़ाया। इसके बाद वो मुझे इतनी चढ़ गयी कि धरती-आसमान सब एक हो गया। जब मेरा नशा कुछ कम हुआ तो उस पल मैं देखता हूँ कि मैंने सारी प्याज़ बेंच डाली है, क्योंकि मुझे मेरी प्याज़ जल्दी बिकने का स्पर्धा थी। अब प्याज़ किस भाव मैंने बेची, इसका सनद तो मुझे तब मिल रहा था जब भइयालाल मुझे डाँटते और गाली-गलौच करते हुए घर ले जा रहा था।

तो ऐसा था मेरा गाँव का जीवन, जो मुझे मेरे ननिहाल से गर्मियों की छुट्टियों में किस्तों-दर-किस्तों में मिला करता था। हालाँकि मेरी पैदाइश उत्तर प्रदेश के जनपद-फ़तेहपुर के क़स्बा-खागा की है। पतित पावनी माँ गंगा और कालिन्दी तरुणी-यमुना जैसी दो महत्वपूर्ण नदियों के दो-आब समेत ससुर खदेरी नम्बर-1 और ससुर खदेरी नम्बर-2 इन दो अन्य छोटी नदियों के भी दो-आब के अंक में बसा भूखण्ड दुनिया के लिए किसी बड़े कौतूहल से कम नहीं है। चार-चार नदियों की गोद के व्यूह में सुरक्षित जिस भूमि का पालन और संरक्षण हो, वैसी भूमि भला दुनिया में कहाँ? ऐसी भूमि तो भारत को ही ख़ुदा की बख़्शीश है। इन चारों नदियों के ठीक बीचोबीच बसा जनपद-फ़तेहपुर का गौरवशाली क़स्बा- खागा कुछ इसी तरह से प्राकृतिक रूप से सुरक्षित है। खागा के इर्द-गिर्द कुछ ही दूरी पर तमाम गाँव हैं, लेकिन किसी गाँव से मेरा कभी कोई सम्पर्क नहीं बन सका। मैं खागा के ही क़स्बाई वातावरण पला-बढ़ा। इसके बाद प्रयागराज और फिर दिल्ली। लेकिन गँवारपन मुझमें कूट-कूटकर भरा है और मैं ख़ुद को भारत के गाँव का आदमी यानी गँवार कहना अधिक पसंद करता हूँ, क्योंकि मैं अपने हृदय के क़रीब गाँवों को ही पाता हूँ। 

मेरी जन्मभूमि खागा अंतर्वेद के उस बिन्दु पर अवस्थित है, जहाँ से उत्तर में गंगा और दक्षिण में यमुना समान रूप से 17-17 किलोमीटर की दूरी पर प्रवाहित हैं। यहाँ से देश का व्यस्ततम दिल्ली-हावड़ा रेलमार्ग गुजरता है। पेशावर से कोलकाता को जोड़ने वाली ग्राण्ड ट्रण्क रोड भी खागा क़स्बे के बीच से होकर जाती है। पश्चिम में मेनचेस्टर शहर कानपुर है, तो पूर्व में तीर्थराज प्रयागराज। दो-दो महानगरों से घिरे होने के कारण खागा में शहरी हाव-भाव है। यहाँ धन या धान्य से सम्पन्न लोग हैं। लोगों के पास पर्याप्त से अधिक है, लेकिन यहाँ पैसा दबाकर रखने की सभ्यता है। कुछ लोग कभी-कभी इतना दबाकर रखते हैं, कि जीवन की मौलिक आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं करते। आप चिंदी-चोर कह लें तो चलेगा। सांस्कृतिक रूप से खागा के लोग दबंग और गाली-गलौच करने वाले हैं। जो शिक्षित हैं वो भी। यहाँ कोई किसी पर ग़ुस्सा हुआ तो पहले गाली। कोई ज़रा सा ख़ुश हुआ तो गाली। किसी को कुछ अच्छा लगे तो गाली। बुरा लगे तो गाली। कुल मिलाकर समझो- बहता है पानी जैसे नाली, वैसे ही है खागा की गाली... प्रवाहित।

