Saturday, 6 March 2021

देश की दिशा मोड़ सकता है दिल्ली का किसान आंदोलन

                      सूचना की शक्ति का अंदाज़ा लगा सकने वाले इस बात को बख़ूबी समझ सकते हैं कि भारत की राजधानी नई दिल्ली के सीमान्त इलाक़ों में बैठकर आंदोलनरत् किसान दिल्ली की सड़कों पर इन दिनों कौन सा बीज हो रहे हैं। यह समय के गर्भ में है कि आख़िरकार आने वाले वक़्त में दिल्ली की सड़कों पर कैसी फसल लहलहाएगी। लेकिन हाँ, जिस तरह से किसान आंदोलन के बिम्ब बन रहे हैं, मसलन सड़कों पर नुकीले कील बिछाना, कटीले तार लगाना, डम्फरों-ट्रॉलियों से मिट्टी भर-भरकर दिल्ली सी सड़कों पर उड़ेलना और इतना ही नहीं आंदोलनकारी किसानों के प्रवक्ताओं द्वारा दिल्ली की सड़कों पर बोरिंग करने की धमकी देना आदि। ये सब बेहद रोमांचक और ड्रामेटिक है। इससे दुनिया हमारी ओर बड़ी रुचि से देख रही है। गणतंत्र दिवस के मौक़े पर राजधानी में जो हुआ उसने तो एकबारगी ही दुनिया का ध्यान भारत में चल रहे किसान आंदोलन की ओर लाकर टिका दिया।

कम से कम इसके बाद भारत सरकार और किसान नेताओं की ये महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी थी कि आंदोलन के तमाम बिम्बों का रेखांकन शिथिल किया जाये। लेकिन दुर्भाग्य से दोनों ओर से ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया, जिससे इसके माहौल में थोड़ी नरमी देखने को मिलती। ऐसे में देश ये जान चुका है कि भारत सरकार और किसान नेताओं देनों ओर से अपनी-अपनी टेक की बदौलत ये आंदोलन जस का तस पड़ा हुआ है। हालाँकि दोनों पक्षों के पास अपने को सही ठहराने के पर्याप्त और गंभीर कारण भी हैं। इससे इंकार नहीं किया जा सकता। बावजूद इसके महीनों से चले आ रहे इस किसान आंदोलन का कोई न कोई हल तो ज़रूर ही निकल जाना चाहिए था।

चूँकि ऐसा नहीं हुआ। ऐसे में इसके परिणाम यह निकले कि भारत में सरकार और किसानों के बीच के घोलमोल को हवा लगी और वो दुनियाभर में छा गया। अब भारत में चल रहे किसान आंदोलन में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों के राजनेताओं समेत अन्य शख़्सियतों की रुचि बढ़ी या कहें कि आंदोलन ने उन्हें इस ओर आकृष्ट कर दिया। यही कारण था कि दिल्ली के किसान आंदोलन को लेकर अमेरिकी पॉर्न एक्ट्रेस मिया ख़लीफ़ा, कैरिबियाई लोक गायिका रिहाना और स्वीडिश पर्यावरण एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग जैसे लोगों ने इस बारे में अपने विचार व्यक्त करने से ख़ुद को नहीं रोक पाया।

इन तीनों विदेशी हस्तियों के ट्वीट भारत में आग की तरह फैले। जागरुक ज़िम्मेदार लोगों ने इस पर फौरी तौर पर अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएँ भी दीं, जबकि आम भारतीय मानुष का इस बात से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा, क्योंकि बहुसंख्यक हिन्दुस्तानी जन इन तीनों शख़्सियतों से कम ही परिचित रही। किसान तो इससे और भी दूर रहा। हालाँकि जिन्होंने इनके ख़िलाफ़ अपनी प्रतिक्रियाएँ दीं उनमें से कुछ का कहना था कि इन शख़्सियतों ने पैसे लेकर ट्वीट किये हैं। ये बात सबसे अधिक नागवार ग़ुजरी पॉर्न एक्ट्रेस मिया ख़लीफ़ा को, जिससे नाराज़ मिया ने एक के बाद एक कई ट्वीट किये।

