Wednesday, 4 December 2019

रुस्वाइयाँ

PC: MattAbraxas


जाकर कोई कह दो उन्हें,
अब ख़्यालों में न आया करें!
रुस्वाइयाँ होंगी बहुत, तो हुआ करें।
कह दो...
हम उन्हें भूल जायें इसकी भी दुआ करें।


खिलेगा चमन...

चित्रः साभार


खिलेगा चमन, ग़ुलिश्ताँ में रंग आयेगा
न होगी तूबा भर, ग़ज़ब का ढंग आयेगा।
चोखा चढ़ेगा रंग, भले ही धीमे-धीमे
होगी पूरी बारात, चाहे न कोई संग जायेगा।
खिलेगा चमन...
खिलेगा चमन, ग़ुलिश्ताँ में रंग आयेगा।

Thursday, 31 October 2019

स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार की पहली हक़दार फ़्रेडरिक इरीना ब्रूनिंग को बधाई!



• अमित राजपूत
बुधवार 30 अक्टूबर, 2019 को जैसे ही स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार की घोषणा हुयी देश-दुनिया में गाय और गो-सेवा के प्रति लोगों का नज़रिया बदलने लगा। वास्तव में गो-सेवा को लेकर अभी इतना ही नहीं, बल्कि गहरे रोमांच की ज़रूरत है। कम से कम भारत में तो यक़ीनन इसकी बेहद ज़रूरत है और स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार इसके आरम्भ की बहुत ही सुनियोजित और दिलचस्प शुरुआत है। यह पुरस्कार दो श्रेणियों गो-सेवा और शिक्षा के क्षेत्र में दिया जा रहा है। इसमें गो-सेवा के क्षेत्र में पुरस्कार की श्रेणी अपने आप में विशिष्ट श्रेणी है, क्योंकि गो-सेवा विशेष के लिए अब तक इस तरह का कोई भी पुरस्कार चलन में नहीं है।

स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार भारत के पहले गेरुआ वस्त्रधारी सांसद और अभूतपूर्व सन्यासी स्वामी ब्रह्मानंद के नाम पर इस साल उनकी 125वीं जयंती-वर्ष से गो-सेवा और शिक्षा के क्षेत्र में विशिष्ट कार्य करने वाले भारतीय और गैर-भारतीय नागरिकों को प्रत्येक वर्ष प्रदान किया जायेगा। जहाँ तक मुझे ख़बर है कि स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार प्रत्येक वर्ष त्यागमूर्ति स्वामी ब्रह्मानंद जी की जयन्ती 4 दिसम्बर के दिन लोधेश्वर धाम, राठ (उत्तर प्रदेश) में दिया जाया करेगा। यदि फ़्रेडरिक का वहाँ आना संभव न हो पाया तो समिति उन्हें उनके आश्रम जाकर शनिवार, 23 नवम्बर, 2019 को सम्मानित कर सकती है।

इस स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार में अवॉर्डी को 10,000 रुपये जो कि भविष्य में बढ़ाये भी जा सकते हैं, धातु विशेष का पदक, स्टेचू, सनद और अंगवस्त्र प्रदान किया जायेगा। इस पुरस्कार का प्रयोजक लक्ष्य(लोधी क्षत्रिय एम्प्लॉइज़ एंड इंटलैक्चुअल्स एसोसिएशन) नाम का ग़ैर-सरकारी संगठन है।


मेरे लिए निजी तौर पर यह बेहद दिलचस्प बात है कि स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार का आरम्भिक पुरस्कार जिन फ़्रेडरिक इरीना ब्रूनिंग को दिया जा रहा है मैं उनका प्रस्तावक हूँ। मेरे प्रस्ताव को स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार समिति ने सर्व सम्मति के साथ स्वीकार किया मैं इस समिति के प्रत्येक सदस्य का हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।

