•अमित राजपूत
भूख लगी जग को जब भी ऐंठन उदर में भयी,
क्षुधा और ऐठन को शान्त करें रोटियां।
मां-बहन औ चाची-ताई रोटियां खिलाती हमें,
पर इनकी तब्दीली को कहां बची हैं
बेटियां।।
मुंडेरे बैठी बूढ़ी दादी भीतर को ताक रही,
आकर
के झट से अब कौन गुथे चोटियां।
जाने
कितनी सिसकियों में छाती को वो पीट रही
ढूंढ़
लाओ फिर से, जो ग़ुम गई हैं बेटियां।।
अम्ल का प्रहार सोच, सोच अपनी कुंठा तू
गर्भपात के नहर में बह गई जो लोथियां।
तूने उनको मारा है, तूने ही सताया उन्हें
दामिनी क्या याद तुझे, याद हैं वो
बेटियां।।
अम्मा तेरे आंगन में जाने
कैसा शोर है ये,
कौन
किसको दाबे-मारे, कैसी लूटा-घसोटियां?
आड़ में जो लाज के लाश कर दिया जिन्हें,
कौन
थीं वो पूज्यनीय फिर बुलाओ बेटियां।।
आज जहां देखो हाहाकार, हाहाकार-हाहाकार
है,
हाहाकार के ही मातहत बघार रहे सेखियां।
मर्दानामय समाज नीच नोच रहा बोटियां
क्योंकि जाना नहीं इसने क्या होती हैं ये
बेटियां।।
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