मेरी जन्मभूमि खागा की एक सुबह

खागा आपराधिक पृष्ठभूमि वाला क़स्बा है। उत्तर में यमुना किनारे डाकुओं संस्कृति है। तमाम गाँव सीधे ददुआ और ठोकिया जैसे चिर-परिचित डाकुओं की बैठकी रहे हैं। डकैतों और डकैतियों की संस्कृति से लबरेब दक्षिण की आबो-हवा खागा में ख़ूब बहा करती थी। मेरे बचपन में यहाँ हत्या, चोरी, डकैती और लूटपाट आम थी। अब काफी हद तक कम है। लठइती जमकर होती थी। कोई किसी को बर्दाश्त नहीं करता था। मसला कुछ हो या न हो, लेकिन लोग यहाँ तरेरकर चलने के अभ्यासी हैं। घर में भड़कोहरी (अनाज रखने का बड़ा पात्र अथवा कोठरी) हो या न हो, लेकिन यहाँ कट्टा-बन्दूक ज़रूरी है। आज भी यहाँ आम-ओ-ख़ास में सरकारी रिवॉल्वर, पिस्टल और बन्दूकों के लाइसेंस कराने की ख़ूब होड़ रहती है। बड़ी-बड़ी पैरोकारियों से लेकर नोटों की मोटी-मोटी गड्डियाँ तक सब चलता है यहाँ एक अदद लाइसेंस के लिए।

जी हाँ, मैं इसी खागा में पैदा हुआ; खागा के नई बाज़ार मोहल्ले की एक तंग गली के छोटे से घर में। खागा के संभ्रान्त घरों के नौजवान उन दिनों चरस और स्मैक के ख़ूब आदी हुआ करते थे। हमारी गली में उनका सामान्यतः आना-जाना था। वो इधर ही आकर माल फूँकते थे। एक-दो बार तो मुझे ही उनके कश में आग लगाने का परम् सौभाग्य मिला था। क़िस्सा दिलचस्प है। मुझे नहीं मालूम कि कौन सा पदार्थ विशेष था वो, लेकिन वो उसे पाँच की नोट के ऊपर मुझसे आग लगवाकर ग्रहण कर रहे थे। तब मुझे अचरज हुआ था कि ये नोट में आग क्यों लगवा रहे हैं।

खागा के नई बाज़ार मोहल्ले में मेरे घर की ओर जाने वाली गली।
नशे की धुन में आकर यही स्मैकिए किसी से लड़ाई हो जाने पर ज़बरदस्त मार मारते थे, इतनी कि नाक-गले की हड्डी तोड़ने से कम नहीं। इनमें से कुछ नेट्राबेट नाम की दवा का सेवन करने के कारण अलग लेवल में ही मशहूर थे, मानों वो हाई रैंक ऑफ़ीसर थे। इनकी इस समाज में अलग ही इज़्ज़त थी। लोग डरते थए इनसे। इनकी शौर्यगाथाएँ सुनाई जाती थीं हमें कि फलाँ नेट्राबेट खाकर मार करता है। मैं इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि जिन लोगों के कश-दम में उन दिनों मैंने आग लगाई थी, वो मेरे सिर पर जब सरेआम अपना हाथ फेकर मुझे दुलार देते थे, तो लोगों की आँखों में मेरे लिए इज़्ज़त बढ़ जाती थी। मैं धीरे-धीरे इस बात को समझने लगा और रौब में रहने लगा। इस रौब का नशा मुझमें वन नाइट हैंगओवर जैसा था। तत्क्षण उतरा। इसके पीछे की असल वजह थे मेरे पूज्य पिता- श्री राम सुमेर सिंह।

मुझसे बड़े तीन भाई हैं। मैं अपने ख़ानदान की पहली संतान हूँ, जो खागा में पैदा हुआ। इस प्रकार, मैं ख़ालिस खागा का खग हूँ। मुझसे ठीक बड़े भाई मेरे ननिहाल खड़कपुर में पैदा हुए और शेष उनसे दो बड़े भाई हमारे पैतृक गाँव भखरना में। भखरना... जिसका अब तक मैंने केवल अपने घर में नाम ही सुना था, कि हम लोग भखरना के रहने वाले हैं। यानी जो हमारा अपना गाँव है, वो भखरना है।