उन्होंने इस पर तंज कँसते हुए लिखा कि “हम तब तक ट्वीट करते रहेंगे, जब तक कि हमें भुगतान न किया जाए।” बेबाक मिया यहीं नहीं रुकीं। उन्होंने अपने ट्रोलर्स को जवाब देने के लिए एक्ट्रेस अमांडा सर्नी को उनके द्वारा किसानों पर किये गए एक ट्वीट के लिए 100 डॉलर का भुगतान भी किया। वहीं, अमांडा सर्नी ने भी मिया को किसान आंदोलन पर किये गए उनके एक अन्य ट्वीट के लिए 100 डॉलर दिये।

ऐसे ही पॉप स्टार रिहाना ने जब सीएनएन के लेख को शेयर किया, जिसमें कहा गया था कि भारत में किसान आंदोलन के दौरान इंटरनेट बंद किया गया। उन्होंने लिखा था कि हम इसकी बात क्यों नहीं कर रहे हैं? उनके इस ट्वीट के बाद कई अन्य हस्तियों ने भी ट्वीट कर किसानों के आंदोलन का समर्थन किया। बाद में भारतीय विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर जल्दबाज़ी में ट्वीट करने से पहले तथ्यों की जाँच करने के लिए कहा था। हालाँकि बेहतर होता यदि भारत सरकार की ओर से इसे इतनी गंभीरता से न लिया गया होता (किसानों की माँगों पर ही अपनी गंभीरता बढ़ाना बेहतर होगा) और कोई प्रतिक्रिया न दी गयी होती। कम से कम दीनदयाल उपाध्याय की विचारधारा पर चलने वाली मौजूदा सरकार को तो बिल्कुल भी नहीं।

मौजूदा सरकार पं. दीनदयाल उपाध्याय की उस विचारधारा पर अमल करती है, जिसे एकात्म मानववाद कहा गया है। एकात्म मानववाद तो हमें यही सिखाता है कि दुनिया के किसी भी देश की घटना पर हमें करुणा होनी चाहिए। व्यक्ति का समाज से समाज का देश से और देश का दुनिया से सरोकार ही एकात्म मानववाद के अभ्यास का सरल उपाय है। फिर मिया ख़लीफ़ा, ग्रेटा थनबर्ग या रिहाना जैसे किसी का भी इस पर बोलना कहीं से नाजायज नहीं हो जाता। यह हमारे सामरिक मामलों से भी नहीं जुड़ा है।

ख़ैर, यदि हमें उक्त बातों पर चिन्ता करने की कम ज़रूरत है तो वहीं इसके समानान्तर जब विदेशी लीग में भारत के किसान आंदोलन का विज्ञापन दिखाया जाता है तो हमारी चिंताएँ गहरा जानी चाहिए। जी हाँ, हाल ही में अमेरिका की लोकप्रिय फुटबॉल सुपर बाउल लीग के दौरान किसान आंदोलन से जुड़ा एक विज्ञापन चला है। इसका वीडियो माइक्रो ब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर जमकर वायरल हुआ। मालूम हो कि सोशल मीडिया पर अपलोड किये गये चालीस सेकण्ड के इस वीडियो में दिल्ली किसान आंदोलन को इतिहास का सबसे बड़ा प्रदर्शन बताया गया। इसमें ये भी कहा गया कि इस आंदोलन में अब तक 160 से ज्यादा किसानों की मौत हो चुकी है, इंटरनेट को बंद कर दिया गया है।

वास्तव में, हमें इस बात पर गंभीर होकर सोचने की ज़रूरत इसलिए पड़ रही है क्योंकि जिस सुपर बाउल में किसान आंदोलन का विज्ञापन दिखाया गया है, वह अमेरिका में सबसे ज्यादा देखी जाने वाली लीग्स में से एक है। इसके एक सामान्य विज्ञापन की क़ीमत भी अन्य खेलों में प्रसारित होने वाले विज्ञापनों की तुलना में काफी अधिक होते हैं। एक मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, कुछ सेकण्ड्स मात्र के विज्ञापन के लिए विज्ञापन कंपनियों को 36 से 44 करोड़ रुपये तक चुकाने पड़ते हैं और हर साल यह दर पिछले साल के मुक़ाबले बढ़ती ही रहती है। ऐसे में हम भारत की राजधानी दिल्ली के सीमान्त इलाक़ों में चल रहे किसान आंदोलन के पीछे की ताक़तों का अंदाज़ा लगा सकते हैं।

