Friday, 26 March 2021

पुस्तक समीक्षा: गाँधीवादी चर्चाओं का अभिनव आलम्ब है ‘गाँधी के राम’


    हिन्दी भाषा में ख़ासतौर पर गाँधी के बारे में जितना भी पढ़ने को मिलता है उसे मौलिक तौर पर अथवा पूर्वाग्रहों के बाबत दो स्तरों पर देखा जा सकता है। पहला, गाँधी के बारे में लिखने से पहले यह मान लिया गया है कि वो किसी महान व्यक्ति के बारे में लिख रहे हैं। इस तरह से लेखक गाँधी की अच्छाइयों के बारे में बताने में आमदा देखे गये। दूसरा, गाँधी के बारे में लिखने से पहले ही यह शंका बना ली गयी कि उनमें गहरे राज़ छिपे हैं। यानी कि जैसा गाँधी दिखाई देते हैं उससे इतर उन्हें खलनायक के तौर पर देखने वाली दृष्टि डाली गयी। इस तरह से लेखक गाँधी की बुराइयाँ बताने में आमदा देखे जाते हैं।

यक़ीनन गाँधी ख़्यातिलब्ध, सर्वस्वीकृत और बड़े नेता होने के बाद भी कई प्रस्तरों पर भीतरी ही सही सहमति-असहमति के विषय-वस्तु रहे हैं और इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन दोनों ही धड़ों- चाहे वो गाँधी की अच्छाइयाँ परोसने वाले हों या गाँधी की बुराइयों को रेखांकित करने वाले, ने गाँधी के साथ बहुत न्याय नहीं किया है। इसका आशय यह भी नहीं कि उन्होंने अन्याय किया है। किन्तु वह ठीक उसी तरह से न्यायोचित नहीं है, जैसे कि गीता को मानने से अधिक न्यायोचित गीता की मानना है। ऐसे में गाँधी जैसे विराट और व्यापक व्यक्तित्व वाले विभूति पर उनके जीवन के घटनाक्रमों, आंदोलनों की तारीख़े और वाद-विवाद से जुड़े मसलों पर तो लोगों ने ख़ूब कलम चलाई है, लेकिन स्वयं गाँधी के बोध पर एक्का-दुक्का लोगों ने ही कलम चलाई है।

अब गाँधी के तमाम बोधों पर उनके राम बोध की बात की जाये, जोकि विशिष्ट है तो हिन्दी भाषा में डॉ. अरुण प्रकाश की लिखी पुस्तक गाँधी के राम उस क्रम की आरम्भित कृति है। यह गाँधी की अच्छाइयों-बुराइयों से परे उनके बोधमात्र पर लिखी गयी समीचीन पुस्तक है, जिसे लगभग दोनों धड़े शायद स्वीकार-अस्वीकार कर सकते हैं। डॉ. अरुण द्वारा गाँधी पर किया गया यह अभ्यास सभी के लिए अभिनव है। लिहाजा लीक पर चलने वाले विद्यार्थी और अध्येताओं के लिए यह थोड़ा अपाच्य कृति हो सकती है। तथापि विज्ञ, प्रगतिशील और प्रयोगशील विद्यार्थियों और अध्येताओं को यह पुस्तक गाँधी के राम बेहद सुपाच्य और रोचक जान पड़ती है।

परिमार्जित भाषा युक्त ललित निबन्ध शैली में कुल 107 पन्नों में लिखी गयी पुस्तक गाँधी के राम को सामान्य से सामान्य पाठक भी एक ही बैठक में पढ़कर छक लेगा। इसका अन्य प्रधान कारण पुस्तक की लयबद्धता और उत्तरोत्तर आरोहित रोचकता है। पुस्तक के लेखक डॉ. अरुण प्रकाश ने गाँधी के राम बोध को पाठकों तक पहुँचाने के लिए पुस्तक को कुल दस अध्यायों में विभक्त किया है। ये दसों अध्याय परस्पर भिन्न और विशिष्ठ हैं, जो गाँधी जी की आत्मकथा, उनके प्रवचनों, पत्रों, और प्रेस रिपोर्ट्स के साथ-साथ यंग इंडिया, नवजीवन व हरिजन सेवक में छपे उनके तमाम विचारों से संदर्भित और प्रामाणिक हैं।

पुस्तक में इस बात को स्पष्ट किया गया है कि गाँधी का राम-बोध आज़माया हुआ नुस्ख़ा है। पुस्तक में लेखक ने यह पुस्तक क्यों शीर्षक से पहले ही बताया है कि गाँधी राम की महिमा को कहने व अनुभव करने की अनुपम दृष्टि रखते हैं, जिसे प्रस्तुत पुस्तक गाँधी के राम में तार्कित रूप से व्याख्यायित किया गया है। इसके अलावा भी गाँधी के ऐसे बोध को लोक से जोड़ने के लिए तथा इसे पठनीय बनाने के लिए यदा-कदा लोक कथाओं को जोड़ा गया है। ये पुस्तक को और भी अलंकृत कर देती हैं। साथ ही पुस्तक की विषयवस्तु को शास्त्रीय व्याख्याओं से मुक्त रखने वाला लेखक का प्रयास भी सराहनीय है।

गाँधी के रामबोध पर आधारित डॉ. अरुण की यह पुस्तक गाँधी के राम दकियानूस हो जाती यदि इसमें रामकथा संबंधी ग्रंथों का उल्लेखनीय प्रयोग किया गया होता। लेकिन लेखक ने बड़ी चतुराई और होश में इससे दूरी बनाकर रखी, ताकि पूर्व प्रचारित विमर्श से इतर गाँधी के इस विशिष्ठ पक्ष को सिर्फ़ उनके अपने निजी नज़रिए और बोध से ही प्राप्त किया जाये। इस बात को लेखक ने पूरी पुस्तक को लिखते समय ध्यान रखा है। लेखक की यह बात ही उनकी पुस्तक को मुख्य धारा में लाकर खड़ी करने वाली है।

मुख्यधारा का यह क्रम रेखीय है, जहाँ गाँधी को स्वयं उनके अपने प्रयोगों और सुरति से राम का बोध होता है, किसी रामकथा संबंधी ग्रंथ से नहीं। लेखक ने भी उसको यथावत प्रस्तुत किया है। लेखक का यह बचाव श्रेयष्कर है। मसलन पुस्तक के छठे अध्याय राम साधन-राम साध्य में वो गाँधी की उस बात का वस्तुतः उद्धरण करते हैं जहाँ गाँधी कहते हैं कि राम पर कोई इसलिए आस्था न रखे कि उन्होंने ऐसा करने को कहा है- बल्कि वह स्वयं आज़माकर देख ले।

बहरहाल, मैं यह नहीं कहता कि गाँधी के रामबोध पर लिखी डॉ. अरुण प्रकाश की यह पुस्तक गाँधी के राम समावेशी है, किन्तु चूँकि उन्होंने इस ओर पहली दृष्टि डाली है। ऐसे में बतौर लेखक डॉ. अरुण और उनकी पुस्तक गाँधी के राम कम से कम भारत में होने वाली गाँधीवादी चर्चाओं के अभिनव आलम्ब बनकर खड़े हो सकते हैं।

