Wednesday, 27 April 2016

कचरा दानव










एक बार एक गांव में महामारी फैल गई। वहां के लोग तेज़ी से बीमार पड़ने लगे। रोज़ाना किसी न किसी घर से एक आदमी अस्पताल पहुंचने लगा। बीमार होने वाले लोगों में बच्चे, बूढ़े, आदमी और औरत सभी लोग थे। धीरे-धीरे गांव के आधे से ज़्यादा घरों के लोग बीमार होकर बिस्तरों पर पहुंच गए। अब गांव वालों के सामने यह महामारी एक बड़ी समस्या थी।
काफी दिनों से गांव वाले इस महामारी की समस्या की गुत्थी सुलझाने में लगे थे। उनको बड़ी चिन्ता थी कि जाने क्या ऐसी विपत्ति आन पड़ी है कि किसी को हैजा हो रहा है तो किसी को पीलिया। किसी के पेट में भारी परेशानी आ गई है तो किसी को त्वचा के रोगों ने घएर रखा है। बड़ी मशक्कत के बाद भी गांव वालों को इस समस्या के कारण का पता नहीं चल पा रहा था कि आख़िर माजरा क्या है जो पूरे गांव के लोग एक साथ इतनी बड़ी मात्रा में बीमार पड़ते जा रहे हैं। आधे गांव को तो महामारी ने पहले ही जकड़ रखा था। अब ये संख्या बढ़ती ही जा रही है। गांव वाले अब और ज्यादा परेशान हो रहे थे।
गांव में इस महामारी की समस्या इतनी तेज़ी से फैल रही थी कि हर आम-ख़ास और बूझ-अबूझ को इसकी भनक लग गई थी। पिंकी भी इस समस्या को जान गयी थी। वो इस बात से डरी भरी थी कि वह भी इस महामारी की चपेट में न आ जाये। हालांकि पिंकी का घर अभी इस बीमारी के कहर से दूर है, फिर भी चार साल के नन्हे से दिल में ही सही बीमारी का भय तो होगा ही।
अब तक महामारी की समस्या को लेकर गांव वालों की चिंता और भी बढ़ चुकी है और समस्या का हल कहीं दूर-दूर तक उन्हें नज़र भी नहीं आ रहा है। आज गांव के प्रधान ने इस समस्या से निपटने का हल ढूढ़ने के लिए गांव में डुग्गी पिटवाई है। शाम को पूरा गांव पंचायत भवन पर इकट्ठा हो रहा है।