इन बातों से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि दिल्ली किसान आंदोलन का प्रचार प्रसार कितना अधिक है। इसे हमें केवल उस तरह से नहीं देखना चाहिए जो कि हम अपनी सामान्य रोज़मर्रा में अब इसे देखने लगे हैं। बल्कि इसे हमें उस नज़रिए से देखने की ज़रूरत है, जिस तरह से इसे दुनिया के सामने प्रस्तुत किया गया है। तभी हम इसके वास्तविक ताप को समझ पाएँगे और उस गंभीरता से इसके बारे में विचार कर पाएँगे। अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि सूचनाओं के इस युग में दुष्प्रचार का एक बाण निकले और किसान आंदोलन के बहाने हमारे देश के किसी भी अंग में ऐसा आ लगे कि हमें उसके बुरे परिणाम देखने को मिलें। ऐसे में इस बात से हम मुँह नहीं मोड़ सकते हैं कि दिल्ली किसान आंदोलन देश की दिशा मोड़ सकने में बेहद सक्षम है।

भारत के विदेश सचिव रहे विवेक काटजू भी इस बात का समर्थन करते हैं कि फिलहाल हमारा देश सुरक्षा चुनौतियों के जोखिम से जूझ रहा है। वो तो सलाह भी दे रहे हैं कि किसान आंदोलन से उपजे हालातों को देखते हुए भारतीय राजनीतिक वर्ग को ब्रिटेन और कनाडा से अधिक पाकिस्तान की भूमिका पर ध्यान देना होगा। क्योंकि इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पाकिस्तान हमेशा से भारतीय सिख समुदाय को बरगलाने के प्रयास में जुटा रहा है। मालूम हो कि किसान आंदोलन में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों के अलावा पंजाब के सिख समुदाय से आने वाला किसान बड़ी आबादी में हैं।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा किसानों के 'राइट टू प्रोटेस्ट' के अधिकार को स्वीकार करते हुए की गयी टिप्पणी की प्रतिक्रिया में भारतीय किसान यूनियन के नेता युद्धवीर सिंह कहते हैं, "सरकार ने हमें शुरू से नज़रअंदाज़ किया। यह एक गंभीर विषय है लेकिन सरकार ने शुरू से ही इसे हल्के में ले लिया। सरकार को पहले लगा कि यह आंदोलन सिर्फ़ पंजाब और हरियाणा तक है और उसने इसका दुष्प्रचार भी किया (सरकार की ओर झुकाव रखने वाला एक राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक अख़बार में किसान आंदोलन पर लिखे गये लेखों में लगातार ऐसा किया गया है) लेकिन अब चीज़ें लोगों के सामने हैं। हम तो कोर्ट में गए भी नहीं, लेकिन फिर भी कोर्ट ने हमारी माँगों को जायज़ ठहराया है और हमारे प्रदर्शन के अधिकार को सही माना है। अतः अब एक बात तो सरकार को समझ लेना चाहिए कि किसी भी सूरत में उन्हें किसान नेताओं और उनके आंदोलन को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। अन्यथा उन्हें राजनीतिक नुकसान भी उठाना पड़ सकता है, क्योंकि इतिहास गवाह है जब वर्ष 1990 ई. में भारतीय किसान यूनियन के संस्थापक महेन्द्र सिंह टिकैत को हल्के में लेकर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने जब उन्हें गिरफ़्तार करवाया तो मुलायम सिंह को पता नहीं था कि टिकैत की गिरफ़्तारी के बाद सदन से 67 विधायक भी इस्तीफ़ा दे सकते हैं।

इतना ही नहीं, इससे पहले वर्ष 1988 में भी किसानों का विशाल आंदोलन हुआ था। किसान नेता चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैट के नेतृत्‍व में पूरे देश से करीब पाँच लाख किसानों ने विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक क़ब्‍ज़ा कर लिया था। अपनी माँगों को लेकर इस किसान पंचायत में क़रीब 14 राज्‍यों के किसान आए थे। सात दिनों तक चले इस किसान आंदोलन का इतना व्‍यापक प्रभाव रहा कि तत्‍कालीन कांग्रेस सरकार दबाव में आ गई थी। आख़िरकार तत्‍कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को किसानों की सभी 35 माँगे माननी पड़ीं, तब जाकर किसानों ने अपना धरना ख़त्म किया था।