पुस्तक का नामः गाँधी के राम

लेखकः डॉ. अरुण प्रकाश

प्रकाशकः क़िताबवाले, दरियागंज-नई दिल्ली।

मूल्यः 300 रुपये मात्र।

• अमित राजपूत

Sunday, 21 March 2021

कहानीः मर्यादा

Paint: Agacharya

तोते की तरह रट्ट मारने में मशगूल अपूर्वा की बातों से अनिल को कोई मतलब नहीं है। हालाँकि वो एकदम टक्क आँखों से अपूर्वा के बड़बड़ाते चेहरे को ही निहार रहा है। अपूर्वा भी यह जानकर कि अनिल की उसमें रुचि है वो उसके सामने बातों का पिटारा खोले ही बैठी है। लेकिन अनिल तो अपने दीद से अपूर्वा के चेहरे पर कर्ण रेखा की भाँति गिरे उसके बालों के निचले सिरे के सहारे ऊपर चढ़ता... माथा टटोलता और वहीं उसकी आँखों में कुछ देर ठहरकर वापस उसी कर्ण रेखा के सहारे नीचे गाल और कंधे के बीच लगभग अपूर्वा की गर्दन तक उतर आता।

अपूर्वा के चेहरे पर पड़े इन चंद बालों के सहारे अनिल इस क्रम को दोहरा रहा है। पहले चढ़ता... रुकता। और फिर नीचे उतर आता। फिर चढ़ता... रुकता और अपूर्वा के कंधे तक वापस उतर आता। अनिल की नज़रों की ये अटखेलियाँ तब तक चलती रहीं जब तक कि अपूर्वा ने अपने हाथ की उँगलियों के सहारे आहिस्ता से उन बालों को सहेजकर अपने कान में खोस न लिया। ये बाल भी कमबख़्त कुछ देर तक तो कानों में टिके रहे, फिर अगले पल कानों से सरककर वो फिर अपूर्वा के चेहरे पर गिर आते, जिनके सहारे अनिल फिर चढ़ता, रुकता और फिर उतरता।

कुछ ऐसे ही अपूर्वा के चेहरे व उसके अन्य अलंकारों की ज्यामिती में अनिल उलझा रहा। वो मन ही मन सोचता कि इतने महीनों से मिलने की योजना बनाने के बाद अब जब उसका अपूर्वा से सामना हो रहा है तो वह उसे अपनी कल्पना से भी सुन्दर पा रहा है। एकदम टनक... झक्क पकी बर्फ़ सी सफेद। उतना सी शीतल उसका मन। बोली में ग़ज़ब की सौम्यता और स्वभाव में नरमी ओढ़े अपूर्वा ने अनिल के दिल को जकड़ लिया। अपूर्वा का दिल अनिल की जकड़न में आया या नहीं, इसका कोई सनद अभी तक मिलना बाक़ी है।

अनिल और अपूर्वा की जान-पहचान को अभी लगभग सालभर ही हुये होंगे, लेकिन आप इनकी बातें सुनिए और बातों में अपनेपन की सघनता को जाँचिए! मालूम होता है कि ये इस धरती का वो सबसे मज़बूत जोड़ा है, जो एक-दूसरे की जीवन-परतों को सबसे बारीक़ी और संवेदना से जानता है। अपूर्वा को तो इसमें बड़ी महारत हासिल है। यूँ तो कैनवस पर रंगों और उनकी ज्यामितीय बारीक़ियों को समझने-समझाने में अनिल का लोहा है। लेकिन ख़ुद उसके जीवनरंगों की बारीक़ियाँ और संवेदनाएँ उससे अधिक अपूर्वा को मालूम हैं। इसका कारण यह भी हो सकता है कि अनिल को अपूर्वा ने ही सबसे बारीक़ी से पढ़ा हो। रोज़ उसकी कल्पनाओं, संवेदनाओं और उसके तादात्म्य की पहेलियों को अपूर्वा ने ही सुलझाया हो। अपूर्वा तो कम से कम यही बताती है।

केवल यह ही नहीं कि दोनों एक-दूसरे को महज सालभर से ही जानते हैं, बल्कि आपको यह जानकर भी हैरानी होगी कि दोनों आज पहली बार ही मिल रहे हैं। इनके आपसी परिचय का क़िस्सा भी बड़ा दिलचस्प है।

दुनियाभर में फैले कोरोना वायरस के दौर में यह भारत में हुए देशव्यापी लॉकडाउन के अनलॉक का तीसरा या चौथा चरण था। प्राइमरी स्कूल ख़ुल चुके थे, लेकिन एक दिन एक ही टीचर को स्कूल में आना था। उसमें भी बच्चों का स्कूल आना अभी भी मना था। ऐसे में पेशे से प्राइमरी टीचर अपूर्वा शुक्ला का उनके स्कूल में बैठे-बैठे दिन काटना मुश्किल होता। अख़बारों ने भी अपने संस्करणों में पन्ने बहुत कम कर दिये हैं। वरना बैठे-बैठे कुछ घण्टे अख़बार के सहारे ही निकल जाते थे। अब तो अपूर्वा के लिए एक ही साधन उनका मोबाइल ही रह गया। तो आजकल वो घण्टों मोबाइल सर्फिंग में ही लगी रहती हैं।

एक रोज़ ऐसे ही जब वो अपने किसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के पेज़ को स्क्रॉल करने में लगी थीं, तो उन्हें वहाँ एक विज्ञापन दिखाई दिया। ये एक ऑनलाइन आर्ट गैलरी का विज्ञापन था, जहाँ जाकर आप पेंटिंग्स को देख सकते थे और ऑनलाइन ख़रीद भी सकते थे।

अपूर्वा उस आर्ट गैलरी में अब पूरा-पूरा दिन बिताने लगी। ये गैलरी नए ज़माने के एक मशहूर युवा चित्रकार अनिल पटेल की थी। अनिल अभी महज 27 साल के हैं। लेकिन उनका काम और नाम इन दिनों देशभर में काफी मशहूर है। अनिल के काम को रोज़ धीरे-धीरे देखते हुए अपूर्वा उससे बेहद मुतासिर हुयी। पैसे वाले इंजीनियर पिता की संतान अपूर्वा के लिए उसकी टीचिंग की सैलरी उसके लिए महज पॉकेट मनी की तरह ही थी। लिहाजा अपूर्वा को अनिल की पेंटिंग्स ख़रीदने में अधिक विचार न करना था। इसलिए एक दिन उसने अनिल की तीन पेंटिग्स को ख़रीदकर अपने घर मँगवा लिया।

अनिल की ये तीनों पेंटिंग्स अपूर्वा के लिए लॉकडाउन में जीने का सहारा बन गयी थीं। चूँकि इन दिनों अपूर्वा को केवल अपनी बारी में ही हफ़्ते में केवल एक दिन ही स्कूल जाना पड़ता था। बाक़ी शेष दिनों में उसे घर पर ही पड़े रहना था। ऐसे में अनिल की उन पेंटिंग्स की बारीक़ियों, संवेदनाओं और ज्यामितियों में वो खोई रहती, जिन्हें अपूर्वा ने ख़रीदकर अपने घर मँगा लिया था।

विश्वविद्यालय के दिनों में दृश्यकला की विद्यार्थी होने के नाते ही अपूर्वा को पेंटिंग्स में इतनी गहरी रुचि और बारीक़ समझ है। बतौर फ़ाइन आर्ट स्कॉलर अपूर्वा को अनिल की पेंटिग्स अभूतपूर्व लगती हैं और ख़ासतौर पर अनिल की पेंटिंग्स के रंगों की भाषा।

