Tuesday, 9 February 2021

ला हलाहल भी गटक लूँ...

 

चित्रः साभार

मैं किसान हूँ करता मेहनत,

फिर भी भूखों यार जरूँ।

ला हलाहल भी गटक लूँ,

मैं मनाही कब करूँ।।


भोर में उठकर खेत को जाता,

चउवन को चारा खिलवाता।

जो कबार मिलता ले आता,

बेच-बिकनकर कउड़ी पाता।।

कउड़ी-दउरी जोड़-गाँठ ली,

इतने भर से कसत तरूँ...

ला हलाहल भी गटक लूँ,

मैं मनाही कब करूँ।।


ये है कोठियों में अन्न भरा

जब तुम सुतासे हम न सोए।

चूँसे पाथर धोए-धोए,

हिम-शिखर पर फूल बोए।

हम किसान हैं खपे रहे पर

दर्द उठा तो कभी न रोए।

तोड़के ताले देख गोदामें

सड़ा पड़ा हो अन्न-धान्य तो और भरूँ...

ला हलाहल भी गटक लूँ,

मैं मनाही कब करूँ।।


तुम विधायी हो क़सम से, चूतिया हो

दूध ऐसा कब पिए जो दूधिया हो!

देश की मिट्टी में घुलता जा रहा है ज़हर

याद कर लो जो कृषक को कुछ दिया हो।

कृषि-कृषक-पशुधन का चक्रण खो गया है

जब तुम विधायी हो, क़सम से चूतिया हो।

हाँ, पता है त्योरियाँ मुझको तुम्हारी क्या-क्या हैं

खेत में तो मर रहा हूँ, किन्तु तुमसे भी डरूँ।

रोज़ तिल-तिल कर मरूँ...

ला हलाहल भी गटक लूँ,

मैं मनाही कब करूँ।।


मैं किसान हूँ करता मेहनत,

फिर भी भूखों यार जरूँ।

ला हलाहल भी गटक लूँ,

मैं मनाही कब करूँ।।

∙ अमित राजपूत

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