यद्यपि किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत के दोनों बेटे नरेश टिकैत और राकेश टिकैत जो क्रमशः भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष और राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं अपने पिता जैसा प्रभाव रखते हैं। वो औसतन भीड़ जुटाने और जन समर्थन में भी महेन्द्र टिकैत जैसा औरा रखते हैं। तथापि दोनों के समक्ष स्वयं को साबित करना अभी बाक़ी है। ऐसे में इस किसान आंदोलन के ज़रिए टिकैत बंधु चाहेंगे कि वो अपने पिता की तरह सरकार को घुटने टेकने पर मज़बूर कर दे।

वास्तव में, इसी किसान आंदोलन के ज़रिए यह साबित हो गया है कि महेन्द्र सिंह टिकैत जैसा संयमित और निर्णायक आंदोलन करने में टिकैत बंधु नाकाम रहे हैं। इनके पिता ने जो काम सात दिन में कर दिखाया था उसे दोनों भाई मिलकर महीनों से अंज़ाम नहीं दे पाए हैं। इसके दो प्रमुख कारण हैं। पहला, किसान आंदोलन का दिशाहीन और अस्पष्ट उद्देश्यों के साथ आंदोलनरत् होना। दूसरा, आंदोलनकारियों के सामने मज़बूत इच्छाशक्ति किन्तु कृषक क़ानूनों को लेकर अंतर्विरोध वाली सरकार का होना। इस प्रकार, यह किसान आंदोलन स्वाभाविक रूप से अपने अंज़ाम तक नहीं पहुँच पा रहा है। इसके लिए ज़रूरी है कि किसानों के हित के लिए सरकार की अवधारणा और उसके लिए किये गये प्रयासों को हम तफ़्सील से समझ लें।

किसान हितों को ध्यान में रखते हुए इस सरकार ने जब क़ानून बनाए हैं तो उसे अपने सामने दो प्रमुख उद्देश्य रखे हैं- पहला, किसानों की आय को दोगुना करना और दूसरा, न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी कि एमएसपी में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा उसकी विसंगतियों को पूरी तरह से समाप्त करना। इसमें सरकार की ओर से किसानों की आय को दोगुना करने का कार्य सफल होता नहीं दिख रहा है। इसका कारण यह है कि सरकार की नीति सही दिशा में है ही नहीं। जी हाँ, आपको मालूम होना चाहिए कि सरकार ने वर्ष 2016 में एक अंतरमंत्रालय कमेटी बनाई थी, जिसने वर्ष 2018 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। इस रिपोर्ट में कमेटी ने पहला सुझाव यह दिया कि कृषि की उत्पादकता को बढ़ाया जाये, ताकि देश के किसानों की आय बढ़ सके। मान लीजिये एक कुन्तल गेहूँ के स्थान पर यदि किसान उसी भूमि से एक कुन्तल से अधिक डेढ़-दो कुन्तल गेहूँ का उत्पादन कर ले तो उसकी आय अपने आप ही बढ़ जायेगी।

अब समझिए, इस सुझाव को तैयार करने में कमेटी कुछ मौलिक भूल कर गयी। जाने-माने अर्थशास्त्री भरत झुनझुनवाला कहते हैं कि कृषि का उत्पादन बढ़ने के साथ प्रायः उसके दाम नीचे चले जाते हैं। वैसे भी वैश्विक स्तर पर कृषि उत्पादों के दाम पिछले तीन दशक से गिरते जा रहे हैं। इसका कारण यह है कि मनुष्य की भोजन की माँग सीमित है, जबकि उर्वरक आदि की मदद से अना का उत्पादन बढ़ता जा रहा है। इसके अलावा कृषि उत्पादन बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा के चक्कर में खेतों में अधिक मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग करने से पंजाब और हरियाणा की मिट्टी की तरह पूरे देश की मिट्टी तंदूर सरीखी हो जाएगी। इसके बाद हमारा देश अनाज पैदा तो करेगा लेकिन उसे खा नहीं सकेगा। रह जायेगा केवल निर्यात। शायद यही सरकार की मंशा है।