इस साल की स्वामी ब्रह्मानंद अवॉर्डी फ़्रेडरिक के बारे में बताऊँ तो सु श्री फ़्रेडरिक इरीना ब्रूनिंग का जन्म 02 मार्च, 1958 को जर्मनी के बर्लिन शहर में हुआ है और अब ये 61 वर्ष की हैं। साल 1978 में जब ये 20 वर्ष की किशोरवय थीं तो पर्यटन के उद्देश्य से भारत आयी हुयी थीं, जिसके बाद से ये हमेशा-हमेशा के लिए भारत में रच-बस गयीं और ब्रज को अपनी साधना का केन्द्र बनाया। बीते 41 सालों से यहाँ रहकर फ़्रेडरिक भारतीय अस्मिता को आत्मसात कर रही हैं और पिछले 25 सालों से अनवरत गायों की देखभाल और उनकी सेवा के प्रति पूरी तरह से समर्पित हैं।

इन्होंने उत्तर प्रदेश के मथुरा में कोन्हई गाँव के पास एक राधा सुरभि गोशाला बनाई है, जहाँ ये लगातार लगभग डेढ़ हज़ार गायों की सेवा करती हैं। जिन गायों की सेवा में फ़्रेडरिक लगी हैं, वे सभी ग़ैर-उपादेय यानी कि सामान्यतः लोग जिन्हें ग़ैर-ज़रूरतमंद समझते हैं मसलन जो दूध नहीं देतीं उन गायों का पालन-पोषण करती हैं। इनमें ज़्यादातर बूढ़ी, बीमार, रोगी, घायल और कमज़ोर गायें शामिल रहती हैं। अपने सम्पूर्ण जीवनवृत्त में अब तक इन्होंने लाखों गायों की सेवा का पुण्य लाभ उठाया है।


इन गायों की देखभाल के लिए सु श्री फ़्रेडरिक को लगभग 25-30 लाख रुपये मासिक का खर्चा आता है, जिसे ये प्रमुख रूप से बर्लिन में स्थित अपनी पुश्तैनी संपत्ति से वहन करती हैं। शेष उन्हें लोगों का सहयोग भी प्राप्त होता है। गो-सेवा के प्रति सु श्री फ़्रेडरिक की दीवानगी ऐसी है कि इन्होंने इसके लिए अपनी तरुणाई समेत पूरा जीवन इसमें खपा दिया, यहाँ तक कि इन्होंने विवाह भी नहीं किया बावजूद इसके कि वह अपनी माँ-बाप की इकलौती संतान हैं।

इनके ऐसे प्रेरणादायी कार्य के लिए लोग इन्हें बछड़ों की माँ कहते हैं और ये ब्रज समेत पूरे भारतवर्ष में सुदेवी दासी या सुदेवी माता के नाम से पुकारी जाती हैं। इसलिए, गो-सेवा के क्षेत्र में सु श्री फ़्रेडरिक इरीना ब्रूनिंग के द्वारा किए गये अद्वितीय, अप्रतिम एवं अनुकरणीय कार्यों और उनके विशिष्ट प्रयासों हेतु उन्हें जो आरम्भिक स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार मिला है असल में उसकी पहली हक़दार वो ही थीं। अतः मेरी ओर से स्वामी ब्रह्मानंद पुरस्कार की पहली हक़दार फ़्रेडरिक इरीना ब्रूनिंग जी को कोटि-कोटि बधाई!

Thursday, 24 October 2019

सावरकर नहीं, विद्यार्थी के नाम पर ही बन सकती है भारत रत्न की बात!