आज पंचायत भवन गांव के लोगों से ठसाठस भरा पड़ा है। पिंकी भी प्रधान की मेज की बिल्कुल जोर धरे वहां बैठी है और सबकुछ ग़ौर से देख-सुन रही है। पंचायत में गांव की इस भयानक समस्या को लेकर भारी चिंता जाहिर की गई। लेकिन आज भी कोई हल न निकल सका। तभी पहली लाईन में पीछे से तीसरे नम्बर पर बैठे रजोल चाचा ज़मीन का सहारा लेते हुए खड़े हुए और सबका ध्यान अपनी तरफ खीचते भए बोले- ‘देखो भाई प्रधान जी, पास के कुंभीपुर गांव में एक बुल्ला बाबा हैं। बड़े होशियार हैं वो। लगता है कि हमारे गांव पर किसी जिन्न का साया है। कहो तो कल उनको बुला लावें?’
सभी लोग एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। प्रधान जी ने भी सबका मन भांपकर रजोल चाचा को हां कह दिया। अब भला प्रधान जी करते भी क्या किसी के पास कोई दूसरा हल भी तो नहीं था।
अगले दिन बुल्ला बाबा के साथ रजोल चाचा सहित पूरा गांव फिर से पंचायत भवन में इकट्ठा है। इस बार पिंकी बुल्ला बाबा जहां बैठे हैं उनकी पीठ से ठीक पीछे उत्सुकता से खड़ी है। प्रधान और पूरे गांव वालों के सामने रजोल चाचा ने बुल्ला बाबा के सामने गांव की समस्या को बताना शुरू किया- ‘बाबा हमारे गांव पर किसी राक्षस की साया है। लगता है कि कोई जिन्न हम गांव वालों को परेशान कर रहा है, वो हमें बीमार बना रहा है।’
‘चिन्ता की कोई बात नहीं है। मैं उस जिन्न को बोतल में भरकर इस गांव से दूर कर दूंगा.. बहुत दूर।’ बुल्ला बाबा ने पूरे गांव की सहानुभूति लेने के लिए थोड़ा ज़ोर से कहा।
अब जब रजोल चाचा खुद ही गांव की महामारी की समस्या को जिन्न से जोड़ रहे थे तो भला बुल्ला बाबा कैसे उनकी हां में हां न मिला देते। आख़िर बुल्ला बाबा का पेशा ही यह था, लोगों को अंधविश्वास के झांसे में फंसाकर उनको ठगना। लिहाजा गांव से कुछ रुपए लेकर बुल्ला बाबा जिन्न को ढूढ़ने के बहाने फरार हो गए और फिर कभी दोबारा इस गांव में लौटकर नहीं आए।
उधर गांव में बीमार होने वालों की संख्या और बढ़ती ही चली जा रही थी। इनमें औरतों की संख्या पुरूषों से बहुत ज्यादा थी। फिर एक दिन ऐसा आया जब पिंकी के घर का भी एक सदस्य बीमार हो गया और वो सदस्य कोई और नहीं बल्कि खुद पिंकी ही है। दरअसल कल रात से पिंकी के पेट में ज़ोर की पीड़ उठ रही है।वो दर्द के मारे कराह रही है। उसके दिमाग में यही चल रहा है कि बीमार करने वाले उस जिन्न को पकड़ कर कोई बोतल में क़ैद कर दे। उस जिन्न के लिए पिंकी का गुस्सा उसके चेहरे पर साफ दिख रहा था।
अगले दिन सरकार की तरफ से एक अधिकारी पिंकी के गांव पहुचा। उसे पंचायत घर की ओर जाने का रास्ता नहीं मालूम था। उस दिन पिंकी की मां उसे लेकर घर के बाहर ही बैठी थीं। पिंकी खटोले में लेटी आराम कर रही है। अधिकारी ने पिंकी की मां से पंचायत घर का रास्ता पूछा और पिंकी को बीमार देख उसकी हालत भी जानने के लिए पिंकी के पास जा बैठा। अधिकारी ने पिंकी के माथे पर अपना हाथ फेरते हुए पूछा उसकी मां से पूछा- ‘क्या हुआ है इसे?’
पिंकी की मां ने उस अधिकारी से पिंकी सहित पूरे गांव का हाल बता डाला।
‘अंकल मुझे उस जिन्न को ना, बोतल में भरना है जो हमें बीमार कर रहा।’ पिंकी ने हल्की सी तोतली आवाज़ में अधिकारी को अपने हाथओं के इशारों से कहा।
अधिकारी हंस पड़ा और पिंकी के हाथों को देखते हुए बोला- ‘जिन्न को तुम ज़रूर बोतल में क़ैद कर लेना मेरी बच्ची। लेकिन पहले ये बताओ कि आपके हाथों के नाखून इतने बढ़े हुए क्यूं हैं? यही आपकी बीमारी के असली जड़ हैं।’
पिंकी की मां हड़बड़ाकर पिंकी के और पास आ बैठी और उसके हाथों को देखने लगी।
अधिकारी ने सीधे पिंकी की मां से ही बात की और कहा कि ‘ये तो बच्ची है। आपको इसका ख्याल रखना चाहिए। पता है ये इन्हीं नाखूनों की बजह से ही बीमार है? इसके नाखूनों में जमा ये कचरा ही इसे बीमार बनाने के लिए ज़िम्मेदार है। थोड़ा साफ-सफाई का ख्याल रखना चाहिए आपको।’
थोड़ी देर सोचने के बाद वह फिर बोला कि ‘मुझे उम्मीद है कि ये पूरा गांव कचरे की बजह से ही बीमार हुआ होगा।’
पिंकी की मां चुपचाप अधिकारी की बातें सुनती रही।
‘तुम सब गांव वाले अपना कचरा कहां फेंकते हो?’ अधिकारी ने पूछा।

