Tuesday, 25 July 2017

यात्रा-वृतान्त : सनातनी अपमान का भीटा


∙ अमित राजपूत

चंपारन सत्याग्रह का सौवाँ साल चल रहा है। इसके शताब्दी वर्ष में मैं एक विशिष्ट दृष्टिकोण के साथ क़िताब लिख रहा हूं, नाम है- चंपारन सत्याग्रह का गणेश। ये क़िताब चंपारन सत्याग्रह की नीव डालने वाले पत्रकार शिरोमणि गणेश शंकर विद्यार्थी जी को केन्द्रित करके लिखी जा रही है और इसी सिलसिले में मैं गणेश जी के पैतृक ग्राम हथगांव (उत्तर प्रदेश के फ़तेहपुर ज़िले की खागा तहसील में) और कर्मभूमि कानपुर में शोध और विश्लेषण की सहजता के लिए फ़तेहपुर जनपद की खागा तहसील में ही रुका हुआ हूं। काम ज़ोरों पर है। लेकिन मेरे सह-लेखक अजीत प्रताप सिंह चौहान ने मुझे पञ्चाक्षर पञ्चश्वरों (लोधेश्वर, थवईश्वर, तांबेश्वर, जागेश्वर और आधेश्वर) में से एक जागेश्वर महादेव के दर्शन करने की इच्छा जताई। यद्यपि मैने कुछ आनाकानी की, लेकिन अगले ही पल मैं चलने के लिए हां कर बैठा। एक घण्टे बाद ही हमने दुपहिया निकालकर हर हर महादेव कहकर जागेश्वर महादेव के दर्शन के लिए निकल पड़े।

सावन का महीना है। दो-चार दिन पहले ही यहां जमकर पानी बरस चुका है और आज धूप है। धूप भी ऐसी कि न तो ढंग की धूप ही है और न ही बदली। कुल मिलाकर फसफसी गरमी और उमस भरा मौसम है। खागा से निकल कर हम विजयीपुर के रास्ते जागेश्वर महादेव के धाम जा रहे हैं। वास्तव में हम दोनो लोग चूंकि बीते तीन-चार महीनों से शोध के सिलसिले में इतने रम गए हैं कि यहां भी जागेश्वर महादेव की ओर बढ़ते समय भक्त कम शोधार्थी और मुसाफ़िरी का अंदाज़ ही भरा है। मतलब साफ यह है कि हम कहीं भी ठहर सकते हैं और फुल टंकी पेट्रोल वाली हमारी काली रंग की दुपहिया हीरो-पैशन किसी भी तरफ मुड़ सकती हैं। फिर भी हम मुसाफ़िर की तरह ही सही, बाबा जागेश्वर महादेव के धाम की ओर हमारी दुपहिया गनगनाती चली ही जा रही है।
जागेश्वर महादेव का मन्दिर

