Wednesday, 19 December 2018
Sunday, 16 December 2018
पुस्तक समीक्षाः जातिभास्कर
जाति को सूर्य की उजली रोशनी में देखने का साधन
• अमित राजपूत
हाल ही में भारत के पाँच
राज्यों में एक साथ चुनाव परिणाम घोषित हुये हैं। इनके लिए बीते चुनाव प्रचार के
दौरान इक्कीसवीं सदी के भारत में मौजूद एक बड़े और सेकुलर युवा नेता की पहचान बना उसका गोत्र। ये युवा नेता सेकुलरवादियों के सबसे दीप्तमान चिराग़ माने जाने वाले राहुल गाँधी हैं। यूँ तो सेकुलरवादियों को इससे
पहले इस तरह से अपना गोत्र उजागर करने की छटपटाहट में पहले नहीं देखा गया है, जैसा
कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने राजस्थान के पुष्कर में ख़ुद को कश्मीरी कौल ब्राह्मण बताते हुए अपना
गोत्र दत्तात्रेय बताया। इसका आशय स्पष्ट है
कि अब लोगों में जातीय चेतना किसी न किसी मायने में पहले से ज़्यादा बढ़ी है।
इस बात का और तीखा प्रमाण
हमें इसी चुनाव प्रचार में मिला जब उत्तर प्रदेश के
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राजस्थान में ही चुनाव प्रचार के दौरान हनुमान को
दलित बता दिया। अलवर
जिले के मालाखेड़ा में एक सभा को संबोधित करते हुए योगी आदित्यनाथ ने बजरंगबली को
दलित,
वनवासी, गिरवासी और वंचित करार दिया। योगी ने कहा कि बजरंगबली एक
ऐसे लोक देवता हैं, जो
स्वयं वनवासी हैं, गिरवासी हैं, दलित हैं और वंचित हैं।
इसका प्रभाव यह हुआ कि देश के कई हनुमान मन्दिरों में दलितों ने कब्जा करना शुरू
कर दिया। ऐसे समय में यह ज़रूरी हो जाता है कि लोगों द्वारा जाति को अंधेरी बंद
कोठरी में टटोलने से बेहतर है कि इसे सूर्य की उजली रोशनी में देखा जाये और
इसके लिए हमारे पास अब एक उपयुक्त साधन है ‘जातिभास्कर’।
‘जातिभास्कर’ एक ऐसी पुस्तक है जो भारतीय जातियों के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पक्षों को
अनेक मतों और सर्वेक्षणों के आधार पर लिपिबद्ध की गयी है। ऐसा करने का प्रशंसनीय
और आश्चर्यजनक प्रयास पण्डित ज्वाला प्रसाद मिश्र ने किया है। चूँकि हमारे देश में
वर्ण, जाति, गोत्र, अवटंक, शाखा-प्रशाखादि की मान्यताएँ बहुत ही पुराने समय से रही
हैं। प्रत्येक समुदाय और अध्येताओं के बीच में इस तरह की मान्यताएँ हमेशा से ही
रोचक रही हैं। इसका एक कारण इसकी उलझी हुयी गुत्थियाँ है। इसलिए कोई भी ऐसा साधन
जो कि इन गुत्थियों को सुलझाता जाये वह लोगों में कुतूहल पैदा करता है और ये पुस्तक ‘जातिभास्कर’ वही साधन ही है। इस कारण लोगों को इसकी प्रबल
आवश्यकता है।
भारतवर्ष जातियों की
बहुलता का देश है और यहाँ प्रत्येक व्यक्ति की पहचान जाति और उसके कुल से ही होती
है। इसलिए भारत का सामाजिक वर्गीकरण बहुत ही महत्वपूर्ण है और यह सामान्य सोच का
परिणाम नहीं, बल्कि विशिष्ट विचार वाली संव्यवस्था का सूचक है। पूरे विश्वभर में यह
ही एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें वर्ण के समानान्तर मानव के कर्मों के आधार पर उसकी