सच पूछो तो अब अपूर्वा अनिल की कूची और कल्पना की उससे तारीफ़ करना चाहती थी। ज़रा सा अनिल के क़रीब आना चाहती थी। इस कारण उसने अनिल का सम्पर्क तलाशना शुरू किया। और अपूर्वा को इसमें जल्दी ही सफ़लता भी मिल गयी तथा उसे अनिल का मोबाइल नम्बर भी मिल गया। ह्वाट्स एप, ट्विटर, फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम हर जगह अनिल और अपूर्वा अब मित्र हो चुके थे। लेकिन असल ज़िन्दगी में दोनों में दोस्ती होना अभी आसान न था। दोस्ती होती भी कैसे! अनिल एक पब्लिक फ़ीगर होल्ड करता है और अपूर्वा एक टीचर है। हालाँकि कुछ दिनों बाद धीरे-धीरे दोनों की बातें होना शुरु हो गयी। ज़्यादातर बातें ह्वाट्स एप पर होतीं और ये प्रायः होने लगीं। वैसे तो अनिल और अपूर्वा की दोस्ती न होने में केवल अनिल की ख़्याति भर का रोड़ा था लेकिन अच्छी बात यह रही कि स्वयं अपूर्वा का स्वभावगत औरा उसके अपने पद से कहीं विपुल था और अनिल अपने वास्तविक औरे से नीचे अपने स्वभाव में एक सुहृदय, अति संवेदनशील और ज़मीनी इंसान था। इस हिसाब से देखें तो दोनों में दोस्ती की तमाम गुंजाइश नज़र आती है।

किसी के साथ भी बातचीत में अनिल अपने औरे को कभी भी कैश न करता और न ही उस बैगेज को अपने साथ ढोता। ऐसे में तो अनिल अब चित्रकार अनिल के चोले से बाहर आकर ख़ालिस अनिल भर अपूर्वा शुक्ला के सामने ख़ुद को अकिञ्चन पाता। और अपूर्वा अनिल के ज़रा सा नम्र होने पर स्वयं को उस जगह पर देखने लगी जहाँ पर उसे अनिल के बरक्स शक्ति की समानता मालूम पड़ती थी।

दोनों का ये उतार-चढ़ाव चलता रहा। अनिल चित्रकार अनिल पटेल से परे अनिल मात्र के रूप में अपूर्वा से बातें करता रहा। कभी-कभी अपने मन की निजी बातें मसलन अपनी उलझनें, अपनी ख़ुशी, ग़म, रुसवाइयाँ, ज़िम्मेदारियाँ, सफ़लता, चुनौतियाँ और विफ़लताएँ सबकुछ अपूर्वा के साथ साझा करने लगा। अपूर्वा उन सभी भावनाओं के साथ अनिल के साथ होती। इस प्रकार, धीरे-धीरे पता ही नहीं चला कि कब अपूर्वा अनिल की कूची और कल्पना के पार जाकर उसी की मुतासिर हो गयी। अनिल का कुछ पता नहीं... हालाँकि दोनों अभी तक आमने-सामने से एक-दूसरे से कभी मिले नहीं। ये समझने वाली बात है। लेकिन अब तो दोनों ही एक-दूसरे के जीवन को हर रोज़ ऊर्ध्वता देते जाते। अब अनिल रंग भरता था, कैनवस के साथ-साथ अपूर्वा के जीवन में भी। अपूर्वा पाठ पढ़ाती थी, केवल अपने स्कूल के बच्चों भर को नहीं, बल्कि अनिल को भी उसके जीवन के उलझाऊ और पेचीदे पाठ।

अनिल पटेल के जीवन में जीवटतावश अपूर्व सौन्दर्य बढ़ता जा रहा है। अपूर्वा शुक्ला के जीवन में सरोवर सी स्थिरता सा अनिल छाने लगा। क्या अपूर्वा को प्रेम हो गया है?” अनिल के मन में आया।

अर्रे नहीं-नहीं। तौबा मैं ऐसा क्यों सोच रहा हूँ!” अनिल अपने दाहिने हाथ को चूमकर पहले माथा और फिर अपने कंठ से लगाने के बाद अनिल अपने कानों को बारी-बारी से पकड़ने लगा।

अपूर्वा तो बड़ी सोफ़ेस्टिकेटेड है। वो भला इन सब चक्कर में न पड़ेगी, वो भी मेरे साथ! नहीं-नहीं... ऐसा हो ही नहीं सकता। इस स्वगत के पीछे मानों अनिल यह स्पष्टता चाहता हो कि आख़िर उसे किसी तरह यह पता चल जाये कि अपूर्वा शुक्ला उसे प्यार करती है या नहीं।

हफ़्तेभर नहीं बीते कि एक रोज़ अपूर्वा की अनिल के पास कॉल आती है- कुछ महत्वपूर्ण चीज़ माँग तो आप मना तो नहीं करोगे?”

ऐसा भी क्या है?”

नहीं, पहले बताओ... अपूर्वा ने ज़िद की।

चलिए ठीक है। जानता हूँ आपको, ऐसा भी कुछ नहीं माँगोगी जो मेरे वश में न हो। आप पर भरोसा है। माँगो क्या चाहिए?” अनिल राज़ी हो गया।

मुझे आपका एक दिन चाहिए। पूरा...। सुबह से शाम तक। अपूर्वा ने उत्सुक किन्तु शर्माकर कहा।

क्यों?”

क्योंकि पता नहीं कभी आपसे मिलना हो भी या नहीं। इसी बहाने हम कम से कम एक-दूसरे से आमने-सामने मिल लेंगे और भविष्य में मेरी यदि शादी हो जाती है तो फिर उस तरह से ख़ुलकर मिलना न हो सकेगा। इसलिए आपके साथ एक दिन पूरी तरह से जीना चाहती हूँ। अपूर्वा ने अपना प्रस्ताव अनिल के सामने रख दिया।

अर्रे मेरा सौभाग्य होगा आपके साथ एक दिन बिताना। मुझे याद रहेगा अपने जीवन का आपके साथ बीता वो हसीन दिन। बताइए कब मिलना है?”

मैं बताऊँगी आपको कभी। जब भी मुझे लगेगा कि अब मिलना है।

बेशक। आप अपनी सुविधा के लिहाज से बताना जब भी मिलना हो। अनिल ने भरोसा दिलाया।

अब दोनों एक-दूसरे से मिलने को उत्सुक हो गये और उस दिन की बाट जोहने लगे जब इनका मिलना होगा। एक दिन अपूर्वा ने अनिल को कॉल करके याद दिलाया कि हमें मिलना है। भूल तो नहीं गये! बेचारा अनिल तो तभी से तैयार बैठा था- अर्रे जब भी मिलना हो बस मुझे एक रोज़ पहले बता देना। मिलना क्यों नहीं है! ऐसे कैसे भूल जाऊँगा भला! तुम भी जब मिलना हो, अपने स्कूल से कैज़ुअल लीव लेकर आ जाना।

ठीक है मैं बताउँगी। कहकर अपूर्वा मुलाक़ात को आगे के लिए टाल गयी।

अब महीने भर बाद इस बार अनिल ने अपूर्वा को याद दिलाया कि हमें मिलना है।

जब भी-जहाँ भी-जैसे भी मिलना हो मुझे बता दो, मिल लेते हैं। अपूर्वा राज़ी हो गयी।

वैसे राज़ी होने जैसा किसी की ओर से कुछ बचा ही नहीं था। अब तो दोनों बस मिलने की जुगत लगा रहे थे। अपूर्वा को लगता अनिल अपने व्यस्ततम समय में से कुछ समय निकालकर अपूर्वा को बताएगा। वहीं अनिल को लगता कि अपूर्वा अपनी छुट्टी लेकर ख़ुद ही उसे बताएगी तो अनिल इस मुलाक़ात के लिए समय निकाल लेगा। इसी रस्साकसी में समय निकलता गया और दोनों न मिल पाने को लेकर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप गढ़ते-मढ़ते रहे।