चित्रः साभार
• अमित राजपूत

हाल ही में बीते विधानसभा चुनावों में महाराष्ट्र-भाजपा की ओर से उनके चुनावी घोषणा-पत्र में विनायक दामोदर सावरकर को भारत रत्न दिये जाने के लिए मांग का ऐलान करते ही देशभर में सावरकर को लेकर बहस छिड़ गयी। इसके बरक्स दो दिनों पहले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कानपुर में एक जनसभा को संबोधित करते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी को भारत रत्न दिये जाने की अपनी मांग रख दी और उसके कारण भी बताये। इस प्रकार, भारत रत्न के प्रस्ताव हेतु महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के पास अपने-अपने विभूति क्रमशः सावरकर और विद्यार्थी हो गये हैं।
मुख्यमंत्री बघेल ने कानपुर में सार्वजनिक रूप से यह प्रस्ताव रखा कि भारत रत्न देना ही है तो आजादी के लिए लड़ने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी को दिया जाये। इस पर उनका तर्क था कि सावरकर को मानने वाले लोग वैचारिक असहमति होने पर बांटने की और प्रतिशोध की राजनीति करते हैं। लेकिन वहीं गांधी और गणेश का भारत अहिंसा का भारत है। इस प्रकार, हमारे पारंपरिक राष्ट्रवाद में असहमति को पूरा स्थान मिलता था। जबकि सावरकर के पैरोकारों में यह परंपरा निर्वहन नहीं करती है। गणेश शंकर विद्यार्थी के बारे में बघेल ने जो दीगर महत्वपूर्ण बात कही जो कि अन्य कांग्रेसी नेता अब तक नजरअंदाज़ करते आये हैं वह ये कि उन्होंने स्पष्ट रूप से रेखांकित करते हुए कहा कि गणेश शंकर विद्यार्थी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष (यूनाइटेड प्रोविन्स यानी यूपी के) रहे थे।

वास्तव में बघेल का गणेश शंकर विद्यार्थी को लेकर दिया गया इस तरह का बयान उनके विरोधियों द्वारा उनकी पार्टी के शीर्ष प्रतीकों की वैचारिक हड़प की शैली पर अवरोध पैदा करने के तौर पर भी देखा जा सकता है। यह बघेल का एक अच्छा पॉलिटिकल डिफेन्स है, क्योंकि गणेश शंकर विद्यार्थी के बारे में अब तक स्वयं काग्रेस पार्टी द्वारा भी यह प्रमुखता से रेखांकित नहीं किया जाता रहा है कि वह यूपी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे हैं, लेकिन देश में चल रही राजनैतिक तासीर को समझते हुए बघेल ने एक अच्छा दांव खेला है।
भूपेश बघेल के पास गणेश शंकर विद्यार्थी को भारत रत्न दिये जाने के पीछे कई सारे तर्क हैं और वो सभी उनके राजनीतिक विरोधियों की विचारधारा पर प्रहार करते हैं। बघेल ने सबसे पहला तर्क यह दिया है कि गणेश शंकर विद्यार्थी जोकि कांग्रेस के बड़े नेता थे उन्होंने भगत सिंह को अपने नज़दीक रखा जबकि भगत सिंह वामपंथी विचारधारा के थे। बावजूद इसके उन्होंने भगत सिंह को दो महीने अपने घर पर रखा। इतना ही नहीं उन्होंने भगत सिंह को अपने प्रतिष्ठित अख़बार प्रतापका कॉरेन्पॉन्डेंट भी रखा था। बघेल बताते हैं कि यह असहमति का सम्मान है, जो अब ख़त्म हो गया है। इस बहाने बघेल यह भी बताने की कोशिश कर गये कि कांग्रेसियों की विचारधारा असहमति का सम्मान करने की रही है और है, जबकि उनके विरोधी असहमति की राह पर चलते हैं।

असहमति का सम्मान करके के एवज में गणेश शंकर विद्यार्थी का वास्तव में कोई सानी नहीं था। सन् 1915 में होम रुल लीग के प्रभारी रहे विद्यार्थी ने जब फतेहपुर में कांग्रेस की नीव डालने पर विचार किया तो उग्र क्रान्तिकारी तेवर वाले घोर राष्ट्रवादी और राम चरित मानस के पक्के वाचक झंडा गीत की रचना करने वाले श्याम लाल गुप्त पार्षद को सबसे पहले अपने क़रीब रखा और उनके नेतृत्व में फतेहपुर कांग्रेस के गठन का काम आगे बढ़ाया। इसके बाद भी जिन दो लोगों को विद्यार्थी ने पार्षद जी के साथ लगाया उनमें फ़तेहपुर के दो नामी वकीलों बाबू उमाशंकर व बाबू वंशगोपाल को भेजा। इन दोनों में बाबू उमाशंकर आर्य समाज के परम उपासक और स्पष्ट रूप से दक्षिणपंथी विचारधारा वाले नेता थे और गांधीवादी बाबू वंशगोपाल घोर कांग्रेसी नेता थे। ऐसे में गणेश शंकर विद्यार्थी में वैचारिक असहमति के बाद भी लोगों को साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति का पता चलता है।