पहचान होती आयी है। इसलिए हमें इसकी सटीक जानकारी भी होना आवश्यक है। प्रस्तुत
पुस्तक ‘जातिभास्कर’ भारतीयों
की जातियों के संबंध में प्रामाणिक और शास्त्र सम्मत सामग्री प्रस्तुत करती है।
लेखक ने बहुत ही शोधानुसंधान करके देश की चारो ही दिशाओं में बसने वाली प्रमुख
जातियों के कुल, गोत्र और उनके पेशों के आधार पर शास्त्र सम्मत अधिकतम जानकारी
जुटाई है। इस तरह से यह एक औसत पुस्तक से अधिक उपयोगी ग्रंथ ही है। हालाँकि जिस प्रकार से इसके विषय वस्तु की समग्रता है
उस हिसाब से यह बेहद कम मात्र 623 पन्नों में ही लिख दी गयी है। वास्तव में यही इस
ग्रंथ की विशेषता भी है और कमी भी।
इस ग्रंथ में अनेक
जातिकथन, जातियों के लक्षण, पुराणों में जातियों के उद्धरण का विश्लेषण, ब्राह्मण
ग्रन्थों में अवंटकों के वर्णन और चक्र, अनेक वंश विस्तार, भौगोलिक रहवासियों के
अनुरूप उनके वंशादि की पड़ताल, प्रवरों का निरूपण, अनेक गोत्रों की व्याख्याएँ,
उनका वर्णन, साथ ही साथ उन पर विशेष वर्णन का इसमें समाहित होना इस ग्रन्थ की
ख़ूबियाँ हैं। इसके अलावा पुस्तक को कई खण्डों में विभाजित कर और भी रोचक बनाया
गया है। इसमें दूसरे अनेकविधि ब्राह्मणों की उत्पत्ति, अथ क्षत्रिय खण्डः, वैश्य
खण्डः, खाँपखतानी, विचार कोटि की जातियाँ, अथ मिश्रखण्डः, अष्टादश, सप्त समूह,
अन्त्यजसप्त समूह, एकादश समूह और दूसरी
संकर जाति कथन जैसे अध्ययन पड़ाव इसे सहज स्वरूप प्रदान कर अध्ययन में रुचि पैदा
करते हैं। इसे और बेहतर मुकाम देने के लिए लेखक ने वर्तमान समाज में मौजूद जातियों
का वर्गीकरण कृषिजीवी व पशुपालक, वनविहारी, जीवनोपयोगी हस्तकलाधर्मी, यायावर व
द्रव्यतापूर्तिकरण, पूजनादि कृत्यधर्मी, गायकादि कलाधर्मी, कवि, वंशवाचक या
पोथीकार, याचक, वैश्यधर्मी और योद्धा व लेखक जातियों के समूह में बेहद सुगठित रूप
में निरूपित किया है।
इस ग्रंथ की प्रमुख
विशेषता इसमें संस्कृत शास्त्रों के प्रमाणिक सन्दर्भ तो हैं ही, इसके अलावा प्रारम्भिक
सर्वेक्षणों पर आधारित जानकारियाँ भी इसे
ख़ास बनाती हैं। इसलिए कुल और जातियों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त के इच्छुक प्रत्येक
व्यक्ति के लिए यह ग्रंथ ‘जातिभास्कर’ अति उपयोगी है।
पुस्तकः
जातिभास्कर
संपादकः पण्डित
ज्वाला प्रसाद मिश्र
प्रकाशकः
आर्यावर्त्त संस्कृति संस्थान, दिल्ली।
मूल्यः 600
रुपये।
Friday, 23 November 2018
टीवी धारावाहिकों के संक्रमण से जूझता देश
• अमित राजपूत
किसी अबोध बालक के शरीर
में निकलने वाले संक्रमण के दानों को जब वह खुजलाता है, तो उसे अजीब सा मज़ा मिलता है।
उस मज़े में दानों को खुजलाने में वह इतना मशगूल रहता है कि उसे इस बात का भान
होते हुए भी (कुछ को भान ही नहीं रहता) कि उसके खुजलाने से उन दानों में संक्रमण
और ज़हरीले तत्व बढ़ रहे हैं, वह दानों को खुजलाने का अपना क्रम जारी ही रखता है।
ऐसे में बालक के अभिभावक उसे इसके लिए डाँट लगाते हैं और अबोध बालक को ऐसा करने से
