Sunday, 2 October 2022

साँझ गुलाबी...

 


अर्रे धीमे-धीमे इश्क़ में गुइयाँ शर्माती है।

हाय! इनकी शरारत साँझ गुलाबी कर जाती है।।

 

स्निग्ध लताएँ पक जाती हैं

गुच्छे डलियाँ लद जाती हैं

सौ-सौ बार मरन हो अपना

ऐसा प्रिय-वो मुसकाती हैं

मधुरेचक इतने मँड़राते...

सारी गलियाँ थक जाती हैं।

धीमे-धीमे... (1)

 

बदरे उमड़-घुमड़ करते हैं

जाने क्या बेताबी है

आफ़ताब की चौखट बैठे

मौसम कुछ मेहताबी है

सुन्दर गंध सुहानी इतनी...

जान चली ही जाती है।

धीमे-धीमे... (2)

 

आसमान में आग लगी है

बुझती नहीं बुझती है

जो पीड़ा तपती है मन में

यूँ ही बरन-न जाती है

गिरे झमाझम बारिश ऐसे...

कुल-बगिया सुलगी जाती है।

धीमे-धीमे... (3)

-अमित राजपूत

Friday, 9 September 2022

अवधी गीत: तुम बिन जी...

चित्र: साभार

शेर
दिल से दिल लगाया, दिल को जीने ना दिया!
दिल्लगी दिल से ना की, हमको मरने ना दिया!!

गीत
तुम बिन जीऽ नहीं, जाये गुजरिया!
सच कहूँ मान, रे हाय सुपिरिया!!

नित-नित इत-उत, कहाँ मँझाऊँ!
चैन ना कतो ढिग, कहाँ को जाऊँ
तड़पूँ अस जस, जेठ मछरिया!!
तुम बिन... (१)

सरपत जइसे, चाक करत है,
जइसे रहि रहि, घाव सरत है!
वइसे तिन-तिन, जिगर झरत है
हाल कहूँ अरु, का रे दुलरिया!!
तुम बिन... (२)

अपने गत की, आप मालकीं,
मोरे गति की, तुमहिं सारथी!
कहो उतारूँ, नित्य आरती,
केहु पट चैन न, तोहे सुथरिया!!
तुम बिन... (३)

-अमित राजपूत

Saturday, 3 September 2022

ग़ज़ल



हुस्न-ए-साक़ी के अलावा, अच्छा क्या है
बज़्म से दूर चला जा, याँ रक्खा क्या है

थक गया हूँ पीते-पीते, जाम मय-कदों के मैं
महबूब के लब से कोई जाम अच्छा क्या है

टूटकर अपने को चाहा ही नहीं जब
ज़िन्दगी से फिर तेरा रिश्ता क्या है

जब तिरा अक्स उभरता ही नहीं
तो आइने में तिरा चेहरा क्या है

जब मेरे ख़्वाबों में तू आती ही नहीं
फिर मेरी आँखों में ये सपना क्या है

तुन्द लहजे से बात करते हो क्यों
बात में नरमी नहीं, तो लहजा क्या है

जब हवा आती नहीं घर में तिरे
फिर तिरी दीवार में रख़ना क्या है

ज़ीस्त में इंसान के तूफ़ान होना चाहिए
बिन तलातुम मौजों का बहना क्या है

-अमित राजपूत

बज़्म से दूर चला जाये...



 हुस्न-ए-साकी के अलावा, अच्छा क्या है!
बज़्म से दूर चला जाये, यहाँ रक्खा क्या है!!

थक गया हूँ पीते-पीते, जाम इन मय-कदों के!
क़ायदे से कोई, नया जाम लाया जाये।
उतरे नहीं नशा, कोई ला पिला दे ऐसी,
इन घूँट-घूँट झूठे, इंतेज़ाम में क्या रक्खा है...
बज़्म से दूर चला जाये, यहाँ रक्खा क्या है!! (१)

हुस्न-ए-साकी के अलावा, अच्छा क्या है!
बज़्म से दूर चला जाये, यहाँ रक्खा क्या है!!

तसव्वुफ़ का मकाँ माना, ऐ जाना! बादाख़ाना है- मगर
तलातुम ज़िन्दगी में हो, तो मैख़ाने सुहाते हैं कहाँ,
चले आओ! चलें हम-तुम लड़ाते जाम अपना हैं
बाक़ी झाम दुनिया के, यहाँ रक्खा क्या है...
बज़्म से दूर चला जाये, यहाँ रक्खा क्या है!! (२)

हुस्न-ए-साकी के अलावा, अच्छा क्या है!
बज़्म से दूर चला जाये, यहाँ रक्खा क्या है!!

मज़ा है बैठकर पीना, सनम के पहलुओं में म्याँ
मगर पहलू पिया का बैठकर, पीने को मिलता है कहाँ!!
लबों से इक जो प्याला, कर दिया जूठा,
तो दूजे बर्तनों की चाह में रक्खा क्या है...
बज़्म से दूर चला जाये, यहाँ रक्खा क्या है!! (३)

हुस्न-ए-साकी के अलावा, अच्छा क्या है!
बज़्म से दूर चला जाये, यहाँ रक्खा क्या है!!

-अमित राजपूत

Tuesday, 30 August 2022

चउदा ईंटन का बोझ

 


काम पकरि लेव, लगि लेव धंधे
तजि माया अरु लोभ!
उमर बीस बीती है जब से,
सुना रहे हैं लोग!!