बहरहाल, कमेटी की दूसरी संस्तुति की बात करें तो उसका इरादा यह था कि कैसे कृषि उत्पादों के मूल्यों में वृद्धि हासिल की जाये। अब ऐसे में समझने वाली बात है कि कैसे सरकार के दोनों उद्देश्य परस्पर अंतरविरोधी हैं। अर्थशास्त्री भरत झुनझुनवाला की मानें तो कृषि उत्पादों के मूल्यों में वृद्धि हासिल करने का सीधा मतलब होता है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि कर दी जाये। और कृषि उत्पादों का मूल्य बढ़ाने के लिए एमएसपी में आवश्यक इस वृद्धि को सरकार क़ानूनी रूप दे। विरोध की असल शंका यहीं पर है, जिसे सरकार सिरे से ख़ारिज करते हुए कह रही है कि यह संभव नहीं है।

चलिए, अब सरकार यदि एमएसपी को बढ़ाने की जगह घटा देती है तो फिर इस पर और अधिक संकट खड़ा हो सकता है। भरत झुनझुनवाला इसे बेहतर स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि यदि किसानों की आय दोगुना करने से पहले एमएसपी को कम किया गया तो किसानों की स्थिति और भी विकट हो जाएगी। ध्यान रहे केरल, भुसावल और नासिक जैसे क्षेत्रों में एमएसपी को लेकर विरोध नहीं हो है, क्योंकि यहाँ क्रमशः काली मिर्च, केला और प्याज़ जैसी उच्च क़ीमत की फ़सलों को उगाने से किसानों को वर्तमान में ही एमएसपी की तुलना में औसतन अधिक आय हो रही है। इससे स्पष्ट है कि कृषि उत्पादन बढ़ाने की अपेक्षा क़ीमती फ़सलों का उत्पादन बढ़ाने से किसानों की आय बढ़े सकेगी। ऐसे में, किसानों की आय दोगुना करने की सरकार की मंशा सही होने के बावजूद उसकी नीतियाँ बेहद ग़लत हैं। सरकार को चाहिए कि वह पहले किसानों की आय को दोगुना करे और किसानों को भी चाहिए कि उनकी आय दोगुना हो जाने के बाद वे कृषि उत्पादों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की माँग बंद कर दें।


क्या होता है न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) :

“किसी कृषि उपज (जैसे गन्ना, गेहूँ या धान आदि) का न्यूनतम समर्थन मूल्य वह मूल्य है, जिससे कम मूल्य देकर किसान से वह उपज नहीं ख़रीदी जा सकती। न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को भारत सरकार तय करती है। उदाहरण के लिए- यदि धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2000 रूपये प्रति कुन्तल निर्धारित किया गया है, तो कोई भी व्यापारी किसी किसान से उस धान को 2100 रूपये प्रति कुन्तल की दर से तो ख़रीद सकता है। लेकिन वह उसे 1975 रूपये प्रति कुन्तल की दर से नहीं ख़रीद सकता है।”

भारत के अर्थशास्त्री एक लम्बे अर्से से यह कहते आ रहे हैं कि किसानों को बिचौलियों से मुक्त कराने और उन्हें मुक्त बाज़ार से जोड़ने की ज़रूरत है। इस ज़रूरत को कांग्रेस ने भी समझा और उसने इसे अपने चुनावी घोषणा-पत्र में भी शामिल किया था। अब जब राजग सरकार इस बिल को ले आयी है, भले ही उसमें तकनीकि ख़ामियाँ हों, तो शिवसेना ने तो उसके इन कृषि विधेयकों को लोकसभा में समर्थन भी किया था। इतना ही नहीं, उसके नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार ने सबसे पहले इन नए कृषि क़ानूनों पर अमल करने के आदेश भी जारी किए थे। लेकिन जब उसने देखा कि कुछ किसान संगठन सड़कों पर उतर आये हैं तो उसने अपना इरादा बदल दिया। यही काम अकाली दल ने भी किया। रालोद के जयंत चौधरी तो किसान नेताओं के साथ मंच पर भी देखे जाते हैं।

ऐसे में किसान संगठनों से इतर कम से कम विपक्षी दलों को बताना चाहिए कि वे क्या चाहते हैं? क्या यह कि किसान अपनी उपज की बिक्री के मामले में उन्हीं पुराने नियमों में बँधे रहें, जिसने उनके बजाय आढ़तियों और बिचौलियों के हित सधते रहे हैं और जो तब बनाए गए थे, जब देश में अनाज की कमी थी? नहीं, देश को नए कृषि क़ानूनों की सख़्त ज़रूरत है। लेकिन इसमें अंतरविरोध नहीं होना चाहिए, जिन्हें स्पष्ट करना सरकार की ज़िम्मेदारी है।