एकदम रोकते हैं। वास्तव में भारत के बहुतेक टीवी धारावाहिकों का हाल उसी अबोध बालक
सा है, जो भूत-प्रेत, टोटका और नाग-नागिन के साथ दर्शकों
को मनोरंजन की ख़ुराक पेश करने में
मशगूल हैं। इसमें टीआरपी-टीआरपी खेलने में इन्हें मज़ा तो ख़ूब मिल रहा है। लेकिन इससे
भारतीय समाज में पहले से ही व्याप्त अंधविश्वास के संक्रमण को मिलने वाली हवा और
उसके ज़हर से ये अनजान बने बैठे हैं, क्योंकि इन्हें ऐसा करने से रोकने वाले इनके
कथित अभिभावक भी भावशून्य पड़े हैं।
इतना ही नहीं कुछेक टीवी धारावाहिक तो कलह
परोसते हैं, जिसकी सीधी सप्लाई भारतीय समाज के सबसे बड़े दर्शक वर्ग मध्यम परिवारों तक होती है। इस कारण समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा इसकी चपेट में है।
यही कारण है कि जहाँ विज्ञान की देन टेलीविज़न से स्वाभाविक
उम्मीद यह होनी चाहिए कि वह अंधविश्वासों से पर्दा
हटाने का काम करे, जिससे लोगों का क्रमबद्ध
सुसंगठित और
बुनियादी विचार और ज्ञान पोषित हो
सके। वहीं इसके उलट आज वह अंधविश्वास की गिरह को पहले से बहुत मजबूत बनाता चला जा रहा है।
ऐसे धारावाहिकों के निर्माताओं को इस बात का अंदाज़ा भी नहीं है कि भूत-प्रेत,
जादू-टोना, पुनर्जन्म और नाग-नागिन वाले धारावाहिकों का असर सामाजिक कुरीतियों और
उनकी जड़ताओं को बनाए रखने में सहभागी बनते हैं।
आपको यह जानकर आश्यर्च हो
सकता है कि समाज में धारावाहिक देखने वाली महिलाओं और न देखने
वाली महिलाओं की जीवटता में बड़ा अन्तर देखने को मिलता है। एक एनजीओ की ताज़ा
रिपोर्ट बताती है कि ऐसे अंधविश्वासी और
कलह दिखाने वाले धारावाहिकों से दूर जीवन बिताने वाली
महिलाएँ अधिक सुखी और सशक्त हैं। वहीं इनके
साथ लगातार जुड़ी रहने वाली महिलाएँ धीरे-धीरे असामाजिक होती जा रही हैं। इन
महिलाओं में लोगों के साथ घुल-मुलकर रहने की प्रवृत्ति भी कम होती जाती है। इसके अलावा धारावाहिकों
में दिखने वाले घर, किचन और उनके पहनावों को मध्यम परिवारों की महिलाएँ तेज़ी से
अपनाना चाहती हैं। इसके लिए वह अपने पति के साथ कब तीखे बर्ताव करने लगती हैं
उन्हें स्वयं पता नहीं चलता है। ऐसे में उनका पूरा जीवन पहलू प्रभावित होता जा रहा है और इससे सभ्यता में
संक्रमण की गुंजाइश बढ़ती जा रही है। ऐसे
धारावाहिकों के दुष्परिणाम महज इसी कोटि के नहीं हैं। कुछ दुष्परिणाम तो इससे कहीं
भयावह हैं।
जनसत्ता में छपी 14 नवम्बर, 2018 की एक रिपोर्ट ने तो मुझे बेहद डराकर रख दिया है। इस रिपोर्ट के
अनुसार राजस्थान के गंगापुर सिटी में एक परिवार अपने घर में टीवी पर अगर कुछ देखता
था तो सिर्फ़ एक देवता शिव पर केन्द्रित धारावाहिक ‘देवों के देव महादेव’। ये मार्च,
2018 की घटना है। एक दिन उस परिवार ने इसी धारावाहिक को देखा और
फिर शिव के आने का इंतज़ार करते हुये उनकी आराधाना में लग गया। शाम तक कोई नहीं
आया, तो समूचे परिवार ने ख़ुद शिव से मिलने की ठानी और