खागा से सात किलोमीटर दक्षिणी-पश्चिमी कोने पर बसा मेरा पैतृक गाँव भखरना।

ये है मेरा पैतृक गाँव भखरना, जिससे मैं इतने सालों बाद मिल रहा हूँ। ये अब तक मेरे लिए एक अनजाना गाँव रहा, जबकि ये अपना मेरा गाँव है। भखरना वास्तव में अपभ्रंश नाम है। शुद्ध नाम है- भरखना या भारखना। ये गाँव भार-शिवों की खान कहा जाता था, क्योंकि ईसवी के तीसरे शतक में उत्तर भारत में जब नागों का शक्तिशाली राज्य था तो हमारे मौजूदा जनपद के परिसीमनानुसार मेरे गाँव भखरना में भार शिवों की सबसे बड़ी आबादी थी। तब इन्हीं का यहाँ पर आधिपत्य रहा। ये भार शिव नाग-राजा थे, जो शिवलिंग को अपनी पीठ में धारण करने के कारण भार-शिव कहलाये। तीसरी शताब्दी या उससे पहले से हमारे गाँव की ग्राम-देवी खेमन देवी या खेमना महारानी हैं। आज भी खेमन देवी के मन्दिर में तीसरी शताब्दी के विखण्डित विग्रह मौजूद हैं, जिनकी हमलोग नियमित पूजा करते हैं। दिलचस्प है कि हमारे गाँव में कुछ साल पहले खुदाई के दौरान नव-पाषाणकालीन दो उपकरण पाये गये हैं। इससे हमारे गाँव के नव-पाषाणकालीन होने के भी प्रमाण मिलते हैं।

हमारी ग्रामदेवी खेमना महारानी, जो हमारे गाँव की ओर जाने वाले मुख्य चकरोड के उत्तरी मुहाने पर हैं।

भखरना की डेहरी (ढ्योरी) पर मुझे मेरी कई पीढ़ी की वंश परंपरा ज्ञात है, मसलन मेरे पिता श्री राम सुमेर सिंह। राम सुमेर सिंह के पिता श्री चंद्रपाल सिंह। चंद्रपाल सिंह के पिता श्री नंदलाल सिंह। नंदलाल के पिता श्री कल्लू सिंह। और कल्लू के पिता श्री बहिया बाबा। भखरना में आज जो हमारा घर है, वही हमारी मूल डेहरी है। यहाँ से हमारा सीधा जुड़ाव आज भी है। पिताजी की जवानी तक यहाँ डकैती रोज़ का काम रहा है। खागा से सात किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में बसे भखरना गाँव और गाँव के दोनों पुरवों में ऐसा कोई भी घर नहीं है, जहाँ डकैती न पड़ी हो। हमारा घर इसमें अपवाद रहा। इसमें हमारे पूर्वजों का रसूख और स्वयं पिताजी की हिम्मत का सहारा था। लेकिन कल क्या हो किसने देखा है! अपने बच्चों का भविष्य और उन्हें एक भयमुक्त समाज देना, इस चिन्ता से मेरे पिता के माथे की लकीरें गहरी होती जा रही थीं।

हमारे गाँव में कुछ डकैत हाथियों और ज़्यादातर घोड़ों से आते थे। माँ बताती हैं कि उनके हाथों में चमचमाती कटारें हुआ करती थीं। रामचन्द्र मिसिर, कालिका, लालू और बक्षराज जैसे डकैतों के नाम यहाँ का बच्चा-बच्चा जानता है। इनमें से आज भी जीवित बक्षराज एकाध साल पहले रसायन विज्ञान के लोकप्रिय अध्यापक रहे श्री बाल कृष्ण तिवारी की हत्या के मामले में जेल में हैं। श्री बाल कृष्ण तिवारी बीकेटी के नाम से जन-जन में जाने जाते थे। बीकेटी बेहद सरल स्वभाव के हमारे गाँव भखरना के ही रहने वाले अध्यापक थे, जो खागा के कई इण्टर कॉलेज़ों में ऑन डिमाण्ड पढ़ाते थे। गाँव के रिश्ते से ये मेरे बाबा लगते थे, जिन्होंने मुझे भी इण्टरमीडिएट में रसायन विज्ञान पढ़ाया था। बक्षराज ने अपने एक साथी के साथ मिलकर बीकेटी की नृशंस हत्या की। उन्हें मारकर उनका मोबाइल उनके कलेजे में चीरकर भर दिया। हत्या के बाद बिना भय और चिन्ता के लाश को धुलकर एक बड़ी पॉलीथीन में लपेटकर उनके घर से दूर जंगल में फेंका नहीं, रख आया। बक्षराज का वो साथी गाँव में हमारे घर के ठीक सामने रहता है। अब दोनों जेल में हैं, हालाँकि उन्हें पहले उनके ख़ौफ़ के कारण ये दिन देखने की नौबत कभी नहीं आती थी। बदलते वक़्त में राहत है। किन्तु शान्ति नहीं।