‘यहीं साहेब। हम तो घर के सामने ही इस तालाब के जोर में फेंक देते हैं और सब लोग भी लगभग ऐसे ही जिसे जहां मिला उसने वहीं फेंक दिया।’
‘बस यही तो तुम पूरे गांव वालों की बीमारी कारण है।’ पिंकी की मां की बातें सुनकर अधिकारी हैरान था।
‘माफ़ कीजिएगा, आप सबलोग शौच के लिए कहां जाते हो?’ अधिकारी ने फिर पूछा।
पिंकी की मां ने फटाफट सब साफ-साफ कह दिया कि ‘साहेब बाहर ही जाते हैं खेतों में। गांव में तो शौचालय ही नहीं है।’
अधिकारी ने मामले को गम्भीरता से समझते हुए कहा कि ‘देखिए, आपके गांव में स्वच्छता की हालत बहुत ही खस्ता है। सरकार के ‘स्वच्छ भारत मिशन’ की ओर से आपके गांव में भी शौचालय की व्यवस्था की जाएगी। साथ ही कचरे के सही रख-रखाव के लिए भी उचित प्रबंध की ओर ध्यान दिया जाएगा। जल्दी ही इसके लिए कोई न कोई व्यवस्था ज़रूर करवायी जाएगी। लेकिन इसके साथ ही आपके पूरे गांव को भी स्वच्छता के लिए खुद ही जागरुक होना होगा और आपसी सहयोग से अपने गांव को कचरा-मुक्त करना होगा वरना ऐसे ही सब बीमार होते रहेंगे। मैं अभी पंचायत भवन जाकर प्रधान से मिलता हूं और इसकी रपट सरकार को भेजकर यहां और भी बंदोबस्त कराने की अर्जी देता हूं। लेकिन ध्यान रहे गांव में अब और कचरा बिल्कुल नहीं।’
इतना समझाकर अधिकारी पंचायत की तरफ जाने के लिए उठता है, लेकिन इससे पहले वह पिंकी की ओर देखकर मुस्कुराता है और फिर से उसके माथे पर हाथ फेरकर उठने को करता है कि बीमार पिंकी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली- ‘अंकल जी, ये कचरा क्या होता है?’ मासूमियत भरी नज़रों से पिंकी ने उस अधिकारी से पूछ लिया।
अधिकारी ने पिंकी को ठिठोली करते हुए अपनी गोद में उठा लिया।
‘बेटा ये एक दानव है, कचरा दानव। ये बहुत ख़तरनाक होता है, जो हमें बीमार कर देता है।’ अधिकारी ने पिंकी को समझाने का प्रयास किया।
‘हूं..... फिर हमें डॉक्टर के पास जाना पड़ता है।’ पिंकी अधिकारी की बातों को अपने तरीके से समझ रही थी।
‘और क्या..!’ अधिकारी ने पिंकी की बातों की हुंकारी भरी।
‘अंकल!’ पिंकी कचरे को ख़त्म करने की फिराक़ में थी।
‘हां बोलो...।’ अधिकारी भी पिंकी को अपने संचार-कौशल से सीख देने के लिए तैयार था।
पिंकी ने अपना सवाल पूछा- ‘ये कचरा दानव कैसे मरेगा?’
‘अरे बेटा, इसका तो बड़ा आसान सा तरीक़ा है।’
‘वो क्या...?’ पिंकी ने अपनी उत्सुकता जारी रखी।
‘अब जैसे हम जिन्न को बोतल में क़ैद करते हैं ना...’
‘हां-हां...’ पिंकी की उत्सुकता और बढ़ती जा रही थी।
‘बस वैसे ही कचरे को भी उठाकर डिब्बे में बंद करके रखना है। कचरा दानव हमें कहीं भी इधर-उधर खुलेआम दिख गया न तो समझो वो हमें बीमार करके ही छोड़ेंगा।’
‘ये..ए...ए.... अब हमें जहां भी कचरा दानव दिखेगा उसे उठाकर डिब्बे में बंद कर देना है..’ और पिंकी ख़ुशी से हंस पड़ी।

