Sunday, 31 December 2017

सिमटना चाहता हूँ

• अमित राजपूत


सिमटना चाहता हूँ
बज़्म से निरा दूर
ख़ुद में
ढूँढ़ना चाहता हूँ
परत-दर-परत
हर्फ़-हर्फ़
समेटकर
गढ़ना चाहता हूँ
शब्द
कोई अपने लिए
रचना चाहता हूँ
नज़्म
जिसे गाऊँ सारी रात
बंद कमरे में
अंधेरा बहुत है
पता है मुझे
कालिख़
कितनी जमी है
ज़िन्दगी में
धुँआ ही धुँआ है
आफ़ताब से दूर
किसी वन में
अपने मन में
सिमटना चाहता हूँ ।

सीलन भरी ज़िन्दगी से दूर
हाल-ए-अशुफ़्ता से
लाने नूर
जाना चाहता हूँ
क़ायनात तलक
मुट्ठी भर तूबा
अपने धर्म की
बिखेरने
वहाँ भी
बज़्म से दूर
निरा दूर
सिमटना चाहता हूँ
ख़ुद में
तलाशना चाहता हूँ
नई क़ायनात
फिर से
सिमटना चाहता हूँ
ख़ुद में
सिमटना चाहता हूँ ।

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