दोनों को एहसास होने लगा कि वास्तव में, जब से दोनों ने परस्पर मिलने की इच्छा ज़ाहिर की है मानों इनके रिश्ते में संताप सा भर गया हो। ये बात अपूर्वा ने गाँठ बाँध ली और अब हर हाल में जल्दी से मिल लेने की योजना बनाने लगी। उसने एक नदी किनारे अनिल से मिलने का फ़ैसला किया। वो चाहती थी कि अनिल से वह किसी सार्वजनिक जगह पर तो मिले लेकिन वहाँ उसे निजता मिल जाये। इस लिहाज से किसी रेस्टोरेंट या मॉल की अपेक्षा रिवर बैंक एक अच्छा विकल्प था।

अपूर्वा ने अनिल से अपना प्लान साझा किया। अनिल को भी ये ख़ूब भाया। अपूर्वा जैसे-जैसे अनिल के क़रीब पहुँचने का ख़्याल करती वो रोमांच से भर उठती। उसे लगता है कि वो इस एक मुलाक़ात से ही अनिल को अपने भीतर समा लेगी। एक दिन का जीवन जो दोनों साथ जीने वाले हैं वो प्रेम का ऐसा पर्याय बन उठेगा, जिसके बोध से अपूर्वा और अनिल ताउम्र तृप्त होते रहेंगे।

आज अपूर्वा और अनिल दोनों की मुलाक़ात का स्वर्ण दिवस है। वो मुलाक़ात, जिसके होने से पहले ही उसके आनन्द का स्वाद चखा जा चुका है। वो मुलाक़ात, जिसके ख़्याल अपूर्वा के वास्ते अनिल के ज़हन में भी उतरा रहे हैं। जी हाँ, वो मुलाक़ात जिसमें युगल परस्पर भेंट तो अब करेंगे किन्तु दोनों का मेल तो पहले ही हो गया है।

सूर्योदय से पहले उमड़ आई पुरवाई की बयार की तरह सरफराती अपूर्वा ने अनिल के लिए चमेली के फूलों से गुछा एक बुके लिया। अपने कपड़ों के चुनाव में तो उसने आज ख़ासा वक़्त जाया कि तब जाकर सफ़ेद कुर्ती जिस पर रंग बिरंगी बुंदियों की झालर पड़ी है, का चुनाव कर पायी है वो। बदन पर गुलाबी इत्र और आँखों में गाढ़ा काजल लगाकर गौरवर्णी अपूर्वा जैसे नवोढ़ा तितली जान पड़ रही है, जिसकी सफ़ेद चूनर पर अभी लाल टीका लगना बाक़ी है।

इधर अनिल भी अपूर्वा के दिये समय पर तैयार होकर नदी किनारे पहुँच गया। अपूर्वा के हाव-भाव और आँखों में अपने लिए प्रेम की नदी की लहरें अनिल साफ़ देख रहा था। दोनों घण्टों तक नदी किनारे बैठे बातें करते रहे। अनिल को अपूर्वा कितना मानती है, इसका उसे बख़ूबी भान था। लिहाजा वो कोई ऐसी हरक़त करने को लेकर पहले ही सावधान था, जिससे कि अपूर्वा के मन में उसके प्रति कोई ग़लत और सस्ता भाव जगे।

यूँ तो अपूर्वा अपने घर पर बैठी मन ही मन अनिल के बारे में बहुत कुछ सोचती रहती। लेकिन अब जबकि अनिल उसके सामने प्रत्यक्ष है, तो अनिल के हावभाव और स्वभाव के सामने अपूर्वा उससे कुछ भी बयाँ नहीं कर पा रही है। वो तो बस अनिल से बड़बड़ सरपट बातें ही किये जा रही है... बातें ही किये जा रही है। लेकिन तोते की तरह रट्ट मारने में मशगूल अपूर्वा की बातों से अनिल को कोई मतलब नहीं है। हालाँकि वो एकदम टक्क आँखों से अपूर्वा के बड़बड़ाते चेहरे को ही निहार रहा है। अपूर्वा भी यह जानकर कि अनिल की उसमें रुचि है वो उसके सामने बातों का पिटारा खोले ही बैठी है। लेकिन अनिल तो अपने दीद से अपूर्वा के चेहरे पर कर्ण रेखा की भाँति गिरे उसके बालों के निचले सिरे के सहारे ऊपर चढ़ता... माथा टटोलता और वहीं उसकी आँखों में कुछ देर ठहरकर वापस उसी कर्ण रेखा के सहारे नीचे गाल और कंधे के बीच लगभग अपूर्वा की गर्दन तक उतर आता।

अपूर्वा के चेहरे पर पड़े इन चंद बालों के सहारे अनिल इस क्रम को दोहरा रहा है। पहले चढ़ता... रुकता। और फिर नीचे उतर आता। फिर चढ़ता... रुकता और अपूर्वा के कंधे तक वापस उतर आता। अनिल की नज़रों की ये अटखेलियाँ तब तक चलती रहीं जब तक कि अपूर्वा ने अपने हाथ की उँगलियों के सहारे आहिस्ता से उन बालों को सहेजकर अपने कान में खोस न लिया। ये बाल भी कमबख़्त कुछ देर तक तो कानों में टिके रहे, फिर अगले पल कानों से सरककर वो फिर अपूर्वा के चेहरे पर गिर आते, जिनके सहारे अनिल फिर चढ़ता, रुकता और फिर उतरता।

कुछ ऐसे ही अपूर्वा के चेहरे व उसके अन्य अलंकारों की ज्यामिती में अनिल उलझा रहा। वो मन ही मन सोचता कि इतने महीनों से मिलने की योजना बनाने के बाद अब जब उसका अपूर्वा से सामना हो रहा है तो वह उसे अपनी कल्पना से भी सुन्दर पा रहा है। एकदम टनक... झक्क पकी बर्फ़ सी सफेद। उतना ही शीतल उसका मन। बोली में ग़ज़ब की सौम्यता और स्वभाव में नरमी ओढ़े अपूर्वा ने अनिल के दिल को जकड़ लिया। अपूर्वा का दिल अनिल की जकड़न में आया या नहीं, इसका कोई प्रत्यक्ष सनद अभी तक मिलना बाक़ी है। हालाँकि अपूर्वा ने तो इसके अनुमान बहुत पहले ही दे दिये थे। ख़ैर...

अब तब दोनों की बातें समाप्त हो चुकी थीं। अपूर्वा और अनिल में से किसी के पास भी अब कहने के लिए कुछ भी न रह गया था। तथापि दोनों की चुप्पी में कहने को अंबार लगा है। नदी के किनारे से हटकर एक रेस्टोरेंट में दोनों ने जाकर लंच किया। वहीं अनिल ने एक सेल्फ़ी क्लिक की, जिसमें दोनों मुस्कुरा रहे हैं और यही सेल्फ़ी ही इनकी मुलाक़ात का एक मात्र सनद बन गया।

अपूर्वा अपनी कार से वापस अपने घर चली गयी। शाम ढलने लगी। अनिल एक बार फिर से नदी के उसी किनारे जाकर बैठ गया, जहाँ वो अभी दिनभर अपूर्वा के साथ बैठा था। रेस्टोरेन्ट में उसने अपूर्वा के साथ जो सेल्फ़ी क्लिक की थी उसका मेज़रमेंट करके अनिल से अपूर्वा को ह्वाट्स एप पर भेजा। अपूर्वा ने उसे फ़ौरन सीन कर लिया।

यहाँ नदी किनारे शाम गहरा रही है। ऊपर आसमान में पक्षियों का कारवाँ अपने-अपने घोसलों की ओर लौट रहा है। अनिल की एक मुट्ठी में कुछ कंकड़ हैं, जिनमें से एक-एक करके वो थोड़ी-थोड़ी देर में उन्हें नदी में फेंक रहा है।

अनिल का मोबाइल ब्लिंक करता है। ह्वाट्स एप मैसेज के नोटिफ़िकेशन्स हैं। इनमें एक मैसेज नोटिफ़िकेशन अपूर्वा शुक्ला का भी है। अनिल ने अति उत्सुकता में अपना ह्वाट्स एप खोला। अपूर्वा का मैसेज देखा। एक क्रिएटिव ब्रोशर है, जिस पर लिखा है-जो कह दिया वह शब्द थे; जो नहीं कह सके वो अनुभूति थी। और, जो कहना है मगर; कह नहीं सकते, वो मर्यादा है।।

अचानक से नदी की लहरें तेज़ हो गयी हैं, जिनका शोर अनिल के कानों को चीरने लगा है...