इसके अलावा भारत रत्न देने की बात यदि राष्ट्रवाद के नाम पर ही हो तो भी लोगों को यह ध्यान में रखना होगा कि गणेश शंकर विद्यार्थी को संगठित राष्ट्र का बीज बोने वाले नेता के तौर पर भी देखा जाता है। ऐसे में बहुत हद तक इसमें कोई दो राय नही है कि गणेश शंकर विद्यार्थी को भारत रत्न दिये जाने के प्रस्ताव को दक्षिणपंथी धड़ा नकार पाये, क्योंकि वह कहीं न कहीं विद्यार्थी की विचारधारा और उनके कार्यों की सराहना करती आयी है। इसमें सबसे दिलचस्प तो यह रहा कि यूपी की मौजूदा योगी सरकार ने साल 2017 में अपनी सरकार बनाने के महीने भर के भीतर ही गणेश शंकर विद्यार्थी की कर्मभूमि कानपुर के चकेरी हवाई अड्डे का नाम बदलकर या नामकरण कर गणेश शंकर विद्यार्थी हवाई अड्डा कर दिया था। ये संकेत बताते हैं कि दक्षिणपंथियों को विद्यार्थी के नाम पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। इसलिए जब बात सहमति की ही होगी तो सावरकर से अधिक गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम पर ही भारत रत्न दिये जानने की आम सहमति बननी चाहिए।

इस प्रकार, वास्तव में वैचारिक शून्यता के दौर से गुजर रही कांग्रेस पार्टी के लिए भूपेश बघेल की ये धारा उनकी पार्टी को राजनीति की ख़तरीली लहरों से निकालकर साहिल तक पहुँचा सकती है, जहाँ से उनकी पार्टी फिर से अपनी कश्ती को एक नए सफर के लिए बेहतर ढंग से तैयार कर सकती है।
(लेखक अंतर्वेद प्रवरः गणेश शंकर विद्यार्थी पुस्तक के लेखक हैं)

Tuesday, 1 October 2019

काले मेघों की व्यथा



अमित राजपूत
समेटकर ऐब दुनिया के
चलते हैं जो
जाकर मिलते हैं
थके हारे
बाप सा पाकर पोषक
ममता माता सी
देखकर मिल जाते हैं जहाँ
उस ठौर से
करते हैं याचना
बताते हैं उलझनें
कितनी भरी पड़ी हैं उनमें।

फिर रोते हैं
तड़पते हैं
बदन नीला होने तक
काल बनते हैं ख़ुद के
और उड़ जाते हैं इस दुनिया से
अचानक
पल भर में
आग़ोश में ले लेते हैं
काले मेघों से चितधारी
जिनके पास है पूरा आकाश
लिहाजा ये सेते हैं
लेकर दुःखों का अर्क
ये काले मेघ
सोचते हैं
उतारें बोझ
या ढोते रहें इनको?

