Sunday, 31 December 2017

सिमटना चाहता हूँ

• अमित राजपूत


सिमटना चाहता हूँ
बज़्म से निरा दूर
ख़ुद में
ढूँढ़ना चाहता हूँ
परत-दर-परत
हर्फ़-हर्फ़
समेटकर
गढ़ना चाहता हूँ
शब्द
कोई अपने लिए
रचना चाहता हूँ
नज़्म
जिसे गाऊँ सारी रात
बंद कमरे में
अंधेरा बहुत है
पता है मुझे
कालिख़
कितनी जमी है
ज़िन्दगी में
धुँआ ही धुँआ है
आफ़ताब से दूर
किसी वन में
अपने मन में
सिमटना चाहता हूँ ।

सीलन भरी ज़िन्दगी से दूर
हाल-ए-अशुफ़्ता से
लाने नूर
जाना चाहता हूँ
क़ायनात तलक
मुट्ठी भर तूबा
अपने धर्म की
बिखेरने
वहाँ भी
बज़्म से दूर
निरा दूर
सिमटना चाहता हूँ
ख़ुद में
तलाशना चाहता हूँ
नई क़ायनात
फिर से
सिमटना चाहता हूँ
ख़ुद में
सिमटना चाहता हूँ ।

Saturday, 30 December 2017

मेरे सपनों का उत्तर प्रदेश

अमित राजपूत


                           मैं उत्तर प्रदेश को अपने जन्म से कई बरस पहले या फिर आप ये भी कह सकते हैं कि स्वयं उत्तर प्रदेश के ही जन्म से कई बरस पहले, बरसों बरस पहले से इसे जानता हूँ। वास्तव में उत्तर प्रदेश को लेकर मेरा अनुभव संसार ऐसा ही है और मैं इसी मीठे अनुभव संसार में ही बना रहना चाहता हूँ। यही कारण है कि जब-जब भी मुझे मेरे सपनों के उत्तर प्रदेश के बारे में कुछ कहने या लिखने को कहा जाता है तो क्रमशः मेरे बोल या कलम स्थिर हो जाती है और वह एक बार फिर झट से उसी मीठे अनुभव संसार में जाकर विचरण करने लगते हैं या लगती है। हाँ, कुछ ज़ोर देकर इस ओर प्रयास करने पर इसके तनिक बिम्बों को ही छुआ जा सकता है और मैं इतना ही कर पाता हूँ।

मेरे सपनों के उत्तर प्रदेश में सबसे पहले शान्ति है। यात्रा, लेन-देन, व्यापार, निर्माण, प्रगति और उत्सव इन तमाम चीज़ों में इनकी वाह्य हलचलों के भीतर एक शान्ति है। मैं एक ऐसे उत्तर प्रदेश का सपना देखता हूँ जहाँ बिसमिल्लाह ख़ाँ की शहनाई की तान से ही रोज़ बनारस के घाटों पर सुबह हो। लखनऊ की शाम में ढलते सूरज की लालिमा अपना रंग उन होठों पर लाली चढ़ा जाए, जिनसे हर रोज़ शेर-ओ-शायरियाँ झड़ती रहें। मेरे सपनों के उत्तर प्रदेश में घाघरा का विस्तार अपनी बाहें फैलाए तराई के बादलों से हर रोज़ आलिंगन करता है। ब्रज में बजती पाजेब से सुगन्ध उठती है मेरे सपनों के उत्तर प्रदेश में, जो वृन्दावन तक ख़ुशबू पैदा करती है। बुंदेली बुलाक पहने स्त्रियाँ लट्ठ को तेल पिलाकर काँछ मारे रंगभूमि में रंग बिखेरती हैं हर रोज़, मेरे सपनों के उत्तर प्रदेश में। इसके अलावा बहुत सी बातें हैं मेरे सपनों के उत्तर प्रदेश में जिन्हें मैं अधिक अनुभूतियोंवश कविता में कहता हूँ-

भारत के सौष्ठव कंधे सा
अविचल
अडिग
अनुबंधित हो
परे हो जग से
शोधित
मुखरित
हर पल
हर घट
पुलकित ऐसे
जैसे गगन के तारे
मानों जलता सा कोई पुंज
कुंज ऐसा
कि अंतस् सारे जल उठें भदेस
जीवित, ऐसा ही हो
मेरे सपनों का उत्तर प्रदेश ।