(इति)

Saturday, 6 March 2021

देश की दिशा मोड़ सकता है दिल्ली का किसान आंदोलन

                      सूचना की शक्ति का अंदाज़ा लगा सकने वाले इस बात को बख़ूबी समझ सकते हैं कि भारत की राजधानी नई दिल्ली के सीमान्त इलाक़ों में बैठकर आंदोलनरत् किसान दिल्ली की सड़कों पर इन दिनों कौन सा बीज हो रहे हैं। यह समय के गर्भ में है कि आख़िरकार आने वाले वक़्त में दिल्ली की सड़कों पर कैसी फसल लहलहाएगी। लेकिन हाँ, जिस तरह से किसान आंदोलन के बिम्ब बन रहे हैं, मसलन सड़कों पर नुकीले कील बिछाना, कटीले तार लगाना, डम्फरों-ट्रॉलियों से मिट्टी भर-भरकर दिल्ली सी सड़कों पर उड़ेलना और इतना ही नहीं आंदोलनकारी किसानों के प्रवक्ताओं द्वारा दिल्ली की सड़कों पर बोरिंग करने की धमकी देना आदि। ये सब बेहद रोमांचक और ड्रामेटिक है। इससे दुनिया हमारी ओर बड़ी रुचि से देख रही है। गणतंत्र दिवस के मौक़े पर राजधानी में जो हुआ उसने तो एकबारगी ही दुनिया का ध्यान भारत में चल रहे किसान आंदोलन की ओर लाकर टिका दिया।

कम से कम इसके बाद भारत सरकार और किसान नेताओं की ये महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी थी कि आंदोलन के तमाम बिम्बों का रेखांकन शिथिल किया जाये। लेकिन दुर्भाग्य से दोनों ओर से ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया, जिससे इसके माहौल में थोड़ी नरमी देखने को मिलती। ऐसे में देश ये जान चुका है कि भारत सरकार और किसान नेताओं देनों ओर से अपनी-अपनी टेक की बदौलत ये आंदोलन जस का तस पड़ा हुआ है। हालाँकि दोनों पक्षों के पास अपने को सही ठहराने के पर्याप्त और गंभीर कारण भी हैं। इससे इंकार नहीं किया जा सकता। बावजूद इसके महीनों से चले आ रहे इस किसान आंदोलन का कोई न कोई हल तो ज़रूर ही निकल जाना चाहिए था।

चूँकि ऐसा नहीं हुआ। ऐसे में इसके परिणाम यह निकले कि भारत में सरकार और किसानों के बीच के घोलमोल को हवा लगी और वो दुनियाभर में छा गया। अब भारत में चल रहे किसान आंदोलन में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों के राजनेताओं समेत अन्य शख़्सियतों की रुचि बढ़ी या कहें कि आंदोलन ने उन्हें इस ओर आकृष्ट कर दिया। यही कारण था कि दिल्ली के किसान आंदोलन को लेकर अमेरिकी पॉर्न एक्ट्रेस मिया ख़लीफ़ा, कैरिबियाई लोक गायिका रिहाना और स्वीडिश पर्यावरण एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग जैसे लोगों ने इस बारे में अपने विचार व्यक्त करने से ख़ुद को नहीं रोक पाया।

इन तीनों विदेशी हस्तियों के ट्वीट भारत में आग की तरह फैले। जागरुक ज़िम्मेदार लोगों ने इस पर फौरी तौर पर अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएँ भी दीं, जबकि आम भारतीय मानुष का इस बात से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा, क्योंकि बहुसंख्यक हिन्दुस्तानी जन इन तीनों शख़्सियतों से कम ही परिचित रही। किसान तो इससे और भी दूर रहा। हालाँकि जिन्होंने इनके ख़िलाफ़ अपनी प्रतिक्रियाएँ दीं उनमें से कुछ का कहना था कि इन शख़्सियतों ने पैसे लेकर ट्वीट किये हैं। ये बात सबसे अधिक नागवार ग़ुजरी पॉर्न एक्ट्रेस मिया ख़लीफ़ा को, जिससे नाराज़ मिया ने एक के बाद एक कई ट्वीट किये।

उन्होंने इस पर तंज कँसते हुए लिखा कि “हम तब तक ट्वीट करते रहेंगे, जब तक कि हमें भुगतान न किया जाए।” बेबाक मिया यहीं नहीं रुकीं। उन्होंने अपने ट्रोलर्स को जवाब देने के लिए एक्ट्रेस अमांडा सर्नी को उनके द्वारा किसानों पर किये गए एक ट्वीट के लिए 100 डॉलर का भुगतान भी किया। वहीं, अमांडा सर्नी ने भी मिया को किसान आंदोलन पर किये गए उनके एक अन्य ट्वीट के लिए 100 डॉलर दिये।

ऐसे ही पॉप स्टार रिहाना ने जब सीएनएन के लेख को शेयर किया, जिसमें कहा गया था कि भारत में किसान आंदोलन के दौरान इंटरनेट बंद किया गया। उन्होंने लिखा था कि हम इसकी बात क्यों नहीं कर रहे हैं? उनके इस ट्वीट के बाद कई अन्य हस्तियों ने भी ट्वीट कर किसानों के आंदोलन का समर्थन किया। बाद में भारतीय विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर जल्दबाज़ी में ट्वीट करने से पहले तथ्यों की जाँच करने के लिए कहा था। हालाँकि बेहतर होता यदि भारत सरकार की ओर से इसे इतनी गंभीरता से न लिया गया होता (किसानों की माँगों पर ही अपनी गंभीरता बढ़ाना बेहतर होगा) और कोई प्रतिक्रिया न दी गयी होती। कम से कम दीनदयाल उपाध्याय की विचारधारा पर चलने वाली मौजूदा सरकार को तो बिल्कुल भी नहीं।

मौजूदा सरकार पं. दीनदयाल उपाध्याय की उस विचारधारा पर अमल करती है, जिसे एकात्म मानववाद कहा गया है। एकात्म मानववाद तो हमें यही सिखाता है कि दुनिया के किसी भी देश की घटना पर हमें करुणा होनी चाहिए। व्यक्ति का समाज से समाज का देश से और देश का दुनिया से सरोकार ही एकात्म मानववाद के अभ्यास का सरल उपाय है। फिर मिया ख़लीफ़ा, ग्रेटा थनबर्ग या रिहाना जैसे किसी का भी इस पर बोलना कहीं से नाजायज नहीं हो जाता। यह हमारे सामरिक मामलों से भी नहीं जुड़ा है।