स्वर्ग जाने की बातचीत करते हुये बहुत सहज भाव से परिवार के सभी सदस्यों ने ज़हर
खा लिया। इनमें आठ में से तीन तो पड़ोसियों के ठीक समय पर आ जाने से बचाये जा गये,
लेकिन बाक़ी पाँच लोगों की मौत हो गयी। यह घटना अपने आप में यह
बताने के लिए काफ़ी है कि भारतीय समाज में पहले से पसरे अंधविश्वासों के बीच कोई
टीवी धारावाहिक किस क़दर लोगों के सोचने-समझने की क्षमता पर प्रहार कर उसे ख़त्म
कर रहा है।
ऐसी ही दूसरी
घटना का ज़िक्र उस रिपोर्ट में था। दिल्ली
में 26 साल की युवती आस्था के पति की एक हादसे में मौत हो चुकी है। एक दिन
उसकी छह साल की भतीजी निन्नी ने कहा- “बुआ आप सफेद साड़ी क्यों नहीं पहनती हैं और
आप जलेबी क्यों खाती हैं? आप तो विधवा है!” आस्था निन्नी
की बात सुनकर अवाक रह गयी। निन्नी ने आगे कलर्स टीवी पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक 'अग्नि परीक्षा जीवन कीः गंगा’ की मिसाल देते हुये समझाया कि गंगा मेरी जितनी छोटी बच्ची है और उसका पति मर गया है। इसलिए वह सफेद
साड़ी पहनती है और जलेबी भी नहीं
खाती है। अब
समझने वाली बात है कि जहाँ 26 साल की नौजवान विधवा
लड़की आस्था के मायके वाले उसे एक सामान्य ज़िन्दगी की ओर मोड़ने की कोशिश कर रहे
हैं, वहीं इसके बरक्स कुप्रथाओं को पुनः पोषित करने में
जुटे कुछ टीवी धारावाहिक निन्नी जैसी अबोध बच्चियों में उनके प्रति रोचकता पैदा
करते जा रहे हैं। इसका प्रभाव आज के सामाजिक जीवन को प्रभावित कर
आस्था जैसी लड़कियों को झकझोर कर रख देता है। चिन्ता का विषय है कि सूचना क्रान्ति
के इस दौर में यदि ज़माना कुप्रथाओं की ओर मुड़ चला, तो न जाने इसका भविष्य कितना
भयावह हो सकता है। टीवी धारावाहिकों के निर्माता भारत की बुनियादी ज़रूरतों पर
शायद ही कभी ध्यान ले जाते हैं। हालाँकि जो ले जाते हैं, ऐसा नहीं है कि वो सीरियल सफ़ल नहीं हुये। ‘अफ़सर बिटिया’ और ‘निमकी
मुखिया’ जैसे धारावाहिक इसके उदाहरण हैं, जो जनता द्वारा
ख़ूब पसंद किये गये और जमकर सराहे गये। इन दोनों ने मध्यम वर्ग की बालिकाओं को
ख़ासा उत्साहित किया।
ऐसे टीवी धारावाहिकों की
रोकथाम के लिए महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के राज्य कार्यकारी अध्यक्ष अविनाश पाटिल ने भी इस संदर्भ में
भारी चिन्ता ज़ाहिर की है। उनकी मानें तो धारावाहिकों
में डायन,
नाग-नागिन, काला जादू, प्राचीन कुरीतियों से जुड़ी घटनाओं को प्रचारित करने के ख़िलाफ़ उनकी समिति ने पूरे महाराष्ट्र में कई कैम्पेन
चलाये हैं, क्योंकि ऐसे
धारावाहिकों के धुआँधार चलन से समाज में लगातार नकारात्मक परिणाम सामने आ रहे
हैं। इसके सुधार के लिए वह प्रसारण क़ानूनों में बदलाव चाहते
हैं।
इस मसले पर उच्चतम
न्यायालय के अधिवक्ता अशोक सिंह ने भी
सवाल किया कि क्या भारत का संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत ऐसी
किसी चीज़
की अनुमति देता है, जो
लोगों के मन मस्तिष्क को आघात पहुँचाने