यह हमारी कोई बड़ी यात्रा नहीं है, बल्कि यह तो रगड़ती-ठहरती मुसाफ़िरी है हमारी, जो रास्ते के पानी से भरे लबालब खेतों का आनन्द भी लेती जा रही है और कहीं-कहीं ठहर कर गाड़ी रोककर किसी सज्जन से बतियाने और झलने भी लगती है। वास्तव में यह कोई रोमांचक सफ़र भी नहीं है जिसमें बड़ी-बड़ी खांइयों से होकर हम गुजर रहे हों। यहां देवदार और चीड़ के वृक्षों की उत्तुंगता भी तो नहीं है और न ही बादलों से घिरे काले, सुनहरे और सफ़ेद पहाड़ ही हैं। यहां न गर्त है न कगार, इधर झरने भी नहीं हैं और न ही समुद्र की विशालता ही कहीं नज़र आ रही है। इस सफ़र में रूहानी ठण्ड भी तो नहीं है और न ही यहां सुन्दरवन सा जंगल ही हमें कहीं दिखा ; यहां तो सब समतल है... एकदम सपाट। बिल्कुल यथार्थ की तरह। इस वक़्त यहां के मौसम में लड़ाई है। बारिश की आहट है। घाम चटख है। गर्मी की उलझन में जी घबरा रहा है। प्रकृति में भी कोई रोमांस नहीं नज़र आ रहा है। काम से भरपूर काममुक्त ओस है, खर हैं, पानी और हवाएं भी। आज इधर प्रकृति बिल्कुल अलग ही मिज़ाज में है। एकदम चित्रलेखा में वर्णित यथार्थ-प्रकृति की तरह जैसा कि भगवती चरण वर्मा ने अपने उक्त उपन्यास में प्रकृति का वर्णन किया है। प्रकृति अपने वास्तविक स्वरूप में हैं। इसे स्पर्श करके मखमली ओट नहीं मिल रही है, बल्कि यह तो मेरे कोमल हाथों में चुभ सी रही है। पानी और हवाएं मुझे रोमांस से नहीं भर रहे हैं, बल्कि ये तो मन में चिड़चिड़ेपन को और भी बढ़ा रहे हैं। वास्तव में यहां की प्रकृति तो वही अनुभव दे रही है जो सत्य है। मतलब यह सपाट, समतल इलाका हमें यथार्थ बने रहने के लिए प्रेरित-कम-मजबूर कर रहा है। शायद यही कारण है कि इस इलाके के लोगों में भी सपाटपन और साफगोई यहां की इसी प्रकृति की देन है। वैसे प्रकृति को एक ही भाव में हमसूस करने की मेरी और भगवती चरण वर्मा की चिति का कारण यह हो सकता है कि हम दोनो ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हॉलैण्ड हाल छात्रावास के अपने-अपने ज़माने के अंतःवासी रहे हैं। वहां प्रकृति से साखी होना लगभग हर अंतःवासी का सौभाग्य भी है।

हम विजयीपुर चौराहे पहुंच गए। वहां से बिना रुके ही हमने दाहिने मुड़कर असोथर रोड धर लिया। इस रास्ते पर कहीं रुकने का मन नहीं किया हमारा। सफ़र कुछ ख़ासा लम्बा भी नहीं है, इसके अलावा रुकने पर उमस अपना चरम छूने लगती है। लिहाजा हम चलते ही गए। अगले ही झटके में हम पौन घण्टे का सफ़र तय करके असोथर क़स्बे को क्रॉस करने लगे। इसके बाद शुरू हुआ ऊबड़-खाबड़ भरा रास्ता, जो यूपी की योगी सरकार के सड़कों को गड्ढा-मुक्त कर देने के हवाहवाई अरमान जोकि अनुमान ही था शायद, कड़क तमाचा जड़ रहा है। असोथर की सड़कों से ही दे-लबालब कीचड़ है। हमारी दुपहिया गाड़ी के टॉयर उससे ऐसे लदे कि जैसे यूपीए-2 पर भ्रष्टाचार आ चिपका हो और यह सब नियति का खेल मान लिया गया हो बिल्कुल इस कीचड़ की तरह जो हमारी गाड़ी के टॉयरों में आ लपटा है। लेकिन करते भी क्या गाड़ी तो आगे बढ़नी ही है, जागेश्वर धाम की ओर जाने वाली हमारी भी और भ्रष्टाचार से युक्त सरकार का भी; कल भी और आज भी।
हम असोथर से  गाजीपुर की सड़क पकड़कर आगे बढ़ने लगे। यहां रास्ते के अगल-बगल मौजूद खेतों में धान रोपा जा रहा है। इधर असोथर क्षेत्र के धान की बेड़ के भी दिलचस्प क़िस्से हैं। पहले तो इधर जो किसान अपनी ब्याड़ लेकर गुजरते हम बड़े असरज से उन्हे रोकते और उनकी ब्याड़ को हैरानी से निहारने लगते, फिर उसके बारे में चर्चा भी करते। हमारी हैरानी को देखकर वो किसान हमसे ज़्यादा अचरज भरी नज़रों से हमें देखते और पूंछते कि भइया कउन गांव के अहिव तुम कहां रहत हो?” हम पर उनका ये संदेह भरी नज़रों से देखकर सवाल उछालना, हमें वहां से फौरन फुर्र काटने को मज़बूर कर देता और हम बाबा जागेश्वर के धाम के और नज़दीक पहुंचते जाते।
जागेश्वर महादेव मन्दिर द्वार
पाँच श्वरों में एक जागेश्वर :
गाजीपुर से तकरीबन सात किलोमीटर पश्चिम चलने पर हमें बाँए हाँथ पर सड़क से सौ मीटर से भी कम दूरी पर ही विराजमान दिखे जागेश्वर महादेव। पीले रंग का भव्य शिवाला। शिवाले के द्वार पर टंगीं सैकड़ों घण्टियाँ और उन घण्टियों पर टिकीं हज़ारों भक्तों की मिन्नतों की गूंज हमें शान्ति स्वर में साफ सुनाई पड़ने लगी। हमने अपनी गाड़ी खड़ी की और कुछ देर रुककर मन्दिर के पास में लगे हैण्डपम्प से हाथ-मुंह धुला। हैण्डपम्प के बगल में खड़े बेला के पेड़ से भगवान शिव को अर्पण करने के लिए कुछ फूल चुने। मन्दिर के बाहर एक उसके ठीक सामने और दूसरी उसके बिल्कुल बगल में नारियल और प्रसाद की दो दुकाने हैं। मेरी किताब चंपारन सत्याग्रह का गणेश में मेरे सह-लेखक अजीत भइया (अजीत प्रताप सिंह चौहान बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के शोधार्थी हैं जोकि मेरे बड़े हैं और सीनियर भी, इसलिए मैं उन्हें अपने आदि से ही भइया कहकर पुकारता आ रहा हूं) ने शिवालय के बगल वाली दुकान से ही प्रसाद और नारियल ख़रीदा क्योंकि उसका विक्रेता एक नौजवान लड़का है। अजीत भइया को मैने अक्सर नौजवान कमासुतों से ही खरीदारी करते देखा है।