डकैतों के बाहरी भय और झंझावातों के अलावा भखरना गाँव के बाभन भी बड़े मशहूर हैं। इनमें से कुछ भद्र भी हैं, लेकिन ज़्यादार अपनी ईर्ष्या, धोखेबाज़ी, खार डालकर लड़ाई करने के कौशल, फरेब और गुंडागर्दी के लिए कुख़्यात हैं। आज भी जातिवाद यहाँ के नसों में धवल प्रवाहित है। मैंने अपनी आँखों से अनुसूचित जाति की स्थानीय विधायक को एक व्यक्ति के घर में एक स्टील के पात्र में मात्र पेठा भर (जिस पात्र में पेठा रखा हो, उसमें झूठन के नाम पर लगभग कुछ नहीं रह जाता) खाने के पश्चात् पात्र को सार्वजनिक रूप से धुलते देखा है। ऐसे में, अनुमान लगाया जा सकता है कि मेरे पिता जी जवानी में भखरना की सभ्यता क्या रही होगी।

भखरना में मौजूद हमारा पैतृक घर

गाँव में अपनी आत्मसुरक्षा, सम्मान और शान्ति के लिए मेरे पिता को स्वयं कई लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं। लेकिन वो हमें यानी अपने बच्चों को एक नया प्रकाश देना चाहते थे। लिहाज़ा, उन्होंने अपने पूरे परिवार को वहाँ से निकालकर खागा में एक किराए का मकान लेकर रहने लगे। तब रोज़गार के नाम पर मेरे पिता के पास कुछ नहीं था। किन्तु चूँकि साथ में मेरी माँ और दो बड़े भाई थे, इसलिए वो खागा आकर रोज़गार के प्रति चिंतित हो गए। ऐसी आवश्यकता में उन्होंने थोड़ी-बहुत अपनी पढ़ाई भी शुरू कर दी और फिर एक भद्र व्यक्ति के सहयोग से कुछ सालों बाद मेरे पिता की एक इण्टर कॉलेज़ में चपरासी के पद पर नौकरी लग गई।

वास्तव में, मेरे पिता का संघर्ष अब उरूज पर जा रहा था। वो अपने सभी बच्चों को गाँव के उस परिवेश से निकालकर समाज की मुख्यधारा में लाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने सबकुछ छोड़कर हम सबको पढ़ाना शुरू किया। हमें अच्छा परिवेश मिले, इसलिए मेरे पिता स्वयं हमारे साथ पढ़ाई करते थे। अब हमारे घर में सबसे अच्छे अध्यावसायी मेरे पिता ही हैं। मेरे पिता द्वारा गाँव छोड़कर खागा आने के जटिल निर्णय के पश्चात् मुझ समेत मेरे सभी भाई परास्नातक और अन्य दूसरी उपाधियों में निष्णात् हैं। सबसे दिलचस्प बात यह कि मेरे पिता की बदौलत हम अपनी सात पुश्तों की पहली पीढ़ी हैं, जिन्होंने पहली बार न सिर्फ़ इण्टरमीडिएट का मुँह देखा अपितु मुझे उन्होंने डबल आई टाइप इंस्टीट्यूट तक भेजने की हिम्मत जुटाई, जिसे मैंने प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण भी किया।

दिलचस्पी का एक अध्याय यह भी है कि मेरे पिता श्री राम सुमेंर सिंह ने मज़बूरी में गाँव तो छोड़ा, लेकिन ख़ुद कभी गाँव से अलग नहीं हुए। इतने सालों में वो खेती-बाड़ी के सरोकारों में नियमित रूप से गाँव आते-जाते रहते हैं। लेकिन मुझे मेरे गाँव का कोई बोध इसलिए नहीं रहा, क्योंकि मेरे पिता चाहते थे कि मुझ पर भखरना और वहाँ की सभ्यता की छाया भी न पड़े। मेरे पिता मौक़ा पड़ने पर आज भी ग़ुस्से में अक्सर दोहराते हैं- गाँव म होतेव तो पता चलत, जो बँभनन की हराही करत-करत तुम्हार काँछ न निकरि आवत।