और समाज में वैज्ञानिक सोच के विकास को प्रभावित करे। इस बाबत संविधान में वर्णित नीति निर्देशक सिद्धान्तों में
राज्य का दायित्व बताया गया है, कि वह देश में वैज्ञानिक स्वभाव को बढ़ावा देंगे।
इस क्रम में अंधविश्वास से लड़ना या इसके निवारण के लिए कार्यवाई करना भी इसमें
शामिल हो जाता है। इसके अलावा प्रसार भारती एक्ट की धारा-12 में सीधे-सीधे
अंधविश्वास के विरोध में प्रसार भारती के दायित्वों को स्पष्ट करते हुए भी उसमें
इस तरह की चीज़ें शामिल की गयी हैं।
हालाँकि
सिनेमेटोग्राफी अधिनियम,
1952 टीवी धारावाहिकों पर लागू नहीं होता है, क्योंकि इसे
प्रवृत्त करने का अधिकार केन्द्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड के पास है और सेंसर बोर्ड
सिनेमाहॉल में प्रदर्शित होने वाली फ़िल्मों के लिए उत्तरदायी है। टीवी पर दिखाये
जाने वाले धारावाहिकों और कार्यक्रमों से सेंसर बोर्ड का कोई अख़्तियार नहीं है। बल्कि
ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज़ (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम, 1954 के अंतर्गत देखें तो कुछ हद तक ऐसे धारावाहिक इसके
दायरे में आने चाहिए, क्योंकि विज्ञापन को व्यापक अर्थ में समझने पर निष्कर्ष तो
यही निकलता है कि कहीं न कहीं इन माध्यमों से अंधविश्वास को विज्ञापित ही किया जा
रहा है। ऐसे में चैनल के मालिक तक इसके घेरे में आ सकते हैं। बावजूद इसके इस एक्ट
का दायरा बहुत सीमित है।
सच्चाई तो यह है कि टीवी
धारावाहिकों का न कोई नियमन है और न तो अभी तक इसका कोई सेंसर ही है। इनका सीधे
निर्माण होता है और सीधे प्रसारण। यद्यपि इन धारावाहिकों के प्रसारण से पहले तो
किसी तरह के नियमन की व्यवस्था नहीं है, लेकिन यदि ये केबल टेलीविज़न नेटवर्क
रूल्स, 1994 के नियम संख्या 6 में दिये गये प्रोग्राम कोड का उल्लंघन करते हैं, तो
फिर इन पर कार्यवाई हो सकती है। ग़ौरतलब है कि प्रोग्राम कोड में यह निर्देशित
किया गया है, कि किस तरह के कार्यक्रम केबल सर्विस के माध्यम से प्रसारित नहीं हो
सकते हैं। इसमें नियम संख्या 6 के उप-नियम (10) में स्पष्ट है कि ऐसा कोई भी
प्रोग्राम जो अंधविश्वास या अंधश्रद्धा को बढ़ावा दे, वो केबल सर्विस के माध्यम से
प्रसारित नहीं किया जाना चाहिए। यदि कभी ऐसा होता है तो ज़िलाधिकारी इसकी शिकायत सूचना
एवं प्रसारण मंत्रालय को कर सकता है या फिर वह स्वयं केबल ऑपरेटर पर कार्यवाई कर
सकता है। जबकि मंत्रालय इसकी सूचना प्राप्त होने पर लाइसेंस के शर्तों के आधार पर
सीधे चैनल का लाइसेंस ही रद्द कर सकता है। हालाँकि केन्द्रीय सरकार, केबल
टेलीविज़न नेटवर्क (विनियमन) अधिनियम, 1995 में इसके अन्य दण्ड विधान 21वीं सदी के
पहले दशक में इसमें किये गये तमाम संशोधनों तक बहुत जाहिर नहीं होते हैं। इसलिए बेहद
आसान होगा अंधविश्वासों वाले इन धारावाहिकों पर नियमन लगाना यदि केबल टेलीविज़न
अधिनियम में इसके संबंध में कुछ और सुधार कर लिए जाएँ या अंधविश्वास बढ़ाने वाले इन