ख़ैर, यदि हमें उक्त बातों पर चिन्ता करने की कम ज़रूरत है तो वहीं इसके समानान्तर जब विदेशी लीग में भारत के किसान आंदोलन का विज्ञापन दिखाया जाता है तो हमारी चिंताएँ गहरा जानी चाहिए। जी हाँ, हाल ही में अमेरिका की लोकप्रिय फुटबॉल सुपर बाउल लीग के दौरान किसान आंदोलन से जुड़ा एक विज्ञापन चला है। इसका वीडियो माइक्रो ब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर जमकर वायरल हुआ। मालूम हो कि सोशल मीडिया पर अपलोड किये गये चालीस सेकण्ड के इस वीडियो में दिल्ली किसान आंदोलन को इतिहास का सबसे बड़ा प्रदर्शन बताया गया। इसमें ये भी कहा गया कि इस आंदोलन में अब तक 160 से ज्यादा किसानों की मौत हो चुकी है, इंटरनेट को बंद कर दिया गया है।

वास्तव में, हमें इस बात पर गंभीर होकर सोचने की ज़रूरत इसलिए पड़ रही है क्योंकि जिस सुपर बाउल में किसान आंदोलन का विज्ञापन दिखाया गया है, वह अमेरिका में सबसे ज्यादा देखी जाने वाली लीग्स में से एक है। इसके एक सामान्य विज्ञापन की क़ीमत भी अन्य खेलों में प्रसारित होने वाले विज्ञापनों की तुलना में काफी अधिक होते हैं। एक मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, कुछ सेकण्ड्स मात्र के विज्ञापन के लिए विज्ञापन कंपनियों को 36 से 44 करोड़ रुपये तक चुकाने पड़ते हैं और हर साल यह दर पिछले साल के मुक़ाबले बढ़ती ही रहती है। ऐसे में हम भारत की राजधानी दिल्ली के सीमान्त इलाक़ों में चल रहे किसान आंदोलन के पीछे की ताक़तों का अंदाज़ा लगा सकते हैं।

इन बातों से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि दिल्ली किसान आंदोलन का प्रचार प्रसार कितना अधिक है। इसे हमें केवल उस तरह से नहीं देखना चाहिए जो कि हम अपनी सामान्य रोज़मर्रा में अब इसे देखने लगे हैं। बल्कि इसे हमें उस नज़रिए से देखने की ज़रूरत है, जिस तरह से इसे दुनिया के सामने प्रस्तुत किया गया है। तभी हम इसके वास्तविक ताप को समझ पाएँगे और उस गंभीरता से इसके बारे में विचार कर पाएँगे। अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि सूचनाओं के इस युग में दुष्प्रचार का एक बाण निकले और किसान आंदोलन के बहाने हमारे देश के किसी भी अंग में ऐसा आ लगे कि हमें उसके बुरे परिणाम देखने को मिलें। ऐसे में इस बात से हम मुँह नहीं मोड़ सकते हैं कि दिल्ली किसान आंदोलन देश की दिशा मोड़ सकने में बेहद सक्षम है।

भारत के विदेश सचिव रहे विवेक काटजू भी इस बात का समर्थन करते हैं कि फिलहाल हमारा देश सुरक्षा चुनौतियों के जोखिम से जूझ रहा है। वो तो सलाह भी दे रहे हैं कि किसान आंदोलन से उपजे हालातों को देखते हुए भारतीय राजनीतिक वर्ग को ब्रिटेन और कनाडा से अधिक पाकिस्तान की भूमिका पर ध्यान देना होगा। क्योंकि इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पाकिस्तान हमेशा से भारतीय सिख समुदाय को बरगलाने के प्रयास में जुटा रहा है। मालूम हो कि किसान आंदोलन में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों के अलावा पंजाब के सिख समुदाय से आने वाला किसान बड़ी आबादी में हैं।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा किसानों के 'राइट टू प्रोटेस्ट' के अधिकार को स्वीकार करते हुए की गयी टिप्पणी की प्रतिक्रिया में भारतीय किसान यूनियन के नेता युद्धवीर सिंह कहते हैं, "सरकार ने हमें शुरू से नज़रअंदाज़ किया। यह एक गंभीर विषय है लेकिन सरकार ने शुरू से ही इसे हल्के में ले लिया। सरकार को पहले लगा कि यह आंदोलन सिर्फ़ पंजाब और हरियाणा तक है और उसने इसका दुष्प्रचार भी किया (सरकार की ओर झुकाव रखने वाला एक राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक अख़बार में किसान आंदोलन पर लिखे गये लेखों में लगातार ऐसा किया गया है) लेकिन अब चीज़ें लोगों के सामने हैं। हम तो कोर्ट में गए भी नहीं, लेकिन फिर भी कोर्ट ने हमारी माँगों को जायज़ ठहराया है और हमारे प्रदर्शन के अधिकार को सही माना है। अतः अब एक बात तो सरकार को समझ लेना चाहिए कि किसी भी सूरत में उन्हें किसान नेताओं और उनके आंदोलन को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। अन्यथा उन्हें राजनीतिक नुकसान भी उठाना पड़ सकता है, क्योंकि इतिहास गवाह है जब वर्ष 1990 ई. में भारतीय किसान यूनियन के संस्थापक महेन्द्र सिंह टिकैत को हल्के में लेकर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने जब उन्हें गिरफ़्तार करवाया तो मुलायम सिंह को पता नहीं था कि टिकैत की गिरफ़्तारी के बाद सदन से 67 विधायक भी इस्तीफ़ा दे सकते हैं।

इतना ही नहीं, इससे पहले वर्ष 1988 में भी किसानों का विशाल आंदोलन हुआ था। किसान नेता चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैट के नेतृत्‍व में पूरे देश से करीब पाँच लाख किसानों ने विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक क़ब्‍ज़ा कर लिया था। अपनी माँगों को लेकर इस किसान पंचायत में क़रीब 14 राज्‍यों के किसान आए थे। सात दिनों तक चले इस किसान आंदोलन का इतना व्‍यापक प्रभाव रहा कि तत्‍कालीन कांग्रेस सरकार दबाव में आ गई थी। आख़िरकार तत्‍कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को किसानों की सभी 35 माँगे माननी पड़ीं, तब जाकर किसानों ने अपना धरना ख़त्म किया था।

यद्यपि किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत के दोनों बेटे नरेश टिकैत और राकेश टिकैत जो क्रमशः भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष और राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं अपने पिता जैसा प्रभाव रखते हैं। वो औसतन भीड़ जुटाने और जन समर्थन में भी महेन्द्र टिकैत जैसा औरा रखते हैं। तथापि दोनों के समक्ष स्वयं को साबित करना अभी बाक़ी है। ऐसे में इस किसान आंदोलन के ज़रिए टिकैत बंधु चाहेंगे कि वो अपने पिता की तरह सरकार को घुटने टेकने पर मज़बूर कर दे।

वास्तव में, इसी किसान आंदोलन के ज़रिए यह साबित हो गया है कि महेन्द्र सिंह टिकैत जैसा संयमित और निर्णायक आंदोलन करने में टिकैत बंधु नाकाम रहे हैं। इनके पिता ने जो काम सात दिन में कर दिखाया था उसे दोनों भाई मिलकर महीनों से अंज़ाम नहीं दे पाए हैं। इसके दो प्रमुख कारण हैं। पहला, किसान आंदोलन का दिशाहीन और अस्पष्ट उद्देश्यों के साथ आंदोलनरत् होना। दूसरा, आंदोलनकारियों के सामने मज़बूत इच्छाशक्ति किन्तु कृषक क़ानूनों को लेकर अंतर्विरोध वाली सरकार का होना। इस प्रकार, यह किसान आंदोलन स्वाभाविक रूप से अपने अंज़ाम तक नहीं पहुँच पा रहा है। इसके लिए ज़रूरी है कि किसानों के हित के लिए सरकार की अवधारणा और उसके लिए किये गये प्रयासों को हम तफ़्सील से समझ लें।