कोसते हैं दुनिया वाले
गरियाते हैं
जो अइबी हैं
बरसते क्यों नहीं हैं
ये काले मेघ
स्वयं भी यही सोचते हैं
क़द्र तो है नहीं किसी को
फिर क्यों उढ़ेलूँ
अपने मारफ़त
किसी के दुःख भरे एहसास।

अंत में बरस जाते हैं
देकर चोट पर चोट
लहूलुहान होते हैं
अपनी छाती पर भारी पत्थर मार
काले मेघों की व्यथा
यही है।

Tuesday, 10 September 2019

क्या यूँ ही भुला दिये जाएँगे स्वामी ब्रह्मानंद



• अमित राजपूत
स्वामी ब्रह्मानंद भारतीय संसद के पहले गेरुवा-वस्त्रधारी सांसद थे। ये पहली बार साल 1967 में चौथे लोकसभा चुनाव में जनसंघ पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतकर संसद पहुँच थे। इसके बाद लगातार दूसरी बार पाँचवी लोकसभा में ये कांग्रेस पार्टी के टिकट पर पुनः सांसद रहे। इस प्रकार, ये सन् 1967 से 1977 तक लगातार सांसद रहे। एक सामान्य संसद सदस्य से इतर जब कोई सन्यासी लोकसभा में बैठता है तो इसके क्या मायने निकलते हैं इस बात को स्वामी ब्रह्मानंद की लोकसभा में उपस्थिति का अध्ययन और विश्लेषण करके समझा जा सकता है, जिनके सरोकारों से देश आज भी दो-चार हो रहा है, जिन्हें सिद्ध किया जाना बाक़ी है।

वैसे तो आधुनिक भारत के इतिहास में महात्मा गाँधी के बाद स्वामी ब्रह्मानंद ही एकमात्र ऐसे भारतीय संत हैं, जिन्होंने अपनी समस्त आध्यात्मिक ऊर्जा का रचनाधर्मी प्रयोग जन-कल्याण के लिए किया है, अतः इन्हें कभी नहीं भुलाया जा सकता। लेकिन फिर भी दो प्रमुख कारणों की वजह से स्वामी ब्रह्मानंद को आने वाली पीढ़ियाँ कभी नहीं भुला सकती हैं। पहला, शिक्षा के लिए किये गये उनके भागीरथ प्रयासों और दूसरा, गौ-रक्षा आंदोलन में उनकी भूमिका के लिए। इनके जैसे सन्यासी के लिए ऐसा कर पाना इसलिए संभव हुआ क्योंकि स्वामी ब्रह्मानंद ऐसे संत रहे हैं, जिन्होंने अखाड़ा, आश्रम, परिषद या ऐसी किसी भी संस्था में रहकर ख़ुद को क़ैद नहीं किया। इन्होंने अपने सन्यास जीवन के आद्यान्त अपने आप को समाजिक सरोकारों से जोड़े रखा और समाज की आवश्यकताओं के लिए ही सदैव जूझते रहे।

बुंदेलखण्ड में उत्तर प्रदेश के जनपद हमीरपुर की तहसील सरीला के बरहरा गाँव में 4 दिसंबर1894 को पैदा हुए स्वामी ब्रह्मानंद ने महज 23 वर्ष की अवस्था में वैराग्य लेकर सन्यासी के रूप में बारह वर्षों तक पूरे देश का भ्रमण किया। इस दैरान इन्होंने देश के जनवासियों की भावनाओं और उनकी समस्याओं को जड़ से समझा और पाया कि कुल समस्याओं की जड़ लोगों की अशिक्षा ही है। लिहाजा इसके लिए इन्होंने काम करना शुरू किया और फिर ख़ुद को इसमें झोक दिया। परिणाम स्वरूप इन्होंने सर्वप्रथम पंजाब में हिन्दी पाठशालाएँ खुलवायीं। बीकानेर सहित राजस्थान के कई जल-विहीन क्षेत्रों में बड़े-बड़े तालाब खुदवाये तथा किसानों और दलितों के उत्थान के लिए अनेक संघर्ष किये।

