भारत के ऋषियों-मनीषियों के अनुसार मानव के
जन्म का प्रमुख उद्देश्य परम-तत्व की प्राप्ति है, जो संयम के तमाम सोपानों से
प्राप्त होती है। सच तो ये है कि जिसके पास संयम नहीं हैं, उसके पास कुछ भी नहीं
है। संयम से ही रुप, रस, गंध, स्पर्श आदि में रची-बसी इन्द्रयों पर काबू पाया जा
सकता है। इन्दियों के जाल से निकले बग़ैर परम-तत्व के पथ की यात्रा नहीं हो सकती,
कारण ये है कि इन्द्रियों का काम ही मानव-मन को विषयों वासनाओं में भटकाए रखना है।
विषयों में भटका मन कभी शान्त नहीं हो सकता और अशान्त मन से परम-तत्व के पथ पर
यात्रा नहीं हो सकती।
पर, क्या वास्तव में इंद्रियां मानव-मन को
विषयों में उलझाए रखती हैं.. ? या फिर मन विषयों में भटकता हुआ इंद्रियों का उपयोग
साधन के रूप में करता है? क्या संयम का
अर्थ इंद्रियों पर काबू पाने केलिए इंद्रियों को दबाना है...?
नहीं! असफ़ल साधकों के बारे में इतिहास गवाह
है, कि दमन से हम कहीं नहीं पहुंचते है, बल्कि ऐसे मकड़जाल में उलझ जाते हैं,
जिससे हम आजीवन निकल नहीं पाते। विषय-वासना, उच्चाकांक्षा को दबाने का परिणाम कई
गुने वेग से सामने आता है, जिसकी प्रतिछवि हमें दूषित सपनों के रूप में स्पष्ट
दिखाई देती है। इसीलिए जो संसार से भागते हैं, उनके सपनें तक संसार से भर जाते हैं।
वास्तव में संयम का अर्थ दमन नहीं है, बल्कि दो
अतियों के बीच तराजू के कांटे की तरह ठहर जाना है। मन सतत् यात्रारत रहते हुए दो
अतियों में डोलता रहता है, किन्तु मध्य में ठहर जाना उसका स्वभाव नहीं। मध्य में
ठहरते ही मन की मृत्यु हो जाती है और हमें वो संतुलन उपलब्ध हो जाता है, जिसे हम
संयम कह सकते हैं। इस शान्त मनःस्थिति में मन के सारे विचार रुक जाते हैं और हम
परम शान्ति को पा लेते हैं।
No comments:
Post a Comment