कच्ची थीं उँगलियाँ वो तेरी
जिनसे कउर पकाया।
इकलौता चिराग़ था रौशन
ऊपर झीना साया।।
थका नहीं तू, डरा
नहीं तू
टूटा नहीं कभी मन...
जियो अमन! जियो अमन!! जियो अमन!!!
थामा नहीं किसी ने तुझको
गिर-गिर उठा उठाया।
भद्र कहूँ या कहूँ अभद्र
जिन-जिन नें तुझे छकाया।।
करी बेगारी फिर भी तूनें
कौड़ी मिली, मिला
न धन...
जियो अमन! जियो अमन!! जियो अमन!!!
शोषण और दमन भी झेला
स्पर्धा का ऊपर रेला।
भीड़ छाँटकर बढ़ना ही था
जब चलना था चला अकेला।।
चरैवेति हे! चरैवेति से
जीत लिया रे अंतर्मन
जियो अमन! जियो अमन!! जियो अमन!!!
∙ अमित राजपूत
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