 शिक्षा के प्रति ये बेहद रचनात्मक और गम्भीर थे। सांसद रहते हुए इन्हें जो धन मिलता था उसकी पाई-पाई शिक्षा के लिए दान दे देते और ख़ुद भिक्षा माँगकर खाते थे। अपने पूरे सन्यासी जीवन में इन्होंने कभी भी अपने हाथ पैसे की एक फूटी कौड़ी तक नहीं हुयी। अपने पूरे धन को ये शिक्षा के लिए दान कर देते थे। स्वामी ब्रह्मानंद ने हमीरपुर के राठ में साल 1938 में ब्रह्मानंद इंटर कॉलेज़1943 में ब्रह्मानंद संस्कृत महाविद्यालय तथा 1960 में ब्रह्मानंद महाविद्यालय की स्थापना की। इसके अलावा शिक्षा प्रचार के लिए अन्य कई शैक्षणिक संस्थाओं के प्रेरक और सहायक रहे हैं। वर्तमान में बुंदेलखण्ड के भीतर स्वामी ब्रह्मानंद के नाम पर कई कॉलेज और अनेक स्कूल संचालित किये जा रहे हैं। शिक्षाजगत में इनके सराहनीय योगदानों से प्रभावित होकर उत्तर प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री रहे चन्द्रभानु गुप्त ने एक सार्वजनिक समारोह में स्वामी ब्रह्मानंद को ‘बुंदेलखण्ड मालवीय’ की उपाधि से संबोधित कर सम्मानित किया था। इसके बाद से इन्हें बुंदेलखंड के मालवीय के तौर पर भी जाना जाता है।

अपने दौर में स्वामी ब्रह्मानंद गौ-हत्या को लेकर चिंतित रहने वालों में सबसे आगे थे। साल 1966 में हुये अब तक के सबसे बड़े गौ-हत्या निषेध आंदोलन के ये जनक और नेता थेजिसमें प्रयाग से दिल्ली के लिए इन्होंने पैदल ही प्रस्थान कर दिया थाजिसमें इनके साथ कुछ और भी साधु-महात्मा थे। इनके नेतृत्व में गौ-रक्षा आंदोलन के लिए निकले जत्थे ने सन् 1966 की राम नवमी को दिल्ली में सत्याग्रह किया। सत्याग्रह के समय तक इनके साथ सत्तर के दशक में 10-12 लाख लोगों का हुजूम जुट गया थाजिससे तत्कालीन सरकार घबरा गयी और फिर स्वामी ब्रह्मानंद को गिरप्तार कर तिहाड़ जेल भेज दिया गया था।

वास्तव में गौ-वंश के प्रति इनके समर्पण का अंदाज़ा आप उनकी इस बात से ही लगा सकते हैंजिसमें उन्होंने कहा था कि “गौ-वंश की रक्षा के लिए मैं सब प्रकार का त्याग करने को तैयार हूँ। यहाँ तक कि मैं अपने प्राणों की आहूति भी दे दूँगा।” 

स्वामी ब्रह्मानंद का विराट व्यक्तित्व ही था कि उ. प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने इनके जन्मस्थान पर इनकी मूर्ति स्थापित की और उनके गाँव बरहरा का नाम बदलकर स्वामी ब्रह्मानंद धाम तथा विरमा नदी पर बने मौदहा बाँध को स्वामी ब्रह्मानंद बाँध के नाम से विभूषित किया। इसके अलावा भारत सरकार ने भी स्वामी ब्रह्मानंद के जीवन से प्रेरित होकर इनके 13वें निर्वाण दिवस यानी कि 13 सितम्बर, 1997 को उनके सम्मान में एक विशेष डाक टिकट जारी किया।

ध्यातव्य है कि ये साल 2019 स्वामी ब्रह्मानंद की 125 जयन्ती का वर्ष है, जिसका हम सभी को उत्सव मनाना चाहिए। इसके लिए हमें देश के सुदूर और उपेक्षित इलाक़ों में शिक्षा कैसे पहुँचे, इसके लिए विभिन्न पहलुओं पर विचार करना चाहिए तथा देश में गौ-रक्षा के प्रति सामाजिक और विधायी स्तर पर क्या किया जाये इस पर व्यापक विचार करके उसे आगे बढ़ाना चाहिए। यह नागरिक-समाज और सरकार दोनों ही स्तर पर आपेक्षित है। स्वामी ब्रह्मानंद की 125वीं जयन्ती वाले इस वर्ष यही उनके लिए सच्ची श्रृद्धांजलि होगी।