ख़ैर, हम दोनो ने जागेश्वर महादेव के अद्भुत शिवालय में प्रवेश किया। नारियल तोड़कर उसके जल से शिवलिंग का हमने अभिषेक किया और फिर क्रमशः रूद्र-सूक्तम् और शिवाष्टक का पाठ करके महा-मृत्युञ्जय मन्त्र का उच्चारण करते हुये वहीं आसन् जमाकर विराज गये। हमने करीब-करीब चालीस मिनट का समय उस शिवालय के भीतर ही बिताया। शिवालय के भीतर मंत्रों के जाप से निर्गत महानाद जोकि हमारे ही उच्चारण से हुआ था, हमें सुनकर आध्यात्मिकता का बोध हो रहा है। यह नाद वास्तव में शिवालय की बनावट और उसके गुम्बद की कारीगरी की वैज्ञानिकता का कमाल था। अद्भुत था। आनन्ददायी था। शक्तिदाता था।
असोथर का क़िला
राजा असोथर के यहां :
जागेश्वर महादेव के दर्शन करके हम वापस असोथर आये। असोथर महाभारत-कालीन अश्वस्थामा की प्रचीन नगरी है। हम यहां असोथर के राजा के महल पहुंचे। आज उनके महल में फिलहाल कोई नहीं था। पड़ोसियों से पूछने पर पता चला कि राजा असोथर के वर्तमान वारिस राजा विश्वेन्द्र पाल सिंह आज कानपुर चले गए हैं। लेकिन हम कुछ देर वहीं रुककर महल की भव्यता निहारने लगे, तभी एक सज्जन वहां पधारे और हमसे हमारे आने का कारण जाना। हमने उन्हे अपना परिचय देते हुए राजा से मिलने की इच्छा जताई। उस भद्र व्यक्ति ने खेद प्रकट करते हुए हमें यह बताया कि राजा साहब तो आज कानपुर में हैं लेकिन कुँवर साहब अपनी हवेली में आज मौजूद हैं। हमने फौरन ही उस जन से कुँवर तक हमारा संदेशा देने को कहा। अंत में हम राजकुँवर मनोज सिंह के साथ उनकी हवेली के भीतर थे। कुँवर मनोज सिंह के साथ अजीत भइया और मैने घण्टे भर बातचीत की। इस बातचीत में उन्होनें असोथर के राजा और अपने पूर्वजों राजा दुनियापत महाराज से लेकर राजा लक्ष्मण प्रसाद तक की ढेरों बातें हमसे साझा की। फिर उसी बीच कुँवर ने हमें जलपान कराया और अपना महल दिखाने लगे।