उसकी हंसी में पिंकी की मां और उस अधिकारी की हंसी भी मिलती चली जा रही है, मानो पिंकी की इच्छा-शक्ति ने कचरा दानव को जिन्न की तरह हमेशा के लिए क़ैद कर लिया हो।

नन्हें क़दम..







 कचरा-कचरा नगर हुआ
हर छांव हो रही दूषित,
जल ज़हरीला हुआ चला
औ माटी भी है शोषित।

कूड़े का अंबार लगा
हर नुक्कड़ चौक-चौराहों पर,
खुद पर क़ाबू रहा नहीं
न रहा ध्यान सफाई पर।



पेड़ कटे, सूखे तालाब
हालात हो गए कितने ख़राब,
ले सुध खुद से क़दम बढ़ा तू
ना भटक आज दो राहे पर।



है जगी चेतना राष्ट्र उठा
एक नई दृष्टि का भाव जगा,
इन नन्हें क़दम हथेली से
गांव शहर सब स्वच्छ बना।



Thursday, 21 April 2016

चोर चोर चोट्टा








दीपू एक अच्छे समझ-बूझ वाला लड़का है। वह हर नई चीज़ सीखने के लिए लालायित रहता है। लेकिन वह ख़ासा नटखट और चंचल भी है। अभी-अभी दीपू के स्कूल में गर्मी की छुट्टियां घोषित कर दी गई हैं। इस बार गर्मी की छुट्टी पर दीपू अपने ननिहाल घूमने जायेगा। दीपू के ननिहाल में उसके नान-नानी के अलावा उसके मामा-मामी और उनके दो बच्चे चम्पा और बीरू हैं। चम्पा और बीरू भी दीपू के ही हम-उम्र हैं।
गर्मी की छुट्टियां बताने से पहले दीपू के क्लास-टीचर ने कक्षा में सबसे कहा है कि इस बार हर बच्चा गर्मी की छुट्टियों में एक नई सीख लेकर आएगा। इसलिए दीपू का मन और भी मचल रहा है कि वह कितनी जल्दी अपने ननिहाल पहुंचकर अपनी नानी से ढेर सारी नई बातें सीख ले और वापस आकर क्लास-टीचर और पनी कक्षा में उन्हें बताकर शाबाशी ले ले।
ननिहाल जाने से पहले दीपू ने अपनी मां के साथ कुछ खरीददारी भी की। उसने चम्पा के सुन्दर सी चमकीली फ़्रॉक और बीरू के लिए खेल-कूद वाले जूते लिए। नानी और नाना के साथ समय बिताने के लिए दीपू ने इस बार एक बड़ा सा कैरम-बोर्ड भी ख़रीदा है। अब तो दीपू ने लगभग सारी तैयारियां भी कर ली हैं। बस, अब तो सिर्फ़ मम्मी के बैग उठाने का ही चम्पा को इंतज़ार रह गया है।

