हिन्दी भाषा में ख़ासतौर पर गाँधी के बारे में जितना भी पढ़ने को मिलता है उसे मौलिक तौर पर अथवा पूर्वाग्रहों के बाबत दो स्तरों पर देखा जा सकता है। पहला, गाँधी के बारे में लिखने से पहले यह मान लिया गया है कि वो किसी महान व्यक्ति के बारे में लिख रहे हैं। इस तरह से लेखक गाँधी की अच्छाइयों के बारे में बताने में आमदा देखे गये। दूसरा, गाँधी के बारे में लिखने से पहले ही यह शंका बना ली गयी कि उनमें गहरे राज़ छिपे हैं। यानी कि जैसा गाँधी दिखाई देते हैं उससे इतर उन्हें खलनायक के तौर पर देखने वाली दृष्टि डाली गयी। इस तरह से लेखक गाँधी की बुराइयाँ बताने में आमदा देखे जाते हैं।
यक़ीनन गाँधी ख़्यातिलब्ध, सर्वस्वीकृत और बड़े नेता होने
के बाद भी कई प्रस्तरों पर भीतरी ही सही सहमति-असहमति के विषय-वस्तु रहे हैं और इस
बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन दोनों ही धड़ों- चाहे वो गाँधी की
अच्छाइयाँ परोसने वाले हों या गाँधी की बुराइयों को रेखांकित करने वाले, ने गाँधी
के साथ बहुत न्याय नहीं किया है। इसका आशय यह भी नहीं कि उन्होंने अन्याय किया है।
किन्तु वह ठीक उसी तरह से न्यायोचित नहीं है, जैसे कि गीता को मानने से अधिक
न्यायोचित गीता की मानना है। ऐसे में गाँधी जैसे विराट और व्यापक व्यक्तित्व वाले
विभूति पर उनके जीवन के घटनाक्रमों, आंदोलनों की तारीख़े और वाद-विवाद से जुड़े
मसलों पर तो लोगों ने ख़ूब कलम चलाई है, लेकिन स्वयं गाँधी के बोध पर एक्का-दुक्का
लोगों ने ही कलम चलाई है।
अब गाँधी के तमाम बोधों पर उनके राम बोध की बात की जाये,
जोकि विशिष्ट है तो हिन्दी भाषा में डॉ. अरुण प्रकाश की लिखी पुस्तक ‘गाँधी के राम’ उस क्रम की आरम्भित कृति है। यह गाँधी
की अच्छाइयों-बुराइयों से परे उनके बोधमात्र पर लिखी गयी समीचीन पुस्तक है, जिसे
लगभग दोनों धड़े शायद स्वीकार-अस्वीकार कर सकते हैं। डॉ. अरुण द्वारा गाँधी पर
किया गया यह अभ्यास सभी के लिए अभिनव है। लिहाजा लीक पर चलने वाले विद्यार्थी और
अध्येताओं के लिए यह थोड़ा अपाच्य कृति हो सकती है। तथापि विज्ञ, प्रगतिशील और
प्रयोगशील विद्यार्थियों और अध्येताओं को यह पुस्तक ‘गाँधी
के राम’ बेहद सुपाच्य और रोचक जान पड़ती है।
परिमार्जित भाषा युक्त ललित निबन्ध शैली में कुल 107
पन्नों में लिखी गयी पुस्तक ‘गाँधी के राम’ को सामान्य से सामान्य पाठक भी एक ही बैठक में पढ़कर छक लेगा। इसका अन्य
प्रधान कारण पुस्तक की लयबद्धता और उत्तरोत्तर आरोहित रोचकता है। पुस्तक के लेखक
डॉ. अरुण प्रकाश ने गाँधी के राम बोध को पाठकों तक पहुँचाने के लिए पुस्तक को कुल
दस अध्यायों में विभक्त किया है। ये दसों अध्याय परस्पर भिन्न और विशिष्ठ हैं, जो
गाँधी जी की आत्मकथा, उनके प्रवचनों, पत्रों, और प्रेस रिपोर्ट्स के साथ-साथ यंग
इंडिया, नवजीवन व हरिजन सेवक में छपे उनके तमाम विचारों से संदर्भित और प्रामाणिक
हैं।
पुस्तक में इस बात को स्पष्ट किया गया है कि गाँधी का
राम-बोध आज़माया हुआ नुस्ख़ा है। पुस्तक में लेखक ने ‘यह पुस्तक क्यों’ शीर्षक से पहले ही बताया है कि
गाँधी राम की महिमा को कहने व अनुभव करने की अनुपम दृष्टि रखते हैं, जिसे प्रस्तुत
पुस्तक ‘गाँधी के राम’ में तार्कित रूप
से व्याख्यायित किया गया है। इसके अलावा भी गाँधी के ऐसे बोध को लोक से जोड़ने के
लिए तथा इसे पठनीय बनाने के लिए यदा-कदा लोक कथाओं को जोड़ा गया है। ये पुस्तक को
और भी अलंकृत कर देती हैं। साथ ही पुस्तक की विषयवस्तु को शास्त्रीय व्याख्याओं से
मुक्त रखने वाला लेखक का प्रयास भी सराहनीय है।
गाँधी के रामबोध पर आधारित डॉ. अरुण की यह पुस्तक ‘गाँधी के राम’ दकियानूस हो जाती यदि इसमें रामकथा
संबंधी ग्रंथों का उल्लेखनीय प्रयोग किया गया होता। लेकिन लेखक ने बड़ी चतुराई और
होश में इससे दूरी बनाकर रखी, ताकि पूर्व प्रचारित विमर्श से इतर गाँधी के इस विशिष्ठ
पक्ष को सिर्फ़ उनके अपने निजी नज़रिए और बोध से ही प्राप्त किया जाये। इस बात को
लेखक ने पूरी पुस्तक को लिखते समय ध्यान रखा है। लेखक की यह बात ही उनकी पुस्तक को
मुख्य धारा में लाकर खड़ी करने वाली है।
मुख्यधारा का यह क्रम रेखीय है, जहाँ गाँधी को स्वयं उनके
अपने प्रयोगों और सुरति से राम का बोध होता है, किसी रामकथा संबंधी ग्रंथ से नहीं।
लेखक ने भी उसको यथावत प्रस्तुत किया है। लेखक का यह बचाव श्रेयष्कर है। मसलन
पुस्तक के छठे अध्याय ‘राम साधन-राम साध्य’ में वो गाँधी की उस बात का वस्तुतः
उद्धरण करते हैं जहाँ गाँधी कहते हैं कि राम पर कोई इसलिए आस्था न रखे कि उन्होंने
ऐसा करने को कहा है- बल्कि वह स्वयं आज़माकर देख ले।
बहरहाल, मैं यह नहीं कहता कि गाँधी के रामबोध पर लिखी डॉ. अरुण प्रकाश की यह पुस्तक ‘गाँधी के राम’ समावेशी है, किन्तु चूँकि उन्होंने इस ओर पहली दृष्टि डाली है। ऐसे में बतौर लेखक डॉ. अरुण और उनकी पुस्तक ‘गाँधी के राम’ कम से कम भारत में होने वाली गाँधीवादी चर्चाओं के अभिनव आलम्ब बनकर खड़े हो सकते हैं।
पुस्तक का नामः गाँधी के राम
लेखकः डॉ. अरुण प्रकाश
प्रकाशकः क़िताबवाले, दरियागंज-नई दिल्ली।
मूल्यः 300 रुपये मात्र।
• अमित राजपूत
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