असोथर के राजा दुनिपत राय महाराज
कुँवर मनोज सिंह हमें बेहद तेज़तर्रार और नेक दिल वाले इंसान लगे। वो हमसे फर्राटेदार अंग्रेज़ी में बात कर रहे थे। उन्होने अपने सभी पूर्वज़ों की तस्वीरें हमें दिखलाईं और महल के भीतर मौजूद पुराने मन्दिर और कूप के दर्शन भी कराये। राजा असोथर के इस महल से गाजीपुर तक की सुरंग भी महल में मौजूद है। क़रीब-क़रीब दो घण्टे से ऊपर का वक़्त हमने राजा असोथर के यहां बिताया और फिर हम वापस होने लगे।

असोथर से निकलने के बाद दोपहर ढल चुकी थी। सूरज की तपन का तीखापन भी पहले से कमतर हो आया था। लेकिन यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि उमस और फसफसापन भी कुछ कम हुआ था। हम विजयीपुर की तरफ वापस बढ़ चले। रास्ते में कुछ दूर निकलने के बाद बाँयी तरफ एक पुराना पक्के जगत का कुँआ दिखाई पड़ा। वहां पर कुछ लाल रंग की झण्डियां भी नज़र आ रही थीं। कुँए की बाट मन को इतना मोह रही थी कि हमसे रहा न गया। हम रुके और रुककर कुँए को झांकने लगे। आश्चर्य तो यह देखकर था कि चार हाथ नीचे ही कुँए में लबालब पानी भरा है। कुँए के पास की मिट्टी गीली थी। उस इलाक़े में जगह-जगह ढेरों गहरे बिल बने हुए थे। अजीत भइया ने मुझे बताया कि ये ज़हरीले साँपों के बिल हैं, इसलिए यहां देर तलक रुकना ख़तरा भरा है। मैने अजीत भइया की बात मानकर तत्काल वहां से चलने को कहा। हम जैसे ही वहां से निकले मैने पीछे मुड़कर देखा तो दो साँप एक साथ तेजी से ठीक उसी जगह पर रेंगते नज़र आये जहां पर अभी-अभी हम खड़े थे। मैं एकदम से काँप उठा और सोचने लगा कि अगर एक मिनट पहले हम वहां से न निकले होते तो क्या होता!!!


सनातनी अपमान का भीटा :
कुछ दूर और चलने के बाद यानी असोथर से देखें तो तक़रीबन 6-7 किलोमीटर आगे विजयीपुर की ओर बढ़ने पर हमें पता चला कि यहां एक बड़ा पुराना भीटा है और उससे हज़ारों साल पुरानी मूर्तियां निकलती है। यह जानकर निश्चय ही तत्काल हम तीनों का मन उस भीटें की ओर मुड़ने का हो चला। मेरा, अजीत भइया का और हमारी हीरो-पैशन का। हम दोनों को लेकर पैशन उस भीटें की ओर दाहिने हाँथ मुड़ पड़ी।

विजयीपुर रोड से दाहिने हाँथ अन्दर घुसने पर लगभग 3-4 किलोमीटर अन्दर जाने पर पुर बुज़ुर्ग ग्रामसभा के अंतर्गत बायीं ओर एक बहुत बड़ा करीब 10 से 12 एकड़ में फैला हुआ विशाल टीला अपना सीना चौड़ा किए हुए खड़ा है। यह ससुर खदेरी- नं. 02 नदी के किनारे बसा हुआ एक बहुत बड़ा भीटा है। अच्छे डामर (तारकोल) की सड़क उस भीटे के मध्य में ऊपर बने हुए एक मन्दिर तक जाती है। हम इसी सड़क के सहारे टीले के बीचोबीच पहुंचे।
विष्णु के सर्वावतार वाली विखण्डित मूर्ति