दीपू अपनी मम्मी के साथ अपने ननिहाल पहुंच रहा है। ये एक हरा-भरा गांव है जहां पक्षियों के ज़ोर-ज़ोर से चहकने की आवाज़े सुनाई पड़ रही हैं। ट्यूब-वेल के ठुक-ठुक करने की आवाज़ आ रही है और मौसम में मीठास है। हवाएं जैसे गीत गाती हुई दीपू के नन्हे क़दमों के साथ-साथ बह रही हैं। दीपू अपन मां से चार क़दम आगे हाथ झुला-झुलाकर मस्ती में चला जा रहा है।
अपनी नानी के घर पहुंचे ही दीपू हैरान था। अपनी हैरानी को मिटाने के लिए उसने झटपट नानी से पूछा- ‘नानी-नानी ये घर में नया मेहमान कौन है?’
नानी ने दीपू को दुलराते हुए जवाब दिया- ‘बच्चू ये तो तोता है। इसका नाम हमने मिट्ठू रखा है।’
‘मिट्ठू...। कितना प्यारा नाम है!’ दीपू ने तोते के पिंजरे को बाहर से ही सहलाते हुए कहा।
‘ये हमसे बात भी करता है।’ पीछे से आवाज़ लगाते हुए चम्पा आ धमकी।
‘अच्छा...!’ दीपू हैरान था।
बीरू ने तोते के बार में दीपू को और बताया ‘हां-हां दीपू ये तो हमें डांटता भी है।’
‘ओह्ह्...हो, ये तो मज़ेदार है।’ दीपू को छुट्टियां और भी अच्छी लगने वाली थीं।
उधर दीपू की मामी ने ज़ोर से आवाज़ लगाई ‘दीपू.... चम्पा.... बीरू.... आकर दूध पी लो।’
तीनों दूध पीकर खेतों की तरफ खेलने निकल गए।

शाम को खाने के बाद दीपू अपने नान के पास था। नाना के बगल में रखी सुपारी की थैली को दीपू बहुत देर से उत्सुकता के साथ देख रहा था। उसने थैली को उठाने के लिए ज्यों ही हाथ लगाया पीछे से खीझती हुई आवाज़ आई।
‘चोर चोर चोट्टा...।।’
‘चोर चोर चोट्टा...।।।’
पीछे मिट्ठू लगभग अपनी भौहों को तरेर कर दीपू की ओर बनावटी गुस्से में देख रहा था।
दीपू थोड़ा झेपकर शर्मा गया और उसे देखकर सब लोग हंस पड़े। फिर दीपू ने अपनी नानी से सवाल किया कि ये तोता मुझे चोर क्यूं कह रहा है?
नानी ने दीपू को समझाया ‘दीपू ये तुम्हे चोर नहीं कह रहा है बल्कि तुमको चोर चोर चोट्टा कहकर चिढ़ा रहा है।’
‘हां तो ये मुझे ऐसे क्यूं चिढ़ा रहा है?’ दीपू ने सवाल आगे किया।
‘बच्चे तुमने नाना से बगैर पूछे ही उनकी थैली को उठा लिया था ना, तो बस इसीलिए ये तुमको चिढ़ाने लगा।’ नानी ने दीपू को मिट्ठू के चोर चोर चोट्टा कहने का कारण स्पष्ट किया।
‘तो क्या मैं नाना की थैली को नहीं छू सकता हूं नानी।’ दीपू ने पूछा।
‘नहीं।’ नानी ने कहा।
‘पर क्यूं?’ दीपू ने कारण जानना चाहा।