चैनलों पर कड़ी कार्यवाई के कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जायें। इन पर क़ानून बनाये
जायें। वरना इसे हल्के में लेना एक दिन समाज के साथ-साथ सरकार में बैठे लोगों को
भी भुगतना पड़ सकता है।
Tuesday, 25 September 2018
Tuesday, 4 September 2018
पिया संग रास…
छविः साभार |
• अमित राजपूत
पिया संग रास रचाओ गोरी
जिमि मन भर रंग बरसाओ
गोरी
पिया संग रास…
नव कलरव नव मीत मिले हैं
द्रुमदल सज धज मस्त खिले
हैं
मद नव डूबी मंद हवाएँ
बतिया तनी तो बढ़ाओ थोरी
पिया संग रास…
चहुँ ओर धूरि गुलाल उड़त
है
फगुन मास तन मधु ही झरत
है
मिल सखि साजन चाँदनी
रतिया
प्रीत की गाँठ लगाओ डोरी
पिया संग रास…
काजर नैनन सँइया जी लखत
हैं
छुअत अंग जिया वेग बढ़त
है
कटि कर जकर पियासी रैना
छक गटक गटक के तलक भोरी
पिया संग रास…
Tuesday, 21 August 2018
कसीदाकार...
• अमित राजपूत
चित्रः साभार |
तैं का जानन...
तैं का जानन
लागन रिमझिम,
दिन गुजरत कइसे
हैं मोरी पियु बिन।
टप-टप मन सुलगाए
हाय राम...
साँस चलत हैं गिन-गिन।
तैं का जानन...
बदरा भवानी जउन
दिन लई आवा,
मोंहिंका सवनवा
चित नहीं भावा।
बाँसुरी कउन बजाए
हाय राम...
नाच उठा मन धुन बिन।
तैं का जानन...
हाल परदेसिया के
सुन ना रे भइया,
देहिंया जुड़ाये कइसे
घरै मोर गुँइया।
काहे दहिजरऊ चिढ़ाए
हाय राम...
मार के बइठूँ कस निज मन।
तैं का जानन...
रनिया की धज लख
उरज की रेखा,
कटि करधन लच
बीच सुरेखा।
मन-उपवन महकाए
हाय राम...
सपन लगत अब उन दिन।
तैं का जानन..
मोर हिंया तो अब
लागै न दीदा,
आगी लगे रे
बरि जाये कसीदा।
बूँदा जियरा जलाये
हाय राम...
मन अकुलाने खिन-भिन।
तैं का जानन...
तैं का जानन
लागन रिमझिम,
दिन गुजरत कइसे
हैं मोरी पियु बिन।
टप-टप मन सुलगाए
हाय राम...
साँस चलत हैं गिन-गिन।
Sunday, 12 August 2018
ऐलान-ए-रब्त...
• अमित राजपूत
आँखों से हर्फ़ लिख्खा है दिल में किसी ने
सरेराह रुककर,
ऐलान-ए-रब्त का फ़तवा किया है किसी ने
मगर छुपकर।
जो मेरे दीद में कडुवाहट भरी है
उजासी पीप सी पीली-पीली
रोशनी जाती है कभी फिर तेज़ चिरागाँ,
लौ जले हैं नीली-नीली
हाय मंज़र ये देखूँ कैसा दिन में चाँदनी सा
उलझूँ रात में फिरूँ हमराज़ होकर
आँखों से हर्फ़ लिख्खा है दिल में किसी ने
सरेराह रुककर,
ऐलान-ए-रब्त का फ़तवा किया है किसी ने
मगर छुपकर।
वो कहते क्यों नहीं हैं बतला दें मुझे
हर्फ़-ए-ग़लत हूँ तो यक़ीनन झुठला दें मुझे
मौजूद हैं वो हर एहसास तेरे आगे
अब ज़रूरत क्या बची है जो दिखला दें तुझे।
सच कह गये पीर ओ फ़कीर दो पल की ज़िंदगानी में
खड़े हैं महकते हमाम में सब बेपर्दा होकर।
आँखों से हर्फ़ लिख्खा है दिल में किसी ने
सरेराह रुककर,
ऐलान-ए-रब्त का फ़तवा किया है किसी ने
मगर छुपकर।
रब का वास्ता है सुनो दिलबहार यार
लाज़िम है इश्क़, मोहब्बत, प्यार
यार बंद कर खिड़कियाँ, रोशनदान सारे
अकेले घुप्प कमरे में आख़िर करोगी कैसे इज़हार
आफ़रीन कहलाओ रूबरू-ए-यार बोलो..