वहां पहुंचते ही बड़ी फुर्ती के साथ हम दोनों ने ही सबसे पहले मन्दिर के बाएं हाँथ पर भगवान श्रीहरि विष्णु के सर्वावतार वाली एक भव्य मूर्ति को देखा। यद्यपि मूर्ति इतनी भव्य थी कि उसकी आभा को देख कोई भी इस ओर खिंचा चला आए, लेकिन वह खण्डित मूर्ति थी जिसका सिर और शरीर के मध्य भाग का पूरा हिस्सा नदारद था। भगवान विष्णु के एक-एक करके सभी अवतारों का व्यक्तिगत खण्डन उस मूर्ति में साफ देखा जा सकता है।

सर्पगाँठ वाली गुर्लभ कलाकृति
इसी के साथ मूर्ति की कारीगरी के बारे में कुछ कहना मतलब कला का अपमान करने जैसा है मेरे लिए। मुझे तो अभी भी उस मूर्ति के आधार में बनी सर्पगाँठ हैरान कर रही है। अब तक ऐसी बेजोड़ कारीगरी नहीं देखी थी मैने और न ही अजीत भइया ने।

टीले के मध्य में एक मन्दिर बना है जो आधुनिक है। लेकिन इसके गर्भग्रह में विराजे शिवलिंग की मूर्ति अपने ही समय की है। वहां तीन सन्त मौजूद थे। मैने उनसे उनके ताम्रपात्र में भरे जल को पीने की इच्छा जतायी। जल ग्रहण करने के बादे हमने उन साधुओं से बातचीत की तो उन्होने बताया कि यह धाम आज फिलहाल रहिमालेश्वर (रहिमल बाबा) धाम के नाम से प्रचलित है, लेकिन इसके अतीत के बारे में उन्हें कुछ भी नहीं पता था।

घण्टों बातचीत के बाद उन सन्तों से हमें जो पता चला वह यह है कि यहां पौधा रोपने के लिए भीटे की कुछ मिट्टी हटाने मात्र से ही यहां वाकई पुरानी-पुरानी मूर्तियां निकल आती हैं। मतलब इस टीले पर जहां पर भी खुदाई की जा रही है वहां पर से कोई न कोई प्राचीन छोटी-बड़ी मूर्ति निकल आ रही है। वैसे भी इस भीटे को देखकर ही कोई भी आम जन इसके पुरातन का अन्दाज़ा आसानी से लगा लेगा।
प्राप्त भग्नावशेष

यह सब जानकर और वहां धरी हज़ारों खण्डित मूर्तियों और भग्नावशेषों को देखकर हम दोनो चकित ही खड़े रहे। पहली बार एक साथ एक ही स्तान पर इतनी ज़्यादा संख्या में खण्डित मूर्तियां हम दोनों ने ही पहली दफ़ा अपनी-अपनी नंगी आँखों से देखा था। वास्तव में हम सन्न थे और हारे हुए से भी।

उन साधुओं में से एक ने हमें दिखाया कि मन्दिर की बायीं दीवार के एकदम बाट (आधार) पर जहां से शिवलिंग पर जल चढ़ाने के वह निर्गत होता है, एक पत्थर था जोकि उसके बचपन में एकदम छोटा सा ही था। लेकिन आज वह कच्छप के आकार में आधा बाहर निकला हुआ है जोकि धीरे-धीरे इस आकार में आया है। हकीक़त में मैने भी इस पत्थर को देखा और उसमें कच्छप के पैरों के स्पष्ट आकारों को भी।

कच्छप की आकृति का निकने वाला पत्थर
इस जगह का वर्णन कैसे करूँ! समझ में नहीं आ रहा है कि यहां की शान्ति का बखान करूं कि यहां के तालाबों और मन्दिर के पीछे से गुजरती ससुर खदेरी नदी के कलरव का! यहां पीपल के तमाम वृक्ष हैं और खूब हरियाली भी। मन्दिर में खड़े होकर चारों दिशाओं में किसी भी तरफ दृष्टिपात कीजिए विस्तार ही विस्तार नज़र आ रहा है जो महानता का स्पष्ट एहसास कराती है। काले-काले पत्थरों की टूटी हुई दिखाई दे रही मूर्तियों के भग्न गूढ़ता का मर्म बताने का प्रयास कर रहे हैं और भयभीत भी कर रहे हैं। यह मंदिर लगभग 1000 वर्ष से भी पुराना है।