लेकिन हैरानी है कि न तो जनसंघ की विचारधारा को आगे बढ़ा रहे दल और न ही कांग्रेस पार्टी के लोग दोनों ने स्वामी जी को एकदम से भुला दिया है। ऐसे में यही माना जा सकता है कि निष्काम कर्मयोगियों के त्याग और उनके कर्म को पूजने वाला ये देश स्वार्थ और लोभ के बुरे चंगुल में जा फँसा है। चूँकि स्वामी ब्रह्मानंद बेहद स्पष्टवादी थे, लिहाजा आज भी उन्हें कोई पचा नहीं पा रहा है यथा अपने संसदीय दौर में भी जैसे स्वामी जी को कोई नहीं पचा सका। यहाँ इस बात का ज़िक्र ज़रूरी हो जाता है कि स्वामी जी ने जनसंघ से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस को क्यों ज्वाइन कर लिया था।

 दरअसल, साल 1966 के गौ-रक्षा आंदोलन ने स्वामी जी को देशभर में विख्यात कर दिया था। आम जन में स्वामी जी के प्रति अगाध श्रृद्धा जाग उठी थी। इसीलिए जनसंघ ने इस बात का भरोसा देकर कि वह गौ-रक्षा के लिए स्वामीजी को संसद के भीतर सहयोग करेंगे, यदि वह जनसंघ से चुनाव लड़ें। लेकिन उन्हें क्या पता था कि संसद के भीतर तो सभी राजनैतिक रोटियाँ सेंकते हैं और अपना उल्लू-सीधा ही करते हैं। इनके साथ भी वही हुआ। जब स्वामीजी ने संसद के भीतर गौ-रक्षा पर अपना ऐतिहासिक भाषण दिया तो जनसंघियों ने अपनी चुप्पी साधे रखी। इस बात से स्वामीजी ख़ासा नाराज़ हुये। जनसंघ के प्रति रुष्ठ होने का यह पहला कारण था।

दूसरा, जब कांग्रेस ने सदन में बैंको के राष्ट्रीयकरण का मुद्दा उठाया तो जनसंघ ने इसका विरोध किया लेकिन स्वामी ब्रह्मानंद ने अपने विवेक का परिचय देते हुए इसे राष्ट्रहित में बताया और इंदिरा सरकार का समर्थन किया। इसके बाद तो जनसंघ और स्वामी ब्रह्मानंद के बीच दूरियों की लकीर खिंच गयी। लेकिन इंदिरा गाँधी स्वामीजी की तरफ़ खिची चली आयीं और फिर न सिर्फ़ स्वामी ब्रह्मानंद को वह कांग्रेस में ले आयीं बल्कि हमेशा स्वामीजी का मार्गदर्शन लेकर काम करती रहीं।

हालाँकि आज स्वामी ब्रह्मानंद को भुला देने में सबसे अव्वल कांग्रेस पार्टी ही है, जबकि भाजपा से कहीं न कहीं स्वामी जी के सिद्धान्त मेल खा जाते हैं। लेकिन भाजपा ने भी उनसे दूरी बना रही है। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि भाजपा की फ़ायर ब्रांड माने जाने वाली नेत्री उमा भारती के राजनैतिक गुरू स्वामी ब्रह्मानंद ही थे। लेकिन उमा भारती को भी जिस ज़ोरदार तरीक़े से स्वामी ब्रह्मानंद के प्रति आस्था प्रकट करनी चाहिए वह हमेशा ही ऐसा कर पाने में नाकाम ही रही हैं। 