‘बिना किसी से पूछे बगैर किसी का सामान छूना ग़लत बात है। ये किसी सभ्य बच्चे की निशानी नहीं होती है।’ नानी ने दीपू को संतुष्ट किया।
अगली सुबह दीपू बीरू के चप्पल पहनकर घर से निकलने लगा। ऐसा करते समय दीपू को मिट्ठू ने फिर देख लिया और वह ज़ोर से चीखा- ‘चोर चोर चोट्टा... चोर चोर चोट्टा। चोर चोर चोट्टा... चोर चोर चोट्टा।।’
इस बार दीपू मिट्ठू पर आगबबूला हो गया। वह मिट्ठू के पास जाकर गुस्से में कुछ बड़बड़ाने लगा।
‘क्या मैं अब हर काम के लिए तुमसे पूछा करूं? मिट्ठू कहीं के.. हुंह।’
भीतर से नानी एक कटोरी में दही और चीनी को चम्मच से मिलाती हुई आयीं और कटोरी दीपू को थमाते हुए बोलीं- ‘गुस्सा क्यूं कर रहे हो दीपू बेटा?’
‘नानी मुझे दीपू का बोलना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता है।’ दीपू ने शिकायती स्वर में कहा।
‘लेकिन बच्चे क्या तुम सभ्य बालक नहीं बनना चाहते हो?’ नानी ने दीपू से स्वयं सवाल किया।
‘मैं तो चाहता हूं।’ दीपू ने झट से अपने मन की कह दी।
फिर नानी ने उसे ठीक से समझाया कि ‘देखो दीपू, मिट्ठू जब भी तुम्हें तुम्हारे कामों के लिए टोकता है वो सब तुम्हारे सभ्य बनने के लिए ही है। हम बच्चों को कई बातें बुरी ज़रूर लगती हैं लेकिन यदि हम उन्हे सीखते जाते हैं तो धीरे-धीरे हम होशियार होते चले जाते हैं और लोग हमे सभ्य बच्चा कहने लगते हैं। इतना ही नहीं फिर ये सारे लोग हमें हमारे व्यवहार के लिए शाबाशी भी देते हैं।’
शाबाशी से दीपू को याद आया कि उसके क्लास-टीचर ने इस छुट्टी पर एक नई बात सीखने को कहा था।
दीपू अपनी नानी की गोद में जाकर बैठ गया और बोला कि ‘मुझे अब से मिट्ठू की बातें बिल्कुल बुरी नहीं लगेंगी। बल्कि मैं उसकी बातों को अपने ध्यान में रखुंगा और सुधार लाउंगा।’
नानी ने दीपू की बातें सुनकर उसके माथे को चूम लिया।
इस तरह दीपू को लगभग आठ से दस बार मिट्ठू ने चोर चोर चोट्टा कहकर पुकारा लेकिन दीपू को मिट्ठू की बातों का बिल्कुल भी बुरा नहीं लगा। बल्कि दीपू ने तो दिन-पर-दिन अपनी आदत में सुधार लाने लगा।

दीपू की छुट्टियां ख़त्म हो गई हैं। उसका दाखिला भी उसके सहपाठियों के साथ अगली कक्षा में हो गया है।
आज अगली कक्षा में दीपू का पहला दिन है। दीपू का एक साथी उसके बस्ते से किताब निकालकर तसल्ली से अपनी बेंच पर बैठा पढ़ रहा था। तभी दीपू आ गया और उसे देखकर दीपू ने उस पर ज़ोर की चीख लगाई- ‘चोर चोर चोट्टा..।।’
कक्षा के सभी लड़के आकर दीपू के पास जमा हो गए। सबकी उत्सुकता को देखते हुए दीपू ने उन सबको चोर चोर चोट्टा का मतलब समझा दिया कि यदि कोई भी बगैर पूछे किसी का सामान उठाए तो उसको ऐसे ही चोर चोर चोट्टा कहकर चिढ़ाना है। इससे उसको बुरा लगेगा और फिर धीरे-धीरे वो अपनी आदत में सुधार ले आएगा।

दीपू की बात को उसके सहपाठी पूरी तह समझ गए हैं।
अगले दिन किसी दूसरी कक्षा का लड़का दीपू की क्लास में घुसा और चॉक-डस्टर लेकर जाने लगा। वह लड़का ज्यों ही बाहर निकलने लगा पीछे से दीपू की पूरी कक्षा चिल्लाई-
‘चोर.....चोर....चोट्टा।।।’



Sunday, 17 April 2016

बाबा हँस रहे थे...


बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के पैदाईश की 125वीं सालगिरह पर मैं दिल्ली में ही था। अन्य लोगों की तरह मेरे लिए भी आज यह एक भरपूर छुट्टी का ही दिन है। लेकिन आज भी मुझे आकाशवाणी की शक्ल देखनी ही पड़ी। ख़ुदा का ख़ैर है कि आज रिपोर्ट बनाने से बचा वरना इस रूपक की जगह मैं रेडियो रिपोर्ट लिख रहा होता। इसमें तो मैं बाब की ही कृपा मानता हूं। दरअसल डॉ. भीमराव अंबेडकर को मुझे दो नामों से ही बुलाना अच्छा लगता है। पहला, या तो मैं उन्हे दुलार में सिर्फ बाबा कहकर काम चला लेता हूं। दूसरा, या तो उनकी शान में मैं उन्हें साहेब कहता हूं।
ख़ैर, बाबा की जयंती पर यहां मेरे दफ्तर के सामने एक विशाल मेले सा माहौल है, पटेल चौक से संसद तक भीड़ की एक लंबी कतार और भोजन-पंडालों की झड़ी। यहां उत्साह है, खाना-पीना है, बड़े-बड़े ढोल और नंगाड़े हैं। मस्ती में नाज-गा रहे लोग मदमस्त हैं। खिलौनों और गुब्बारों की जगह पुस्तकों की बिक्री है और उन्हें खरीदने वालों की आंखो में उनके प्रति लालसा। दिल्ली से सटे हुए गांवों से गाड़ियां भरकर लोग यहां आए हैं। कुछ को पिछली रात को ही आकर यहां भोर से ही संसद भ्रमण के लिए लाईन में जमें हुए हैं। मालूम हो कि आज के दिन संसद के कपाट आम जनता के लिए खोल दिए जाते हैं और बाब की आज़ाद पीढ़ी उनकी थाती के अवलोकन से स्वयं में सुखद महसूस करती है।
कहीं-कहीं बाबा के प्यार की राब में लोग ज्यादा ही गुड़ मिला दे रहे थे। एक नारा सुनाई दिया ‘बाब ने पुकारा है-पूरा देश हमारा है।’ वास्तव में मैं इस नारे का ठीक-ठीक अर्थ नहीं निकाल पाया, साथ ही मुझे ये भी नहीं पता कि वो ये नारा क्यूं लगा रहे थे। हद तो तब हो गई जब एक मंच से भक्ति भरी धुन में अंबेडकर के गीत भी बड़ी तीव्र ध्वनि में बज रहे थे जो मेरे शरीर के चक्रों के द्वार खोलने का प्रयास कर रहे थे। वास्तव में ये संगीत की शक्ति थी। लेकिन मैने मंच पर रखी बाबा की तेजस्वी प्रतिमा को देखकर उनसे बतियाने लगा कि बाबा तुम्हारे बड़े रंग हैं। अब क्या, अब तो आप मन्दिरों में विराजे जाओगे।
मेरी बातें सुनकर बाबा हँस रहे थे.. बोले, ‘मुझे जितनी चिन्ता इस बात की है कि समाज में समता और भाईचारा रहे उससे भयानक ये समरसता से युक्त उन्माद मुझे साँई के जिन्दा रहते तो उसे किसी ने लोटा भर पानी न पूछा। ठीक वैसे ही मेरा पूरा जीवन संघर्षों में बीता और लोग उससे प्रेरणा लेकर जीने के बजाए मात्र मेरी ही जय-जयकार में लगे हैं। कुछ तो इस जय-जयकार से अपना उल्लू सीधा भी कर रहे हैं।’
मैने बाबा से कहा डरो मत लोग आपको साँई नहीं बनने देंगे। बाबा हँस रहे थे.. बोले, ‘यार शादी-कार्डों में गणेश जी को रिप्लेस कर दिया है। कैलेण्डर बनाकर घरों में टांगकर रोज़ाना अगरबत्तियाँ सुंघाते हैं और तुम...!’