हया छोड़ो, आज कह दो
ज़रा खुलकर।
आँखों से हर्फ़ लिख्खा है दिल में किसी ने
सरेराह रुककर,
ऐलान-ए-रब्त का फ़तवा किया है किसी ने
मगर छुपकर।
Thursday, 2 August 2018
परमेश्वरी...
•
अमित राजपूत
चित्रः साभार |
भाग-1
इकबार परमेश्वरी अबला बन
पहुँची जाकर अवपीड़न वन,
व्यवहार कुटिल पशुवत पाकर
कहती अबला य बला मत बन।
भ्रकुटि दुष्ट की केश झरोखे
डसने जो लगी करिया सा फन,
तब काँप उठी देवी निढाल
तब काँप उठा नारी का मन।
मैं बात बताता तमस रात्रि
चीत्कार उठा यौवन सा तन,
न कोई उसके निकट दिख रहा
लुटने को पड़ा रक्तिम सा बदन।
बदहोश होश को लगा ठिकाने
फिर चाल चली थी नारी,
हाथ जोड़ दोनों आपस में
बोली- विनती सुनो हमारी।
अट्टहास कर गरजा फिर वो
जैसे शिवभक्त दशानन,
बावरी मुरइली शिरोधरा को
छूने लाया आनन।
आनन-फानन उसे झटककर
अनुग्रह तज मीनाक्षी,
गाड़के नैना उसके नैना
स्वयं की बन गयी रक्षी।
बाँध जटा अपनी उठ गयी
ले कुँडल कवच सिधारी,
गड़ा दृष्टि भँउहन में उसकी
कहती सुनो हमारी...
याचना नहीं अब होगा रण,
फिर याद रखेगा तू ये क्षण।
क्षण अभी शुरू हो युद्ध न कल
हा हा कायर!
हा हा रे विकल!!
भाग-2
फाड़कर लोचन को
सोचन क्या लाग है,
डर गई मैं
काँप-काँप थर थरा थरा थरा।
हट फट झट,
देख सर फरा सरा सरा...
चीर चीर देख मोर चीर
चीर खोल लोचन को,
गंध मोर अंग खुले
सुर सुरा सुरा सुरा...
ढील छोड़ी काली तोरी
बह चला पूरा पूरा।
ओ रे सठ!
देख लट्ठ सी भुजंग मोर है
साँझ ढली ज़िंदगानी तोर है
मेरे यहाँ भोर है।
मैं चेतना
जगाऊँगी
राग गुनगुनाउँगी
डमरू मैं बजाउँगी
नाद भरती जाउँगी
डमड् डमड् सुनाउँगी
मैं दंभ तेरा खाऊँगी।
देख, कर
में कोई अस्त्र नहीं
बाजू भी नेक शस्त्र नहीं
मुझसे कभी तू त्रस्त नहीं
त्रासदी ले लाउँगी
जो ख़ुद को मैं जगाउँगी।
ख़ामोश जो वो स्त्री नहीं
प्रचंड हूँ
कराल हूँ
मैं काल विकराल हूँ।
लिखुँगी अपनी अस्मिता
विरक्त हूँ
उन्मुक्त हूँ
विभक्त किंतु तुझसे नहीं।
सार है तू मेरा
तेरी शक्ति मैं अपार हूँ
सवार हूँ मैं ख़ुद में
तुझमें जीवन का सार हूँ।
मैं बार-बार कहती तुझसे
पूरा संसार हूं।
हाँ, पूरा
संसार हूं।।
मैं पूरा
संसार हूं।।।
Subscribe to:
Posts (Atom)