अँगना गोधन से सना
खेतों में बाजरे का घुनघुना
पोखर पंक से हो धना
गलियाँ गंध लिए पलास की
महके घना-घना
चिंघार यार बाघ सी
चिमनियाँ उदात्त सी
सार सड़क का लिए
धान्य का हो बन्ना
मुस्कुराहटें बिखेरता
रूप धरे वो भगेश
जीवित, ऐसा ही हो
मेरे सपनों का उत्तर प्रदेश ।

पलायन से मुक्त
देशी गायों का
स्वप्न लिए
घर वापसी की
परिणति के उत्सव में
मुग्ध
ताकि श्रम के
गुरू बनें
कौशल के
आनन्द में डूबे रहें
सदा के लिए
चित्तालय स्वच्छ हो
सक्रिय हों
स्वयं ही
सुख के कारक बनें
सत्य में
पुकारता है जनादेश
जीवित, ऐसा ही हो
मेरे सपनों का उत्तर प्रदेश ।

सुडौल काया युक्त हों
दो-आब की दूबर दोनों बहनें
दर्पण में निहारें
एक बार पुनः
महाजनपद
स्वरूप के गौरव से युक्त हों
यव, शाक, साँवा
बुलावा भेजा जाये
देवों को
सहदेशों को
संदेशों को
पहुँचाया जाये
चहुँदिश
चर्चाएँ हों
चक्रवर्ती हों
लगने लगें
हम अब धरा पर परेश
जीवित, ऐसा ही हो
मेरे सपनों का उत्तर प्रदेश ।

Sunday, 24 December 2017

प्रेम से विहीन परिवार

अमित राजपूत


देखा है मैंने
तड़पते छोरों को
नदी के किनारों को
मिलाने वाले जल बिना 
उलझनों के पहाड़ों को
निम्नगा हो जाते
प्रेम से विहीन परिवारों को 
देखा है मैंने ।


पवित्रता के स्वाँग में सजे
प्रेम से शून्य
मनुष्य को अधार्मिक करने वाले 
हिंसक बनाने वाले
अग्नि से ज्वलंत
जिसकी कालिख़ से हुए 
सबसे कुरूप संस्था को 
देखा है मैंने |

बेहद चर्चित व्यक्ति 
रहते हैं जहाँ
किन्तु
आन्तरिक परिचय से दूर
तड़पते व्यक्तित्व 
जिनकी ढेहरी
अधर्म पर खुलती है 
रोज़
अनाचार से
सींचते हैं रिश्ते 
बनाते हैं समाज वैसा ही
जहाँ हो व्यभिचार 
क़सम से..
वेश्याएँ पैदा करते हैं 
ऐसे परिवार 
देखा है मैंने ।


बेहद अनैतिक होते हैं 
परिवार
इनके उपक्रम
जहाँ है द्वेष
कलह ऐसी
के फिर भी हँसते हैं
झूठे चेहरे
लेकिन 
घरों के भीतर हैं आँसू
उपद्रव का अड्डा 
कामुक सम्बन्ध 
जिनके तुपकते जख़्मों से रसती पीब को
देखा है मैंने ।


बदबूदार गंध को लिए
महकती हैं स्त्रियाँ
ऐसे परिवारों में 
उनका लिंग तो सुडौल
भला
फिर भी 
उसे नष्ट करने को 
होती हैं आत्महत्याएँ
क्योंकि
उन्माद से भर जाती हैं स्त्रियाँ
रुग्ण होती हैं 
उनकी योनियाँ
धीरे-धीरे होती हैं
पागल
जो परिवारों के भीतर ही बनीं
भोगी गयीं
सिर्फ़ इसलिए 
कि वो स्त्री है
देखा है मैंने ।


उनकी याचना को
जब वो तलाशती हैं
प्रेम
ख़ुद का स्वरूप
हो जाना चाहती हैं कुरूप
बाहर निकलकर 
लुट जाने की अभिलाषा लिए
निहारती हैं
भटकती हैं दर-दर
कोसती हैं ख़ुद को
ख़ुदा को
अपने दुनियावी रिश्तों को
परिवार को
मानती ही कहाँ हैं
कभी माँगती ही कहाँ हैं
नेह की भीख
उन्हें भी कोई दे सकता है 
मान
सोचकर मसोसती हैं 
मन
परिवार में
ऐसे हर बार मरती हैं
स्त्रियाँ 
प्रेम की तलाश में 
देखा है मैंने 
प्रेम से विहीन परिवार ।



भ्रम...

