Thursday, 23 April 2015

किसान मरा है...


इन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया वालों से कह दो कि सीधे-सीधे रीजनीति में घुस जाएं, बाहर से ही भौकने से शायद इनकी राजनैतिक कुण्ठा नहीं तृप्त न हो। हालांकि ये सब उस किसान की स्थिति से वाकिफ हैं कि वो राजस्थान का रहने वाला है और अपनी बर्बाद फसल व गृह-निस्कासन के भारी अवसाद में डूबा एक आशा में दिल्ली के चक्कर काटता रहा। वो दर-दर भटकता रहा और सब देखता रहा कि यहां तो हर जगह किसान-किसान खेला जा रहा है। लेकिन किसी ने उसकी सुध न ली। न तो पूरे राजस्थान के पच्चीसों सांसदों नें और न ही दिल्ली में बैठे किसानों और किसानी पर उनके हित की राग अलापने वाले हितैसियों नें।
राजनीति में बैठे लोग आम आदमी पार्टी को दोष नहीं दे रहे, वो जनते हैं कि ये सबके लिए शर्मशार होने की बात है। सर इस घटना को केजरीवाल तक सीमित कर देना ठीक नहीं है, वैसे भी इस घटना में उन पर दोष मढ़ना फिजूल है। यदि लोग एसी के इर्द-गिर्द घूमते रहे तो कल किसी और की रैली में कोई किसान फिर मरेगा। इसलिए इसे राजनैतिक रूप न देकर किसान हित की बात के लिए आवाज़ उठाना ज्यादा उचित होगा। वो किसान किसी की भी रैली में मौजूद हो सकता था, तुम सबसे उसका जी भर उठा था। तुम्हारे फरेब ने ही उसे आत्महत्या करने की हिम्मत दे दी। लेकिन टीवियानी पत्रकारों को बस कोई पार्टी ही नज़र आती है. इन टीवी वाले पत्रकारों की तो...
भाई उस किसान की स्थिति को सही से भांपते तो सब को एक साथ गरियाते तुम। जय किसान कहने वाली सरकार को। महायोग से लौटे किसान विशेषज्ञ राजकुमार को और आप पीर्टी को बुला के ही गरिया देते तो वो गाली खा लेती आकर भाई। 
मियां आप लोग भी अपने को गरिया सकते थे, क्योंकि स्टूडियो में चेहरे पर भारी फाउंडेशन लगा कर किसान संवेदना प्रगट करने के चक्कर में किसी को भी चांपने की तुम्हारी कला मज़ेदार है।
मशाला लेने का इतना ही शौक है तो स्टूडियों में एक पतुरिया बुला कर मशाला दिखाते रहा करो। एक दिन बाद ही सही, हम सुबह अख़बार पलटकर सही सूचना ले लेंगे, बग़ैर मशाले के ही।


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