अच्छी बात यह है आंदोलनकारी किसानों के प्रतिनिधियों से सरकार की हुयी लगभग दर्जनों बार की बातचीत में सरकार से अपनी तकनीकी ख़ामियों को स्वीकार करते हुए उनमें संशोधन करने, उनकी समीक्षा कराने और उन्हें डेढ़ साल तक रोकने को भी तैयार है। इतना ही नहीं, वह किसान नेताओं की माँग पर बिजली संशोधन विधेयक वापस लेने और पराली जलाने पर दण्डात्मक कार्यवाई वाला प्रावधान हटाने को भी तैयार है। इसके अलावा सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर लिखित गारंटी देने की भी पेशकश कर चुकी है। स्पष्ट है कि इसके बाद भी किसान संगठनों का यह कहना सरासर झूठ है कि सरकार उनकी सुन नहीं रही है। किसान नेता तो पूरी तरह से बिल की वापसी की ज़िद पकड़े हैं। वे यह चाह रहे हैं कि सरकार तो लगातार अपने क़दम पीछे खींचती जाए, लेकिन वे ख़ुद एक इंच भी टस से मस नहीं होने वाले हैं।

किसान आंदोलन के पक्षधर एवं आंदोलनकारी नेता योगेंद्र यादव कहते हैं कि दो महीने से बार-बार कह रहे हैं। सरकार अभी तक हमारी बात सुन तक नहीं रही है। इन तीन क़ानूनों के निरस्त होने की माँग ऐसी है जिस पर हम समझौता नहीं कर सकते। सरकार संशोधन की बात कर रही है लेकिन बुनियादी तौर पर फ्रेमवर्क ही ग़लत है। हमने हाँ या ना में जवाब माँगा था, सरकार ने बीस पन्ने का फर्रा थमा दिया है। सरकार ज़बरदस्ती गिफ्ट दे रही है, हमें गिफ्ट नहीं चाहिए।

बीबीसी द्वारा आयोजित एक वेबिनॉर में योगेन्द्र यादव के बरक्स सरकारी सुधारों के पक्षधर एवं कृषि मामलों के विशेषज्ञ विजय सरदाना स्पष्ट करते हैं कि चालीस साल से भारत का किसान कह रहा था कि हमें सीधे बेचने दिया जाए। उसके हिसाब से फैसला किया गया। कांग्रेस के मैनिफेस्टो में देखिए, महेंद्र सिंह टिकैत के वीडियो देखिए, उन्होंने कहा कि हमें मण्डी सिस्टम ने बर्बाद कर दिया। सब लोग कहते रहे हैं कि हमें बाज़ार दीजिए। अब कुछ लोग कह रहे हैं कि हमें नहीं चाहिए। फिर भी सब कुछ विकल्प के तौर पर है। मंडी में बेचो या सीधे बेचो, जैसा आप चाहते हैं। कोई किसी को बाध्य नहीं कर रहा है।

एमएसपी पर सरकार का पक्षः

-Narendra Singh Tomar
(Union Minister of Agriculture and Farmers Welfare)

“एमएसपी को नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में डेढ़ गुना किया गया है। ख़रीद का वॉल्यूम भी बढ़ा है। पहले गेहूँ और धान पर ही ख़रीद होती थी, लेकिन अब दलहन और तिलहन पर भी ख़रीद की जा रही है। एमएसपी से किसानों को ज़्यादा से ज़्यादा सुरक्षा मिल सके और उसमें हम ज़्यादा से ज़्यादा पैसा खर्च कर सकें, इस दृष्टि से नरेंद्र मोदी जी की सरकार की प्रतिबद्धता पहले भी थी, आज भी है और आने वाले कल में भी रहेगी। एमएसपी के मामले में अगर उनके मन में शंका है तो हम लिखित आश्वासन देने के लिए भी तैयार हैं। हम सरकारों को भी दे सकते हैं और किसान को भी दे सकते हैं, किसान संगठनों को भी दे सकते हैं।”

