Monday, 7 November 2016

तुझे पाने की साज़िश

• अमित राजपूत

इक साज़िश के तहत
तुझे पाने की कोशिश की है
ज़माना फ़िक्र करता कहां किसी का
तूने मुझे महबूब से मिलाने की कोशिश की है
इक साज़िश के तहत
तुझे पाने की कोशिश की है।

ज़र्रा-ज़र्रा बिखर रहा है
तूफ़ानों की तेज़ी है
मैं पात हुआ अंटका संग तेरे
ठिठुरती रातों में
तूने भी जलाने की कोशिश की है
इक साज़िश के तहत
तुझे पाने की कोशिश की है।।

मेरे इश्क ने सदा तुझसे
दूरियों की इबादत की है
छाया रूह की तेरी
फिर क़ायम इश्क में हो जाये
दर पर इश्क के मिले शोहबत तुझे
उसकी मिन्नतें कर हज़ार कोशिश की है
इक साज़िश के तहत
तुझे पाने की कोशिश की है।

तुझमें जो मेरा अक़्स छुपा बाक़ी है
कुरेंदूं कैसे बाज़ारू औज़ारो से
मोहतरम हो हरम मेरी
ज़िन्दगी को देनी है ज़िन्दगी यही
अमानत अपनी संजोने की कोशिश की है
इक साज़िश के तहत
तुझे पाने की कोशिश की है
ज़माना फ़िक्र करता कहां किसी का
तूने मुझे महबूब से मिलाने की कोशिश की है।।


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