 

सुना रहे हैं लोग समय है बुरा ज़माना,
दिल्ली जाकर देखो ख़ाली पड़ा ख़ज़ाना।
सड़े पखाने जइसी क़िस्मत लेकर
ना रोना ऐ लोग...!
काम पकरि लेव, लगि लेव धंधे
तजि माया अरु लोभ!!
उमर बीस बीती है जब से... (१)

 

एक गिद्ध जऊँ नोच के खाता,
कोऊ-कोऊ खाता, नहीं बताता।
इन-दोऊ गिद्धन केर मेर बराबर
करि लेव चाहे शोध...
काम पकरि लेव, लगि लेव धंधे
तजि माया अरु लोभ!!
उमर बीस बीती है जब से... (२)

 

बाप खवाएन दही औ माठा
हमको चउआ दुहेन न आता।
बाप बराबर कभौ न होइहौ
पकिरौ आपन-आपन माथा।।
लपकौ चाकरी छोर छोकरी
आलस छोरि सुबोध...!
काम पकरि लेव, लगि लेव धंधे
तजि माया अरु लोभ!!
उमर बीस बीती है जब से... (३)

 

करौ सिलाई चहे कढ़ाई
कढ़ाई पे चाहे तलौ पकउरा।
नीकेन कहने प्रधान प्रवर हो!
सबेन मा गरुवाई पखउरा।
पढ़े क कहतें कहाँ से भैवा
ख़ुदौ तो चहिए बोध...
काम पकरि लेव, लगि लेव धंधे
तजि माया अरु लोभ!!
उमर बीस बीती है जब से... (४)

 

कविन की मानौ बुइया बच्चा
करौ पढ़ाई तो अच्छेन अच्छा।
नहीं तो चुप्पे उद्दिम पकिरौ
खइहौ रोज़ पराठा लच्छा।
बात करू है, सुनि लेव बाबू!
समझो नहीं विनोद...
बहुत गरू होता है पीठ पर
इन चउदा ईंटन का बोझ!! (५)


-अमित राजपूत

Thursday, 18 August 2022

सावन, संगम और शिव

चौदहवीं की साँझ काली

संग साक्षी पीहू आली!

क्या ग़ज़ब श्रृंगार करके

आ खड़े हैं मेघ देखो;

हाय! देखो उनके श्री से

आसमाँ पे कृष्ण-लाली!!

 

ये जो सावन रुक गया है

रुक गये हैं शिव के नंदी!

गिर बने बादल खड़े हैं

उनके पीछे अर्क बंदी!!

 

दृश्य गोचर जो बना है,

वो अगोचर अनजना है!

हाय! पर्वत है लुभाता

मेघों का जो तन तना है!!

 

मानों उनकी ओट लेकर

'मित्र'वर मुँह धो रहे हैं!

साँझ माता हकबकाती

थार नूतन सज रहे हैं!!

 

वासुकी वायव्य-गिर पर

जा खड़े हैं तनतनाते!

ज्येष्ठश्री नैऋत्य के गण

मंजरीयाँ लहरहाते!!

 

कुल सकल तीरथ...

दरस करने कहो क्या आ गये हैं!

जान पड़ता तीर्थसंगम में अमावस-

पूर्वसंध्या को स्वयं शिव आ गये हैं!!

 • अमित राजपूत





Wednesday, 8 June 2022

उतान सोने...

चित्रः साभार


ज्येष्ठ मास रीती सरिताएँ,

रीते मन के क्षोभित कोने!

सुलग रही हैं दसों दिशाएँ,

चली चंचला उतान सोने!!

 

ठुमुक-ठुमुककर बत्तखों जैसी,

चाल भवानी की मतवाली!

गदरानी कुम्हलाती बाँहें,

कमसिन है पर दिखती आली!!

लाल आलता पाँव परा है

चला जा रहा क़िस्मत खोने...

सुलग रही हैं दसों दिशाएँ

चली चंचला उतान सोने!! (१)

 

विंध्य की छाती रौंद रही वो,

पाठा पाँव बढ़ाये जाये!

एक छुटंकी संग लियो है,

गोया, जैसे उसकी धाय!!

राजकुमारी सी बलखाती

जा रही जोगन ख़ुशियाँ बोने...

सुलग रही हैं दसों दिशाएँ

चली चंचला उतान सोने!! (२)

 

लाल-अँगरखा पूरा-पूरा,

सिर पर टोपरा भूरा-भूरा!

भूरे टोपर पर जो धन है

चार-ठो चोंथी, नहीं अधूरा!!

 

क्या कहने हैं दृश्य निराला,

अभी-अभी ही चाँद झरा है!

उस चपला का मुख तो देखो,

मानों कुल महताब धरा है!!

 

विस्तृत खेतों में इक कुल है,

गोबरधन का ढेर विपुल है!

चपला ने इत-उत नहिं देखा,

उस पर लाकर तसला फेंका!!

धाय उठाकर तसले को निज

कटि-प्रदेश में जकड़ा।

राजकुमारी राजतरंगिणी

देखो अपनी सुध में!

चित्त परी खेतन में ऐसे,

भाड़ में जाये लफ़ड़ा!!

 

आज सुहावन दृश्य है कैसा!

मिट्टी में ख़ुशियाँ हैं सारी।

गोबरधन में धूर मिली जो

धूर भी सोना हो गई सारी!!

 

मिट्टी में जो चित्त परा है,

चित्त सकल कुल देह भरा है!

हे! हे चंचला!! धन्य हो तेरा,

तुझसे जीवन पाठ पढ़ा है!!

छोड़ सकल मिथ्या सुख साधन

क्या पाने-क्या खोने!

मइया की गोदी में मंगल

चला-मैं उतान सोने!!

-अमित राजपूत