मेरे स्नातक होने के बाद जब मेरे बड़े भाई की शादी भखरना के ही एक पुरवा के रसूखदार श्री जगतपाल सिंह के परिवार में हुयी, तब उसके बाद मेरा वहाँ थोड़ा आना-जाना शुरू हुआ। इसके पहले तक महज खागा से सात किमी. की दूरी होने के बावजूद भी मैं अपने पैतृक गाँव का रास्ता तक नहीं जानता था। जब मेरा भखरना आना-जाना हुआ, तो मैंने गाँव को एक अलग नज़रिए से देखना शुरू किया, क्योंकि ये मेरा गाँव भखरना मेरे ननिहाल के गाँव खड़कपुर से बिल्कुल जुदा था। भइया की शादी के चार-पाँच साल पहले मेरे पिता गाँव की हमारी उसी पैतृक डेहरी पर मेरे अइया-बाबा के लिए एक कच्ची कोठरी का मकान बना आये थे। वो अब खागा से निकलकर यहाँ गाँव में ही सुकून से रहने लगे थे। इस नाते मैं अइया-बाबा से मिलने जाने लगा (जाना फिर भी बड़े भाई की शादी के बाद ही शुरू कर पाया) और अपने गाँव को क़रीब से देखा। महसूस किया। गाँव में हमारे घर के सामने एक बड़ा सा तालाब है, जिसमें बारहों महीने पानी भरा रहता है। एक तालाब घर के पीछे भी है, जिसमें सिंघाड़ा बोए जाते हैं, इसलिए उसमें गर्मियों के मौसम में पानी सूख भी जाता है। अच्छी हरियाली है। पशुधन हैं। ये सब मुझे बहुत भाते हैं।

भखरना में हमारे घर के सामने का तालाब।
खड़कपुर में मीठास थी, तो भखरना में रूखापन। मेरा मानना है कि मेरे गाँव भखरना में शायद ही कभी लोक-संगीत या कोई दूसरे गानों की गूँज रही होगी। तभी यहाँ इतना रूखापन है। जबकि खड़कपुर में मैंने धान की बियाड़ लगाते समय ख़ूब गीत सुनें। खड़कपुर में जब शादियाँ होती थीं, तो पूड़ियाँ बेचते वक़्त जो गीत गाया जाता है, वो मेरे अतिप्रिय गीतों में से एक है। ये सब मैंने सुना है, लेकिन भखरना में मैंने ये सब नहीं पाया। हालाँकि अब मैं इधर कई सालों से होली में फाग गाने अपने गाँव भखरना जाता हूँ, लोगों को जमा करता हूँ। मैंने पाया कि यहाँ लोग मेरे साथ गाकर अच्छा महसूस करते हैं। उन्हें कुछ नया-नया सा और बेहतर महसूस होता है। मेरा मन भी यहाँ रमता है। सोचता हूँ, गाँव की अपनी इस डेहरी को मैं कभी न छोड़ूँगा। मेरे पिता की भी यही इच्छा है। लेकिन मेरे यहाँ रहने की शर्तों- एक सभ्य, सुसंस्कृत, समतामूलक, भयमुक्त और सहकारी गाँव बनाना मेरे लिए चुनौती है। मेरा अपना निजी अनुभव है कि इसके लिए एकमात्र सहारा मौलिक बोध के स्तर पर हमारे लोक-गीतों और लोक-संस्कृतियों के साथ हमारे गाँवों को जोड़ा जाये, तभी गाँव एक बेहतर नागरिक-समाज के रहने के लायक बन सकेंगे। इस ओर जीवनभर मेरे प्रयास रहेंगे।

भखरना में हमारे घर की चौखट पर फाग-मण्डली।
गाँवों को बसाने या उनका भूगोल सुधारने के साथ-साथ बेहद ज़रूरी होता है, उसकी आत्मा को फलीभूत करना। और उनके सामाजिक रूखेपन को समाप्त करने, एक सभ्य, सुसंस्कृत, समातामूलक, भयमुक्त और सहकारी गाँव बनाने के लिए मैं दोहराता हूँ कि ग्रामीणांचलों में प्रयोग होने वाले लोक-गीतों व उनकी अपनी संस्कृतियों के मौलिक बोध से ही रहने लायक बनेंगे गाँव।


(इति)


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