आगे की बातचीत में यह साफ हो चला कि उत्तर प्रदेश के फ़तेहपुर जनपद के इस विशालकाय मन्दिर को तोड़ने वाला कोई और नहीं बल्कि महाक्रूर शासक औरंगज़ेब ही था। उसी ने इन महाप्रताती शिलाओं को चकनाचूर कर खंडहर बना दिया। यह पुरातात्विक दस्तावेज यह बताने के लिए काफी हैं कि फतेहपुर जिले के प्राचीन मंदिरों को सबसे ज्यादा औरंगजेब ने ही ध्वस्त किया। इसी का परिणाम है कि वर्तमान समय में इस जनपद में एक भी ऐसा दुर्लभ प्राचीनतम और विशाल मंदिर कहीं नहीं बचा है।

इतिहास भी बताता है कि औरंगज़ेब ने राजगद्दी की लड़ाई में अपने भाई शहजादा शुजा को फ़तेहपुर के खजुहा नामक स्थान पर 5 फरवरी, 1659 ई. को युद्ध करके हराया और उसकी हत्या कर दी। इसी विजय की ख़ुशी में औरंगज़ेब ने खजुहा में बाग़-बादशाही, तालाब और सराँय आदि बनवाए थे जोकि अब भी मौजूद हैं।
लेखक के साथ अजीत चौहान


औरंगज़ेब के शासनकाल में प्रसिद्ध खत्री कुल में जन्में सन्त कवि चन्ददास ने हँसवा में रहकर अपनी भक्तिपूर्ण काव्य की अमृत-वाणी प्रवाहित की। इस तरह से खजुहा के बाद इसी जनपद में निकट मौजूद इस मन्दिर के औरंगज़ेब द्वारा ही विखण्डन के प्रमाण भी लोग सत्य बताते हैं। इसके अलावा मूर्तियां जिस ढंग से विखण्डित हैं वह भी चीख-चीखकर औरंगज़ेब के क्रूरता की सबसे बड़ी गवाही दे रही हैं।

अब तक लगभग शाम ढलने लगी थी और उसी के साथ हमारा मन भी। अब हम अपने इतिहास, धर्म और संस्कृति की इतनी क्रूर उपेक्षा के प्रतीकों के चश्मदीद हो चुके हैं। यह हमारे लिए एक हृदयविदारक घटना है। निश्चित रूप से यह खण्ड हिन्दू और हिन्दुत्व के प्रतीकों पर अपमानित प्रहार का प्रतीक है। ऐसे में भला समस्त हिन्दू प्रखर होकर अपने अपमान के लिए सक्रिय होवें तो भला इसमें क्या अतिशयोक्ति!!!

लेखक अमित राजपूत
हम अपने पीछे जिस भीटे को छोड़कर चले आ रहे हैं अब दोबारा इसे देखने का मन नहीं हो रहा है। मैं कोसता हूं खुद को कि आख़िर कैसे हमारी हीरो-पैशन उस ओर उत्साह से मुड़ चली थी। देखो न, अब तो ये भी अपना पैशन खोकर कैसे हारी और थकी हुई चल रही है।

यह जो भीटा अभी तक हमें हैरान कर रहा था अब हारा हुआ महसूस करा रहा है मुझे। यह तो वास्तव में सनातनी अपमान का भीटा सा प्रतीत हो रहा है अब मुझे।

हम विजयीपुर कब डाँक (पार कर) गये पता भी नहीं चला। अब तो सभी मौन हैं- प्रकृति, उमस, हवा, अजीत भइया, मैं और निर्जीव हमारी हीरो-पैशन।

(इति।)

2 comments:

  1. इंतजार है चम्पारण का श्री गणेश

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  2. अद्भुत लेख। मुझे यह विषय बहुत पसंद आया। मेरा यह लेख पढ़ें गाजीपुर में घूमने की जगह

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