किसान हितों को ध्यान में रखते हुए इस सरकार ने जब क़ानून बनाए हैं तो उसे अपने सामने दो प्रमुख उद्देश्य रखे हैं- पहला, किसानों की आय को दोगुना करना और दूसरा, न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी कि एमएसपी में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा उसकी विसंगतियों को पूरी तरह से समाप्त करना। इसमें सरकार की ओर से किसानों की आय को दोगुना करने का कार्य सफल होता नहीं दिख रहा है। इसका कारण यह है कि सरकार की नीति सही दिशा में है ही नहीं। जी हाँ, आपको मालूम होना चाहिए कि सरकार ने वर्ष 2016 में एक अंतरमंत्रालय कमेटी बनाई थी, जिसने वर्ष 2018 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। इस रिपोर्ट में कमेटी ने पहला सुझाव यह दिया कि कृषि की उत्पादकता को बढ़ाया जाये, ताकि देश के किसानों की आय बढ़ सके। मान लीजिये एक कुन्तल गेहूँ के स्थान पर यदि किसान उसी भूमि से एक कुन्तल से अधिक डेढ़-दो कुन्तल गेहूँ का उत्पादन कर ले तो उसकी आय अपने आप ही बढ़ जायेगी।

अब समझिए, इस सुझाव को तैयार करने में कमेटी कुछ मौलिक भूल कर गयी। जाने-माने अर्थशास्त्री भरत झुनझुनवाला कहते हैं कि कृषि का उत्पादन बढ़ने के साथ प्रायः उसके दाम नीचे चले जाते हैं। वैसे भी वैश्विक स्तर पर कृषि उत्पादों के दाम पिछले तीन दशक से गिरते जा रहे हैं। इसका कारण यह है कि मनुष्य की भोजन की माँग सीमित है, जबकि उर्वरक आदि की मदद से अना का उत्पादन बढ़ता जा रहा है। इसके अलावा कृषि उत्पादन बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा के चक्कर में खेतों में अधिक मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग करने से पंजाब और हरियाणा की मिट्टी की तरह पूरे देश की मिट्टी तंदूर सरीखी हो जाएगी। इसके बाद हमारा देश अनाज पैदा तो करेगा लेकिन उसे खा नहीं सकेगा। रह जायेगा केवल निर्यात। शायद यही सरकार की मंशा है।

बहरहाल, कमेटी की दूसरी संस्तुति की बात करें तो उसका इरादा यह था कि कैसे कृषि उत्पादों के मूल्यों में वृद्धि हासिल की जाये। अब ऐसे में समझने वाली बात है कि कैसे सरकार के दोनों उद्देश्य परस्पर अंतरविरोधी हैं। अर्थशास्त्री भरत झुनझुनवाला की मानें तो कृषि उत्पादों के मूल्यों में वृद्धि हासिल करने का सीधा मतलब होता है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि कर दी जाये। और कृषि उत्पादों का मूल्य बढ़ाने के लिए एमएसपी में आवश्यक इस वृद्धि को सरकार क़ानूनी रूप दे। विरोध की असल शंका यहीं पर है, जिसे सरकार सिरे से ख़ारिज करते हुए कह रही है कि यह संभव नहीं है।

चलिए, अब सरकार यदि एमएसपी को बढ़ाने की जगह घटा देती है तो फिर इस पर और अधिक संकट खड़ा हो सकता है। भरत झुनझुनवाला इसे बेहतर स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि यदि किसानों की आय दोगुना करने से पहले एमएसपी को कम किया गया तो किसानों की स्थिति और भी विकट हो जाएगी। ध्यान रहे केरल, भुसावल और नासिक जैसे क्षेत्रों में एमएसपी को लेकर विरोध नहीं हो है, क्योंकि यहाँ क्रमशः काली मिर्च, केला और प्याज़ जैसी उच्च क़ीमत की फ़सलों को उगाने से किसानों को वर्तमान में ही एमएसपी की तुलना में औसतन अधिक आय हो रही है। इससे स्पष्ट है कि कृषि उत्पादन बढ़ाने की अपेक्षा क़ीमती फ़सलों का उत्पादन बढ़ाने से किसानों की आय बढ़े सकेगी। ऐसे में, किसानों की आय दोगुना करने की सरकार की मंशा सही होने के बावजूद उसकी नीतियाँ बेहद ग़लत हैं। सरकार को चाहिए कि वह पहले किसानों की आय को दोगुना करे और किसानों को भी चाहिए कि उनकी आय दोगुना हो जाने के बाद वे कृषि उत्पादों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की माँग बंद कर दें।


क्या होता है न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) :

“किसी कृषि उपज (जैसे गन्ना, गेहूँ या धान आदि) का न्यूनतम समर्थन मूल्य वह मूल्य है, जिससे कम मूल्य देकर किसान से वह उपज नहीं ख़रीदी जा सकती। न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को भारत सरकार तय करती है। उदाहरण के लिए- यदि धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2000 रूपये प्रति कुन्तल निर्धारित किया गया है, तो कोई भी व्यापारी किसी किसान से उस धान को 2100 रूपये प्रति कुन्तल की दर से तो ख़रीद सकता है। लेकिन वह उसे 1975 रूपये प्रति कुन्तल की दर से नहीं ख़रीद सकता है।”

भारत के अर्थशास्त्री एक लम्बे अर्से से यह कहते आ रहे हैं कि किसानों को बिचौलियों से मुक्त कराने और उन्हें मुक्त बाज़ार से जोड़ने की ज़रूरत है। इस ज़रूरत को कांग्रेस ने भी समझा और उसने इसे अपने चुनावी घोषणा-पत्र में भी शामिल किया था। अब जब राजग सरकार इस बिल को ले आयी है, भले ही उसमें तकनीकि ख़ामियाँ हों, तो शिवसेना ने तो उसके इन कृषि विधेयकों को लोकसभा में समर्थन भी किया था। इतना ही नहीं, उसके नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार ने सबसे पहले इन नए कृषि क़ानूनों पर अमल करने के आदेश भी जारी किए थे। लेकिन जब उसने देखा कि कुछ किसान संगठन सड़कों पर उतर आये हैं तो उसने अपना इरादा बदल दिया। यही काम अकाली दल ने भी किया। रालोद के जयंत चौधरी तो किसान नेताओं के साथ मंच पर भी देखे जाते हैं।

ऐसे में किसान संगठनों से इतर कम से कम विपक्षी दलों को बताना चाहिए कि वे क्या चाहते हैं? क्या यह कि किसान अपनी उपज की बिक्री के मामले में उन्हीं पुराने नियमों में बँधे रहें, जिसने उनके बजाय आढ़तियों और बिचौलियों के हित सधते रहे हैं और जो तब बनाए गए थे, जब देश में अनाज की कमी थी? नहीं, देश को नए कृषि क़ानूनों की सख़्त ज़रूरत है। लेकिन इसमें अंतरविरोध नहीं होना चाहिए, जिन्हें स्पष्ट करना सरकार की ज़िम्मेदारी है।

अच्छी बात यह है आंदोलनकारी किसानों के प्रतिनिधियों से सरकार की हुयी लगभग दर्जनों बार की बातचीत में सरकार से अपनी तकनीकी ख़ामियों को स्वीकार करते हुए उनमें संशोधन करने, उनकी समीक्षा कराने और उन्हें डेढ़ साल तक रोकने को भी तैयार है। इतना ही नहीं, वह किसान नेताओं की माँग पर बिजली संशोधन विधेयक वापस लेने और पराली जलाने पर दण्डात्मक कार्यवाई वाला प्रावधान हटाने को भी तैयार है। इसके अलावा सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर लिखित गारंटी देने की भी पेशकश कर चुकी है। स्पष्ट है कि इसके बाद भी किसान संगठनों का यह कहना सरासर झूठ है कि सरकार उनकी सुन नहीं रही है। किसान नेता तो पूरी तरह से बिल की वापसी की ज़िद पकड़े हैं। वे यह चाह रहे हैं कि सरकार तो लगातार अपने क़दम पीछे खींचती जाए, लेकिन वे ख़ुद एक इंच भी टस से मस नहीं होने वाले हैं।