अब जबकि स्वामी जी की 125वीं जयन्ती का वर्ष है तब भी उनका कोई अता-पता नहीं है। उन्होंने जैसे गंगा के साथ सुलूक किया वैसा ही उमा भारती का सुलूक अपने गुरू के प्रति भी दिख रहा है। जबकि स्वामी जी का समाज के प्रति त्याग, प्रेरणा और उनका बलिदान इतना विराट है कि न सिर्फ़ भाजपा और कांग्रेस बल्कि सभी को उनकी शिक्षाओं और सिद्धान्तों का पालन करके आगे बढ़ना चाहिए। इनमें भी उन लोगों को तो ऐसा हर हाल में करना ही चाहिए जो आज की संसद में गेरुआ वस्त्र धारण करके सदस्य बने बैठे हैं। ऐसे सांसदों के लिए स्वामी ब्रह्मानंद का व्यक्तित्व गीतासार जैसा है।

बहरहाल, अब सवाल यह है कि क्या भारतीय संसद का पहला गेरुआ-वस्त्रधारी सासंद जिसकी समावेशी रूप से उपादेय भूमिका बतौर संत भी रही और बतौर सांसद भी, यूँ ही भुला दिया जायेगा? नहीं...! चाहिए तो यह कि स्वामी ब्रह्मानंद की 125वीं जयन्ती को कांग्रेस और भाजपा सहित पूरी संसद ज़ोरदार तरीक़े से मनाये और उनके बताये रास्तों पर चले... उनकी दूर-दृष्टि का मनन करे।

 लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है, जिस पर अनेक लोगों से बात करने पर एक जो बहुत बड़ा कारण स्पष्ट हुआ वह यह कि स्वामी ब्रह्मानंद एक ब्राह्मण सन्यासी थे। इन लोगों का ऐसा भी मानना है कि चूँकि स्वामी जी हर प्रकार की लॉबी से मुक्त मुखर व्यक्तित्व के धनी थे, इसलिए भी हर तरफ से इनके प्रति कोई भी गर्मजोशी नहीं दिखाता। हालाँकि आज भी यही लोग स्वामी ब्रह्मानंद के नाम का भरपूर उपयोग करते रहते हैं। इनके चूल्हे आज भी स्वामी ब्रह्मानंद के नाम पर गर्म होते रहते हैं... धधकते रहते हैं, जिन पर मघा की धार गिरनी चाहिए।

Wednesday, 28 August 2019

बीछी का भ्रूण


• अमित राजपूत
स्टेंसिलः शिवाजी सिंह
बीछी के भ्रूण सा
भय
भर गया है मुझमें!

अब तलब को ठीक था
सटीक था
अस्तित्व मेरा
ज्यों बढ़ा
भीतर तेरे
भयभीत था
ये जानकर जाना
कि लड़ पड़ूँगा
अपने ही मीत से।
जीतेजी सब मर गया है मुझमें
बीछी के भ्रूण सा
भय
भर गया है मुझमें!

प्रश्रय दिया तूने मुझे
मिलाया गेह से
सँवारा नेह से
बताकर जीना मुझे
पीना सिखायी उलझन
सिखाया ठाठ से जीना
कमीना मैं
भला
स्वयं को पाऊँ कैसे
कैसे करूँ
अपना विस्तार
पार पाऊँ कैसे
तुझसे
उलझूँ
या चीर जाऊँ तुझको...
हे राम!
कहो...
मैं गर्भपात पाऊँ
या युक्ति दो
स्वयं को कैसे मिटाऊँ
अब थिर नहीं मुझमें
क्योंकि
बीछी के भ्रूण सा
भय
भर गया है मुझमें!

आशना में जा सना हूँ
पर, हैं मुझमें
उड़ ही जाऊँ...
या समेटे स्नेह-रज
वहीं गोता लगाऊँ
पर कहो तुम ही भला
रति में श्रृंगार ना पाऊँ
तो समझो
बीछी के भ्रूण सा
भय
भर गया है मुझमें!

रहना है
या नहीं रहना
लिए संशय इसी का
सोचता हूँ
कोसता हूँ
द्वंद्व को
हल करूँ कैसे
मौत तो निश्चित है
तेरी
या मेरी
मति में
कौंधती है इक बात
कहीं निर्वेद में
शान्ति ना पाऊँ
तो समझो
बीछी के भ्रूण सा
भय
भर गया है मुझमें!