मैं हाथ जोड़कर बाबा की मूर्ति के सामने खड़ा हो गया और पूछा- ‘बाबा आप आज भी इतने व्यथित हो?
मेरी बातों को नज़रअंदाज कर अपनी तस्वीर की ओर मेरी झुकी हुई मुद्रा को देख बाबा हँस रहे थे...
मैं एक अन्य पंडाल पर पहुँचा जहां एक युवा साती लोगों के हाथ में बंधे हुए रक्षा-सूत्र और काले धागे को कैंची से काट कर अपने पास जमा कर रहा था। सिर्फ इतना ही नहीं कलाई में पड़े मंहगे धातु के कड़े और छल्ले  भी वह उतरवा रहा था। वहीं एक सज्जन ने उत्सुकतावश उस युवा से पूछा- ‘भाई ये लोगों से कड़े-छल्ले और रक्षा-सूत्र क्यूं उतरवा रहे हो?’
‘ये ब्राह्मणवाद की निशानी है। हम बाबा साहेब के अरमानों को ज़िदा रखना चाहते हैं।’ युवा जोश में बोल गया।
‘अंबेडकर की लड़ाई ब्राह्मणवाद की लड़ाई नहीं थी।’ पलटकर सज्जन बोले और दोबारा पूछे- ‘क्या आप इन धातुओं के महत्व से परिचित हैं या फिर आप पत्थरों और रत्नों के बारे में कुछ बता सकते हैं कि उनके गुण या अवगुण क्या हैं?’
‘नहीं..। वैसे भी मैं पत्थरों को नहीं मानता।’ युवा ने कहा।
सज्जन ने समझाया ‘पत्थरों को नहीं मानता का क्या मतलब है। अलग-अलग मिट्टियों, पत्थरों और धातुओं इन सबका अपना अलग-अलग महत्व है।’
‘मैं नहीं मानता।’ युवा तनकर अड़ा ही रहा।
‘तो फिर आप लकड़ी, मिट्टी, ईंट और कंकरीट से बने घरों में भी कोई असमानताएं नहीं देखते होंगे। आपको पता है कि सबमे रेडिएशन का भारी अन्तर है?’
‘देखिए आपको कलावा नही कटवाना है तो मत कटवाओ लेकिन ये जान लो बाबा भीम इन सबके खिलाफ थे। वो ये सब नहीं मानते थे। साधु-सन्त, पूजा-पाठ, रक्षा-सूत्र, माले और रत्न आदि कुछ भी नहीं।’ युवा झल्ला रहा था।
इत्तेफाकन मैं भी वहां खड़ा ये सब सुन रहा था। मैने उस पंडाल में लगी बाबा साहेब की तस्वीर को निहारा। देखा तो बाबा हँस रहे थे.. बोले, ‘यार मैं तो बड़ा परेशान हूं आजकल।’
मैने कहा ‘वो सब तो ठीक है पर साहेब माजरा क्या है?’
वो बोले ‘ये मुझे वैसे ही आस्था विरोधी बना रहे हैं जैसे इन लोगों ने भगत सिंह को नास्तिक बनाया है। पर ये बुड़बक समझ काहे नहीं रहा है कि यदि मैं आस्थावान न होता तो राष्ट्र के लिए संविधान क्यूं लिखता और बौद्ध-दर्शन को कैसे अंगीकृत कर लेता। इनसे कहो कि मेरे चरित्र से तो साफ-साफ न्याय करें। .. कपार खा रहा है उत्ती देर से।’
मैं हँसा- ‘बाबा ये बिहारी टोन?’
मेरे चेहरे के भाव देख बाबा हँस रहे थे.. बोले, ‘ये तो अपनी-अपनी आस्था है। जबान है लपक गई।’

मैं बाबा को फिर से हैपी बर्थ-डे बोलकर वापस चला गया। लेकिन सुबह से शाम तक उस संसद मार्ग के हर पंडाल पर कभी उन पर तो कभी खुद पर बाबा हँस रहे थे...