किसान आंदोलन के पक्षधर एवं आंदोलनकारी नेता योगेंद्र यादव कहते हैं कि दो महीने से बार-बार कह रहे हैं। सरकार अभी तक हमारी बात सुन तक नहीं रही है। इन तीन क़ानूनों के निरस्त होने की माँग ऐसी है जिस पर हम समझौता नहीं कर सकते। सरकार संशोधन की बात कर रही है लेकिन बुनियादी तौर पर फ्रेमवर्क ही ग़लत है। हमने हाँ या ना में जवाब माँगा था, सरकार ने बीस पन्ने का फर्रा थमा दिया है। सरकार ज़बरदस्ती गिफ्ट दे रही है, हमें गिफ्ट नहीं चाहिए।

बीबीसी द्वारा आयोजित एक वेबिनॉर में योगेन्द्र यादव के बरक्स सरकारी सुधारों के पक्षधर एवं कृषि मामलों के विशेषज्ञ विजय सरदाना स्पष्ट करते हैं कि चालीस साल से भारत का किसान कह रहा था कि हमें सीधे बेचने दिया जाए। उसके हिसाब से फैसला किया गया। कांग्रेस के मैनिफेस्टो में देखिए, महेंद्र सिंह टिकैत के वीडियो देखिए, उन्होंने कहा कि हमें मण्डी सिस्टम ने बर्बाद कर दिया। सब लोग कहते रहे हैं कि हमें बाज़ार दीजिए। अब कुछ लोग कह रहे हैं कि हमें नहीं चाहिए। फिर भी सब कुछ विकल्प के तौर पर है। मंडी में बेचो या सीधे बेचो, जैसा आप चाहते हैं। कोई किसी को बाध्य नहीं कर रहा है।

एमएसपी पर सरकार का पक्षः

-Narendra Singh Tomar
(Union Minister of Agriculture and Farmers Welfare)

“एमएसपी को नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में डेढ़ गुना किया गया है। ख़रीद का वॉल्यूम भी बढ़ा है। पहले गेहूँ और धान पर ही ख़रीद होती थी, लेकिन अब दलहन और तिलहन पर भी ख़रीद की जा रही है। एमएसपी से किसानों को ज़्यादा से ज़्यादा सुरक्षा मिल सके और उसमें हम ज़्यादा से ज़्यादा पैसा खर्च कर सकें, इस दृष्टि से नरेंद्र मोदी जी की सरकार की प्रतिबद्धता पहले भी थी, आज भी है और आने वाले कल में भी रहेगी। एमएसपी के मामले में अगर उनके मन में शंका है तो हम लिखित आश्वासन देने के लिए भी तैयार हैं। हम सरकारों को भी दे सकते हैं और किसान को भी दे सकते हैं, किसान संगठनों को भी दे सकते हैं।”

वास्तव में, तीनों कृषि क़ानूनों पर मतैक्त न होने से ही ये पूरा घमासान मचा हुआ है। सरकार इस बात को लेकर प्रतिबद्ध है कि कैसे किसानों का हित हो, भले ही वो इसे मूर्त रूप नहीं दे पा रही है। उसकी मंशा ठीक है। किसान नेता सम्पूर्ण बिल के वापसी की ज़िद पर अड़ा है। विपक्ष बहती गंगा में हाथ धो रहा है। भारत विरोधी शक्तियाँ अपना खेल खेल रही हैं। ऐसे में ज़रूरत है एक स्वस्थ विमर्श की। हालाँकि अभी हर ओर से लोगों के एकदम स्पष्ट अलग-अलग मत हैं।

अब देखिए, किसानों के वकील दुष्यंत दवे के मानते हैं कि ये क़ानून संविधान के संघीय ढाँचे पर आघात करते हैं और यदि लागू किए गए तो कारोबारी मठाधीश कृषि बाज़ार पर काबिज़ हो जाएँगे और फिर छोटे किसानों का अस्तित्व मिट जाएगा। वहीं दूसरी तरफ़ अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ का मानना है कि इन क़ानूनों से किसानों के बाज़ार का दायरा बढ़ेगा और उनकी आमदनी में बढ़ोत्तरी होगी। केन्द्र सरकार क़ानूनों को निरस्त किए बिना यह कहती थी कि ये क़ानून उन्हीं प्रदेशों में लागू होंगे, जिनकी विधानसभाएँ उनके अनुमोदन का प्रस्ताव पारित कर देंगी।

क़ायदे से देखा जाये तो यह एक बेहतर और कारगर उपाय सिद्ध होता, जिससे किसान आन्दोलन दिल्ली की सीमावर्ती परिधि से विकेन्द्रित होकर प्रदेशों में बिखर जाता। उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक रहे प्रकाश सिंह इस युक्ति का समर्थन करते हुए कहते हैं कि ऐसा करने से आंदोलनकारी दिल्ली के बजाय प्रान्तों की राजधानी में जाने को बाध्य हो जाते। अगर ये क़ानून वास्तव में किसानों के लिए लाभदायक है तो कालांतर में इन क़ानूनों को न अपनाने वाले प्रदेश स्वतः ही इनकी माँग करते। वास्तव में एक स्वस्थ संघीय ढाँचे वाले देश में यही आदर्श परंपरा होनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे देश में ऐसा नहीं हुआ और दुनिया ने हमारा सोहल्ला लूट लिया। अर्रे जो क़ानून सात दशकों से लागू नहीं हुआ, वह अगर कुछ प्रान्तों में दो-चार साल बाद ही लागू होता को कोई आसमान नहीं फट जाता।

अंततः अब भारत में कृषि क़ानूनों से जो विवाद खड़ा हुआ है, उसका कोई न कोई स्थायी समाधान निकालना ही होगा। वरना दिल्ली का ये किसान आंदोलन तमाम भिन्न ऊर्जाओं और सूचनाओं के ऐसे संजाल से घिरा है कि इसकी वास्तविकता दुनिया को न पता चलने से दिशाभ्रम की स्थित पैदा हो सकती है, जो देश को अभ्युदय के मार्ग से विमुख करके इसकी दिशा मोड़ सकता है। इसलिए उच्चतम न्यायालय ने जो एक कमेटी गठित की है उसके साथ हल निकालें। इसमें भी अगर कमेटी के सदस्यों से कुछ लोगों को आपत्ति हो तो उसका भी पुनर्गठन किया जा सकता है। प्रकाश सिंह के अनुसार केन्द्र सरकार चाहे तो इस विषय पर निर्णय लेने का अधिकार राज्य सरकारों पर छोड़ सकती है। मौजूदा विवाद का सारा झंझट ही ख़तम।

कुल मिलाकर, क़ानूनों की संवैधानिकता पर उच्चतम न्यायालय की राय लेना अधिक हितकर सिद्ध होगा। सरकार और किसान संगठनों के पास इस मसले को हल करने के कई विकल्प हैं। दोनों को मिलकर उन्हीं में से कोई न कोई उत्तम रास्ता निकालना ही चाहिए। इसके लिए बेहतर होगा यदि सरकार स्वयं किसान नेताओं को बातचीत के लिए आमंत्रित करके दूरी समाप्त करने की पहल कर दे।

∙ अमित राजपूत