अमित राजपूत


कोशिका संग रक्त सीने में, सो तेरा दिल धड़कता है,
तू ज़िन्दा है मेरी साँसों से, ये एहसास झूठा है।
है भारी भ्रम तुझे, के तुझको मेरी याद आती है,
न तेरा दिल तड़पता है, न मेरा दिल तड़पता है।



चमकदार क्राउन

अमित राजपूत



माना के चमकदार बहुत है क्राउन तुम्हारे तख़्त का
पर है होश भला तुमको, यहाँ क्लॉडियस हैं घूमते
बेताबी लिए किंग क्लॉडियस की, रोज़ पोलोनियस को हैं ढूँढ़ते
हेमलेट बनों साथी, वरना मारे जाओगे
बो रहे हो आम हाँ, पर बबूल ही पाओगे
किया जो घात किसी ओफ़ीलिया के बाप ने
तो ज़हर बुझी तलवार संग विष का प्याला पाओगे
बचा लो तख़्त
बनों सख़्त
वरना मुँह की खाओगे
सो मोड़ दो मुँह को, बदलते हुए वक़्त का
क्योंकि चमकदार बहुत है क्राउन तुम्हारे तख़्त का।

फ़क्र...

अमित राजपूत

हर फ़क्र से क़बूल करो तन
जो शय को भेंट किया उसने,
मयस्सर ही कहाँ किसी को
 ये तन भी ओ मौला...

Saturday, 9 December 2017

माँगा ज़रा सा नेह



अमित राजपूत
माँगा ज़रा सा नेह, हाय ये क्या कर गये ।
जागे थे जो अरमान यार, सब वे मर गये ।।

संसार झूठा, प्यार झूठा, अपने भी झूठे हो गए
कुमकुमी रिश्ते अनूठे, वो भी नूठे हो गए ।
कल तलक जो साँस थी, अपनी पराई हो गयी
खामखाँ रुख़सत वो होना, इक बुराई हो गयी
रूह तो सँग ले गए, अब अस्थि पंजर रह गये ।। जागे..

रवि-ओज में सँग रोज़ मुझको, वो नहाना याद है
हर मसखरी में नित सनम वो, खिलखिलाना याद है ।
बन गयी वो आग, जिससे आँव रिश्तों पर जमे
जल रहा है दिल मेरा, तन फूँकने की फरियाद है
चल रही साँसें मगर, हम जीते जी ही मर गये ।। जागे..

नन्हीं सी उस बगिया में, जहाँ फूल दिये थे लाल
तुमनें जो पौधा था रोपा, स्वयं दिया है टाल ।
रंग-बिरंगा चंद दिनों का, जीवन मालामाल
नज़र लगी क्या बुरी बला से, उजड़ चला संजाल
नींद सँग सपना भी टूटा, हाथ मलते रह गये ।। जागे..

मैंने रह-रह सुनना चाहा, लफ़्ज़ तेरे दो-चार
किया पराया फिर भी मुझको, झपट दिया दुत्कार ।
मस्त मचलती व्यस्त ही रही, बातें हुयीं हज़ार
फिर मैं भोर तड़पते देखा, कोई ढूढ़ रहा था प्यार
सुबह चमकते टिमटिम तारे, गुमसुम हो गये ।। जागे..

निष्ठुरता की मूर्ति बनीं तुम, शैल सभी पथराये
भंग मदार ओ चिलम धतूरे, ये सारे भरमाये
देख अनोखी चाल तुम्हारी, हम इतने बौराये
ख़ुद का रहा न होश हाय, हम किस पथ चलकर आये
अहो भाग्य मम वाह ! न जाने, दर तेरे कैसे आ गये ।। जागे..