वास्तव में, तीनों कृषि क़ानूनों पर मतैक्त न होने से ही ये पूरा घमासान मचा हुआ है। सरकार इस बात को लेकर प्रतिबद्ध है कि कैसे किसानों का हित हो, भले ही वो इसे मूर्त रूप नहीं दे पा रही है। उसकी मंशा ठीक है। किसान नेता सम्पूर्ण बिल के वापसी की ज़िद पर अड़ा है। विपक्ष बहती गंगा में हाथ धो रहा है। भारत विरोधी शक्तियाँ अपना खेल खेल रही हैं। ऐसे में ज़रूरत है एक स्वस्थ विमर्श की। हालाँकि अभी हर ओर से लोगों के एकदम स्पष्ट अलग-अलग मत हैं।

अब देखिए, किसानों के वकील दुष्यंत दवे के मानते हैं कि ये क़ानून संविधान के संघीय ढाँचे पर आघात करते हैं और यदि लागू किए गए तो कारोबारी मठाधीश कृषि बाज़ार पर काबिज़ हो जाएँगे और फिर छोटे किसानों का अस्तित्व मिट जाएगा। वहीं दूसरी तरफ़ अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ का मानना है कि इन क़ानूनों से किसानों के बाज़ार का दायरा बढ़ेगा और उनकी आमदनी में बढ़ोत्तरी होगी। केन्द्र सरकार क़ानूनों को निरस्त किए बिना यह कहती थी कि ये क़ानून उन्हीं प्रदेशों में लागू होंगे, जिनकी विधानसभाएँ उनके अनुमोदन का प्रस्ताव पारित कर देंगी।

क़ायदे से देखा जाये तो यह एक बेहतर और कारगर उपाय सिद्ध होता, जिससे किसान आन्दोलन दिल्ली की सीमावर्ती परिधि से विकेन्द्रित होकर प्रदेशों में बिखर जाता। उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक रहे प्रकाश सिंह इस युक्ति का समर्थन करते हुए कहते हैं कि ऐसा करने से आंदोलनकारी दिल्ली के बजाय प्रान्तों की राजधानी में जाने को बाध्य हो जाते। अगर ये क़ानून वास्तव में किसानों के लिए लाभदायक है तो कालांतर में इन क़ानूनों को न अपनाने वाले प्रदेश स्वतः ही इनकी माँग करते। वास्तव में एक स्वस्थ संघीय ढाँचे वाले देश में यही आदर्श परंपरा होनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे देश में ऐसा नहीं हुआ और दुनिया ने हमारा सोहल्ला लूट लिया। अर्रे जो क़ानून सात दशकों से लागू नहीं हुआ, वह अगर कुछ प्रान्तों में दो-चार साल बाद ही लागू होता को कोई आसमान नहीं फट जाता।

अंततः अब भारत में कृषि क़ानूनों से जो विवाद खड़ा हुआ है, उसका कोई न कोई स्थायी समाधान निकालना ही होगा। वरना दिल्ली का ये किसान आंदोलन तमाम भिन्न ऊर्जाओं और सूचनाओं के ऐसे संजाल से घिरा है कि इसकी वास्तविकता दुनिया को न पता चलने से दिशाभ्रम की स्थित पैदा हो सकती है, जो देश को अभ्युदय के मार्ग से विमुख करके इसकी दिशा मोड़ सकता है। इसलिए उच्चतम न्यायालय ने जो एक कमेटी गठित की है उसके साथ हल निकालें। इसमें भी अगर कमेटी के सदस्यों से कुछ लोगों को आपत्ति हो तो उसका भी पुनर्गठन किया जा सकता है। प्रकाश सिंह के अनुसार केन्द्र सरकार चाहे तो इस विषय पर निर्णय लेने का अधिकार राज्य सरकारों पर छोड़ सकती है। मौजूदा विवाद का सारा झंझट ही ख़तम।

कुल मिलाकर, क़ानूनों की संवैधानिकता पर उच्चतम न्यायालय की राय लेना अधिक हितकर सिद्ध होगा। सरकार और किसान संगठनों के पास इस मसले को हल करने के कई विकल्प हैं। दोनों को मिलकर उन्हीं में से कोई न कोई उत्तम रास्ता निकालना ही चाहिए। इसके लिए बेहतर होगा यदि सरकार स्वयं किसान नेताओं को बातचीत के लिए आमंत्रित करके दूरी समाप्त करने की पहल कर दे।

∙ अमित राजपूत

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