Sunday, 24 December 2017

प्रेम से विहीन परिवार

अमित राजपूत


देखा है मैंने
तड़पते छोरों को
नदी के किनारों को
मिलाने वाले जल बिना 
उलझनों के पहाड़ों को
निम्नगा हो जाते
प्रेम से विहीन परिवारों को 
देखा है मैंने ।


पवित्रता के स्वाँग में सजे
प्रेम से शून्य
मनुष्य को अधार्मिक करने वाले 
हिंसक बनाने वाले
अग्नि से ज्वलंत
जिसकी कालिख़ से हुए 
सबसे कुरूप संस्था को 
देखा है मैंने |

बेहद चर्चित व्यक्ति 
रहते हैं जहाँ
किन्तु
आन्तरिक परिचय से दूर
तड़पते व्यक्तित्व 
जिनकी ढेहरी
अधर्म पर खुलती है 
रोज़
अनाचार से
सींचते हैं रिश्ते 
बनाते हैं समाज वैसा ही
जहाँ हो व्यभिचार 
क़सम से..
वेश्याएँ पैदा करते हैं 
ऐसे परिवार 
देखा है मैंने ।


बेहद अनैतिक होते हैं 
परिवार
इनके उपक्रम
जहाँ है द्वेष
कलह ऐसी
के फिर भी हँसते हैं
झूठे चेहरे
लेकिन 
घरों के भीतर हैं आँसू
उपद्रव का अड्डा 
कामुक सम्बन्ध 
जिनके तुपकते जख़्मों से रसती पीब को
देखा है मैंने ।


बदबूदार गंध को लिए
महकती हैं स्त्रियाँ
ऐसे परिवारों में 
उनका लिंग तो सुडौल
भला
फिर भी 
उसे नष्ट करने को 
होती हैं आत्महत्याएँ
क्योंकि
उन्माद से भर जाती हैं स्त्रियाँ
रुग्ण होती हैं 
उनकी योनियाँ
धीरे-धीरे होती हैं
पागल
जो परिवारों के भीतर ही बनीं
भोगी गयीं
सिर्फ़ इसलिए 
कि वो स्त्री है
देखा है मैंने ।


उनकी याचना को
जब वो तलाशती हैं
प्रेम
ख़ुद का स्वरूप
हो जाना चाहती हैं कुरूप
बाहर निकलकर 
लुट जाने की अभिलाषा लिए
निहारती हैं
भटकती हैं दर-दर
कोसती हैं ख़ुद को
ख़ुदा को
अपने दुनियावी रिश्तों को
परिवार को
मानती ही कहाँ हैं
कभी माँगती ही कहाँ हैं
नेह की भीख
उन्हें भी कोई दे सकता है 
मान
सोचकर मसोसती हैं 
मन
परिवार में
ऐसे हर बार मरती हैं
स्त्रियाँ 
प्रेम की तलाश में 
देखा है मैंने 
प्रेम से विहीन परिवार ।



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