Monday, 15 February 2021

नेह का प्रस्त्रवण

 

Paint by: Eimiel

तुम नदी हो,

पर समंदर मैं कहाँ हूँ!

प्रस्त्रवण हूँ नेह का

मैं हूँ जहाँ हूँ।।

 

हैं किनारे बैठकर

तेरे भला कितने पियासे!

छक गये हैं लोग कितने

र गये कितने रिसाते।

ख़ुद में डुबोया

जितनों को तूने

मर गये

क्या प्रेम पाते!!

खोजता हूँ नेह मैं

नेहा भला कैसे हो तुम!

माँ कहाती जिस बला से

प्रेम-वत्सल ढूँढ़ता हूँ...

प्रस्त्रवण हूँ नेह का

मैं हूँ जहाँ हूँ।।

तुम नदी हो,

पर समंदर मैं कहाँ हूँ!

 

है नदी ना प्रेम की

ना ही समंदर प्रेममय।

एक गहरे में डुबोती

एक में ना कोई लय।

है प्रलापी भी जलधि

कि वो विपुल

उसकी भी जय।

कह रहा हूँ जान लो तुम

प्रेम से ख़ाली हैं दोनों

ना ये दाता, ना ही ग्राही

प्रेम का इनमें है भय।

आओ... मिलकर दूँ सुकून

भीग लो मुझमें ज़रा

प्रेम का जीवंत 

क्योंकि मैं बयाँ हूँ...

प्रस्त्रवण हूँ नेह का

मैं हूँ जहाँ हूँ।।

तुम नदी हो,

पर समंदर मैं कहाँ हूँ!

तुम नदी हो,

पर समंदर मैं कहाँ हूँ!

प्रस्त्रवण हूँ नेह का

मैं हूँ जहाँ हूँ।।

अमित राजपूत

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